श्रीमद् भागवत कथा हिंदी में Book online

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आगे के प्रसंगों में दुर्योधन के षड्यंत्रों से जुड़ी एक पूर्व घटना बतायी गयी है कि सभी कुचक्रों के असफल होने पर उस दुर्योधन सोचा कि क्यों नहीं संत के शाप से ही पांडवों का नाश करा दिया जाय ? दुर्योधन ऐसा विचारा रखा ही था कि एक बार दुर्वासा ऋषि उसके राज्य के पास आये तो उसने उनसे अपने राज्य के पास में ही चातुर्मास्यव्रत करने का अनुरोध किया।
दुर्वासा ऋषि ने अनुरोध स्वीकार कर लिया। चातुर्मास्यव्रत में दुर्योधन ने दुर्वासा ऋषि की खूब अच्छी तरह सेवा की। चातुर्मास्यव्रत समाप्ति पर दुर्वासा ने दुर्योधन से वर माँगने को कहा तो दुर्योधन ने कहा कि हे ऋषिवर! एक वर माँगता हूँ कि आप पांडवों के पास उस समय पहुँचें, जब सभी पाण्डव लोग भोजन कर चुके हों।
आप द्वादशी को अपने हजारों शिष्यों को लेकर पारण करने के लिए पांडवों के भोजन करने के उपरान्त उनके पास पहुँचें। दुर्वासा ऋषि ने कहा ‘एवमस्तु ।
दुर्योधन ने यह सोचकर के वर माँगा था कि पांडवों के भोजन के बाद द्रौपदी अपना अक्षय पात्र धोकर रख देगी। उसके बाद दुर्वासा महाराज शिष्यों को लेकर आतिथ्य के लिए पांडव के पास जायेंगे तो पांडव भोजन नहीं करा पायेंगे और फलतः मुनि महाराज क्रोधित होकर पांडवों के नाश होने का शाप दे देंगे।
इस प्रकार से पाण्डवों को नष्ट करने का ऐसा कुचक्र दुर्योधन ने रच दिया था। दुर्वासा ऋषि दुर्योधन के ऐसा वर माँगने से क्षुब्ध भी हुए और उन्होंने कहा कि ऐसा वर माँगकर तूने अच्छा नहीं किया। वचनबद्ध होकर दुर्वासाजी पांडवों के निवास स्थान अपने हजारों शिष्यों को लेकर पहुंचे। उस वनवास के समय जब सभी पांडव भोजन कर चुके थे।
भीम ने समझा कि अभी द्रौपदी ने भोजन नहीं किया है। भीम ने दुर्वासा ऋषि से आतिथ्य सत्कार स्वीकार करने की प्रार्थना की। दुर्वासा ऋषि ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया। इधर द्रौपदी भोजन कर चुकी थी तथा अक्षय पात्र उसने धेो दिया था।
अक्षय पात्र यदि धोया गया नहीं होता और अन्न का एक दाना भी अक्षय पात्र में होता तो द्रौपदी की इच्छा के अनुसार अतिथियों को प्रसाद उपलब्ध हो जाता।

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अब तो पांडव संकट में फँस गये। दुर्वासा ऋषि ने कहा कि भोजन के लिए प्रसाद तैयार करें, तब तक नदी से स्नान करके हम लोग द्वादशी का पारण करने आ रहे हैं। वह भगवान् श्रीकृष्ण ने दुर्योधन के कुचक्र को जान लिया।
अतः द्रौपदी के स्मरण करते ही अचानक द्रौपदी के पास पहुँचकर द्रौपदी के अक्षय पात्र में सटे एक साग का पता ग्रहण कर ऋषियों को संतुष्ट किया। इधर जब दुर्वासाजी ने अपने शिष्यों के साथ स्नान करके आचमन किया तो उन लोगों को लगा कि पेट भरा हुआ है, भूख है ही नहीं।
वे सोचने लगे कि ऐसे में अब पांडवों के यहाँ भोजन कैसे करेंगे ? दुर्वासा ऋषि समझ गये कि यह भगवान् श्रीकृष्ण की लीला है। वे हमलोगों को छोड़ेंगे नहीं दण्ड़ अवश्य देंगे इसलिए दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों को लेकर नदी से ही भाग खड़े हुए।
उधर पांडव दुर्वासा जी एवं उनके शिष्यों को भोजन कराने के लिए तैयार थे तथा उधर वे दुर्वासा ऋषि भाग खड़े हुए थे। इस प्रकार उन दुर्वाषा के शाप देने की स्थिति बनने से भगवान् श्रीकृष्ण ने पांडवों की रक्षा कर दी।
कुन्ती इस पूर्व घटना को यादकर श्रीकृष्ण को बार-बार नमस्कार करती हैं। वे कहती हैं कि हे कृष्ण! हम आपकी शरण में हैं। हमारी एक प्रार्थना है, उसे आप स्वीकार करें-

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‘विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो। भवतो दर्शनम् यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्।।
श्रीमद्भा० १/८/२५

हे भगवन्! मैं जहाँ कहीं भी रहूँ मुझे हमेशा विपत्तियाँ प्राप्त हों तथा वह विपत्ति आप ही से दूर हो जिससे सदा आपके दर्शन होते रहें एवं आपकी याद बनी रहे और अन्त में इस दुःखमय संसार से निवृत्ति हो जाय। हे योगेश्वर! आपकी लीला अपार हैं।

विद्वत्जन आपके अवतारों के बारे में अनेक तरह की कल्पनायें करते हैं। कोई कहता है कि आप युधिष्ठिर की कीर्ति को बढ़ाने के लिए अवतरित हुए हैं, कोई कहता है कि दैत्यों के वध के लिए, कोई कहता है कि पृथ्वी पर से पाप एवं अनाचार के अंत करने के लिए अवतरित हुए हैं ऐसे प्रभु की महिमा अपार है। आपके निर्मल चरित्र को जो सुनते हैं, दूसरों को सुनाते हैं, उनकी मुक्ति हो जाती है।
आप हमें छोड़कर जा रहे हैं, आपके सिवा हमारा रक्षक दूसरा नहीं है। आप ऐसा करें कि हमारा मन आपमें सदैव लगा रहे और आपकी दया हम पर बनी रहे। मैं बार-बार आपको प्रणाम करती हूँ।
इस तरह कुन्ती ने २६ श्लोकों से स्तुती की। भगवान् ने प्रसन्न होकर कहा कि हे बुआ जी! आपकी इच्छा पूर्ण होगी। इस प्रकार प्रभु श्रीकृष्ण ने उस दिन भी द्वारका की यात्रा रोक दी।
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