sampurna bhagwat katha in hindi

sampurna bhagwat katha in hindi

सन्मार्गी भले कभी-कभी भटक जाते है लेकिन फिर वे सन्मार्ग में लग जाते हैं। इस प्रकार शास्त्र में मृत्यु सूचक कुछ लक्षण बताये गये हैं। अतः म्रियमाण पुरुष को ध्यान देना चाहिए एवं सचेत हो जाना चाहिए।
मृत्यु के सूचक लक्षण अनेक हैं “जैसे-बिना रोग को यदि अरुंधती तारा या ध्रुव तारा नहीं दिखाई पड़ता तो उसे एक वर्ष में मर जाना है या वैसा व्यक्ति केवल एक वर्ष जीता है। जो वानर या भालू या गदहा पर बैठकर गाते दक्षिण दिशा में जाता है वह जल्द मरने वाला है।

कृष्ण अब नहीं रहे वे

इसप्रकार उपरोक्त लक्षणों को देखकर धर्मराज दुखी हुये तथा इधर राजा युधिष्ठिर जी ने द्वारका में यदुवंशियों का समाचार लेने के लिए अर्जुन को भेजा था। अर्जुन को द्वारका गये सात माह हो गया था और वे नहीं आये।

धर्मराज अत्यधिक चिन्तित हो गये। सोचने लगे अर्जुन अबतक क्यों नहीं आये। “श्री धर्मराज भीम से कहते हैं कि हे भीमजी! वाम अंग फड़क रहा है। हृदय में बिना रोग का कम्पन हो रहा है। लगता है कि काल हमलोगों के विपरीत होनेवाले है।
कौवा अनायास शरीर पर बैठकर मृत्यु की सूचना दे रहा है। जब भी बाहर निकलता हूँ तो कुत्ते रोने लगते हैं लगता है कोई अनिष्ट हो गया है या होनेवाला है। ऊल्लू भी दिन में भयावह ढंग से बोल रहा है।
तेल, घी, जल, दर्पण में अपनी छाया नहीं दिखाई देती और दिखाई देती तो केवल सिर की छाया दिखाई दे रही है। सूर्य की कान्ति मलिन हो गयी है। ग्रह आपस में टकरा रहे हैं। अनायास आँधी आ रही है।
अकारण आकाश से वज्रपात हो रहे हैं। बिना कारण के भूकम्प हो रहे हैं अग्नि में घी डालने पर बुझ जाती है। बछड़े अच्छी तरह दूध नहीं पीते। गायों की आँखों से आँसू गिर रहे हैं। नदियों में असमय बाढ़ आ रही है।
मनुष्यों में विकृति आ गयी हैं देव प्रतिमायें उदास हैं वे अनायास बार-बार गिर जा रही हैं। नगर सुनसान लग रहा है। चारों तरफ भयंकर दृश्य दिखायी दे रहा है। मालूम नहीं कि क्या अनिष्ट होनेवाला है या हो चुका है ?

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क्या कहीं धरती भगवान् के श्री चरणों से बिछुड़ तो नहीं गयी ? श्रीकृष्ण भगवान् कहीं धरती तो नहीं छोड़ गये ? यह पृथ्वी उदास हो गयी है।” यह घटना महाभारत युद्ध के पैंतीस वर्ष समाप्त होने एवं छत्तीसवें वर्ष के प्रारम्भ में ही हुई।
उसी समय अर्जुन द्वारका से लौटकर आते हैं। उन्होंने धर्मराज के चरणों में प्रणाम किया। धर्मराज ने अर्जुन को श्रीहीन देखा। अर्जुन मौन हैं। धर्मराज उनसे पूछते हैं – “द्वारका में यदुवंशी तथा कृष्ण अपने परिवार के साथ अच्छी तरह हैं न ?
तुम निस्तेज क्यों हो गये हो ? क्या द्वारका के लोगों ने वहाँ जाने पर तुम्हें अपमानित किया है ? या कहीं पराजित तो नहीं हो गये हो ? कोई कुवाच्य तो नहीं बोल दिया है ? क्या याचकों को कुछ देने की बात कहकर मुकर गये हो ? कहीं ब्राह्मण या बालक की रक्षा से विमुख तो नहीं हो गये हो ?
क्या किसी शरणागत की रक्षा नहीं कर पाये हो ? क्या कहीं ब्राह्मण वृद्ध या बालक अतिथि को बिना खिलाये ही स्वयं भोजन कर लिये हो ? क्या कामासक्त होकर किसी अगम्या नारी से गमन का अपराध तो नहीं कर दिये हो ? लगता है कि कोई न कोई निन्दित कर्म कर बैठे हो। इसलिए निस्तेज हो गये हो।
क्या प्रभु श्रीकृष्ण धराधाम छोड़कर चले गये इसीलिए हो सकता है, विक्षिप्त हो गये हो। ऐसी बातों को सुनकर भी अर्जुन कुछ बोल नहीं पा रहे हैं। उनका कंठ सँध जाता है। शोकयुक्त अश्रुधारा को रोकते हुए अर्जुन श्रीकृष्ण के उपकारों को स्मरण कर रहे हैं और कहते हैं ‘क्या कहूँ कहा नहीं जाता।
मेरा तेज छीनकर श्रीकृष्ण धराधाम से चले गये। मुझे कहीं शान्ति नहीं मिलती उन श्रीकृष्ण के जाने पर श्री रुक्मिणी, शैव्या, हेमवती, जाम्बवती इत्यादि ये सभी अग्नि में प्रवेश कर गयीं।
जिस कृष्ण के प्रभाव से द्रौपदी के स्वयंवर में मत्स्य-भेदन किया, जिनके प्रभाव से भीम ने जरासंध को मारा जिनकी कृपा से श्रीशंकर जी से पाशुपत अस्त्र प्राप्त किया, जिनकी कृपा से राजा विराट् के गो-हरण के समय मैंने गायों की रक्षा की, जिन्होंने सारथि बनकर महाभारत युद्ध में हमें विजयी बनाया वे कृष्ण अब इस लीला शरीर से नहीं रहे।
भगवान् तो चले ही गये उनके शेष बचे परिवार को लेकर मैं आ रहा था तो सत्यभामा आदि देवियाँ तप करने जंगल में चली गयीं एवं मार्ग में भीलों ने कृष्ण भगवान् की बच्ची शेष स्त्रियाँ को लूट लिया तथा उन स्त्रियों को उन लुटेरों ने पत्नी बना लिया।

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मैं प्रभावहीन हो गया हूँ। अतः अब मैं इस शरीर को नहीं रखना चाहता हूँ। जिन प्रभु की कृपा से खाण्डववन वासी मय दानव ने अपूर्व सुन्दर सभा मण्डप बनाया था। वह प्रभु छोड़कर हमें चले गये।
इसी खाण्डववन के प्रसंग में महाभारत की कथा है कि द्वापर युग में खाण्डववन में मय नामक राक्षस रहता था। एक समय श्रीकृष्ण एवं अर्जुन खाण्डववन में बैठे थे तो ब्राह्मण बनकर अग्निदेव भिक्षा माँगने आये।
अग्निदेव ने कहा कि खण्डववन को जलाना चाहते हैं। अर्जुन ने कहा कि वे इस कार्य में उनकी सहायता करेंगे। अग्निदेव ने कहा कि राजा मरु ने बहुत यज्ञ किया। उस यज्ञ की आहुति लेते-लेते मुझे अपच हो गया है।
हवन लेने की क्षमता क्षीण पड़ गयी है। ब्रह्मा के पास गये थे तो उन्होंने बताया कि खाण्डव वन को जला दें, तो अपच ठीक हो जाएगा और हवन लेने की क्षमता आ जाएगी। अग्निदेव ने कहा कि उसके बाद मैं जब भी खाण्डव वन जलाना चाहता हूँ तो इन्द्रदेव वर्षा करके उसे बुझा देते हैं क्योंकि इन्द्रदेव का मित्र सर्प तक्षक उस खाण्डव वन में रहता है।
तक्षक को बचाने के लिए ही इन्द्र वर्षा करके अग्नी बुझा देते हैं। अग्निदेव औषधियों को जलाकर खाने में असफल हो जाते। अतः अर्जुन की सहयता से अग्निदेव खाण्डव वन को जलाने लगे।
इन्द्र द्वारा वर्षा शुरू करने पर अर्जुन धनुष बाण लेकर अग्निदेव के साथ खड़े होकर खाण्डव वन जलाने लगे। ऐसी स्थिति देखकर इन्द्र ने अर्जुन से संधि कर तक्षक सर्प की रक्षा की। उसी वन में दैत्यों का विश्वकर्मा राजा मय रहता था।
मय का भी आश्रम उसी वन में था। अपने आश्रम के पास आग पहुँचते देख मय दानव भागकर श्रीकृष्ण के पास आया और अपना आश्रम बचाने का अनुरोध किया। श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के साथ मय की संधि वार्ता हुई मय के आश्रम को अग्नेिदव से बचा लिया गया।
इसी मय दानव ने राजा युधिष्ठिर के यज्ञ के अवसर पर एक अपूर्व सुन्दर महल बनाया था जहाँ दुर्योधन को जल का भ्रम हो गया था। यानी स्थल में जल एवं जल में स्थल का भ्रम हुआ था।
इस प्रकार प्रभु की अनेक कृपा को याद कर अर्जुन आज रो रहे हैं और कहते हैं कि उन प्रभु के जाने के बाद मेरे पास सारी वस्तुएँ हैं लेकिन वे काम नहीं आ रही हैं तथा उधर ऋषि शाप के कारण समस्त यदुवंश का विनाश हो गया एवं वे प्रभु भी चले गये।
इस प्रकार प्रभु के जाने के बाद अब प्रभु का चिन्तन, भजन, कीर्तन-स्मरण ध्यान एवं उनकी लीला का गुणगान करने से ही मुक्ति होगी।

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अतः जिस दिन श्रीकृष्ण प्रभु इस धराधाम से चले गये उसी दिन कलियुग आ गया। श्रीकृष्ण भगवान् के जाने की बात जानकर कुन्ती ने प्राण त्याग दिया तथा धर्मराज ने अपने राज्य में कलि का प्रवेश देख अपने पौत्र परीक्षित् को राज्याभिषेक कर दिया एवं द्वारका में अनिरुद्ध जी के पुत्र वज्रनाभ के लिए भी धर्मराज ने एक अलग पुरी बनाकर राज्याभिषेक करा दिया।

पहले जो मथुरा नाम से जानी जाती थी वह बीच में मथुरा खण्डहर और सुन हो गयी थी। इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर ने अनिरुद्ध जी के पुत्र वजनाभ को मथुरा का राजा बनाकर कुछ दिन देखरेख किया फिर श्री परीक्षित् को राजा बनाकर स्वर्गारोहण की यात्रा की।

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