श्रीमद् भागवत कथा हिंदी में -4 bhagwat katha in hindi
( अथ प्रथमो अध्यायः )
उद्धव और विदुर की भेंट– महाभारत के युद्ध के समय हस्तिनापुर छोड़ निकले विदुर जी सब तीर्थों में भ्रमण करते हुए जब प्रभास क्षेत्र में पहुंचे तब तक समस्त यादव कुल समाप्त हो चुका था ! यह जानकर उन्हें कुछ दुख हुआ किंतु उन्होंने इसे भगवान की इच्छा ही समझा उसके बाद उन्हें यह भी ज्ञात हो गया कि महाभारत में धृतराष्ट्र को छोड़ सभी कौरव समाप्त हो गए और युधिष्ठिर एकछत्र राजा हो गए हैं | इस होनी को भी भगवान की इच्छा समझ वृंदावन आ गए परमात्मा के परम भक्त बृहस्पति जी के शिष्य उद्धव जी से वहां विदुर जी मिले दोनों भक्त परस्पर आलिंगन कर मिले , विदुर जी पूछने लगे उद्धव जी बताएं द्वारका में भगवान श्री कृष्ण बलराम समस्त यादवों के सहित कुशल से हैं ना , धर्मराज युधिष्ठिर धर्मपूर्वक राज्य कर रहे हैं न , आदि बातें पूछी |
इति प्रथमो अध्यायः
( अथ द्वितीयो अध्यायः )
उद्धव जी द्वारा भगवान की बाल लीलाओं का वर्णन—-
भागवत,श्लोक-3.2.7
उद्धव उद्धव जी बोले- विदुर जी श्री कृष्ण रूप सूर्य के छिप जाने से हमारे घरों को काल रूप अजगर ने खा डाला है | वे श्री हीन हो गए हैं अब मैं उनकी क्या कुशल सुनाऊं—
भागवत,श्लोक-3.2.8
अहो यह मनुष्य लोग बड़ा ही अभागा है, जिसमें यादव तो नितांत ही भाग्य हीन हैं जिन्होंने निरंतर श्री कृष्ण के साथ रहते हुए भी उन्हें नहीं पहचाना | जैसे समुद्र में अमृतमय चंद्रमा के साथ रहती हुई मछलियां उसे नहीं पहचानी | विदुर जी भगवान का मथुरा में वसुदेव जी के यहां जन्म लेना, गोकुल में नंद के यहां रहकर अनेक लीलाएं करना , माखन चोरी , ग्वाल बालों के साथ वन में गाय चराना, पूतना को माता की गति प्रदान करना ,सकटासुर, तृणावर्त, बकासुर, व्योमासुर, कंस आदि राक्षसों का संहार याद आता है | काली मर्दन गोवर्धन पूजा रासबिहारी सब याद आते हैं|
इति द्वितीयो अध्यायः
( अथ तृतीयो अध्यायः )
भगवान के अन्य लीला चरित्रों का वर्णन– ब्रज में बाल लीला कर मथुरा में कंस का संहार करता कर तथा जरासंध की सेनाओं का संघार कर द्वारिका में भगवान ने कई विवाह किए रुक्मणी सत्यभामादिक सोलह हजार एक सौ रानियों के साथ भगवान ने विवाह किए और प्रत्येक महारानी से दस दस पुत्र उत्पन्न हुये, जरासंध शिशुपाल का संघार किया महाभारत के नाम पर दुष्टों का संहार किया और ब्राह्मणों के श्राप के बहाने अपने यदुवंस को भी समेट लिया |
इति तृतीयो अध्यायः
( अथ चतुर्थो अध्यायः )
उद्धव जी से विदा होकर विदुर जी का मैत्रेय जी के पास जाना– उद्धव जी कहते हैं प्यारे विदुर समस्त यदुवंश का संघार के बाद भगवान ने स्वयं अपने लोक पधारने की इच्छा की वह सरस्वती के तट पर एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गए, मैं भी पीछे पीछे उनके पास पहुंच गया और मैत्रेय ऋषि भी वहां आ गए | उन्होंने स्वधाम गमन के बारे में मुझे बताया मैंने उनसे प्रार्थना की—
भागवत,श्लोक-3.4.18
स्वामिन अपने स्वरूप का गूढ़ रहस्य प्रकट करने वाला जो श्रेष्ठ एवं समग्र ज्ञान आपने ब्रह्मा जी को बताया था वहीं यदि मेरे समझने योग्य हो तो मुझे भी सुनाइए जिससे मैं संसार दुख को सुगमता से पार कर जाऊं | मेरे इस प्रकार प्रार्थना करने पर भगवान ने वह तत्वज्ञान मुझे दिया जिसे सुनकर मैं यहां आया हूं और अब भगवान की आज्ञा से मैं बद्रिकाश्रम जा रहा हूं | विदुर जी बोले उद्धव जी परमज्ञान जो आप भगवान से सुनकर आए हैं हमें भी सुनाएं | उद्धव जी बोले विदुर जी आपको वह ज्ञान मैत्रेय जी सुनायेंगे ऐसी भगवान की आज्ञा है | ऐसा कहकर उद्धव जी बद्रिकाश्रम चल दिए और विदुर जी भी गंगा तट पर मैत्रेय जी के आश्रम पर जा पहुंचे |
इति चतुर्थो अध्यायः
श्री मद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा
( अथ पंचमो अध्यायः )
विदुर जी का प्रश्न और मैत्रेय जी का सृष्टि क्रम वर्णन—
भागवत,श्लोक-3.5.2
संसार में सब लोग सुख के लिए ही कर्म करते हैं किंतु ना उन्हें सुख ही मिलता है और ना दुख ही दूर होता है, बल्कि उससे भी उनके दुख की वृद्धि हि होती है ! अतः इसके विषय में क्या करना उचित है यह आप मुझे बताइए ? उन सर्वेश्वर ने संसार की उत्पत्ति स्थिति और संहार करने के लिए अपनी माया शक्ति को स्वीकार कर रामकृष्ण अवतारों द्वारा जो अनेक अलौकिक लीलाएं की है वह मुझे सुनाइए ! मैत्रेय मुनि कहते हैं—-
भागवत,श्लोक-3.5.23
सृष्टि रचना के पूर्व समस्त आत्माओं की आत्मा एवं एक पूर्ण परमात्मा ही थे ना दृष्टा ना दृश्य सृष्टि काल में अनेक व्यक्तियों के भेद से जो अनेकता दिखाई पड़ती है वह भी नहीं थी क्योंकि उनकी इच्छा अकेले रहने की थी !
इसके पश्चात भगवान की एक से अनेक होने की इच्छा हुई तो सामने माया देवी प्रकट हुई भगवान ने माया के गर्भ में अपना अंश स्थापित किया उससे महतत्व उत्पन्न हुआ महतत्ऩ के विच्छिप्त होने पर सात्विक, राजस, तामस तीन प्रकार के अहंकार प्रगट हुए , भगवान ने सात्विक अहंकार से देवताओं की सृष्टि की, राजसी अहंकार से इंद्रियों की दस इंद्रियों को प्रकट किया, तामस अहंकार से क्रमसः शब्द, आकाश, स्पर्श, वायु ,रूप, अग्नि, रस, जल, गंध, पृथ्वी, पांच तन्मात्रा सहित पंच भूतों को उत्पन्न किया, किंतु वे सब मिलकर भी जब सृष्टि रचना में असमर्थ रहे तो भगवान से प्रार्थना की , प्रभु हम सृष्टि रचना करने में असमर्थ हैं |
इति पंचमो अध्यायः
( अथ षष्ठो अध्यायः )
विराट शरीर की उत्पत्ति– मैत्रेय जी बोले भगवान ने जब देखा कि मेरी महतत्व आदि शक्तियां असंगठित होने के कारण विश्व रचना के कार्य में असमर्थ हैं, तब उन्होंने उन सब को मिलाकर एक कर दिया जिससे विराट पुरुष की उत्पत्ति हुई | जिसमें चराचर जगत विद्यमान है सब जीवो को साथ लेकर विराट पुरुष एक हजार दिव्य वर्षों तक जल में पड़ा रहा फिर भगवान के जगाने पर उसके प्रथम मुख प्रकट हुआ जिसमें अग्नि ने प्रवेश किया, जिससे वाक इंद्री प्रगट हुई | फिर विराट पुरुष के तालू उत्पन्न हुआ जिसमें वरुण ने प्रवेश किया जिससे रसना पैदा हुई | उसके बाद नथुने पैदा हुए जिसमें दोनों अश्विनी कुमारों ने प्रवेश किया जिससे घ्राणेन्द्रिय पैदा हुई | उसके बाद आंखें पैदा हुई जिसमें सूर्य ने प्रवेश किया जिससे नेत्रेद्रिंय प्रगट हुई | फिर त्वचा पैदा हुई जिसमें वायु ने प्रवेश लिया जिससे स्पर्श शक्ति पैदा हुई | फिर कान पैदा हुये है जिसमें दिशाओं ने प्रवेश किया, जिससे शब्द प्रगट हुआ | फिर हाथ पैर लिंग गुदा आदि पैदा हुए फिर बुद्धि, हृदय आदि पैदा हुए |
इति षष्ठो अध्यायः
सम्पूर्ण भागवत महापुराण कथा स्टोरी इन हिंदी
( अथ सप्तमो अध्यायः )
विदुर जी के प्रश्न– विदुर जी बोले भगवन भगवान तो अवाप्त काम हैं, माया के साथ उनका संबंध कैसे संभव है , वे सृष्टि को रचते हैं पालन करते हैं और अंत में संघार भी करते हैं | ऐसा खेल वे क्यों खेलते हैं , आप अपनी ब्रह्मादिक विभूतियों का वर्णन भी सुनाइए |
इति सप्तमो अध्यायः
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( अथ अष्टमो अध्यायः )
ब्रह्मा जी की उत्पत्ति— सृष्टि से पूर्व में जब भगवान समस्त सृष्टि को अपने उदर में लेकर योगनिद्रा में शेष शैया पर शयन कर रहे थे भगवान की काल शक्ति ने उन्हें जगाया तो उनकी नाभि से रजोगुण रूपी कमल निकला उस कमल नाल से स्वयं भगवान ही ब्रह्मा के रूप में प्रगट हुए, जब ब्रह्माजी ने चारों ओर दृष्टि डाली तो उनके चार मुख हो गए , जब ब्रह्मा जी को चारों और कोई नहीं दिखा तो सोचने लगे मैं कौन हूं कहां से आया हूं यह सोच वह कमल नाल से अपने आधार को खोजते हुए नीचे गए किंतु बहुत काल तक भी वे उसे खोज नहीं पाए तब वह वापस स्थान पर आ गए और अपने आधार का ध्यान करने लगे , तो शेषशायी नारायण के दर्शन हुए ब्रह्माजी उनकी स्तुति करने लगे |
इति अष्टमो अध्यायः
( अथ नवमो अध्यायः )
ब्रह्मा जी द्वारा भगवान की स्तुति समस्त जगत के रचयिता पालक और संघार करता भगवान मैं आपको पहचान नहीं सका मैं ही क्या बड़े-बड़े मुनि जी आप के मर्म को नहीं जान पाते मैं आपको नमस्कार करता हूं |
इति नवमो अध्याय:
( अथ दसमो अध्यायः )
दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन– विदुर जी के पूछने पर मैत्रेय जी ने दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन किया | पहली सृष्टि महतत्व की, दूसरी अहंकार की , तीसरी भूत वर्ग ,चौथी इंद्रियों की, पांचवी देवताओं की ,छठी अविद्या कि यह प्राकृतिक हैं | अब चार विकृत सृष्टियां हैं उनमें पहली वृक्षों की , दूसरी पशु पक्षियों की, नवी सृष्टि मनुष्यों की , दसवीं सृष्टि देवताओं की है |
इति दसमो अध्यायः
सम्पूर्ण भागवत महापुराण कथा स्टोरी इन हिंदी
( अथ एकादशो अध्यायः )
मन्वंतरादि काल विभाग का वर्णन— मैत्रेय जी बोले सृष्टि का सबसे सूक्ष्म अंश परमाणु होता है , दो परमाणु को एक अणु, तीन अणु का एक त्रसरेणु होता है , जाली के छिद्र में से आने वाले सूर्य के प्रकाश में उड़ते हुए जो कड़ दिखाई पड़ते हैं वे त्रसरेणु हैं,एक त्रसरेणु को पार करने में सूर्य को जो समय लगता है उसे त्रुटि कहते हैं , सौ त्रुटि का एक वेध है , तीन वेध का एक लव, तीन लव का एक निमेश , तीन निमेश का एक क्षण, पांच क्षण की एक काष्ठा, पन्द्रह काष्ठा का एक लघु, पन्द्रह लघु का एक दंड , दो दंड का एक मुहूर्त होता है, छः या सात नाडी का एक प्रहर होता है, रात दिन में आठ पहर होते हैं, पन्द्रह दिन का एक पक्ष होता है, दो पक्ष का एक मास , दो मास का एक ऋतु, छः मास का एक अयन , दो अयन का एक वर्ष , पितरों का एक दिन एक मास का , देवताओं का एक दिन एक वर्ष का, एक सौ वर्ष की आयु मनुष्य की मानी गई है , एक वर्ष में सूर्य इस भूमंडल की परिक्रमा करता है |
हे विदुर– कलियुग का प्रमाण चार लाख बत्तीस हजार वर्ष का है, द्वापर का प्रमाण आठ लाख चौंसढ हजार वर्ष का है , त्रेता का प्रमाण बारह लाख छ्यान्नवे हजार वर्ष का है और सतयुग का प्रमाण सत्रह लाख अठ्ठाइस हजार वर्ष का है |
यह चतुर्युगी लगभग इकहत्तर बार घूम जाती है वह एक मनु का कार्यकाल है | ऐसे चौदह मनु के कार्यकाल का ब्रह्मा का एक दिन होता है, उतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात होती है जो प्रलय काल है | ब्रह्मा जी की आधी आयु को परार्ध कहते हैं अभी तक पहला परार्ध बीत चुका है दूसरा चल रहा है |
इति एकादशो अध्यायः
( अथ द्वादशो अध्यायः )
सृष्टि का विस्तार– सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने सनक , सनंदन सनातन, सनतकुमार चार ऋषि प्रगट हुए | ब्रह्मा जी ने इन्हें सृष्टि करने की आज्ञा दी किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया अतः ब्रह्मा जी को क्रोध आ गया वह रूद्र रूप में प्रगट हो गया , ब्रह्मा जी ने उन्हें भी सृष्टि की आज्ञा दी उन्होंने अपने अनुरूप भूत प्रेतों की सृष्टि करदी जो स्वयं ब्रह्मा जी को ही खाने को उद्यत हो गई , तब ब्रह्मा बोले देव तुम्हारी सृष्टि इतनी ही बहुत है , फिर ब्रह्मा जी ने दस पुत्र मरीचि, अत्रि ,अंगिरा, पुलह, पुलस्त्य, कृतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष, नारद पैदा किए, उनके हृदय से धर्म, पीठ से अधर्म प्रकट हुआ |
छाया से कर्दम पैदा हुए , इसके पश्चात स्त्री पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ | जिसका नाम स्वयंभू मनु शतरूपा रानी था | स्वयंभू मनु के तीन कन्या दो पुत्र पैदा हुए, देवहूति, आकूति ,प्रसूति तीन कन्या उत्तानपाद, प्रियव्रत दो पुत्रों से सारा संसार भर गया |
इति द्वादशो अध्यायः
अथ त्रयोदशोअध्यायः
वराह अवतार की कथा
ब्रह्माजी की आज्ञा पाकर मनु बोले प्रभु मैंश्रृष्टि तो रचूंगा पर उसे रखूंगा कहां क्योंकि पृथ्वी तो जल से डूबी है , इतने में ब्रह्मा जी की नाक से अंगूठे के आकार का एक वराह शिशु निकला वह क्षणभर में हाथी के बराबर हो गया। ऋषियों ने उनकी प्रार्थना की वे सबके देखते देखते समुद्र में घुस गया वहां उन्होंने पृथ्वी को देखा जिसे लीला पूर्वक अपनी दाढ़ पर रख लिया और उसे लेकर ऊपर आए रास्ते में उन्हें हिरण्याक्ष दैत्य मिला जिसे मार कर पृथ्वी को जल के ऊपर स्थापित किया | ऋषियों ने उनकी प्रार्थना की
इति त्रयोदशो अध्यायः
(अथ चतुर्दशो अध्यायः)
दिति का गर्भ धारण- एक समय की बात है संध्या के समय जब कश्यप जी अपनी सायं कालीन संध्या कर रहे थे उनकी पत्नी दिती उनसे पुत्र प्राप्ति की कामना करने लगी कश्यप जी बोले देवी यह संध्या का समय है ! भूतनाथ भगवान शिवजी अपने गणों के साथ विचरण कर रहे हैं यह समय पुत्र प्राप्ति के लिए अनुकूल नहीं है ! दिती नहीं मानी वह निर्लज्जता पूर्वक उनसे आग्रह करने लगी | भगवान की ऐसी ही इच्छा है ऐसा समझ कश्यप जी ने गर्भाधान किया और कहा तेरे दो महान राक्षस पुत्र पैदा होंगे जिन्हें मारने के लिए स्वयं भगवान आएंगे, यह सुन दिति बहुत घबराई और अपने किए पर पश्चाताप भी करने लगी,तब कश्यप जी ने कहा घबराओ नहीं तुम्हारा एक पुत्र का पुत्र भगवत भक्त होगा जिसकी कीर्ति संसार में होगी यह जान दिती को संतोष हुआ।
इति चतुर्दशो अध्यायः
( अथ पंचदशोअध्यायः )
जय विजय को सनकादिक का श्राप- एक समय की बात है चारों उर्धरेता ऋषि भ्रमण करते हुए भगवान के बैकुंठ धाम में भगवान के दर्शन की अभिलाषा से गए वहां उन्होंने छः द्वार पार कर जब वे सातवें द्वार पर पहुंचे तो जय विजय ने उन्हें रोक दिया इससे कुपित होकर ऋषियों ने उन्हें श्राप दिया जाओ तुम दोनों राक्षस हो जाओ | जय विजय उनके चरणों में गिर गए और श्राप निवारण की प्रार्थना की तब ऋषि बोले तीन जन्मों तक तुम राक्षस रहोगे प्रत्येक जन्म में स्वयं भगवान के हाथों तुम मारे जाओगे | तीन जन्मों के बाद तुम भगवान के पार्षद बन जाओगे, इतने में स्वयं भगवान ने आकर उन्हें दर्शन दिए और ऋषियों ने बैकुंठ धाम के दर्शन किए भगवान बोले ऋषियों यह सब मेरी इच्छा से हुआ है। ऋषियों ने भगवान को प्रणाम किया और प्रस्थान किया |
इति पंचदशोअध्यायः
( अथ षोडषोअध्यायः )
जय विजय का बैकुंठ से पतन अपने पार्षदों को भगवान ने समझाया और कहा यह ब्राह्मणों का श्राप है ब्राह्मण सदा ही मुझे प्रिय हैं इनके श्राप को मैं भी नहीं मिटा सकता | ब्राह्मणों के क्रोध से कोई बच नहीं सकता फिर भी आप चिंता ना करें मैं शीघ्र ही तुम्हारा उद्धार करूंगा। ऐसा कहकर भगवान अपने अन्तःपुर में चले गए और जय विजय का बैकुंठ से पतन हो गया वे वहां से गिरकर सीधे
दिति के गर्भ में प्रवेश कर गए उनके गर्भ में आते ही सर्वत्र अंधकार छा गया जिससे सब भयभीत हो गए | ब्रह्मा जी ने सबको समझाया दिति के गर्भ में कश्यप जी का तेज है इसी के कारण ऐसा है आप निश्चिंत रहें सब ठीक हो जाएगा दिती ने सौ वर्ष पर्यंत पुत्रों को जन्म नहीं दिया
इति षोडषोअध्यायः
( अथ सप्तदशोअध्यायः )
हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म समय पाकर दिती ने दो पुत्रों को जन्म दिया उनके जन्म लेते ही सर्वत्र उत्पात होने लगे सनकादिक के सिवा सारा संसार भयभीत होने लगा मानो प्रलय होने
वाली है जन्म की तत्काल बाद ही उनका शरीर बड़ा विशाल हो गया। कश्यप जी ने उनका नाम हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु रखा एक बार हिरण्याक्ष हाथ में गदा लेकर युद्ध के लिए निकला पर उसके सामने कोई नहीं आया तो वे स्वर्ग में पहुंच गए उसे देख कर सब देवता भाग
गए हिरण्याक्ष कहने लगा अरे ये महा पराक्रमी
देवता भी मेरे सामने नहीं आते तब वह महा विशाल समुद्र में कूद गया और वरुण की राजधानी विभावरी पुरी में पहुंच गया और वरुण से युद्ध की भिक्षा मांगी इस पर वरुण बोले वीर आप से युद्ध करने योग केवल एक ही हैं अभी वे समुद्र से पृथ्वी को निकाल कर ले जा रहे हैं आप उनसे युद्ध करें |
इति सप्तदशोअध्यायः
(अथ अष्टादशोअध्यायः )
हिरण्याक्ष के साथ वराह भगवान का युद्ध- वरुण के कथनानुसार वह दैत्य हाथ में गदा लेकर भगवान को ढूंढने लगा और ढूंढते ढूंढते वह वहां पहुंच गया जहां वराह भगवान पृथ्वी को लेकर जा रहे थे | हिरण्याक्ष ने भगवान को ललकारा और कहा अरे जंगली शूकर यह ब्रह्मा द्वारा हमें दी गई पृथ्वी को लेकर तुम कहां जा रहे हो इस प्रकार चुरा कर ले जाते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती | भगवान ने उसकी इस बात की कोई परवाह नहीं की और वे पृथ्वी को लेकर चलते रहे दैत्य ने उनका पीछा किया और कहा अरे निर्लज्ज कायरों की भांति क्यों भागा जा रहा है इतने में धरती को जल के ऊपर स्थापित कर दिया ब्रह्मा ने दैत्य के सामने ही भगवान की प्रार्थना की भगवान दैत्य से बोले हम जैसे जंगली पशु तुम जैसे ग्रामसिंह ( कुत्ता) को ही ढूंढते फिरते हैं। दैत्य ने गदा से भगवान पर प्रहार किया और इस प्रकार दोनों में घोर युद्ध होने लगा।
इति अष्टादशोअध्यायः
( अथ एकोनविंशोअध्यायः )
हिरण्याक्ष वध दैत्यराज हिरण्याक्ष और भगवान वराह का घोर युद्ध होने लगा हिरण्याक्ष की छाती में भगवान
ने गदा का प्रहार किया गदा , जैसे कोई लोहे के खंभे से टकराई हो हाथ झन्ना कर भगवान के हाथ से छूट कर गदा नीचे गिर गई | यह बताने के लिए कि मेरे हाथ गदा से कम नहीं छाती में एक घूंसा मारा जिससे राक्षस वमन करता हुआ गिर गया और समाप्त हो गया।
इति एकोनविंशोअध्यायः
( अथ विंशोअध्यायः )
ब्रह्मा जी की रची हुई अनेक प्रकार की सृष्टि का वर्णन ब्रह्मा जी ने अविद्या आदि की श्रृष्टि की उससे उन्हें ग्लानि पैदा हुई उस शरीर को त्याग दिया जिससे संध्या बन गई जिससे राक्षस मोहित हो गए | इसके अलावा
पितृगण, गंधर्व, किन्नर आदि पैदा किए। सिद्ध विद्याधर सर्प मनुओं की रचना की |
इति विंशोअध्यायः
[अथ एकविंशो अध्यायः]
कर्दम जी की तपस्या और भगवान का वरदान ब्रह्मा जी ने जब कर्दम ऋषि को श्रृष्टि करने की आज्ञा दी तो वे श्रृष्टि के लिए भगवान की तपस्या करने लगे भगवान ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए कर्दम जी ने उनकी स्तुति की और कहा प्रभु में ब्रह्मा जी की आज्ञा से श्रृष्टि करना चाहता हूं मेरी यह कामना पूर्ण करें तब भगवान बोले स्वायंभुवमनु अपनी कन्या देवहूति के साथ चल कर आपके यहां आ रहे हैं आप देवहूति से विवाह करें | उससे आपके नव कन्या होंगी जिन्हें आप मरिच्यादी ऋषियों को ब्याह दें उनसे श्रृष्टि का विस्तार होगा। मैं स्वयं आपके यहां कपिल अवतार धारण करूंगा और सांख्य शास्त्र को कहूंगा, ऐसा वरदान देकर भगवान तो अंतर्ध्यान हो गए और कर्दम जी उस काल की प्रतीक्षा करने लगे और जो समय भगवान ने बताया था उसके अनुसार मनु महाराज अपनी कन्या के साथ आये कर्दम जी ने उनका स्वागत किया और बोले नर श्रेष्ठ आप अपनी प्रजा की रक्षा के लिए ही सेना सहित विचरण करते हैं मुझे क्या आज्ञा है उसे बताएं।
इति एकविंशो अध्यायः
द्वितीय दिवस की कथा
( अथ द्वाविंशो अध्यायः )
देवहूति के साथ कर्दम प्रजापति का विवाह- मनु जी बोले- हे मुनि ब्राह्मणों को ब्रह्मा ने अपने मुख से प्रगट किया है फिर आपकी रक्षा के लिए अपनी भुजाओं से हम क्षत्रियों को उतपन्न किया है, इसलिए ब्राम्हण उनका हृदय और छत्रिय शरीर हैं | मैं अपनी सर्वगुण संपन्न यह कन्या आपको देना चाहता हूं आप इसे स्वीकार करें , कर्दम जी के स्वीकार कर लेने पर मनु जी अपनी कन्या का दान कर्दम जी को कर दिया और मनु जी अपने घर आ गये |
इति द्वाविंशोध्यायः