bhagwat katha pdf/16भागवत कथा( पंचम स्कन्ध )

( अथ अष्टमो अध्यायः )

नरसिंह भगवान का प्रादुर्भाव हिरण्यकश्यप का वध ब्रह्मादिक देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति- प्रहलाद जी की बात सुन सब दैत्य बालक भगवान के भक्त बन गए और गुरु जी की शिक्षा का सब ने बहिष्कार कर दिया तब तो गुरु पुत्र घबराए और जाकर हिरण्यकशिपु को सब कुछ बता दिया , हिरण्य कश्यप ने प्रहलाद जी को मरवाने के अनेक उपाय किए हाथी के पैरों से कुचल वाया पहाड़ से गिराया काले सांपों से डसवाया अग्नि में जलाया किंतु प्रहलादजी को कुछ भी नहीं हुआ अन्त में हाथ में तलवार ले कहने लगा मूर्ख अब बता तेरा राम कहाँ है प्रह्लादजी बोले मेरा राम आप में मेरे में आपकी तलवार में सर्वत्र है।

हिरण्य कशिपु बोले क्या इस खंभे मे तेरा राम है तो प्रह्लादजी ने कहा अवश्य है इस पर दैत्य ने खंभे पर जोर से प्रहार किया तो एक भयंकर शब्द हुआ खंभे को फाड़कर नृसिंह भगवान प्रकट हो गए आधा शरीर सिंह का आधा मानव का हिरण्य कशिपु को पकड़ लिया महल के द्वार पर बैठकर उसे अपने पैरों पर लिटा लिया और कहने लगे बोल मैं श्रृष्टि का जीव हूँ मेरे पास कोई अस्त्र-शस्त्र है दिन है अथवा रात तुम आकाश में हो या धरती पर हिरण्य कशिपु ने भगवान को आत्म समर्पण कर दिया उसके पेट को फाड़कर उसे समाप्त कर दिया किन्तु भगवान का क्रोध शान्त नहीं हुआ क्रोध शान्त करने के लिए उनके सामने जाने की किसी की हिम्मत नही हो रही थी ब्रह्मादिक देवताओं ने उनकी दूर से ही प्रार्थना की।

इति अष्टमोऽध्यायः

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[ अथ नवमोऽध्यायः ]

ब्रह्मादिक देवता ओं ने देखाकि भगवान का क्रोध शान्त करने के लिए उनके पास जाने की कोई हिम्मत नहीं कर रहा है तब उन्होंने प्रह्लादजी को भगवान के पास भेजा वे सहज गति से गये और जाकर भगवान की गोद में बैठ गये भगवान अपनी जीभ से चाट ने लगे और बोले-

वासनी से बांधि के अगाध नीर बोरि राखे

तीर तरवारनसों मारि मारि हारे है।

गिरि ते गिराय दीनो डरपे न नेक आप

मद मतवारे भारे हाथी लार डारे हैं।

फेरे सिर आरे और अग्नि माहि डारे

पीछे मीड गातन लगाये नाग कारे हैं।

भावते के प्रेम मेमगन कछु जाने नाहि

ऐसे प्रहलाद पूरे प्रेम मतवारे है।

(2) बोले प्रभु प्यारे प्रिय कोमल तिहारे अंग

असुरनने मार्योमम नाम एक गाने में।

गिरि ते गिरायो पुनि जलमे डुबायो हाय

अग्नि में जलायो कमी राखि ना सताने में।

उरसे लगाय लिपटाय कहे बार बार

करुणा स्वरुप लगे करुणा दिखाने में।

मंजुल मुखारविन्द चूमि चूमि कहे प्रभो

क्षमा करो पुत्र मोहि देर भइ आने में।

भगवान देर से आने के लिए अपने भक्त से क्षमा मांग रहे हैं। प्रहलादजी भगवान की स्तुति करते हैं

प्रतद् यच्छ मन्युमसुरश्च हतस्त्वयाद्य

मोदेत साधुरपि वृश्चिक सर्प हत्या।।

लोकाश्च निर्वृतिमिताः प्रतियन्ति सर्वे

रूपं नृसिंह विभयाय जनाः स्मरन्ति।।

जिस दैत्य को मारने के लिए आपने क्रोध किया था वह मर चुका है। अब भक्त जन आपके शान्त स्वरुप का दर्शन करना चाहते है अत: क्रोध का शान्त करें भक्तजन भय नाश के लिये आपके इस स्वरुप का स्मर्ण करेग भगवान बोले प्रहलाद तुम्हारा कल्याण हो मैं तुम्हारे उपर बहत प्रसन्न हू अतः तुम जो चाहो वरदान माँग लो।

इति नवमोऽध्यायः

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[ अथ दशमोऽध्यायः ]

प्रहलादजी के राज्याभिषेक और त्रिपुरदहन की कथा-

यदि रासीश मे कामान् वरांस्त्वं वरदर्षभ।

कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम् ।।

प्रहलादजी बोले यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो यह दीजिए कि मेरे हृदय में कामना का कोई बीज न रहे। भगवान बोले भक्त प्रहलाद तुम्हारा कल्याण हो तुम मेरे प्रिय भक्त हो अभी संसार के ऐश्वर्य भोग कर तुम मेरे लोक को आवोगे। प्रहलादजी बोले मुझे एक वरदान और दीजिए-

वरं वरय एतत् ते वरदेषान्महेश्वर

यदनिन्दत् पितामे त्वामविद्वां स्तेज ऐश्वरं।।

विद्धामर्षाशय: साक्षात् सर्वलोक गुरुं प्रभुम्

भ्रातृ हेति मृषादृष्टिस्त्वद्भक्ते मयिचाघवान्।।

तस्मात् पिता मे पूयेत दुरन्ताद् दुस्तरादधात्

पूतस्तेषांगसंदृष्टस्तदा कृपण वत्सल।।।

मेरे पिता ने आपकी बड़ी निन्दा की है उसे क्षमा कर दें एवमस्तु कह कर भगवान ने प्रहलादजी को अपने पिता की अंतेष्ठि की आज्ञा दी ओर प्रहलादजी ने पिता का अंतिम संस्कार किया प्रहलादजी को सुतल लोक का राज्य देकर भगवान अंतर ध्यान हो गए। नारदजी से युधिष्ठिरजी ने प्रश्न किया प्रभो भगवान शिव ने कैसे त्रिपुर दहन किया बतावें इस पर नारदजी बोले राजन् एक समय सब राक्षस स्वर्ग की कामना से मय दानव की शरण में गए मय ने उन्हें तीन विमान बनाकर दिए विमान क्या तीन पुर ही थे सब राक्षस उन में बैठ आकाश से अस्त्र शस्त्रों की वर्षा करने लगे घबरा कर देवता भगवान शिव की शरण गए शिवजी ने तान बाण छोड़कर तीनो पुरों का संहार कर दिया मयदानव ने सब राक्षसों को अमृत कुंड में लाकर डाल दिए और सबको जीवित कर दिया शिवजी उदास हए और भगवान नारायण को याद किया भगवान गाय का रूप धारा कर सब अमृत को पी गए और सारे राक्षस मारे गए।

इति दशमोऽध्यायः

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[ अथ एकादशोऽध्यायः ]

मानवधर्म वर्णधर्म और स्त्रीधर्म का निरूपण-युधिष्ठिरजी बोले भगवन् ! मैं मानव धर्म वर्ण धर्म स्त्रियों के धर्म जानना चाहता हैं। नारदजी बोले राजन् धर्म के तीस लक्षण बताये गए हैं सत्य दया तपस्या शौच तितिक्षा उचित विचार संयम अहिंसा ब्रह्मचर्य त्याग स्वाध्याय सरलता संतोष संत सेवा इत्यादि ये सब मानव धर्म हैं। पढ़ना-पढ़ाना यज्ञ करना कराना दान लेना दान देना ये छ: कर्म ब्राह्मण के हैं क्षत्रिय का धर्म है रक्षा करना कृषि गो रक्षा व्यवसाय ये वैश्य का धर्म है सब की सेवा करना शूद्र का धर्म हैं। पति की सेवा करना उसके अनुकूल रहना यह स्त्री धर्म है।

इति एकादशोऽध्यायः

[ अथ द्वादशोऽध्यायः ]

ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमों के नियम-ब्रह्मचारी गुरु कुल में निवास कर इन्द्रियों का संयम करे गुरु की आज्ञा में रहे त्रिकाल संध्या करें भिक्षा से जीवन यापन करें। गृहस्थ धर्म के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त होने पर वानप्रस्थ लेना चाहिए घर से दूर किसी पवित्र स्थान में रहकर सलोन वृत्ति से जीवन यापन करते हुए भगवान का भजन करें।

इति द्वादशोऽध्यायः

[ अथ त्रयोदशोऽध्यायः ]

यतिधर्म का निरुपण और अवधूत प्रहलाद संवाद-वानप्रस्थ के बाद अथवा सीधे भी शरीर के अलावा व्यक्ति वस्तु स्थान और समय का अपेक्षा न रखकर पृथ्वी पर विचरण करे एक कोपीन लगावे दण्ड आदि धर्म चिह्नों के अलावा कोई वस्तु न रखें यही सन्यास धर्म है इस संदर्भ में एक दत्तात्रेय और प्रह्लादजी का आख्यान है। एक समय प्रहलादजी कही भ्रमण कर रहे थे रास्ते में उन्हें धरती पर पड़ा एक अवधूत मिला जिसके शरीर पर केवल एक कोपीन थी न बिस्तर न तकिया प्रहलादजी ने उन्हें प्रणाम किया और उनसे उनका परिचय जानना चाहा दत्तात्रेय बोले जब भूमि सोने के लिए है हाथ का सिराना है कोई दे देता है तो खा लेता हूँ। वर्ना आनंद से भजन करता हूँ यहि संन्यास धर्म है।

इति त्रयोदशोऽध्यायः

[ अथ चतुर्दशोऽध्यायः ]

ग्रहस्थ धर्म संबंधी सदाचार-गृहस्थ के चार देवता हैं मातृ देवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव गृहस्थ में रहते हुए माता-पिता की सेवा करे अपने गुरु के प्रति समर्पित रहे कोई अतिथि द्वार से निराश न लौटे जो शुभ कर्म भगवान को समर्पित कर दे सब में सम भाव रखे श्रद्धा करे संतों की सेवा करें।

इति चतुर्दशोऽध्यायः

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[ अथ पंचदशोऽध्यायः ]

गृहस्थों के लिए मोक्ष धर्म का वर्णन-गृहस्थ में रहते हुए देवताओं का यज्ञ तथा पित्रेश्वरों का श्राद्ध अवश्य करे सबकी सेवा भगवान की सेवा समझ कर करे सबको परमात्मा का ही समझे परमात्मा में पूर्ण विश्वास रखते हुए परमात्मा के प्रति समर्पित रहे अंत में परमात्मा को याद करते हुए शरीर को छोड़ परमात्मा को प्राप्त हो जाय।

इति पंचदशोऽध्यायः

इति सप्तम स्कन्ध समाप्त

अथ अष्टम स्कन्धः प्रारम्भ

[ अथ प्रथमोऽध्यायः ]

मनवन्तरों का वर्णन-श्रीशुकदेवजी बोले ब्रह्माजी के एक दिन को एक कल्प कहते हैं। एक कल्प मे चोदह मनुराज्य करते हैं अभी छ: मनवन्तर बीत चुके सातवें मनु का राज्य चल रहा है। अब तक आप केवल एक स्वायम्भुव मनु का वंश सुने हैं दूसरे मनु हुए हैं स्वारोचिष उसके पुत्र हुए हैं। धुमत् सुषेण आदि इन्द्र हुए हैं रोचन देवता हुए तुषित आदि सप्तऋषि हुए उर्जस्तम्भ आदि तीसरे मनु हुए प्रियव्रत पुत्र उत्तम उनके पुत्र पवन आदि सप्तऋषि वशिष्ठजी के सात पुत्र चौथे मनु उत्तम के भाई तामस हुए पृथु आदि उनके पुत्र हुए सप्तऋषि ज्योतिधाम आदि इन्द्र का नाम त्रिशिख इस मनवन्तर मे भगवान ने हरि अवतार लेकर गज का उद्धार किया था इस पर राजा परीक्षित कहने लगे गज ग्राह की कथा मैं सुनना चाहता हूँ।

इति प्रथमोऽध्यायः

[ अथ द्वितीयोऽध्यायः ]

ग्राह के द्वारा गजेन्द्र का पकडा जाना-शुकदेवजी बोले क्षीरसमुद्र में त्रिकूट पर्वत पर सुन्दर उपवन मे अनेक वन्य पशुओं के साथ एक विशाल हाथी रहता था वह बड़ा बलवान था बड़े-बड़े शेर व्याघ्र भी उससे घबराते थे वहीं एक बडा जलाशय भी था एक दिन वह अपने परिवार के साथ उस जलाशय में जल पीने गया जल पीकर वह हथिनियों के साथ जलक्रीडा करने लगा जब बहुत देर तक क्रीडा करता रहा तब एक ग्राह ने उसका पैर पकड़ लिया वह पैर छुडाने के लिए बहुत छट पटाया किंतु पैर नही छुडा पाया विवश होकर गजेन्द्र ने भगवान को याद किया।

इति द्वितीयोऽध्यायः

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[ अथ तृतीयोऽध्यायः ]

गजेन्द्र द्वारा भगवान की स्तुति और उसका संकट से मुक्ति

नमो भगवते तस्मै यत एत चिदात्मकम्।

पुरुषयादि बीजाय परेशायाभि धीमहि।।

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं।

योअस्मात परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयंभुवं ।।

गजेन्द्र बोले जो प्रकृति के मूल कारण हैं और सबके हृदय मे पुरुष रूप में विराजमान हैं एवं समस्त जगत के एक मात्र स्वामी हैं जिनके कारण इस संसार मे चेतना का विस्तार होता है मैं उन भगवान को नमस्कार करता हूँ और उनका ध्यान करता हूँ यह संसार उन्हीं में स्थित है उन्ही की सत्ता से प्रकाशित हो रहा हैं वे ही उसमें व्याप्त हो रहे हैं और स्वयं हि उसके रूप में प्रकट हो रहे है ये सब होने पर भी वे संसार ओर उसका मूल प्रकृति से परे हैं उन स्वयं प्रकाश स्वयं सिद्ध सत्तात्मक भगवान की मै शरण ग्रहण करता गजेन्द्र की स्तुति सुन और उसे संकट में देख भगवान गरुड़ पर सवार होकर वहां चल दिए जब गजेन्द्र ने देखा आकाश से भगवान आ रहे है उसने एक पुष्प लिया और सूंड से उसे भगवान को अर्पित किया यह देख भगवान गरुड को छोड दौड़ पड़े सुदर्शन चक्र से ग्राह का मस्तक अलग कर दिया और गज को पकड़ बाहर खेंच लिया।

इति तृतीयोऽध्यायः

[ अथ चतुर्थोऽध्यायः ]

गज और ग्राह का पूर्व चरित्र तथा उनका उद्धार-शुकदेवजी वर्णन करते हैं कि गज और ग्राह चतुरभुज रूप में भगवान के सामने खडे हैं ग्राह पिछले जन्म में ह ह गंधर्व था देवल ऋषि के शाप से ग्राह बना था और गज भी राजा इन्द्र द्म्न थे अगस्त्य ऋषि को देख खड़े नही हुए अत: उनके शाप से हाथी बनगएथे दोनो भगवान को प्रणाम कर अपने लोक को चले गए

इति चतुर्थोऽध्यायः

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[ अथ पंचमोऽध्यायः ]

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और ब्रह्मा कृत भगवान की स्तुति- श्रीशुकदेवजी बोले-परीक्षित पांचवें रेवत नाम के मनु हुए इन्द्र का नाम था विभु हिरण्यरोमा आदि सप्त ऋषि हुए छठे मनु हुए चाक्षुष उनके पुरु आदि कइ पुत्र थे इन्द्र का नाम मन्त्रद्रम हविष्यमान आदि सप्तऋषि थे उस समय भगवान ने अजित नाम से अवतार लिया और समुद्र मंथन कराया। परीक्षित बोले प्रभो देवताओं ने समुद्र मंथन कैसे किया यह सुनावें।श्रीशुकदेवजी बोले एक समय इन्द्र एरावत पर बैठ कर कही जा रहे थे रास्ते मे दुर्वासा जी का आश्रम था उधर से इन्द्र को जाते देख ऋषि ने उन्हें एक माला पहना दी इन्द्र ने माला का सम्मान न करते हुए उसे ऐरावत को पहना दी उसने उतार कर पैरों से कुचल दी यह देख दुर्वासा ने इन्द्र को शाप दिया तू श्री हीन हो जा यह देख राक्षससों ने इन्द्र पर चढाई कर दी और स्वर्ग छीन लिया देवता इधर उधर घूमने लगे सब मिल ब्रह्माजी के पास गए ब्रह्माजी उनके साथ भगवान की प्रार्थना की।

इति पंचमोऽध्यायः

[ अथ षष्ठोऽध्यायः ]

देवताओं और देत्यों का समुद्र मंथन का उद्योग-शुकदेवजी बोले राजन् ब्रह्माजी की प्रार्थना सुन भगवान वही प्रकट होगए और बोले

अरयोअपि हि सन्धेया: सति कार्यार्थ गौरवे।

अहिमूषक वद् देवा ह्यर्थस्य पदवीं गतेः।।

देवताओं अभी काल तुम्हारे अनुकूल नहीं है। समय की प्रतिक्षा करो जैसे-चूहा और सर्प ने संधी की थी एसे असुरों से संधी कर लो और मिल कर समुद्र मंथन कर अमृत प्राप्त करो भगवान ऐसा कह कर अंतर्ध्यान हो गए ओर इन्द्र स्वर्ग में बलि के पास गए और संधी का प्रस्ताव रखा और समुद्र मंथन की बात कहीं जिसे बलि ने स्वीकार कर लिया समुद्र मंथन की तैयारी होने लगी दैत्य देवता मिलकर पहले मदराचल पर्वत उठाने गए तो वह इतना भारी था कि उनमें से कई अंग भंग हो गए किंतु उसे उठा नही पाए तब भगवान ने लीला पूर्वक उठा कर उसे गरुड़ पर रख लिया और समुद्र के पास लाकर उतार दिया।

इति षष्ठोऽध्यायः

[ अथ सप्तमोऽध्यायः ]

समुद्र मंथन का आरंभ और भगवान शंकर का विषपानश्रीशुकदेवजी बोले-मदराचल पर्वत को लेकर जब उसे समुद्र में छोड़ा वह डूबने लगा भगवान ने कच्छप अवतार लेकर उसे धारण किया वासुकी नाग का नेता बनाया गया समुद्र मंथन प्रारंभ हुआ।

निर्मथ्य मानादु दधेर भूद्विषं।

महोल्वणंहाल हलाहलमग्रतः।।

सम्भ्रान्त मीनोन्मकराहिकच्छपात्।

तिमिद्विपग्राह तिमिगिला कुलात्।।

सर्व प्रथम उससे हलाहल जहर निकला जो संसार को जलाने लगा प्रजा पतियों ने भगवान शिव की स्तुति की शिवजी ने भगवान को स्मर्ण कर समस्त जहर के तीन आचमन कर गए सब की पीडा मिट गई।

इति सप्तमोऽध्याय:

[ अथ अष्टमोऽध्यायः ]

समुद्र से अमृत प्रकट होना और भगवान का मोहिनि अवतार ग्रहण करना-शिवजी के विषपान के बाद सर्व प्रथम कामधेनु गाय निकली जो यज्ञ करने वाले ऋषियों को दे दी इसके पश्चात् उच्चश्रवा नामक घोड़ा निकला जो बलि को दे दिया इसके बाद ऐरावत हाथी निकला जिसे इन्द्र को दे दिया पश्चात कौस्तुभ मणि निकली जो स्वयं भगवान धारण करली फिर कल्प वृक्ष निकला जो स्वर्ग भेज दिया गया पश्चात् अप्सराएं निकली वे भी स्वर्ग भेज दी गई।

तश्चाविरभूत साक्षाच्छ्री रमा भगवत्परा।

रंजयंती दिश: कान्त्या विद्युत् सौदामनी यथा।।

पश्चात् साक्षात् श्री महालक्ष्मी प्रकट हुई दिशायें बिजली की तरह चमक उठी इन्द्र ने उन्हे स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान किया स्वर्ण कलशों से उनका अभिषेक किया उन्होने एक माला ली और चारों ओर देखकर भगवान के गले मे डाल दी पश्चात् वारुणी देवी निकली जिसे देख राक्षस मोहित होगए वह उन्हे देदी गइ उसके पश्चात श्रीधन्वन्तरि अमृत कलश लेकर निकले जिसे देख कर राक्षस उनके हाथ से अमृत कलश छीन कर ले भगे।

इति अष्टमोऽध्यायः

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[ अथ नवमोऽध्यायः ]

मोहनी रूप से भगवान के द्वारा अमृत बाँटना-शुकदेवजी बोले राजन् दैत्य लोग जब आपस मे अमृत कलश की छीना झपटी कर रहे थे भगवान मोहिनि रूप धारन कर प्रकट हो गए जिसे देखकर सब राक्षस मोहित हो गए भगवान ने सबको बुलाकर कहा कौन हो और क्यों लड़ रहे हो सबने मोहिनि भगवान से कहा हम कश्यपजी के पुत्र हैं देवता और दानव हमने मिलकर यह अमृत निकाला है आप इसे सब में बराबर बांट दें हमें आप पर पूर्ण विश्वास है इस पर मोहिनि भगवान ने अमृत कलश अपने हाथ में ले लिया दैत्य और देवता अलग-अलग दो लाइनों मे बैठ गए प्रथम देवताओं से पिलाना प्रारंभ किया देवताओं की लाइन में छुपकर राहु बैठ गया और अमृत पी लिया, सूर्य चंद्रमा के बताने पर उसका सिर काट दिया किंतु अमृत पी लेने से वह मरा नहीं बल्कि दो हो गए देवताओं को अमृत पिला कर भगवान अंतर्ध्यान हो गए |

इति नवमो अध्यायः

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( भागवत कथानक )श्रीमद्भागवत महापुराण की सप्ताहिक कथा के सभी भाग यहां से आप प्राप्त कर सकते हैं |

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श्रीमद्भागवत महापुराण साप्ताहिक कथा ( भागवत कथानक ) श्रीमद्भागवत महापुराण जो कि सभी पुराणों का तिलक कहा गया है और जीवों को परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला है | जिन्होंने भी श्रीमद्भागवत महापुराण का श्रवण, पठन-पाठन और चिंतन किया है वह भगवान के परमधाम को प्राप्त किए हैं | इस भागवत महापुराण में भगवान के विभिन्न लीलाओं का सुंदर वर्णन किया गया है तथा भगवान के विविध भक्तों के चरित्र का वृत्तांत बताया गया है जिसे श्रवण कर पतित से पतित प्राणी भी पावन हो जाता है | आप इस ई- बुक के माध्यम से श्रीमद्भागवत महापुराण जिसमें 12 स्कन्ध 335 अध्याय और 18000 श्लोक हैं वह सुंदर रस मई सप्ताहिक कथा को पढ़ पाएंगे और भागवत के रहस्यों को समझ पाएंगे ,, हम आशा करते हैं कि आपके लिए यह PDF BOOK उपयोगी सिद्ध होगी |

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