साप्ताहिक भागवत कथा PDF

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व्यास-नारद संवाद एवं नारदजी का पूर्व जन्म

आगे फिर नारदजी ने कहा कि आपने निर्मल ज्ञान और भक्ति से युक्त परमात्मा की प्राप्ति का गान नहीं किया और आपने महाभारत ग्रन्थ अपनी लेखनी से लिखकर कहीं-कहीं हिंसा इत्यादि का वर्णन कर दुष्ट व्यक्ति को हिंसा आदि करने का नेत्र खोल दिया।

 
अर्थात् अब आपके ही ग्रंथों का प्रमाण देकर लोग हिसा आदि करना प्रारम्भ करेंगे।  इसलिए हे व्यासजी! चूँकि आप वसुदेवता की पुत्री सत्यवती के लाडले पुत्र हैं, अतः आप भगवान् के उत्कृष्ट(उत्तम) गुणों का गान करें एवं वर्णन करें।
 
इससे आपको संतोष होगा, खिन्नता मिटेगी। लोक का भी कल्याण होगा। आपने भगवान् की महिमा का पूर्णरूपेण वर्णन नहीं किया है और अकिंचन श्री वैष्णव भक्तों के लिए कुछ नहीं किया है, इसलिए अशान्त हैं जिस ग्रन्थ की रचना में भगवान् की महिमा का गान नहीं तथा उनके चरित्र की महत्ता नहीं बतायी गयी, उसकी रचना का कार्य अधूरा माना जाता है।
 
ज्ञानी भक्त भगवान् की महिमा रूपी सरोवर में हंस के समान तैरते हैं या गोता लगाते हैं। कर्मकाण्ड कराते समय कर्मकाण्ड में अशुद्धि हो जाने पर उसका परिमार्जन नहीं है लेकिन भगवान् के गुणगान में अशुद्धि होने पर भी, उससे पाप का नाश होता है।
 
भगवान् का गुणगान करनेवाला सहज ढंग से संसार को तैर जाता है। अतः आप उत्तम श्लोकों में भगवान् का गुणगान करें। इसमें सहजता है। श्री नारदजी व्यासजी को भगवान् की कला बताते हुए कहते हैं कि आप लोक कल्याण के लिए ही धराधाम पर आये हैं। वस्तुतः आप भगवान् की कला का अवतार हैं, इसलिए भगवान् के उत्तम चरित्रों का वर्णन करें। भगवान् का अर्थ होता है कि-
 
उत्पत्तिं प्रलयं चैव भूतानामगति गतिम
वेति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति 
अर्थात जो पुरे जगत का उत्पति-प्रलय, भुतों के गति-अगति, विद्या-अविद्या को जानता है वह भगवान कहा जाता है।
 
फिर श्रीनारदजी ने कहा कि हे व्यास जी! मैं दासीपुत्र नारद आज प्रभु के चरित्रों के गुणगान करने के कारण इस समय ब्रह्मा का पुत्र बना हुआ हूँ। अर्थात् मैं नारद पूर्वजन्म में दासी का पुत्र था।
 
मेरा जन्म हुआ इधर मेरे पिता की मृत्यु हो गयी। इसप्रकार मेरे पिता के मृत्यु के बाद मेरी माँ मेरे को लेकर राजऋषि के यहा चली गयी। वहाँ मेरी माँ राज ऋषि घराने में सेवा का कार्य कर जो कुछ प्राप्त करती, उसी से स्वयं तथा अपने पुत्र का पालन करती थी।
 
मेरी दासी माता ने बहुत प्यार एवं स्नेह से मेरा पालन पोषण किया। जहाँ पर मेरी दासी माँ काम करती थी, संयोग से वहीं पर एक संत चातुर्मास्यव्रत करने के लिए आ गये। राज ऋषि के आदेश से मेरी दासी माँ को संत की सेवा में लगा दिया गया।
 
दासी पुत्र मुझ नारद की उम्र उस समय केवल पाँच वर्ष की थी। वे कम खेलते और कम ही बोलते थे। महात्मा के आदेश से यथासंभव सेवा करते थे तथा महात्मा का उच्छिष्ट प्रसाद पाकर आनन्द से जीवन बिताते थे।
 
शास्त्र का कथन है कि :- “उच्छिष्ट भोजिनः श्वानः’ अर्थात् जूठा भोजन करनेवाला भरकर कुत्ता होता है लेकिन यह भी मतलब होता है कि “उत्कृष्टशिष्टम् उच्छिष्टं” यानी पाक(पाकशाला) का बचा प्रसाद भी उच्छिष्ट कहलाता है।
 
अतः वे महात्मा दिन में एक बार भोजन बनाते और प्रभु को भोग लगाकर एक बार ही दिन में भोजन करते थे। शास्त्र ने कहा है कि संत महात्मा को हो सके तो केवल दिन में एक ही बार भोजन करना चाहिए।
 
इस प्रकार महात्माजी के भोजन के बाद शुद्धपात्र में जो उच्छिष्ट यानी शेष अन्न बचता, वही खाकर मैं भी रहता। शुद्ध पात्र में उच्छिष्ट या शेष अन्न जूठा नहीं होता। न तो किसी का जूठा खाना चाहिए और न खिलाना चाहिए क्योंकि शास्त्र में कहा गया है कि किसी को अपना जूठा नहीं देना या दूसरे का जूठन नहीं खाना चाहिये।
 
 चातुर्मास्यव्रत में संत महाराज भगवान् का कथा सुनाते थे। नारदजी कथा को श्रवण करते थे। नारदजी सोचते कि माँ यदि आज्ञा दे देती तो वे व्रत समाप्ति पर संत महाराज के साथ चले जाते। कथा श्रवण करते-करते नारदजी का चित्त शुद्ध हो गया। भगवान् में अविचल भक्ति हो गयी।
 
संत महाराज का चातुर्मास्यव्रत समाप्ति पर आया तो उन संतो ने नारदजी को भागवत धर्म का उपदेश दिया। नारदजी उसी समय समझ गये कि यह संसार माया हैं। नारदजी को विरक्ति हो गयी।
 
 श्री नारद जी ने कहा कि हे व्यास जी! आप तो बहुश्रुत हैं। अतः भगवान् के चरित्रों का ऐसा गान करें या ऐसी रचना करें जैसा अबतक न किसी ने किया हो और न आगे कर सके।
 
इधर फिर श्री नारद जी के शेष आगे के चरित्र को जानने की इच्छा से व्यास जी ने पूछा कि हे श्री नारद जी संतों के जाने के बाद आपने क्या किया एवं आपकी शेष आयु कैसे बीती ? जीवन का त्याग कैसे किया ? पूर्व जन्म की स्मृति कैसे रही?

इस प्रकार नारदजी ने अपने पूर्व जन्म की कथा फिर शुरु की और कहा कि हे व्यास जी! उन संतों के उपदेश के बाद मैं चाहता था कि माँ का स्नेह उनके प्रति कुछ कम हो और माता से छुट्टी मिल जाय ताकि भजन कर सकें लेकिन मेरी माता ने संतों के साथ नहीं जाने दिया।

 
अतः मैं अपनी माता की सेवा करता रहा। मेरी माँ गाय दुहने का काम भी करती थी। संयोगवश एक दिन जब वह गाय दुहने गयी थी तो एक साँप ने उसे डंस लिया, माँ गुजर गयी।
 
माँ की मृत्यु को मैंने भगवान् की कृपा मानी। दुःख तो हुआ, लेकिन माँ की ममता से मुक्ति मिल गयी। उसके बाद मैं उत्तर दिशा की ओर चल दिया। अनेक नगरों, वनों को पार करते मैं एक निर्जन वन में पहुँचा।
 
मैं भूख प्यास से व्याकुल था। संयोग से उस निर्जन वन में एक नदी थी। वहीं पर उस नदी में मैंने स्नान किया, जल ग्रहण किया और एक पीपल के वृक्ष के नीचे विश्राम करने के बाद ध्यान करने लगा। सहसा मेरे हृदय में भगवान् प्रकट हो गये।
 
मेरे ध्यान में भगवान् का दिव्य रूप आ गया। मैं (नारदजी) भगवान् का दर्शन से आत्मविभोर हो गया तथा अपने-पराये का ज्ञान भूल गया। कुछ देर के बाद भगवान् की मूर्ति लुप्त हो गयी। उस समय मेरी स्थिति पागल-सी हो गयी और मैं व्याकुल हो गया।
 
मैंने फिर ध्यान लगाया, लेकिन दुबारे भगवान् के दर्शन नहीं हुए। प्यासे को जैसे एक घुट जल पीने के बाद और जल पीने की ज्वाला जगती है, वैसी ही स्थिति मेरी हो गयी।
 
इसी व्याकुलता में आकाशवाणी हुइ कि इस जीवन में अब भगवान् की स्मृति केवल बराबर बनी रहेगी वह छवि का दर्शन अब नही होगा। इसप्रकार नारदजी ने आकाशवाणी के वचनो को स्वीकार किया तथा वे भगवान् के नाम का गान करते हुये पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे।
 
नारदजी सदा काल की प्रतीक्षा करते थे। एक दिन काल विद्युत् की चमक के सदृश आया। नारदजी का भौतिक शरीर छूटकर पंचतत्व में विलीन हो गया। यानी नश्वर शरीर से वह आत्मा निकल गयी। नारदजी तत्क्षण भगवान् के पार्षद बन गये। फिर प्रलय के बाद विष्णु की नाभि से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई।
 
ब्रह्मा से मैं (नारद) उत्पन्न हुआ। नारदजी की गति अबाध है। अतः भगवान् की शरणागति करने से चित्त को शान्ति प्राप्त होती है। आगे नारदजी ने उपदेश दिया कि हे व्यास जी! आप भागवत का गायन करें, शान्ति मिलेगी।
 
इतना उपदेश देकर फिर श्री नारदजी वीणा बजाते हुए प्रस्थान कर गये। व्यासजी ने श्री नारद जी के द्वारा कही गयी भागवतकथा का स्मरण कर श्रीमद् भागवत महापुराण की रचना की।

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