श्रीमद् भागवत कथा हिंदी में -5 bhagwat katha in hindi
( अथ त्रयोविंशो अध्यायः )
कर्दम और देवहूति का विहार- अपने पिता के चले जाने के बाद देवहुति ने कर्दम जी की खूब सेवा कि, वह रात और दिन उनकी सेवा में ही लगी रहती अपने खाने पीने की चिंता भी नहीं करती, इससे इनका शरीर क्षीण हो गया | यह देखकर कर्दम जी देवहूती पर बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने देव हूती को आज्ञा दी कि हे मनु पुत्री आप इस बिंदु सरोवर में स्नान करें | देवहूति ने ज्यों ही सरोवर में गोता लगाया एक सुंदर महल में पहुंच गई वहां 1000 कन्याएं थी वह सब देवहूति को देखते ही खड़ी हो गई और बोली हम सब आपकी दासी हैं हमें आज्ञा करें हम आपकी क्या सेवा करें ? दासियों ने देवहूति को सुगंधित उबटनों से स्नान कराया और सुगंधित तेल लगाकर उन्हें सुन्दर वस्त्र धारण कराए , आभूषणों से सजाया | देवहूति ने जब अपने पति का स्मरण किया वह सखियों सहित उनके पास पहुंच गई, उनकी सुंदरता महान थी उसे देख कर्दम जी ने एक दिव्य विमान मन की गति से चलने वाले विमान की रचना की और उसमें बैठाया और अनेकों लोकों में भ्रमण किया और विमान में ही नव कन्याओं को जन्म दिया | देवहूति अपने पति से बोली देव हमारा कितना समय संसार सुख में बीत गया और हम भगवान को भूल गए अब आप इन कन्याओं के लिए योग्य वर देखकर इनका पाणिग्रहण संस्कार करके कर्तव्य मुक्त हों |
इति त्रयविंशो अध्यायः
( अथ चतुर्दशो अध्यायः )
श्री कपिल जी का जन्म- देवहूति के ऐसे विरक्ति पूर्ण वचन सुनकर कर्दम जी ने कहा देवी जी आप के गर्भ में स्वयं भगवान आने वाले हैं | अतः आप उनका ध्यान करें, देवहूति भगवान का ध्यान करने लगी और भगवान कपिल के रूप में उनके यहां प्रकट प्रगट हुए, देवता पुष्पों की वर्षा करने लगे | इसी समय ब्रह्माजी मरीच आदि ऋषियों को साथ ले उनके आश्रम पर आए और कर्दम जी से कहा अपनी नव कन्याएं मरीच आदि ऋषियों को दे दें | तो कर्दम जी ने- कला मरीचि को, अनुसुइया अत्रि को , श्रद्धा अंगिरा को, हविर्भू पुलस्त्य को, गति पूलह को, किया क्रतु को, ख्याति भ्रुगू को, अरुंधति वशिष्ठ को, शांती अथर्वा को दे दी | तथा पूर्ण दहेज के साथ सब को विदा किया और कर्दम जी भगवान के पास आए और उनकी स्तुति की प्रभो मैं आपकी शरण में हूं, भगवान बोले वन में जाकर मेरा भजन करें , भगवान की आज्ञा पाकर कर्दम जी वन में चले गए |
इति चतुर्विशों अध्यायः
( अथ पंचविंशो अध्यायः )
देवहुति का प्रश्न तथा भगवान कपिल द्वारा भक्ति योग की महिमा का वर्णन- पति के वन चले जाने पर देवहूति भगवान कपिल के सामने जाकर बोली- प्रभु इंद्रिय सुखों से अब मेरा मन ऊब गया है, अब आप मेरे मोहअन्धकार को दूर कीजिए| भगवान बोले माताजी सारे बंधनों का कारण यह मैं ही है | मैं और मेरा ही बंधन है | सबको छोड़ परमात्मा के भजन में लग जाना ही इसके मोक्ष का कारण है | योगियों के लिए भगवान की भक्ति ही श्रेयस्कर है, जो व्यक्ति मेरी कथाओं का श्रवण, मेरे नाम का संकीर्तन करते हैं परम कल्याणकारी हैं | माता जी इस लोक परलोक के सांसारिक दुखों से मन को हटा कर परमात्मा में मन को लगा देता है वह मुझे प्राप्त कर लेता है |
इति पंचविंशो अध्यायः
( अथ षडविंशो अध्यायः )
महदादि भिन्न-भिन्न तत्वों की उत्पत्ति का वर्णन- देवहूति बोली प्रभु प्रकृति पुरुष के लक्षण मुझे समझावें भगवान बोले माता जो त्रिगुणात्मक अव्यक्त नित्य और कार्य कारण रूप है स्वयं निर्विशेष होकर भी संपूर्ण विशेष धर्मों का आश्रय है | उस प्रधान नामक तत्व को ही प्रकृति कहते हैं , पंचमहाभूत, पांच उनकी तनमात्राएं, दस इन्द्रिय, चार अंतःकरण इन चौबीस तत्वों को ही प्रकृति का कार्य मानते हैं | प्रकृति को गति देने वाले हैं वो ही पुरुष कहे जाते हैं | प्रकृति के चौबीस तत्वों को मिलाकर एक पिंड बनाया और उनमें इंद्रियों के अधिष्ठाता देवताओं ने भी उस पिण्ड में प्रवेश किया फिर भी वह विराट पुरुष नहीं उठा |तब परमात्मा ने क्षेत्रज्ञ के रूप में उस विराट में प्रवेश किया, तब वह विराट उठ कर खड़ा हो गया | हे माता जी उसी का चिंतन करना चाहिए |
इति षड्विंशो अध्यायः
( अथ सप्तविंशो अध्यायः )
प्रकृति पुरुष के विवेक से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन- भगवान बोले हे माताजी प्रकृति के चौबीस तत्वों से बना हुआ यह शरीर ही क्षेत्र है तथा इसके भीतर बैठा परमात्मा का अंश आत्मा ही क्षेत्रज्ञ है यद्यपि आत्मा अकर्ता निर्लेप है, तो भी वह शरीर के साथ संबंध कर लेने पर- मैं कर्ता हूं ! इस अभिमान के कारण देह के बंधन में पड़ जाता है और जिसने आत्मा के स्वरूप को जान लिया वही मोक्ष का अधिकारी है |
इति सप्तविंशो अध्यायः
( अथ अष्टाविंशो अध्यायः )
अष्टांग योग की विधि- भगवान बोले माताजी योग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि आदि | योग साधना के लिए प्रथम आसन को जीतें कुशा मृगचर्म आदि के आसन पर सीधा पद्मासन लगाकर जितना अधिक देर बैठ सकें उसका अभ्यास करें | फिर पूरक, कुंभक, रेचक प्राणायाम करें, उसके बाद विपरीत प्राणायाम करें | पश्चात भगवान के सगुण रूप अंग प्रत्यगों का तथा उनके गुणों का ध्यान करें | जिस स्वरुप का ध्यान किया था उसे अपने हृदय में दृढ़ता पूर्वक धारण कर लें | भगवान के नाम, रूप, गुण, लीलाओं का गान करते हुए समाधिस्थ हो जावें |
इति अष्टाविंशो अध्यायः
( अथ एकोनत्रिशो अध्यायः )
भक्ति का मर्म और काल की महिमा- भगवान बोले माताजी गुण और स्वभाव के कारण भक्ति का स्वरूप भी बदल जाता है | क्रोधी पुरुष ह्रदय में हिंसा दम्भ, मात्सर्य का भाव रहकर मेरी भक्ति करता है वह मेरा तामस भक्त है | विषय, यश और ऐश्वर्य की कामना से भक्ति करने वाला मेरा राजस भक्त है, कामना रहित होकर प्रेम पूर्वक जो मेरी भक्ति करता है वह मेरा सात्विक भक्त है | काल भगवान की ही शक्ति का नाम है- ऋषि, मुनि, देवता सभी काल के अधीन हैं काल के आधीन ही सृष्टि और प्रलय होती है | ब्रह्मा, शिवादि देवता भी काल के अधीन हैं |
इति एकोनत्रिशों अध्यायः
( अथ त्रिंशो अध्यायः )
देह-गेह में आशक्त पुरुषों की अधोगति का वर्णन- भगवान बोले माताजी अनेक योनियों में भटकता हुआ यह जीव भगवान की कृपा से यह मानव जीवन प्राप्त करता है | मानव शरीर पाकर भी जो परमात्मा को भूलकर अपने शरीर के पालन पोषण तथा परिवार के निर्माण में ही लगा रहता है और परमात्मा को नहीं जानता, केवल इंद्रियों के भोग में ही आसक्त रहता है , अवांछित तरीके से धन संग्रह करता है, दूसरों के धन की इच्छा करता है , जब वृद्ध हो जाता है तब उसके पुत्रादि ही उसका तिरस्कार करते हैं तो उसे बड़ा दुख होता है | और जब शरीर छोड़ता है तब वह घोर नरक में जाता है , वहां यम यातना भोगता है |
इति त्रिंशो अध्यायः
( अथ एकोत्रिंशो अध्यायः )
मनुष्य योनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन- भगवान बोले हे माता जी यह जीव पिता के अंश से जब माता के गर्भ में प्रवेश होता है, एकरूप कलल बन जाता है, पांच रात्रि में बुद बुद रूप हो जाता है , दस रात्रि में बेर के समान कठोर हो जाता है, उसके बाद मांस पेशी एक महीने में उसके सिर निकल आते हैं, दो माह में हाथ पैर निकल आते हैं, तीन माह में नख, रोम, अस्थि, स्त्री पुरुष के चिन्ह बन जाते हैं | चार मास में मांस आदि सप्तधातुएं बन जाती हैं, पांच मास में भूख प्यास लगने लगती है , छठे माह में झिल्ली में लिपटकर माता की कुक्षि में घूमने लगता है, ( कोख में घूमने लगता है ) उस समय माता के खाए हुए अन्न से उसकी धातु पुष्ट होने लगती हैं , वहां मल मूत्र के गड्ढे में पड़ा वह जीव कृमियों के काटने से बड़ा कष्ट पाता है | तब वह भगवान से बाहर आने की प्रार्थना करता है, कि प्रभु मुझे बाहर निकालें, मैं आपका भजन करूंगा दशम मास में जब वह गर्भ से बाहर आता है, बाहर की हवा लगते ही वह सब कुछ भूल जाता है | और रोने लगता है, जब कुछ बड़ा होता है बालकपन खेलकूद में खो देता है, जवानी में स्त्री संग तथा दूसरों से बैर बांधने में खो देता है और अंत में जैसा आया था वैसे ही चला जाता है |
इति एकोत्रिंशो अध्यायः
संपूर्ण भागवत कथा हिंदी में
[ अथ द्वात्रिंशो अध्यायः ]
धूम मार्ग और अर्चरादि मार्ग से जाने वालों की गति का वर्णन, भक्ति योग की उत्कृष्टता का वर्णन– भगवान बोले- हे माताजी जीव संसार में जिसकी उपासना करता है , उसी को प्राप्त होता है | पितरों की पूजा करने वाला पितृ लोक, देवताओं की पूजा करने वाला देव लोक में जाता है , भूत प्रेतों का उपासक भूत प्रेत बनता है, पाप कर्मों में रत पापी धूम मार्ग से यमराज के लोक को जाकर नर्क आदि भोगता है और वह पाप पुण्य क्षीण होने पर इसी लोक में वापस आ जाता है | किंतु माताजी जो निष्काम भाव से परमात्मा की अनन्य भक्ति करता है, वह महापुरुष अर्चरादिमार्ग से देव आदि लोकों को पार करता हुआ, देवताओं का सम्मान प्राप्त करता हुआ बैकुंठ को जाता है | जहां से वह कभी लौटता नहीं | इसीलिए माताजी प्राणी मात्र का कर्तव्य है कि वह परमात्मा की अनन्य भक्ति करें,
इति द्वात्रिंशो अध्यायः
( अथ त्रयस्त्रिंशो अध्यायः)
देवहुति को तत्वज्ञान एवं मोक्ष पद की प्राप्ति– मैत्रेय उवाच–
एवं निशम्य कपिलस्य वचो जनित्री
सा कर्दमस्य दयिता किल देवहूतिः |
विस्रस्त मोहपटला तवभि प्रणम्य
तुष्टाव तत्वविषयान्कित सिद्धिभूमिम् ||
मैत्रेय जी कहते हैं- कि हे विदुर जी, कपिल भगवान के वचन सुनकर कर्दम जी की प्रिय पत्नी माता देवहूती के मोंह का पर्दा फट गया और वे तत्व प्रतिपादक सांख शास्त्र ज्ञान की आधार भूमि भगवान श्री कपिल जी को प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगी |
देवहूति उवाच–
अथाप्यजोनन्तः सलिले शयानं
भूतेन्द्रियार्थात्ममयं वपुस्ते |
गुणप्रवाहं सद शेष बीजं
दध्यौ स्वयं यज्जठराब्जः ||
देवहुति ने कहा– कपिल जी ब्रह्मा जी आपके ही नाभि कमल से प्रकट हुए थे, उन्होंने प्रलय कालीन जल में शयन करने वाले आपके पंचभूत इंद्रिय, शब्दादि विषय और मनोमय विग्रह का जो सत्वादि गुणों के प्रभाव से युक्त, सत्य स्वरूप और कार्य एवं कारण दोनों का बीज है का ही ध्यान किया था | आप निष्क्रिय सत्य संकल्प संपूर्ण जीवो के प्रभु तथा सहस्त्रों अचिंत्य शक्तियों से संपन्न हैं, अपनी शक्ति को गुण प्रवाह रूप से ब्रह्मादिक अनंत विभूतियों में विभक्त करके उनके द्वारा आप स्वयं ही विश्व की रचना करते हैं |
माता जी की ऐसी स्तुति सुनकर भगवान बोले- माताजी मैंने तुम्हें जो ज्ञान दिया है इससे तुम शीघ्र ही परम पद को प्राप्त करोगी, ऐसा कह कर माता जी से आज्ञा लेकर वहां से चल दिए और समुद्र में आकर तपस्या करने लगे | देवहूति ने भी तीव्र भक्ति योग से परम पद को प्राप्त कर लिया |
इति त्रयोस्त्रिंशो अध्यायः
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इति तृतीय स्कन्ध सम्पूर्णम्
अथ चतुर्थ स्कंध प्रारंभ
( अथ प्रथमो अध्यायः )
स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन– स्वायंभू मनु के दो पुत्र उत्तानपाद और प्रियव्रत के अलावा तीन पुत्रियां भी थी देवहूति, आकूति और प्रसूति | आकूति रुचि प्रजापति को पुत्रिका धर्म के अनुसार ब्याह दी जिससे यज्ञ नारायण भगवान का जन्म हुआ दक्षिणा देवी से इनको बारह पुत्र हुये | तीसरी कन्या प्रसूति दक्ष प्रजापति को ब्याह दी जिससे शोलह पुत्रियां हुई, जिनमें तेरह धर्म को, एक अग्नि को, एक पितृ गणों को और एक शिव जी को ब्याह दी | धर्म की पत्नी मूर्ति से नर नारायण का अवतार हुआ, अग्नि के पर्व, पवमान आदि अग्नि पैदा हुए, पितृगण से धारण और यमुना दो पुत्रियां हुई |
इति प्रथमो अध्यायः
( अथ द्वितीयो अध्यायः )
भगवान शिव और दक्ष प्रजापति का मनोमालिन्य- एक बार प्रजापतियों के यज्ञ में बड़े-बड़े देवता ऋषि देवता आदि आए, उसी समय प्रजापति दक्ष ने सभा में प्रवेश किया उन्हें आया देख ब्रह्मा जी और शिव जी के अलावा सब ने उठकर उनका सम्मान किया | दक्ष ने ब्रह्मा जी को प्रणाम कर आसन ग्रहण किया , किंतु शिवजी को बैठा देख वह क्रोधित हो उठा और कहने लगा देवता महर्षियों मेरी बात सुनो मैं कोई ईर्ष्या वश नहीं कह रहा हूं , यह निर्लज्ज महादेव समस्त लोकपालों की कीर्ति को धूमिल कर रहा है | इस बंदर जैसे मुंह वाले को मैंने ब्रह्मा जी के कहने पर मेरी कन्या दे दी थी, इस तरह यह मेरे पुत्र के समान है इसने मेरा कोई सम्मान नहीं किया , अस्थि चर्म धारण करने वाला , श्मशान वासी को मैं श्राप देता हूं आज से इसका यज्ञ में भाग बंद हो जाए | यह सुन शिवजी के जो गण थे , नंदी ने भी दक्ष को श्राप दे दिया इसका मुंह बकरे का हो जाए, साथ ही उन ब्राह्मणों को भी श्राप दिया जिन्होंने दक्ष का समर्थन किया था , कि वे पेट पालने के लिए ही वेद आदि पड़े | इस प्रकार जब भृगु जी ने सुना तो उन्होंने भी श्राप दे दिया कि शिव के अनुयाई शास्त्र विरुद्ध पाखंडी हों यह सुन शिवजी उठकर चल दिए |
इति द्वितीयो अध्यायः
( अथ तृतीयो अध्यायः )
सती का पिता के यहां यज्ञोउत्सव में जाने के लिए आग्रह करना– ब्रह्मा जी ने दक्ष को प्रजापतियों का अधिपति बना दिया, तब तो दक्ष और गर्व से भर गए और उन्होंने शिव जी का यज्ञ भाग बंद करने के लिए एक यज्ञ का आयोजन किया, बड़े-बड़े ऋषि देवता उसमें आने लगे, किंतु शिव जी को निमंत्रण नहीं था अतः वे नहीं गए |
जब सती ने देखा कि उसके पिता के यहां यज्ञ है जिसमें सब जा रहे हैं, तो शिवजी से उन्होंने भी जाने का आग्रह किया | सती जानती थी कि उनके यहां निमंत्रण नहीं है फिर भी पिता के यहां बिना बुलाए भी जाने का दोष नहीं है, ऐसा कह कर आग्रह करने लगी , शिव जी ने सती को समझाया कि आपस में द्वेष होने की स्थिति में ऐसा जाना उचित नहीं है, क्योंकि तुम्हारा वहां अपमान होगा उसे तुम सहन नहीं कर सकोगी |
इति तृतीयो अध्यायः
( अथ चतुर्थो अध्यायः )
सती का अग्नि में प्रवेश– शिवजी के इस प्रकार मना कर देने के बाद भी वह कभी बाहर कभी भीतर आने जाने लगी, और अंत में शिव जी की आज्ञा ना मान पिता के यज्ञ की ओर प्रस्थान किया | जब शिवजी ने देखा कि सती उनकी आज्ञा की अनदेखी करके जा रही हैं, होनी समझ नंदी के सहित कुछ गण उनके साथ कर दिए, सती नंदी पर सवार होकर गणों के साथ दक्ष के यहां पहुंची | वहां उससे माता तो प्रेम से मिली किंतु पिता ने कोई सम्मान नहीं किया, फिर यज्ञ मंडप में जाकर देखा कि यहां शिवजी का कोई स्थान नहीं है, सती ने योगाग्नि से अपने शरीर को जलाकर भस्म कर दिया | शिव के गण यज्ञ विध्वंस करने लगे तो भृगु जी ने यज्ञ की रक्षा की और शिव गणों को भगा दिया |
इति चतुर्थो अध्यायः
( अथ पंचमो अध्यायः )
वीरभद्र कृत दक्ष यज्ञ विध्वंस और दक्ष वध– जब शिवजी को ज्ञात हुआ कि सती ने अपने प्राण त्याग दिए और उनके भेजे हुए गणों को भी मार कर भगा दिएं, तब उन्होंने क्रोधित होकर वीरभद्र को भेजा | लंबी चौड़ी आकृति वाला वीरभद्र क्रोधित होकर अन्य गणों के साथ दक्ष यज्ञ में पहुंचकर यज्ञ विध्वंस करने लगे | मणिमान ने भृगु जी को बांध लिया, वीरभद्र ने दक्ष को कैद कर लिया, चंडीश ने पूषा को पकड़ लिया , नंदी ने भग देवता को पकड़ लिया | दक्ष का सिर काट दिया और उसे यज्ञ कुंड में हवन कर दिया , भृगु की दाढ़ी मूछ उखाड़ ली, पूषा के दात तोड़ दिए यज्ञ में हाहाकार मच गया सब देवता यज्ञ छोड़कर भाग गए वीरभद्र कैलाश को लौट आए |
इति पंचमो अध्यायः
( अथ षष्ठो अध्यायः )
ब्रह्मादिक देवताओं का कैलाश जाकर श्री महादेव को मनाना– जब देवताओं ने देखा कि शिवजी के गणों ने सारे यज्ञ को विध्वंस कर दिया वह ब्रह्मा जी के पास गए और जाकर सारा समाचार सुनाया , ब्रह्मा जी और विष्णु भगवान यह सब जानते थे इसलिए वे यज्ञ में नहीं आए थे | ब्रह्माजी बोले देवताओं शिव जी का यज्ञ भाग बंद कर तुमने ठीक नहीं किया अब यदि तुम यज्ञ पूर्ण करना चाहते हो तो शिवजी से क्षमा मांग कर उन्हें मनावे , ऐसा कहकर ब्रह्माजी सब देवताओं को साथ लेकर कैलाश पर पहुंचे, जहां शिवजी शांत मुद्रा में बैठे थे | ब्रह्मा जी को देखकर वे उठकर खड़े हो गए और ब्रह्मा जी को प्रणाम किया ब्रह्मा जी ने शिव जी से कहा देव बड़े लोग छोटों की गलती पर ध्यान नहीं देते , अतः चलकर दक्ष के यज्ञ को पूर्ण करें , दक्ष को जीवनदान दें, भृगु जी की दाढ़ी मूंछ, भग को नेत्र, पूषा को दांत प्रदान करें , यज्ञ के बाद जो शेष रहे आपका भाग हो |
श्रीमद् भागवत महापुराण संस्कृत हिंदी
[ अथ सप्तमो अध्यायः ]
दक्ष यज्ञ की पूर्ति- ब्रह्मा जी के कहने पर शिवजी दक्ष यज्ञ में पहुंचे और बोले भग देवता मित्र देवता के नेत्रों से अपना यज्ञ भाग देखें, पूषा देवता यजमान के दातों से खाएं, दक्ष का सिर जल गया है अतः उसे बकरे का सिर लगा दिया जाए | ऐसा करते ही दक्ष उठ कर खड़ा हो गया, उसे सती के मरण से बड़ा दुख हुआ उसने शिवजी की स्तुति की , यज्ञ प्रारंभ हुआ जो ही भगवान नारायण के नाम से आहुति दी वहां भगवान नारायण प्रगट हो गए | जिन्हें देख सब देवता खड़े हो गए और सब ने भगवान की अलग-अलग स्तुति की |
मैत्रेय जी बोले विदुर जी शिव जी का यह चरित्र बड़ा ही पावन है |
इति सप्तमो अध्यायः
( अथ अष्टमो अध्यायः )
ध्रुव का वन गमन- स्वयंभू मनु की तीन पुत्रियों की कथा आप सुन चुके हैं , उनके दो पुत्र हैं उत्तानपाद और प्रियव्रत ! उत्तानपाद के दो रानियां हैं सुरुचि और सुनीति , राजा को सुरुचि अधिक प्रिय है जिनका पुत्र है उत्तम | सुनीति के पुत्र का नाम ध्रुव है , एक समय राजा सुरुचि के पुत्र उत्तम को गोद में लेकर राज सिंहासन पर बैठे थे कि ध्रुव खेलते खेलते कहीं से आ गए राजा ने उन्हें भी उठाकर राज सिंहासन पर बैठा लिया, यह देख सुरुचि ने उसे सिंहासन से खींच कर नीचे डाल दिया और कहा तुम राज सिंहासन के अधिकारी नहीं हो , यदि तुम राज सिंहासन पर बैठना चाहते हो तो वन में जाकर नारायण की उपासना करो और मेरे गर्भ में आकर जन्म लो, तब तुम सिंहासन पर बैठ सकते हो |
चोट खाए हुए सांप की तरह बालक ,वह रोता हुआ बालक ध्रुव अपनी माता के पास आया रोते-रोते सारी बात माता को बता दी, माता ने बालक को कहा बेटा विमाता ने जो कुछ कहा वह सत्य है, एकमात्र नारायण ही सब की मनोकामना पूर्ण करते हैं | माता के ऐसे वचन सुनकर वह वन को चल दिए, रास्ते में नारद जी मिले ,
नारद जी ध्रुव से बोले बेटा अभी तो तेरे खेलने के दिन हैं,
भजन तो चौथे पन में किया जाता है फिर वन में हिंसक पशु रहते हैं वह तुम्हें खा जाएंगे | ध्रुव बोले चौथापन नहीं आया तो भजन कब करेंगे और जब भगवान रक्षक हैं तो हिंसक पशु कैसे खा जाएंगे | ध्रुव का अटल विश्वास देख नारद जी ने ध्रुव को द्वादशाक्षर मंत्र दिया और कहा यमुना तट पर मधुबन में जाकर इसका जाप करें , वह मधुवन में पहुंचकर उपासना में लीन हो गए |
तीन-तीन दिन में केवल कैथ और बैल खाकर भजन करने लगे , दूसरे महीने में छः छः दिन में केवल सूखे पत्ते खाकर भजन किया, तीसरे महीने में नव नव दिन में केवल जल पीकर भजन किया, चौथे महीने में बारह बारह दिन में वायु पीकर भजन किया, पांचवे महीने में ध्रुव ने स्वास को जीतकर भगवान की आराधना शुरू की, जिससे संसार की प्राणवायु रुक गई , सब लोग संकट में पड़ गए तो भगवान की शरण में गए और भगवान से बोले हमारा श्वास रुक गया है हमारी रक्षा करें | भगवान बोले देवताओं यह उत्तानपाद पुत्र ध्रुव की तपस्या का प्रभाव है, मैं अभी जाकर उसे तपस्या से निवृत्त करता हूं |
इति अष्टमो अध्यायः