श्री भर्तृहरि जीवन चरित्र- जानें कैसे त्रय शतक की रचना हुयी ?bharthari ki katha bharthari life story

 श्री भर्तृहरि जीवन चरित्र

जानें कैसे त्रय शतक की रचना हुयी ?

श्री भर्तृहरि भारतीय संस्कृति के ध्रुव तारा हैं। मानव प्रकृति को यथावत् प्रस्तुत करते हुए, मनुष्य के जीवन का आदर्श मार्ग प्रशस्त करने में उनके ये शतक अनन्तकाल तक समाज को प्रेरणा देते रहेंगे। इसी मानवीय दृष्टिकोण से महाराजा भर्तृहरि को सारे विश्व का । आदर प्राप्त है।

भर्तृहरि को जनता ‘महाराजा भर्तृहरि’ के नाम से पहचानती है। 

आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भारतवर्ष की राजधानी उज्जयनी थी। जिसे आजकल उज्जैन कहते हैं। मालवा प्रान्त के महाराजा भर्तृहरि परमार वंशज थे और राजा विक्रमादित्य उनके छोटे भाई थे। 

प्रजावत्सल महाराजा भर्तृहरि महान् विद्वान, अद्वितीय कवि, वैयाकरणिक, दार्शनिक, पुरातत्वानुसंधाता, तत्ववेत्ता, तथा प्रकृति परीक्षण निपुण थे और उनकी न्यायप्रियता और प्रजाहितैषिता की चर्चा सारे भारत में थी। 

राजा के धर्मपरायण होने के कारण प्रजा भी धर्मात्मा थी। ठौर-ठौर पर यज्ञ और हवन होते थे। न्याय, नीति और धर्म पर चलने वालों के लिए महाराज जितने दयालु थे उतने ही  दुष्ट और अन्यायियों के लिए कठोर भी! सारांश ये है कि महाराजा को सभी उत्तमोत्तम राजोचित्त गुण विधाता ने दिये थे।

भर्तृहरि के छोटे भाई राजकुमार विक्रम भी बड़े भाई की तरह न्यायपरायण, धर्मात्मा और राजनीतिज्ञ थे। 

यह राजकमार विक्रम ही कालान्तर से प्रतापशाली महाराजाधिराज वीर विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्होंने भयंकर युद्धों में विदेशी आक्रमणकारियों को परास्त कर भारत की रक्षा की। 

इन्हीं के नाम से तिथि ज्ञान के लिए एक संवत्सर की प्रथा चलाई गई जो आज तक विक्रम संवत’ के नाम से पुकारी जाती है। सम्वत् के कारण राजा विक्रमादित्य का नाम चन्द्र दिवाकर के समान सदा अमर रहेगा।

भर्तृहरि के प्रसंग में विक्रमादित्य का नाम और विक्रमादित्य की चर्चा में भर्तृहरि का नाम कभी-भी अलग-अलग नहीं किया जा सकता। महाराज भर्तृहरि बड़े होने के कारण राज्य करते थे और विक्रमादित्य बड़े भाई के प्रधानमन्त्री का काम सम्भालते थे। 

दोनों भाईयों में बड़ा ही प्रेम और सद्भाव भी था। यद्यपि महाराज भर्तृहरि राजकार्य दक्ष थे तथापि उन्होंने राजकाज का विशेष भार विक्रम पर ही छोड़ दिया था।

 पिता जिस प्रकार सुपुत्र पर कार्यभार छोड़कर निश्चित हो जाता है उसी प्रकार भर्तृहरि, विक्रम पर राजकाज का दायित्व सौंपकर सुखी थे।

परमात्मा की इच्छा कहें या होनहार को कारण अथवा करमगति भी कह सकते हैं कि किसी बात ने दोनों भाईयों में मनोमालिन्य करा दिया। जिस बात को प्रजा ने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा या जिसका होना लोग असम्भव मानते थे, वही हुआ। सच है कि भावी बड़ी प्रबल होती है, होनी होकर रहती है। 

बात केवल मनोमालिन्य तक ही सीमित नहीं रही, भर्तृहरि ने अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को नगर से निकल जाने का आदेश दे दिया। क्यों?

महाराज भर्तृहरि के दो विवाह हो चुके थे। फिर भी किसी रूपलावण्य सम्पन्ना, परासुन्दरी, मनमोहिनी राजकुमारी ने उनकी तीसरी रानी होने का सौभाग्य प्राप्त कर लिया। 

इस नई महारानी का नाम पिंगला था। 

महारानी पिंगला के असाधारण रूपवती होने के कारण महाराज उस पर ऐसे मोहित हुए कि अपनी विद्या, बुद्धि, विवेक और विचार को जैसे उन्होंने ताक पर रख दिया; वे उसके क्रीतदास बन गये। 

भर्तृहरि की नकेल पिंगला के हाथों आ गई और महाराज बने उसके हाथों की कठपुतली। महारानी पिंगला जो चाहती थी वही महाराज से करवा लेती। रानी पिंगला ने भी ऐसा जादू कर दिया कि महाराज अपने होश-हवास खोकर पूरी तरह से उसके हाथों बिक गये।

किसी ने ठीक ही कहा है कि स्त्रियों के वश में होना सर्वनाश का बीज बोने के समान है पर इन मोहिनियों के आगे प्रायः सभी की अक्ल खराब हो जाती है। 

हम केवल भर्तृहरि को ही दोषी क्यों कहें, बड़े-बड़े योगी भी इन कामिनियों के मोहजाल में फँसकर अपना सब कुछ खो बैठे। 

मोहिनी के मोहन मंत्र में कौन नहीं फँसा? मोहिनी-शक्ति के आगे किसने हार नहीं मानी? यहाँ तक कि विश्वामित्र जैसे महर्षि भी मेनका के रूप-जाल में फँसकर अपना तप भंग कर बैठे! बड़े-बड़े शूरवीर जो संसार पर विजय प्राप्त कर सकते हैं वे भी इसके सामने कायर हो जाते हैं, तब फिर साधारण मनुष्यों की कौन-सी बात है?

ईश्वर ने भी स्त्रियों के साथ पक्षपात किया है। ये अबला कही जाने पर भी सबला हैं, गऊ होने पर भी सिंह हैं; कोमलांगी होने पर भी वज्रांगी हैं। जो काम बड़े-बड़े धनुर्धारी अपनी बाण-विद्या से नहीं कर पाते उन्हें ये अपने एक ही कटाक्ष से कर लेती हैं। 

जब कोई इनके वश में हो जाता है तो उसका ज्ञान काफूर हो जाता है और ज्ञान विहीन पति अपनी स्त्री के सामने पशुवत् होता है। 

इन मोहिनियों की अन्धभक्ति करने वालों को अन्त में दुःख, धोखा और विश्वासघात ही मिलता है। जो पुरुष स्त्रैण हो जाते हैं या जो इसे सिर पर चढा लेते हैं उन्हें ये खब, नाच नचाती हैं और स्वयं स्वतन्त्र होकर मनमाने दुष्कर्म करती हैं।

हमारे महाराज भर्तृहरि यद्यपि असाधारण विद्वान् और बुद्धिमान थे परन्तु भावी के वश होने के कारण उन्होंने शास्त्रोपदेश पर ध्यान न देकर महारानी पिंगला को सिर पर चढ़ा लिया था। 

हुआ यह कि महाराज को अपने ऊपर पूरी तरह से अनुरक्त पाकर उन्हें वह अपनी इच्छा के अनुसार चलाने लगीं। इतना ही नहीं निर्भय होकर वह कुकर्म करने से भी न चूकी।

उसने क्या कुकर्म किया? और उसका क्या फल हुआ? भगवान् रामचन्द्र जी विष्णु के अवतार माने जाते हैं वे कुटिया में सीता को अकेली छोड़कर स्वर्ण-मृग के पीछे धनुष-बाण लेकर भागे! साधारण मनुष्य भी यह जानता है कि सोने का हिरण नहीं तो फिर? 

जैसी भावी होती है, मनुष्य की बुद्धि भी वैसी ही हो जाती है। 

हमारे प्रातः स्मरणीय महाराज भर्तृहरि की बुद्धि भी यदि मारी नहीं जाती तो वे पिंगला के हाथों की कठपुतली न बनते, तो पिंगला व्यभिचारिणी न होती, वह व्यभिचारिणी न होती तो भर्तृहरि को वैराग्य कैसे होता और उन्हें वैराग्य न होता तो इस अद्भुत और महान् ‘शतकत्रय’ से भारतीय संस्कृति वंचित रह जाती। 

जगत् में जो कुछ होता है वह जगदीश की इच्छा से होता है और जगदीश जो करते हैं वह प्राणी की भलाई के लिए करते हैं। इसमें महाराज का भी बड़ा उपकार हुआ

 जिसकी तुलना नहीं की जा सकती। उनको संसार से विरक्ति न होती तो क्या आज उनका नाम जगत् में अमर रहता? उन्होंने जिस महाउच्च परमपद की प्राप्ति वैराग्य लेकर की उस तक वह कैसे पहुँचते? गोस्वामी तुलसीदास और भर्तृहरि दोनों के साथ ठीक एक ही सी घटना घटी। घटना क्रम में थोड़ा-सा अन्तर अवश्य है। लेकिन दोनों के अमर हो जाने का कारण है-केवल स्त्री!

तात्पर्य यह है कि अपनी प्राण-प्रिया के कुकर्म का हाल जानकर महाराज को ऐसी विरक्ति हुई कि वह राजपाट त्यागकर एक आदर्श योगिराज बने । महारानी जैसी रूपवती थी वैसी ही चालाक, मक्कार और दुश्चरित्रा भी थी।

 महाराज का कोई भी दोष न था। महारानी ऊपर से आपको चाहने का ढोंग करती रही और भीतर ही भीतर आप से उदासीन होकर अस्तबल के एक नीच दारोगा को चाहने लगी। 

महाराज जब महलों में आते तब वह अपने हाव-भाव और नाज-नखरों से उनका मन अपने वश में कर लेती और ये बात उसने बहुत दिनों तक महाराज से छिपाए रखी। महाराज तो यही समझते थे कि मेरी रानी सती साध्वी है पर उनके जाते ही दारोगा को बुलवाकर उसके साथ … ..। 

जब तक समय नहीं आया महारानी की कलंक-कथा छिपी रही। मनुष्य, मनुष्य के गुप्त कामों को नहीं देख सकता पर परमात्मा से कछ नहीं छिपाया जा सकता, आप अपने गुप्त काम तो क्या अपने दिल की बात भी भगवान् से नहीं छिपा सकते। जब तक उसकी इच्छा नहीं होती मनुष्य के कुकर्म छिपे रहते हैं। 

आदमी, आदमी की आँखों में धूल झोंक सकता है पर परमात्मा की आँखों में नहीं। आखिर यह पापलीला कब तक छिपी रहती? समय आते ही सबसे पहले इस पापाचार का पता राजकुमार विक्रम को लगा। लेकिन महाराज तब भी अँधेरे में ही थे।

भाभी के परपुरुषरता होने की बात जानकर विक्रमादित्य को असा मनोवेदना हुई। अपने उच्चकुल में दाग लगने और पूजनीय भाई की अनिष्ट की आशंका से उसका मन काँप उठा। विक्रम ने यह बात भाई से कहने का कई बार संकल्प किया पर वह महाराज का रानी पर निश्छल विश्वास और अटूट प्रेम देखकर कहने का साहस न कर सका। 

अनेकों बार सोचते-सोचते उसने रातें बिता दी कि वह यह बात महाराज को कैसे बताए? आखिर एक दिन मौका पाकर उसने महाराज को कहना शुरू कर ही दिया-“पूज्य भाई! आप सर्वप्रकार से चतुर और बुद्धिमान हैं, खूब होशियार भी हैं पर एक जगह पर आप धोखा खा रहे हैं, यूँ तो मेरा ऐसा कहना छोटे मुँह बड़ी बात करना है पर मेरी गति तो साँप छछून्दर जैसी हो रही है कि कहूँ तो खराबी और न कहूँ तो खराबी। 

कहने में आपसे बड़ा डर लग रहा हैं, न कहने में कुल पर दाग लग रहा है, बदनामी हो रही है; आशा है भी और नहीं भी कि आप मेरी बात का विश्वास करेंगे, दिल को बहुत रोका, समझाया पर न माना तो मजबूर होकर आपसे कहने का संकल्प किया है। 

सुनिये, मेरे बड़े भ्राता! क्या कहूँ, कहा नहीं जाता, पर दुविधा में कहना पड़ रहा है कि भाभी के सम्बन्ध में मैंने एक बहुत बड़ी पापाचरण की बात सुनी है, पर मैंने भी उसे केवल सुनकर ही सत्य नहीं माना है उसकी पूरी तरह से जाँच करके ही उस पर विश्वास किया है। 

आपसे मेरी विनीतरूप से यही प्रार्थना है कि आप सावधानी से चलें। महाराज, आप भाभी की माया में फँसकर शास्त्रकारों का यह उपदेश भूल रहे हैं कि स्त्रियों की बातों  में मधु और हृदय में हलाहल विष रहता है जो उनको केवल सती साध्वी समझे रहते हैं और जरा भी सन्देह नहीं करते वे बड़ी भूल करते हैं।”

भर्तहरि ने यह सब सुनकर भी विक्रमादित्य से कहा-“विक्रम! तुम्हें भ्रम हो गया है। 

पिंगला एक आदर्श नारी है। वह दिन रात मेरा ही जप, मेरा ही ध्यान करती है। वह मेरे ही सुख में सुखी और मेरे ही दुःख में दुःखी होती है। 

ऐसी पतिव्रता के माथे पर कलंक लगाकर तुम ठीक नहीं कर रहे। तुम्हारी बुद्धि विकृत हो गई है। यह जो तुमने एकबार कह दिया सो कह दिया पर दुबारा ऐसी बात मुँह पर लाने की कोशिश न करना। 

यह तो तुम भाई हो तो तुम्हें क्षमा कर रहा हूँ, कोई और होता तो अभी सूली पर टँगवा देता।” महाराज के इतना कहने पर भी विक्रमादित्य ने उन्हें बहुत समझाया, प्रमाण भी दिए पर, पिंगला के रंग में रंगे हुए महाराज पर कोई प्रभाव न हुआ। 

फिर जब विक्रमादित्य ने सुफल की कोई सम्भावना न देखी तो चुप रह जाना ही उचित समझा। मन ही मन शायद उसने यही समझ लिया कि समय आये बिना कोई काम सिद्ध नहीं होता।

उधर पिंगला को भी यह पता लग गया कि उसके पापकर्म का रहस्य विक्रमादित्य को मिल चुका है। उसने उसके लिए भी त्रिया चरित्र शुरू कर दिया। वह महाराज के प्रति पहले से भी अधिक प्रेम का प्रदर्शन करने लगी। 

जब उसे यह विश्वास हो गया कि महाराज के मन में उसके प्रति तनिक भी सन्देह नहीं है तो समय पाकर पिंगला ने विक्रमादित्य के विरुद्ध कान भरने शुरू किए-“महाराज, आप बुरा तो न मानेंगे, आपके भाई विक्रम का चरित्र कुछ अच्छा नहीं। 

मैं तो उसकी माता के समान हूँ परन्तु वह इस बात को न समझकर मुझे कुदृष्टि से देखते हैं। केवल यही नहीं, मैंने सुना है कि वह अपने नगर के एक प्रसिद्ध धनिक की पुत्रवधू पर भी आसन हैं। उन्होंने उसके लिए कई दासियाँ भी लगा रखी हैं पर वह अब तक उनके वश में नहीं आई इसलिए उन्होंने नगर-सेठ को धमकी भी दी है। 

मैं नहीं समझती कि यह बात कितनी सत्य है पर इस बात को नहीं झुठलाया जा सकता कि वह आपके नाम को मिट्टी में मिला रहे हैं। मैं तो केवल यही कहूँगी कि आप उन पर सावधानी से नजर रखें।”

पिंगला ने महाराज को तो यह कहा और उधर नगर-सेठ को बुलवाकर उसे कहा- “मैं जो जो तुम्हें कह रही हूँ वह तुम्हें करना होगा, नहीं तो तुम्हारी जान भी ले सकती हूँ। तुम्हारे बच्चों को कोल्ह में पिसवा सकती हूँ, और तुम्हारा कुछ न बचेगा।” मरता क्या न करता क्योंकि सारा नगर जान चुका था कि महाराजा पिंगला के हाथों बिक चुके हैं। वह जो काम करायेगी उसे ही महाराज भी करेंगे। अत: बहुत सोच विचारकर सेठ रानी की बातों पर राजी हो गया।

दूसरे दिन दरबार लगा! महाराज अपने आसन पर आसीन हैं; मन्त्री और दरबारी सब अपने अपने स्थान पर बैठे हैं। सभा अपनी पूरी शोभा से लगी हुई थी। अभी द्वार की ओर से एक व्यक्ति दुहाई-दुहाई’ का शोर करता हुआ अन्दर घुसा। 

महाराज ने उसे सामने बुलाकर उसकी बात पूछी तो उसने भरी सभा में कहना शुरू किया-“महाराज आपके छोटे भाई बड़े ही अत्याचारी अनाचारी और व्यभिचारी हो गये हैं” सेठ ने अभी इतना ही कहा कि महाराज के मन में पिंगला की बताई हुई सारी बात घूम गई उन्हें मन ही मन पिंगला पर और अधिक विश्वास गया। आखिर सेठ ने वही सारी कहानी दोहरा दी जो उसने बानी पिंगला से सीखी थी। 

क्योंकि रानी ने ये बातें पहले ही महाराज के दिल में बिठा दी थीं अतः उन्होंने सेठ पर भी कोई सन्देह नहीं किया। उनका चेहरा तमतमा उठा।

विक्रम भी उस समय राजसभा में ही बैठे थे वे ये सब कुछ सनकर समझ गये कि वह षडयन्त्र भी पिंगला का ही रचा हुआ है। विक्रमादित्य ने सेठ जी से कहा-तुम बुढ़ापे में झूठ बोलकर क्यों पाप का बोझ अपने ऊपर बढ़ाते हो।

 मैं तो तुम्हारी पुत्रवधू को जानता तक नहीं कि वह भली है या बुरी? मेरे लिए तो वह माता के समान है। आप यदि मेरे ऊपर व्यर्थ ही दोषारोपण करके अपना मतलब सिद्ध कर लेंगे तो इससे भी क्या होगा। 

सांसारिक धन-दौलत आपके संग न जायेगी। ये शरीर और ऐश्वर्य अनित्य है। अत: सेठ जी! धर्म को न छोड़ो, आप किसी से डर कर जो यह दोष मुझ पर थोप रहे हैं जब जाँच करने पर इसका भेद खुलेगा तो उस समय आपकी दशा क्या होगी? 

लेकिन विक्रम की बातें न सुनकर बीच ही में महाराज भर्तृहरि ने आवेश में कह दिया-रे नीच! रे पापी! तू मेरे सामने ज्यादा बातें बनाकर सच्चा होने की कोशिश न कर अब तेरी मक्कारी और धोखेबाजी न चलेगी। अगर अपने प्राणों की रक्षा चाहता है तो अभी यहाँ से काला मुँह कर जा। जल्दी ही मेरी आँखों के सामने से दूर हो जा। दूर हो मेरे सामने से ! दूर हो !!

विक्रमादित्य भाई की यह आज्ञा सुनकर बोला कि मैं तो अभी चला जाता हूँ पर आपने जो यह बात की बिना जाँच करवाये इक तरफा फैसला दिया है यह सरासर गलत है। 

आपको एक दिन पछताना पड़ेगा।आपका दिल मुझे याद करके रोयेगा। 

लेकिन परमात्मा आपका मंगल करे, सुबुद्धि दे और यह कहता हुआ विक्रम सभा भवन से निकलकर वन की ओर चला गया।

इस घटना को कई वर्ष बीत गये। भर्तृहरि के राज्य में ही नगर का एक दरिद्र ब्राह्मण, अपनी इष्ट सिद्धि के लिए किसी देवता की घोर आराधना कर रहा था। उसे तप करते हुए जब अनेक वर्ष बीत गये और तप के कष्ट से उसका शरीर एकदम कृष हो गया तब कहीं, जाकर उसके देवता का आसन हिला। 

देवता ने उस महातपस्वी के सामने प्रकट होकर कहा- “हे ब्रह्मण ! मैं तुम्हारे तप से बड़ा प्रसन्न हुआ हूँ इसलिए वरदान में तुम्हें यह एक फल देता हूँ। इसे तुम कोई साधारण फल न समझना। इस फल का नाम ‘अमर फल’ है इसके खाने वाले की मृत्यु नहीं हो सकती। जाओ, तुम इसे खाकर पृथ्वी पर अमर हो जाओ।” इतना कहकर वह देवता अन्तर्ध्यान हो गये।

ब्राह्मण उस अमर फल को लेकर अपने घर आया और स्त्री से उसने उस फल का सारा वृतान्त सुनाया। ब्राह्मणी उसकी बात को सुनकर प्रसन्न होने के स्थान पर असन्तुष्ट होकर बोली-ये जो देवता से आप अमर फल लेकर आये हैं इससे तो हमारा कष्ट घटने की बजाए उल्टा बढ़ेगा।

 हम लोग जन्म से गरीब हैं। अगर वह धन देते तो कुछ भला होता। निर्धन को इस जगत् में सुख नहीं है, अपने ही बन्धु बान्धव हमें दरिद्र समझकर छोड़ देते हैं। दरिद्र की इस संसार में कोई कीमत नहीं। हम दरिद्रता के कारण ही तो इस जिंदगी से दुःखी हो चुके हैं और अब तो यह कष्ट और भी बढ़ जायेगा। 

यह अमर फल खाकर तो हमें अनन्तकाल तक दारिद्रय कष्ट भोगना पड़ेगा। यह फल तो उन्हीं के लिए अच्छा है जिन्हें परमात्मा ने राजपाट, धन-वैभव, ऐश्वर्य और सुख-समृद्धि सब कुछ दिया हो।

इसलिए मेरी बात मानों तो इसे महाराज भर्तृहरि को दे आइये और उनसे बदले में धन लेकर के अपनी बाकी बची हुई जिन्दगी सुख से व्यतीत कीजिए।

बहुत कुछ सोच विचारकर ब्राह्मण उस अमर फल को लेकर महाराज के पास सभा में जा पहुँचा। महाराज ने उस ब्राह्मण को अपने पास बुला लिया और पूछा- “हे द्विजवर! आज्ञा कीजिए आपको क्या कष्ट है, आपने यहाँ तक आना कैसे किया? क्या चाहते हो?” ब्राह्मण ने उस ‘अमर फल’ की सारी कहानी सुनाकर वह फल राजा के हाथों पर रख दिया। महाराज ने बड़ी प्रसन्नता से उस फल को स्वीकार किया और ब्राह्मण को कई लाख स्वर्ण मुद्राएँ देकर विदा किया।

ब्राह्मण के विदा होते ही भर्तृहरि मन ही मन यह विचारने लगे कि वास्तव में यह अमर फल परमात्मा ने ही कृपा करके मेरे पास भिजवाया है। पर अब मुझे यह समझ में नहीं आता कि यह अमर फल मैं स्वयं खाऊँ या अपनी प्राणप्रिया रानी पिंगला को खिलाऊँ। 

अगर इसे मैं खाता हूँ तो मैं सदा के लिए अमर हो जाऊँगा। मेरा रूप और यौवन सदा स्थिर रहेगा, बुढ़ापा पास न आयेगा, पर मेरे सुखों का आधार तो रानी पिंगला ही है, उसका रूप लावण्य कुछ दिनों बाद नष्ट हो जायेगा, वह बूढी हो जायेगी। इस स्थिति में मैं किस के साथ सुख उपभोग कर सकूँगा। 

परन्तु यदि वह अमर फल खाये और बूढ़ी न हो और उसकी सौन्दर्य प्रभा ज्यों की त्यों बनी रहे तो मैं उसके साथ सांसारिक सुखों का उपभोग कर सकूँगा। यह विचार कर महाराज अमर फल को हाथ में लेकर रनिवास की ओर चल दिये।

दासियों द्वारा महाराज के आगमन का समाचार सुनकर पिंगला उन्हें लेने के लिए द्वार तक आई, वह उनके गले में हाथ डालकर उन्हें प्रेमपूर्वक अन्दर ले गई। 

महाराज अन्दर जाकर बैठे तो वह भी उनके पास ही बैठ गई। महाराज ने कहा-“प्रिया!” आज एक बड़ा ही आश्चर्यजनक फल मुझे मिला है जिसे ‘अमर फल’ कहते हैं उसी को लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ। राजा ने फल निकालकर दिखाते हुए रानी से कहा-“रानी! देखो, यह है अमर फल, इसे एक देवता ने किसी तपस्वी ब्राह्मण को उसकी तपस्या से सन्तुष्ट होकर दिया था। 

इसको खाने वाला सदा अमर और सदा जवान रहता है अतः मैं चाहता हूँ कि तुम इस फल को खाओ जिससे तुम्हारा सौन्दर्य सदैव बना रहे।” यह कहते हुए राजा ने वह फल रानी को दे दिया। 

पहले तो रानी ने यही कहा कि नहीं प्राणनाथ आप ही इस फल को खायें, आप ही से मेरा सौभाग्य है, परमात्मा सदा आपको अजर-अमर रखे लेकिन रानी की यह सब बातें दिखावटी थीं। 

राजा के फिर यह कहने पर कि नहीं, रानी तुम ही इस फल को खाओ, तुम्हारे खाने से ही मुझे सन्तोष होगा तो उसने वह फल महाराज से लेकर कहा कि जब आपका यही हुक्म है तो मैं इस फल को स्नान करके शुद्ध होकर खाऊँगी। महाराज उसकी बात पर विश्वास करके फल उसे देकर सभा में लौट आये।

महाराज के जाते ही पिंगला ने अपने प्रेमी दारोगा को बुला लिया। पिंगला उसे लेने भी दरवाजे तक गई और गले में हाथ डालकर महल के अन्दर ले आई। 

दारोगा ने पिंगला से पूछा-“क्या बात, आज असमय ही आपने कैसे याद किया?” रानी बोली”प्यारे, आज महाराज ने मुझे एक फल दिया है उसके खाने से आदमी सदा जवान और अमर हो जाता है। मैंने उनसे खाने का वायदा करके फल ले लिया पर मेरे सजन् ! संसार में मुझे तुमसे प्रिय और कोई नहीं हैं, तुम ही मेरे सुख के कारण और सारा आनन्द हो। 

इसलिए मैं चाहती हूँ कि तुम उस फल को खाओ।” 

दारोगा बोला”अच्छा प्यारी! मैं इसे खा लूँगा। पर जैसे तुमने कहा कि यह देवता की दी हुई चीज है इसलिए पवित्र होकर ही खानी चाहिए। मैं अभी जाकर क्षिप्रा में स्नान करके इसे खा लूँगा।” रानी ने अमर फल दारोगा को दे दिया। मन ही मन दारोगा भी अपनी सफलता पर बड़ा प्रसन्न हुआ कि मैंने इसे अच्छा चकमा दिया। 

मैं खुद इस फल को खाऊँगा तो क्या लाभ? मैं इसे अपनी प्रेमिका को खिलाऊँगा। वह मेरी प्राण प्यारी सदा नवयुवती बनी रहेगी तो मैं हमेशा उसके साथ आनन्द करता रहूँगा। यह सोचकर वह अमर फल को लेकर अपनी प्रेमिका एक वेश्या के पास जा पहुंचा। दारोगा साहब को आया देखकर वेश्या ने उन्हें अपने सामने बिठाया और आने का कारण पूछा।

दारोगा ने कहा-‘प्राणप्रिये! आज मुझे एक बड़ी अद्भुत वस्तु मिली है। इसके खाने वाला कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता और उसका यौवन भी चिर स्थाई हो जाता है। अतः मैं चाहता हूँ। कि तुम इस अमर फल को खाओ। 

तुम यदि सदा-सर्वदा आज जैसी रूप लावण्या बनी रहोगी तो जिन्दगी में बस मजा ही मजा रहेगा। वेश्या ने कहा-“अच्छा दारोगा साहब, मैं आपकी आज्ञा कभी नहीं टाल सकती, स्नान करके मैं इस फल को खा लूँगी।”

वेश्या की बात सुनकर दारोगा ने वह फल उसे दे दिया और स्वयं अपने काम पर लौट आया। 

उसके जाते ही वेश्या सोचने लगी मेरी सारी आयु तो पाप कमाते बीती। 

न जाने कितने पापों का, क्या-क्या दण्ड मुझे भुगतना पड़ेगा। अगर मैंने इस अमर फल को खा लिया तो न जाने और कब तक या अनन्तकाल तक ही इन पापों को इकट्ठा करती रहूँगी। अत: मुझे यह फल खाना तो बिल्कुल भी उचित नहीं है। इसे तो महाराज भर्तृहरि ही खायें तो ठीक रहेगा। 

उनके अमर होने से मेरी आत्मा को सन्तोष होगा कि जिन्दगी में एक काम तो ढंग का किया। ऐसे राजा के अमर होने से प्रजा सदा सुखी रह सकेगी। ऐसे राजा तो बहुत कम होते हैं अतः यह फल मैं उन्हें ही देने जाती हूँ।”

आज विक्रमादित्य का देश-निकाला दिए हुए न जाने कितने वर्ष बीत चुके हैं। महाराज भर्तृहरि की राज सभा फिर लगी हुई है। चोबदार ने आकर सूचना दी कि कोई बाई जी आई हैं और महाराज से मिलना चाहती हैं। महाराजा ने उसे राजसभा में लिवा लाने की स्वीकृति दे दी।

उस भरी सभा में एक अपूर्व सुन्दरी, अद्भुत रूप-लावण्या और बेशकीमती कपड़ों में सजी नवयुवती वेश्या अपने सुकोमल हाथों से एक विचित्र फल महाराज के आगे करती हुई बोली”महाराज आज मुझे यह एक अपूर्व फल मिला है, यह फल बड़ा प्रभावशाली है, इसके खाने वाला सदा अमर रहता है। 

मैं इस फल को खाऊँगी, तो सदा पाप कमाऊँगी; आप इस फल को खायेंगे तो प्रजा सुखी हो जायेगी .”।” वेश्या तो महाराज का गुणानुवाद किये जा रही थी लेकिन महाराज को होश कहाँ? उनकी तो फल देखते ही ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे रह गई; उनके चेहरे का रंग उड़ गया था। वह किंकर्तव्यविमूढ हो गये। कुछ सँभलते हुए उन्होंने वह फल वेश्या के हाथ से लिया और उसी क्षण उसे खा लिया।

उन्हें पिंगला के विश्वासघात पर बड़ी आत्मग्लानि हुई। 

रानी के छलपूर्ण व्यवहार और कपट पर बड़ी घृणा उत्पन्न हो गई। उन्हें जबरदस्त सदमा लगा। अब उनकी आँखे खुली तो उन्हें पता लगा कि स्त्रियों की प्रीति में सार नहीं होता। उन्हें संसार से विरक्ति हो गई। 

संसार के विषय भोगों से एक क्षण में नफरत हो गई। उन्होंने समझ लिया कि संसार में कोई किसी का नहीं होता। यह सब मिथ्या जाल है और इसमें फँसकर लोग अपना दुष्प्राप्य जीवन गँवा देते हैं। 

उन्होंने कहा-

“यां चिन्तयामी सततं मयि सा विरक्ता, 

साप्यन्यमिच्छिति जनं स जनाऽन्यसक्तः। 

अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या, 

धिक तां च तं च मदनं इमां च मां च॥”

(नीति शतक, श्लोक सं. २) 

मैं जिसको सदा चाहता हूँ वह (मेरी रानी पिंगला) मुझे नहीं चाहती, वह दूसरे पुरुष को चाहती है। वह पुरुष (दारोगा) रानी को नहीं चाहता, वह दूसरी ही स्त्री पर मरता है। वह स्त्री जिसे रानी का यार दारोगा चाहता है, मुझे चाहती है। इसलिए उस रानी को धिक्कार है ! उस दारोगा को धिक्कार है !! उस कामदेव को धिक्कार है !!! जो यह सब कर्म कराता है।

यह कहते हुए उन्होंने सारा राज-पाट और धन-दौलत एक क्षण में त्यागकर वन का रास्ता लिया। चलते समय उन्होंने मन्त्री से कहा- मैंने अपने धर्मात्मा, चरित्रवान और सत्यवक्ता भाई विक्रमादित्य के साथ बड़ा अन्याय किया है। मुझे उस समय कुछ भी ज्ञान नहीं रहा, मेरी अकल पर पर्दा पड़ गया था। 

उस कुटिला ने मझ पर जाद कर दिया था। अब तुम विक्रम का पता लगाना और उसे राजगद्दी पर बिठा देना।’ _महाराज यदि उस समय चाहते तो पिंगला को जमीन में जिन्दा गड़वा सकते थे, दारोगा को तोप के मुँह पर रखकर उड़वा सकते थे। 

परन्तु उन्हें तो निर्मल ज्ञान हो गया था। ऐसा ज्ञान भी उन्हें ही होता है जिन पर ईश्वर की कृपा होती है। मनुष्य से तो साधारण से साधारण वस्तुएँ भी नहीं छोड़ी जातीं, कोरी इच्छाओं का त्याग भी नहीं होता. तब राज्य और सम्पूर्ण वैभव को त्याग देना तो बहुत बड़ी बात है।

अन्त में यही कहना होगा कि भर्तृहरि की यह शतक कृति और ऐसा उच्चकोटि का साहित्य किसी क्षणिक आवेश का परिणाम नहीं हो सकता। निश्चय ही भर्तृहरि की विचारधारा जीवनभर बनती रही होगी। 

उपरोक्त घटना भर्तृहरि के लिए सांसारिक विरक्ति का तात्कालिक कारण हो सकता है और सम्भवत: उसी के बाद उन्होंने अपने अनुभूत ज्ञान भण्डार को इन शतकों के रूप में प्रस्तुत किया हो। 

संसार जब तक बना रहेगा तब यह ग्रन्थ कीर्तिमान स्तम्भ के रूप में रूप में सारे समाज को प्रकाश देता रहेगा।

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