श्रीमद् भागवत कथा हिंदी में -10 bhagwat katha in hindi
अथ अष्टम स्कन्धः प्रारम्भ
[ अथ प्रथमोऽध्यायः ]
मनवन्तरों का वर्णन-श्रीशुकदेवजी बोले ब्रह्माजी के एक दिन को एक कल्प कहते हैं। एक कल्प मे चोदह मनुराज्य करते हैं अभी छ: मनवन्तर बीत चुके सातवें मनु का राज्य चल रहा है। अब तक आप केवल एक स्वायम्भुव मनु का वंश सुने हैं दूसरे मनु हुए हैं स्वारोचिष उसके पुत्र हुए हैं। धुमत् सुषेण आदि इन्द्र हुए हैं रोचन देवता हुए तुषित आदि सप्तऋषि हुए उर्जस्तम्भ आदि तीसरे मनु हुए प्रियव्रत पुत्र उत्तम उनके पुत्र पवन आदि सप्तऋषि वशिष्ठजी के सात पुत्र चौथे मनु उत्तम के भाई तामस हुए पृथु आदि उनके पुत्र हुए सप्तऋषि ज्योतिधाम आदि इन्द्र का नाम त्रिशिख इस मनवन्तर मे भगवान ने हरि अवतार लेकर गज का उद्धार किया था इस पर राजा परीक्षित कहने लगे गज ग्राह की कथा मैं सुनना चाहता हूँ।
इति प्रथमोऽध्यायः
[ अथ द्वितीयोऽध्यायः ]
ग्राह के द्वारा गजेन्द्र का पकडा जाना-शुकदेवजी बोले क्षीरसमुद्र में त्रिकूट पर्वत पर सुन्दर उपवन मे अनेक वन्य पशुओं के साथ एक विशाल हाथी रहता था वह बड़ा बलवान था बड़े-बड़े शेर व्याघ्र भी उससे घबराते थे वहीं एक बडा जलाशय भी था एक दिन वह अपने परिवार के साथ उस जलाशय में जल पीने गया जल पीकर वह हथिनियों के साथ जलक्रीडा करने लगा जब बहुत देर तक क्रीडा करता रहा तब एक ग्राह ने उसका पैर पकड़ लिया वह पैर छुडाने के लिए बहुत छट पटाया किंतु पैर नही छुडा पाया विवश होकर गजेन्द्र ने भगवान को याद किया।
इति द्वितीयोऽध्यायः
[ अथ तृतीयोऽध्यायः ]
गजेन्द्र द्वारा भगवान की स्तुति और उसका संकट से मुक्ति
नमो भगवते तस्मै यत एत चिदात्मकम्।
पुरुषयादि बीजाय परेशायाभि धीमहि।।
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं।
योअस्मात परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयंभुवं ।।
गजेन्द्र बोले जो प्रकृति के मूल कारण हैं और सबके हृदय मे पुरुष रूप में विराजमान हैं एवं समस्त जगत के एक मात्र स्वामी हैं जिनके कारण इस संसार मे चेतना का विस्तार होता है मैं उन भगवान को नमस्कार करता हूँ और उनका ध्यान करता हूँ यह संसार उन्हीं में स्थित है उन्ही की सत्ता से प्रकाशित हो रहा हैं वे ही उसमें व्याप्त हो रहे हैं और स्वयं हि उसके रूप में प्रकट हो रहे है ये सब होने पर भी वे संसार ओर उसका मूल प्रकृति से परे हैं उन स्वयं प्रकाश स्वयं सिद्ध सत्तात्मक भगवान की मै शरण ग्रहण करता गजेन्द्र की स्तुति सुन और उसे संकट में देख भगवान गरुड़ पर सवार होकर वहां चल दिए जब गजेन्द्र ने देखा आकाश से भगवान आ रहे है उसने एक पुष्प लिया और सूंड से उसे भगवान को अर्पित किया यह देख भगवान गरुड को छोड दौड़ पड़े सुदर्शन चक्र से ग्राह का मस्तक अलग कर दिया और गज को पकड़ बाहर खेंच लिया।
इति तृतीयोऽध्यायः
यह भी देखें आपके लिए उपयोगी हो सकता है…
-
धार्मिक कहानियाँ
-
दुर्गा-सप्तशती
-
विद्यां ददाति विनयं
-
गोपी गीत लिरिक्स इन हिंदी अर्थ सहित
-
भजन संग्रह लिरिक्स 500+ bhajan
-
गौरी, गणेश पूजन विधि वैदिक लौकिक मंत्र सहित
-
कथा वाचक कैसे बने ? ऑनलाइन भागवत प्रशिक्षण
[ अथ चतुर्थोऽध्यायः ]
गज और ग्राह का पूर्व चरित्र तथा उनका उद्धार-शुकदेवजी वर्णन करते हैं कि गज और ग्राह चतुरभुज रूप में भगवान के सामने खडे हैं ग्राह पिछले जन्म में ह ह गंधर्व था देवल ऋषि के शाप से ग्राह बना था और गज भी राजा इन्द्र द्म्न थे अगस्त्य ऋषि को देख खड़े नही हुए अत: उनके शाप से हाथी बनगएथे दोनो भगवान को प्रणाम कर अपने लोक को चले गए
इति चतुर्थोऽध्यायः
Bhagwat katha in hindi
[ अथ पंचमोऽध्यायः ]
देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और ब्रह्मा कृत भगवान की स्तुति- श्रीशुकदेवजी बोले-परीक्षित पांचवें रेवत नाम के मनु हुए इन्द्र का नाम था विभु हिरण्यरोमा आदि सप्त ऋषि हुए छठे मनु हुए चाक्षुष उनके पुरु आदि कइ पुत्र थे इन्द्र का नाम मन्त्रद्रम हविष्यमान आदि सप्तऋषि थे उस समय भगवान ने अजित नाम से अवतार लिया और समुद्र मंथन कराया। परीक्षित बोले प्रभो देवताओं ने समुद्र मंथन कैसे किया यह सुनावें।श्रीशुकदेवजी बोले एक समय इन्द्र एरावत पर बैठ कर कही जा रहे थे रास्ते मे दुर्वासा जी का आश्रम था उधर से इन्द्र को जाते देख ऋषि ने उन्हें एक माला पहना दी इन्द्र ने माला का सम्मान न करते हुए उसे ऐरावत को पहना दी उसने उतार कर पैरों से कुचल दी यह देख दुर्वासा ने इन्द्र को शाप दिया तू श्री हीन हो जा यह देख राक्षससों ने इन्द्र पर चढाई कर दी और स्वर्ग छीन लिया देवता इधर उधर घूमने लगे सब मिल ब्रह्माजी के पास गए ब्रह्माजी उनके साथ भगवान की प्रार्थना की।
इति पंचमोऽध्यायः
[ अथ षष्ठोऽध्यायः ]
देवताओं और देत्यों का समुद्र मंथन का उद्योग-शुकदेवजी बोले राजन् ब्रह्माजी की प्रार्थना सुन भगवान वही प्रकट होगए और बोले
अरयोअपि हि सन्धेया: सति कार्यार्थ गौरवे।
अहिमूषक वद् देवा ह्यर्थस्य पदवीं गतेः।।
देवताओं अभी काल तुम्हारे अनुकूल नहीं है। समय की प्रतिक्षा करो जैसे-चूहा और सर्प ने संधी की थी एसे असुरों से संधी कर लो और मिल कर समुद्र मंथन कर अमृत प्राप्त करो भगवान ऐसा कह कर अंतर्ध्यान हो गए ओर इन्द्र स्वर्ग में बलि के पास गए और संधी का प्रस्ताव रखा और समुद्र मंथन की बात कहीं जिसे बलि ने स्वीकार कर लिया समुद्र मंथन की तैयारी होने लगी दैत्य देवता मिलकर पहले मदराचल पर्वत उठाने गए तो वह इतना भारी था कि उनमें से कई अंग भंग हो गए किंतु उसे उठा नही पाए तब भगवान ने लीला पूर्वक उठा कर उसे गरुड़ पर रख लिया और समुद्र के पास लाकर उतार दिया।
इति षष्ठोऽध्यायः
[ अथ सप्तमोऽध्यायः ]
समुद्र मंथन का आरंभ और भगवान शंकर का विषपानश्रीशुकदेवजी बोले-मदराचल पर्वत को लेकर जब उसे समुद्र में छोड़ा वह डूबने लगा भगवान ने कच्छप अवतार लेकर उसे धारण किया वासुकी नाग का नेता बनाया गया समुद्र मंथन प्रारंभ हुआ।
निर्मथ्य मानादु दधेर भूद्विषं।
महोल्वणंहाल हलाहलमग्रतः।।
सम्भ्रान्त मीनोन्मकराहिकच्छपात्।
तिमिद्विपग्राह तिमिगिला कुलात्।।
सर्व प्रथम उससे हलाहल जहर निकला जो संसार को जलाने लगा प्रजा पतियों ने भगवान शिव की स्तुति की शिवजी ने भगवान को स्मर्ण कर समस्त जहर के तीन आचमन कर गए सब की पीडा मिट गई।
इति सप्तमोऽध्याय:
[ अथ अष्टमोऽध्यायः ]
समुद्र से अमृत प्रकट होना और भगवान का मोहिनि अवतार ग्रहण करना-शिवजी के विषपान के बाद सर्व प्रथम कामधेनु गाय निकली जो यज्ञ करने वाले ऋषियों को दे दी इसके पश्चात् उच्चश्रवा नामक घोड़ा निकला जो बलि को दे दिया इसके बाद ऐरावत हाथी निकला जिसे इन्द्र को दे दिया पश्चात कौस्तुभ मणि निकली जो स्वयं भगवान धारण करली फिर कल्प वृक्ष निकला जो स्वर्ग भेज दिया गया पश्चात् अप्सराएं निकली वे भी स्वर्ग भेज दी गई।
ततश्चाविरभूत साक्षाच्छ्री रमा भगवत्परा।
रंजयंती दिश: कान्त्या विद्युत् सौदामनी यथा।।
पश्चात् साक्षात् श्री महालक्ष्मी प्रकट हुई दिशायें बिजली की तरह चमक उठी इन्द्र ने उन्हे स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान किया स्वर्ण कलशों से उनका अभिषेक किया उन्होने एक माला ली और चारों ओर देखकर भगवान के गले मे डाल दी पश्चात् वारुणी देवी निकली जिसे देख राक्षस मोहित होगए वह उन्हे देदी गइ उसके पश्चात श्रीधन्वन्तरि अमृत कलश लेकर निकले जिसे देख कर राक्षस उनके हाथ से अमृत कलश छीन कर ले भगे।
इति अष्टमोऽध्यायः
[ अथ नवमोऽध्यायः ]
मोहनी रूप से भगवान के द्वारा अमृत बाँटना-शुकदेवजी बोले राजन् दैत्य लोग जब आपस मे अमृत कलश की छीना झपटी कर रहे थे भगवान मोहिनि रूप धारन कर प्रकट हो गए जिसे देखकर सब राक्षस मोहित हो गए भगवान ने सबको बुलाकर कहा कौन हो और क्यों लड़ रहे हो सबने मोहिनि भगवान से कहा हम कश्यपजी के पुत्र हैं देवता और दानव हमने मिलकर यह अमृत निकाला है आप इसे सब में बराबर बांट दें हमें आप पर पूर्ण विश्वास है इस पर मोहिनि भगवान ने अमृत कलश अपने हाथ में ले लिया दैत्य और देवता अलग-अलग दो लाइनों मे बैठ गए प्रथम देवताओं से पिलाना प्रारंभ किया देवताओं की लाइन में छुपकर राहु बैठ गया और अमृत पी लिया, सूर्य चंद्रमा के बताने पर उसका सिर काट दिया किंतु अमृत पी लेने से वह मरा नहीं बल्कि दो हो गए देवताओं को अमृत पिला कर भगवान अंतर्ध्यान हो गए |
इति नवमो अध्यायः
Bhagwat katha in hindi
[ अथ दशमोऽध्यायः ]
देवासुर संग्राम-श्रीशुकदेवजी बोले-परीक्षित्! सांपों को दूध पिलाने से कोई लाभ नही ऐसा विचार भगवान ने राक्षसों को अमृत नहीं दिया भगवान से विमुख कोई अलभ्य वस्तु प्राप्त कर भी कैसे सकता हैं। देवताओं को अमृत पिलाकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गए। जब राक्षसों ने देखा कि उनके साथ धोखा हुआ है उन्होने अपने शस्त्र उठा लिए और देवताओं पर टूट पडे भयंकर देवासुर संग्राम होने लगा देवताओं ने एक तो अमृत पी लिया था दूसरे भगवान की कृपा प्राप्त थी राक्षसों का संहार करने लगे भगवान स्वयं इस युद्ध में राक्षसों को मारने लगे।
इति दशमोऽध्यायः
[ अथ एकादशोऽध्यायः ]
देवासुर संग्राम की समाप्ति-देवासुर संगाम मे कभी देवता विजयी होते थे तो कभी राक्षस दोनों और से ही माया का सहारा ले रहे थे जब राक्षसों का अत्याधिक संहार होने लगा तो वहां नारदजी आए और बोले भगवान द्वारा रक्षित देवताओं अब इन राक्षसों को मत मारो और युद्ध बन्द कर दो नारदजी के कहने से दोनों और से युद्व बन्द हो गया।
इति एकादशोऽध्यायः
Bhagwat katha in hindi
[ अथ द्वादशोऽध्यायः ]
मोहिनी रूप को देख कर महादेवजी का मोहित होना-एक समय महादेवजी ने जब यह सुना कि भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर देवताओं को अमृत पिला दिया तो उस रूप के दर्शन करने की इच्छा सेले क्षीर सागर पहंचे भगवान ने उनका स्वागत किया और अंत मे महादेवजी ने अपना अभिप्राय भगवान के सामने प्रकट किया भगवान बोले वह रूप तो कामी पुरुषों के लिए है फिर भी कभी दिखाउगाँ कह उन्हें विदा किया जब वे वहां से लौट रहे थे रास्ते मे एक सुन्दर उपवन दिखाई पड़ा वह अत्यन्त रमणीय था वहां एक सुन्दर स्त्री अपने हाथ की गेंद उछाल कर खेल रही थी उसके झीने वस्त्र हवा के झोकों से उड़-उड़ जा रहे थे। महादेवजी उसके पीछे दौड़ पडे वे भूल गए कि मेरे साथ मेरा परिवार भी है आगे आगे वह स्त्री पीछे-पीछे महादेवजी कभी दूर तो कभी दो अंगुल की दूरी पर रह जाय पर उसे पकड नही पाए काफी प्रयत्न के बाद आखिर उसे पकड लिया इतने में भगवान अपने असली रूप में आ गए शिवजी बहत लज्जित हए और भगवान के चरण पकड लिए भगवान ने उठाकर हृदय से लगा लिया।
इति द्वादशोऽध्यायः
[ अथ त्रयोदशोऽध्यायः ]
आगामी सात मन्वन्तरों का वर्णन श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! अब तक हम छ: मनुओं का वर्णन कर चुके हैं अब सातवें मनु का सुनो इनका नाम है श्राद्वदेव ये विवश्वान-सूर्य-के पुत्र थे श्राद्धदेव के दस पुत्र इक्ष्वाकु आदि थे इन्द्र हुए पुरन्दर सप्तऋषि हुए विश्वामित्र जमदग्नि भारद्वाज गौतम अत्रिी वशिष्ठ और कश्यप इस मनवन्तर मे कश्यपजी की पत्नि अदिति से भगवान वामन का अवतार हुआ वर्तमान मे इनका कार्य काल चल रहा है। अब आगे आने वाले सात मनुओं के बारे मे सुनो आठवें मनु होगें सावर्णि उनके पुत्र होगें निर्भोक आदि इन्द्र बनेगें वैरोचन पुत्र बलि वामन भगवान ने इनसे तीन पैर पृथ्वी मागी थी इस मन्वन्तर के सप्त ऋषि होगे गालव दीप्तिमान आदि। नवें मनु होगें दक्षसावर्णि अद्भुत नामके इन्द्र होगें। दसवें मनु होगें ब्रह्मसावर्णि हविश्मान आदि सप्तऋषि होगें इन्द्र का नाम होगा शम्भु ग्यारहवें मनु होगें धर्मसावर्णि इनके पुत्र होगें सत्य धर्म आदि अरुणादि सप्तऋषि होगें वैधृत नामके इन्द्र होगें। बरहवें मनु होगें रुंद्र सावर्णि ऋतधामा इन्द्र होगें। तेरहवें मनु होगें देव सावर्णि इन्द्र होगा दिवस्पति। चोदहवें मनु होगें इन्द्र सावर्णि इन्द्र होगा शुचि। ये चोदह मनु भूत वर्तमान और भविष्य तीनो काल मे चलते रहते हैं।
इति त्रयोदशोऽध्यायः
[ अथ चतुर्दशोऽध्यायः ]
मनु आदि के प्रथक प्रथक कर्मों का निरुपण-1. मनु, 2. मनुपुत्र, 3. इन्द्र, 4. देवता, 5. सप्तऋषि मंडल। ये पांचों भगवान के संरक्षण मे त्रिलोकी के शासन का संचालन करते हैं मनु सर्वोपरि शासनाध्यक्ष है उनके पुत्र उनके कार्य में सहयोगी हैं इन्द्र कार्यवाहक शासनाध्यक्ष हैं जो मनु की देख रेख मे कार्य करते है।
देवता इन्द्र के मंत्री मण्डल के सदस्य है जिन्हे अलग अलग विभागों की जिम्मेदारी इन्द्र ने बांट रखी है।
सप्तऋषिमंडल न्यायाधीश मंडल है-सुपीरियम कोर्ट
यदि इन्द्रादि देवता अपने कार्य मे विफल रहते हैं तो सप्त ऋषि मडल उसमे हस्तक्षेप करता है।
इति चतुर्दशोऽध्यायः
Bhagwat katha in hindi
[ अथ पंचदशोऽध्यायः ]
राजा बलि की स्वर्ग पर विजय-
बले: पदत्रयं भूमेः कस्माद्धरि याचत।
भूत्वेश्वरः कृपण व्रल्लब्धार्थोअपि बबन्धतम्।।
राजापरीक्षित बोले-प्रभो भगवान हरि ने बलि से तीन पैर पृथ्वी कैसे मागी और फिर उसे बांधा क्यों कृपाकर इसे समझावें। श्रीशुकदेवजीबोले-परीक्षित! जब देवासुर संग्राम मे बलि मारे गए तो शुक्राचार्यजी ने उन्हे अपनी संजीवनी विद्या से जीवित कर लिया और उससे एक विश्वजित नामक यज्ञ कर वाया जिससे दिव्य रथ प्रकट हुआ जिसमें कवच अस्त्र शस्त्र रखे थे बलि ने कवच पहना रथ में सवार हुआ शुक्राचार्यजी ने उन्हे एक शंख दिया सेना लेकर अमरावति को चारों ओर से घेर लिया बलि ने शंख बजाया देवतागण भयभीत हो गुरु शरण मे गए बृहस्पतिजी बोले देवताओं अभी समय आपके पक्षमे नही है भृगुवंशी ब्राह्मणों की पूर्णकृपा उन पर है तुम सामना नही कर सकते अत: कहीं जाकर छुपजावो और समय की प्रतिक्षा करो देवता स्वर्ग छोड़कर चले गए बलि स्वर्ग का राज्य करने लगा उस समय बलि से सौ अश्वमेघ यज्ञ करवाये।
इति पंचदशोऽध्यायः
[ अथ षोडषोऽध्यायः ]
कश्यपजी के द्वारा अदिति को पयोब्रत का उपदेश-
एवं पुत्रेषु नष्टेषु देवमातादितिस्तदा
हृते त्रिविष्टपे दैत्यैः पर्यतप्यदनाथ वत।।
एकदा कश्यपस्तस्या आश्रमं भगवान गात
निरुत्सवं निराननदं समाधेर्विरतश्चिरात्।।
शुकदेवजी वर्णन करते हैं जब देव माता अदिति ने अपने पुत्रों को अनाथ होकर इधर-उधर भटकते देखा तो वह बडी दुखी हुई एक दिन उसके आश्रम में कश्यप पधारे वे अभी-अभी समाधि से उठे थे उनकी पत्नि अदिति दीनभाव से बोली प्रभो दिति के पुत्रों ने मेरे पुत्रों का स्वर्ग छीन लिया वे इधर उधर भटक रहे हैं। अत: कोई उपाय बतायें जिससे मेरे पुत्रों का स्वर्ग उन्हें मिल जावे कश्यपजी बोले तुम्हे एक व्रत बताता हूँ
फाल्गुनस्यामले पक्षे द्वादशाहं पयोव्रतः।
अर्चयेदरविन्दाक्षं भक्त्या परमयान्वितः।।
यह पयोव्रत नामक व्रत है फाल्गुन शुक्ल पक्षमे प्रतिपदासे द्वादशी पर्यन्त भगवान नारायण की उपासना करे केवल दूध पीकर रहे।
इति षोडषोऽध्यायः
यह भी देखें आपके लिए उपयोगी हो सकता है…
-
धार्मिक कहानियाँ
-
दुर्गा-सप्तशती
-
विद्यां ददाति विनयं
-
गोपी गीत लिरिक्स इन हिंदी अर्थ सहित
-
भजन संग्रह लिरिक्स 500+ bhajan
-
गौरी, गणेश पूजन विधि वैदिक लौकिक मंत्र सहित
-
कथा वाचक कैसे बने ? ऑनलाइन भागवत प्रशिक्षण
[ अथ सप्तदशोऽध्यायः ]
भगवान का प्रकट होकर अदिति को वरदान- अदिति ने श्रद्धा पूर्वक उस व्रत को किया तो प्रसन्न होकर शंख चक्र गदा पद्म धारी भगवान प्रकट हो गए अदिति उनकी प्रार्थना करने लगी।
यज्ञेश यज्ञपुरुषाच्युत तीर्थपाद
तीर्थश्रवः श्रवण मंगल नामधेय।।
आपन्न लोक बृजिनो पशमोदयाद्य
शंन: कृधीश भगवन्नसि दीननाथः।।
आप यज्ञों के स्वामी हैं स्वयं यज्ञ भी आप ही हैं आपके चरणों का सहारा लेकर संसार से तर जाते है। आपका यश कीर्तन भी संसार से तारने वाला है आपके नामो का श्रवण मात्र से ही कल्याण हो जाता है आदि पुरुष जो आपकी शरण मे आ जाता है उसकी सारी विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं आप दीनों के स्वामी हैं हमारा कल्यण कीजिए। भगवान बोले मैं जानता हूं कि तुम अपने पुत्रों के लिए दु:खी हो मैं शीघ्र ही तुम्हारे गर्भ से अवतार लेकर देवताओं के कार्य को करुंगा तुम निश्चिन्त होकर मेरा ध्यान करो तभी अदिति भगवान के ध्यान में लीन हो गई।
इति सप्तदशोऽध्यायः
Bhagwat katha in hindi
[ अथ अष्टादशोऽध्यायः ]
वामन भगवान का प्रकट होकर राजा बलि की यज्ञशाला मे पधारना
श्रोणायां श्रवण द्वादश्यां मुहूर्तेभिजिति प्रभुः।
सर्वे नक्षत्र ताराद्या श्चक्रुस्तजन्म दक्षिण।।
शुकदेवजी बोले-ब्रह्माजी के प्रार्थना करने पर साक्षात भगवान अदिति के सामने प्रकट हो गए। चतुर्भुज रूप में शंख चक्र गदा पद्म धारण किए थे कश्यप अदिति के देखते-देखते उन्होंने ब्रह्मचारी का रूप धारण कर लिया। उनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ सविता ने गायत्री का उपदेश किया बृहस्पति ने यज्ञोपवीत कश्यपजी ने मेखला दी वामन भगवान वहां से बलि के यज्ञ में प्रस्थान कर गए। भगवान को आते देख ऋत्विज गण सोचने लगे क्या ये सूर्य भगवान यज्ञ देखने आ रहे है सहसा उन्होंने यज्ञ मंडप मे प्रवेश किया बलि ने आसन देकर चरण धोए और बोला आज मेरा घर पवित्र हो गया आपको क्या चाहिए हाथी घोड़े गांव या ब्राह्मण कन्या जो आप मांगोगे वही दूगां।
इति अष्टादशोऽध्यायः
[ अथ एकोनविंशोऽध्यायः ]
भगवान वामन का तीन पग पृथ्वी मागना बलि का वचन देना और शुक्राचार्यजी का उन्हें रोकना-श्रीशुकदेवजी बोले-परीक्षित्! बलि के ऐसे वचन सुन भगवान वामन बोले-बलि आपने जो कहा वह आपके कुल के अनुकूल है आपके कुल में ऐसा कोई नहीं हुआ जो दान के लिए मना कर दे प्रहलाद जी का सुयश संसार मे छा रहा है और आपके पिता विरोचन जानते हुए भी कि यह दान माँगने वाला इन्द्र है और छल कर रहा है अपनी आयु का दान उसे दे दिया इसलिए मैं जानता हूँ कि तुम मुझे दान अवश्य दोगे मुझे आप केवल मेरे अपने पैरों से तीन पग पृथ्वी दीजिए। बलि बोले ब्रह्मचारी! तुम बात तो वृद्धों जैसी करते हो और माँगने मे बिल्कुल बच्चे हो मैं त्रिलोकी पति तुम्हे एक द्वीप भी दे सकता हूं वामन बोले यह कामना तो तब भी पूरी नही होती मैं सन्तोषी ब्राह्मण हूं मुझे तीन पग भूमि से अधिक कुछ नही चाहिए। बलि बोले ठीक है जैसी आपकी इच्छा कह संकल्प के लिए तैयार होगए तभी शुक्राचार्यजी बोले बलि सावधान जिसे तुम दान देने जा रहे हो वह साक्षात् विष्णु हैं तुम्हारा सब कुछ छीन लेगे अपने वादे से मुकर जावों क्योंकि जहाँ वृत्ति छिनती हो वहां झूठ बोलने का कोई दोष नहीं होता।
इति एकोनविंशोऽध्यायः
[ अथ विंशोऽध्यायः ]
भगवान वामनजी का विराट रूप होकर दो ही पग मे पृथ्वी और स्वर्ग को नाप लेना-बलि बोले गुरुजी यह सत्य है कि वृत्ति नष्ट हो रही हो तो झूठ बोलने का कोई दोष नहीं पर जब वे भगवान ही हैं तो सब कुछ उन्हीं का तो है वे चाहे जैसे ले सकते हैं फिर दान के लिए क्यों मना करूं मैं अवश्य दूगा बलि बड़ा प्रसन्न है उसकी माता भी प्रसन्न है और कहती है। भली भई जो ना जली वेरोचन के साथ। मेरे सुत के सामने कृष्ण पसारे हाथ।। बलि की एक बेटी थी रत्न माला भगवान के स्वरुप पर मोहित हो कहने लगी मेरे भी ऐसा सुन्दर बालक हो जिसे मैं स्तन पान कराउं भगवान बोले द्वापर मे तू पूतना बनना तब तेरा स्तन पान करूंगा। बलि ने संकल्प हाथ में ले लिया और छोड दिया।
तद् वामनं रूपम वर्धताद्भुतं
हरेरनन्तस्य गुण त्रयात्मकम्।।
भूः खं दिशो द्यौर्विवरा:पयोधय
स्तिय॑न्नृदेवा ऋषयो यदासत।।
इसी बीच भगवान ने अपने स्वरुप को इतना बढाया कि समस्त त्रिलोकी में भगवान ही नजर आए उन्होंने एक पग मे भू लोक को नाप लिया दूसरे चरण ब्रह्म लोक में पहुंच गया।
इति विंशोऽध्यायः