श्रीमद् भागवत कथा हिंदी में -7 bhagwat katha in hindi
( अथ एकत्रिंशो अध्यायः )
प्रचेताओं को नारद जी का उपदेश और उनका परम पद लाभ- एक लाख वर्ष बीत जाने पर प्रचेताओं को भगवान के भजन का ध्यान आया और वह ग्रहस्थी छोड़ वन में भगवान के भजन को चल दिए वहां उन्हें नारद जी मिले जिन्होंने प्रचेताओं को परमात्म तत्व का उपदेश दिया जिसका भजन कर प्रचेता परमधाम को चले गए और मैत्रेय जी ने भी विदुर जी को विदा कर दिया |
इति एकत्रिशों अध्यायः
इति चतुर्थ स्कन्ध समाप्त
अथ पंचमः स्कन्ध प्रारम्भ
( अथ प्रथमो अध्यायः )
प्रियव्रत चरित्र- स्वायंभू मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत परमात्मा के परम भक्त थे, मनु जी ने जब उन्हें राज्य देना चाहा तो उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया , इस पर उन्हें समझाने के लिए स्वयं ब्रह्मा नारद आदि आए और उन्हें समझाया कि सीधे-सीधे सन्यास लेने की अपेक्षा ग्रहस्थ धर्म के बाद जो सन्यास लिया जाता है वह अधिक उत्तम है |इसलिए पहले राज्य कर लें, फिर सन्यास लें पितामह ब्रह्माजी की बात प्रियव्रत ने शिरोधार्य की और उन्होंने प्रजापति विश्वकर्मा की पुत्री बर्हिष्मति से विवाह किया उनके दस पुत्र हुए जो उन्हीं के समान प्रतापी थे | उनके एक छोटी कन्या भी हुई जिनका नाम उर्जस्वती था पुत्रों में सबसे बड़े आग्नीध्र थे | एक बार उन्होंने देखा कि सूर्य का प्रकाश आधे पृथ्वी पर ही रहता है आधे में अंधेरा रहता है तो उन्होंने संकल्प पूर्वक एक प्रकाशमान रथ बनाया जिसमें बैठकर सूर्य के पीछे पीछे सात परिक्रमा लगा दी, उनके रथ के पहिओं से जो गढ्ढे हुए वे सात समुद्र बन गए जो भाग बीच में रहा वहाँ सात द्वीप बन गए ब्रह्मा जी के कहने से प्रियव्रत की यह रथ यात्रा सात दिन बाद पूर्ण हो गई | इस प्रकार कई वर्षों तक राज्य किया अन्त में उसका मन भगवान की ओर गया और अपने पुत्र को राज्य दे और वे वन गए भगवान का भजन करने के लिए वहां भगवान को प्राप्त कर लिया |
इति प्रथमो अध्यायः
( अथ द्वितीयो अध्यायः )
आग्नीध्र चरित्र- अपने पिता प्रियव्रत के वन चले जाने के बाद उनके पुत्र आग्नीध्र ने अपने पिता के सतांन नही हुई तो पित्रेश्वरों की उपासना की, ब्रह्मा जी ने उनके आशय को समझ अपनी पूर्वचित्ती अप्सरा को भेजा वह वहां पहुंची जहां अग्नीन्ध्र उपासना कर रहे थे , अप्सरा ने उनके चित्त को मोहित कर लिया, उससे उनके नौ पुत्र हुए | पूर्वचित्ति उन्हें वहीं छोड़कर ब्रह्मलोक चली गई , आग्नीध्र ने समस्त पृथ्वी के नौ भाग कर उन्हें अपने पुत्रों को सौंपा आप भी अपने पिता की तरह बन में भजन करने चले गए |
इति द्वितीयो अध्यायः
( अथ तृतीयो अध्यायः )
राजा नाभि का चरित्र- अपने पिता के वन गमन के बाद उनके पुत्र नाभि ने राज्य संभाला उनके भी कोई संतान न होने पर भगवान नारायण का यजन किया , यज्ञ में भगवान नारायण प्रकट हुए और राजा को वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने भगवान के सामान पुत्र मांगा, भगवान बोले मेरे समान कोई दूसरा नहीं है, मैं स्वयं तुम्हारे यहां आऊंगा ऐसा कर भगवान अंतर्धान हो गए | समय पाकर राजा नाभि के यहां अवतरित हुए |जिनका नाम ऋषभदेव रखा गया |
इति तृतीयो अध्यायः
( अथ चतुर्थो अध्यायः )
ऋषभदेव जी का राज्य शासन- साक्षात भगवान को पुत्र रूप में पाकर नाभि बड़े प्रसन्न हुए कुछ समय के लिए ऋषभदेव जी ने गुरुकुल में निवास किया जहां अल्पकाल में सभी विद्याओं का अध्ययन कर लिया ! उनके गुणों की चारों ओर चर्चा होने लगी तो इंद्र ने परीक्षा के लिए उनके राज्य में वर्षा नहीं की तो ऋषभदेव जी ने अपने योग बल से वर्षा करा ली , इससे इंद्र बड़ा लज्जित हुआ और उसने अपनी जयंती नाम की पुत्री उन्हें ब्याह दी | राजा नाभि ने अपने पुत्र को सब तरह योग्य समझ उन्हें राजा बना , आप वन में चले गए भजन करने के लिए | ऋषभदेव ने जयंती से सौ पुत्र उत्पन्न किए जिनमें सबसे बड़े भरत हुए जिनके नाम पर अजनाभखंड का नाम भारतवर्ष हुआ, इनसे छोटे नौ भी भरत के समान ही महान हुए, उनसे छोटे नो योगी जन हुए जिनका वर्णन एकादश स्कंध में होगा , शेष इक्यासी कर्मकांडी हुए जो अंत में ब्राम्हण बन गए उन्होंने कयी यज्ञ किए |
इति चतुर्थो अध्यायः
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( अथ पंचमो अध्यायः )
ऋषभ जी का अपने पुत्रों को उपदेश तथा स्वयं अवधूत वृत्ति धारण करना- ऋषभदेव जी ने अपने पुत्रों को उपदेश दिया कि मनुष्य का कर्तव्य केवल विषय वासनाओं की पूर्ति नहीं है, बल्कि उनसे दूर रहकर भगवान का भजन करने में उनकी सार्थकता है | विषय भोग तो कूकर सूकर भी भोंगते हैं, वहां बैठे हुए ब्राह्मणों को संबोधित करते हुए बोले- मुझे ब्राह्मणों से बढ़कर कोई प्रिय नहीं है, जो उनके मुख में अन्न डालता है उससे मेरी तृप्ती होती है | इस प्रकार उपदेश देकर भरत को राज्य दे स्वयं वन में चले गए , वहां उन्होंने अवधूत वृत्ति धारण कर ली, पागलों की तरह रहते, वस्त्र नहीं पहनते, अपने ही मल में लोट जाते पर उसमें दुर्गंध नहीं सुगंध आती थी | उनके पास कई रिद्धि-सिद्धि आई उन्होंने स्वीकार नहीं किया |
इति पंचमो अध्यायः
( अथ षष्ठो अध्यायः )
ऋषभदेव जी का देह त्याग- अवधूत वृत्ति में घूमते घूमते ऋषभदेव जी ने अपनी आत्मा को परमात्मा में लीन कर देह को दावाग्नि में जलाकर भस्म कर दिया | जिस समय कलयुग में अधर्म की बुद्धि होगी उस समय कोंक वेंक और कुटक देश का मंदमति राजा अर्हत वहां के लोगों से ऋषभदेव जी के आश्रमातीत आचरण का वृत्तांत सुनकर तथा स्वयं उसे ग्रहण कर लोगों के पूर्व संचित पाप फल रूप होनहार के वशीभूत होकर भय रहित स्वधर्म पथ का परित्याग करके अपनी बुद्धि से अनुचित और पाखंड पूर्ण कुमार्ग का प्रचार करेगा | उसे कलयुग में देवमाया से मोहित अनेकों अधम मनुष्य अपने शास्त्र विहित शौच आचार को छोड़ बैठेंगे | अधर्म बाहुल्य कलयुग के प्रभाव से बुद्धि हीन हो जाने के कारण वे स्नान न करना, आचमन न करना, अशुद्ध रहना, केश नुचवाना आदि ईश्वर का तिरस्कार करने वाले पाखंड धर्मों को मनमाने ढंग से स्वीकार करेंगे और प्रायः वेद, ब्राम्हण और भगवान यज्ञ पुरुष की निंदा करने लगेंगे |
इति षष्ठो अध्यायः
( अथ सप्तमो अध्यायः )
भरत चरित्र- अपने पिता के चले जाने के बाद भरत जी राज्य सिंहासन पर बैठे, विश्वरूप भ
की कन्या पंचजनी से विवाह किया, जिससे पांच पुत्र हुए, वे उन्हीं के समान थे | धर्म पूर्वक राज्य करने के बाद वे वन में भजन करने को गण्डकी के तीर पर पुलह आश्रम पर चले गए और भगवान का भजन करने लगे |
इति सप्तमो अध्यायः
sampurna bhagwat katha in hindi
( अथ अष्टमो अध्यायः )
भरत जी का मृग मोह में फंसकर मृग योनि में जन्म लेना- एक दिन भरत जी गंडकी नदी के किनारे भजन कर रहे थे, सहसा एक सिंह की दहाड़ हुई उससे घबराकर एक हिरनी ने नदी को पार करने के लिए छलांग लगाई , जिससे उसका गर्भ का बच्चा नदी में गिर गया और हिरणी दूसरी तरफ जाकर मर गई , भरत जी ने देखा कि हरनी का बालक पानी में बह रहा है, दया बस दौड़कर उसे उठा लिया और उसका पालन-पोषण करने लगे | धीरे-धीरे उनका भजन छूटता गया और मृग में मोह बढ़ता गया, एक दिन मृग समाप्त हो गया और उसके बिरह में भरत जी ने भी शरीर त्याग मृग योनि में जन्म लिया, किंतु उन्हें पूर्व जन्म की स्मृति थी वे पुनः आसक्ती ना हो जाए मृगों से भी दूर ही रहने लगे और अंत में गंडकी में अपने शरीर को छोड़ दिया |
इति अष्टमो अध्यायः
( अथ नवमो अध्यायः )
भरत जी का ब्राह्मण कुल में जन्म- आंगीरस गोत्र के एक ब्राम्हण परिवार में आपका दूसरा जन्म हुआ , वहां भी आप की पूर्व जन्म की स्मृति बनी रही, उनकी बड़ी माता से उनके पांच भाई थे और कहीं पुनः आसक्ती ना हो जाए इस भय से वे पागलों की तरह रहते थे , पिता ने उनका यगोपवित संस्कार कर दिया बचपन में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो गया | विमाता कुछ दे देती उसे ही खाकर वे संतुष्ट रहते , चारों ओर भ्रमण करते रहते थे | एक बार डाकू ने ने पकड़ लिया और भद्रकाली की भेंट चढ़ाने को इन्हें ले गए अपनी पद्धति के अनुसार उन्हें पहले स्नान करवाया फिर मधुर भोजन करवाया और फिर भद्रकाली के सामने बलि देने के लिए ले गए वे हर परिस्थिति में प्रसन्न थे, तलवार निकालकर जब उन्हें मारने को उद्यत हुए फिर भी वह प्रसन्न थे, किंतु परमात्मा के भक्तों का अपने सामने वध देवी को स्वीकार नहीं हुआ, देवी ने चोरों के हाथ से तलवार छीन ली और उन्हें मौत के घाट उतार कर भगवान के भक्तों की रक्षा की |
इति नवमो अध्यायः
( अथ दशमो अध्यायः )
जड़ भरत और राजा रहूगण की भेंट- एक समय सिंधुसौवीर्य देश का राजा रहूगण अपनी पालकी में बैठकर कहीं जा रहा था, रास्ते में उसकी पालकी का एक कहार बीमार हो गया तो उसे उसने पास ही खड़े भरत जी को पालकी में जोत लिया | उसका भी उन्होंने कोई विरोध नहीं किया किंतु वे रास्ते के जीवो को बचाते हुए टेढ़ी-मेढ़ी चाल चलने लगे तो पालकी डोलने लगी रहूगण ने कहारों को डांटते हुए कहा यह कौन मूर्ख है जो पालकी को ठीक से नहीं ढोता | कहार बोले यह नया कहार ठीक से नहीं चलता, राजा ने भरत जी को डांटते हुए कहा अरे तू मेरे राज्य का अन्न खाकर मोटा हो रहा है और काम नहीं करता, डंडे से तेरी इतनी मार लगाऊंगा कि ठीक हो जाएगा | भरत जी ने मौन तोड़ा और बोले मोटा ताजा शरीर है आत्मा सबकी समान है फिर मार भी यह शरीर खाएगा , मैं तो सुख दुख से परे हूँ, यह सुन कर रहूगण ने देखाकि अरे यह तो कोई संत है , पालकी से नीचे उतर भरत जी के चरणों में गिर गया |
इति दशमो अध्यायः
( अथ एकादशो अध्यायः )
राजा रहूगण को भरत जी का उपदेश- भरत जी बोले राजा आत्मा और शरीर दोनों अलग-अलग हैं जिन्होंने इस शरीर को ही आत्मा समझा है वह ठीक नहीं है शरीर तो जड़ है जो मरता रहता है किंतु आत्मा कभी नहीं मरती , आत्मा परमात्मा का ही अंश अविनाशी तत्व है |
इति एकादशो अध्यायः
bhagwat katha hindi
( अथ द्वादशो अध्यायः )
रहूगण का प्रश्न और भरत जी का समाधान- राजा रहूगण बोले प्रभु आप साक्षात परमात्मा रुप हैं |आपने जो उपदेश मुझे किया उसे और ठीक से समझाएं , भरत जी बोले राजन तुम जो यह समझते हो कि मैं पृथ्वी का स्वामी हूं तो ना जाने कितनी राजा इस धरती पर आए और चले गए किंतु यह धरती किसी की भी नहीं हुई , संसार में जीव आता है और प्रभु को भूल मैं मेरेपन के चक्कर में पड़ जाता है , अतः एकमात्र परमात्मा ही सत्य है |
इति द्वादशो अध्यायः
( अथ त्रयोदशो अध्यायः )
भवाटवी का वर्णन और रहूगण का संशय नाश- भरत जी बोले हे राजा संसार के समस्त जीव एक व्यापारियों का मंडल जैसा है, यह व्यापारी व्यापार के लिए घूमते घूमते संसार रूपी जंगल में आ गए, उस जंगल में छह डाकू हैं, इन व्यापारियों को लूट लेते हैं, इस जंगल में रहने वाले हिंसक पशु भी उन्हें नोचते हैं, इस जंगल मे बड़े झाड़ झंकाड है जिसमें यह भटकते रहते हैं, कभी प्यास से व्याकुल हो जाते हैं | आपस में द्वेष भी करते हैं , विवाह संबंध भी करते हैं, वे इस जगंल में ना जाने कबसे घूम रहे हैं पर अपने लक्ष्य पर अब तक नहीं पहुंचे | राजा बोले अहो यह मनुष्य जन्म ही सर्वश्रेष्ठ है, जहां आप जैसे योगी पुरुषों का संग तो कल्याणकारी है |
इति त्रयोदशो अध्यायः
( अथ चतुर्दशो अध्यायः )
भवाटवी का स्पष्टीकरण- श्री शुकदेव जी कहते हैं कि यह संसार ही जंगल है, मन सहित छः इंद्रियां ही छः डाकू हैं, सगे संबंधी ही सब जंगली जीव हैं, स्त्री पुत्र आदि का मोह ही झाड़ झंकाड है | इस प्रकार संसार को ही जंगल कहा गया है |
इति चतुर्दशो अध्यायः
( अथ पंचदशो अध्यायः )
भरत के वंश का वर्णन- भरत जी का पुत्र सुमति था, उसने ऋषभदेव जी के मार्ग का अनुसरण किया इसलिए कलयुग में बहुत से पाखंडी अनार्य वेद विरुद्ध कल्पना करके उसे देवता मानेंगे इनके वंश में एक गय नाम के प्रतापी राजा हुए, उन्होंने कई यज्ञ किए थे |
इति पंचदशो अध्यायः
( अथ षोडशो अध्यायः )
भुवन कोश का वर्णन- श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित, जहां तक सूर्य का प्रकाश जहां तक तारागण दिखते हैं वहां तक भूमंडल का विस्तार है , हम जहां निवास करते हैं उसे जंबूद्वीप कहते हैं | भागवत जी में जो नाम दिए हैं, वर्तमान में जो नाम उनसे भिन्न हैं, अतः समझने में कठिनाई है , एशिया महाद्वीप जंबूद्वीप है, इसी तरह छः अन्य द्वीपों के नाम आजकल जो प्रचलन में है वे यूरोप, दक्षिणी अमेरिका, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, उत्तरी अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया है इन महाद्वीपों के भीतर जो देश स्थित हैं, उन्हें ही वर्ष कहा गया है | भारतवर्ष का नाम यथावत है अन्य किं पुरुष ही चीन है हरि वंश तिब्बत आदि देशों का वर्णन है |
इति षोडशो अध्यायः
( अथ सप्तदशो अध्यायः )
गंगा जी का वर्णन शंकर कृत संकर्षण देव की स्तुति- श्री शुकदेव जी बोले परीक्षित, जब वामन अवतार के समय भगवान ने तीन पैर में पृथ्वी नापने के लिए अपना पैर बढ़ाया तो उनके पैर के अंगूठे से ब्रह्मांड का ऊपरी भाग फट गया तो उस छिद्र से जो जल आया ब्रह्मा जी ने उस जल से भगवान के चरण को धोया, वही चरण धोबन भगवान विष्णुपदी गंगा है | राजा भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न हो ब्रह्मा जी ने धरती पर भेजा जो तीन धारा में विभक्त हो गई भागीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी तीनों मिलकर भारत को सींचती हुयी समुद्र में जा गिरी |
इति सप्तदशो अध्यायः
( अथ अष्टादशो अध्यायः )
भिन्न-भिन्न वर्षों का वर्णन- जैसे जंबूद्वीप में नववर्ष हैं उसी तरह अन्य द्वीपों में भी अनेक वर्ष हैं, सभी वर्षों में भगवान के अनेक स्वरूपों की अलग-अलग पूजा होती है |
इति अष्टादशो अध्यायः
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( अथ एकोनविंशो अध्यायः )
किंपुरुष और भारतवर्ष का वर्णन- किं पुरुष वर्ष में लक्ष्मण जी के बड़े भाई आदि पुरुष सीता हृदयाभि राम भगवान श्री राम के चरणों की सन्निधि के रसिक परम भागवत श्री हनुमान जी अन्न किन्नरों के सहित अविचल भक्ति भाव से उनकी उपासना करते हैं | भारतवर्ष में भी भगवान दयावश नर नारायण का रूप धारण करके, संयम शील पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिए अव्यक्त रूप से कल्प के अंत तक तप करते रहते हैं, वहां नारद जी सावर्णि मनु को पांच रात्रगम का उपदेश कराने के लिए भारत की प्रजा के साथ भगवान नर नारायण की उपासना करते हैं |
इति एकोनविंशो अध्यायः
( अथ विंशो अध्यायः )
अन्य छः द्वीप तथा लोकालोक पर्वत का वर्णन- जैसे जंबूद्वीप एशिया महाद्वीप है ऐसे ही अन्य
छः दीपों के नाम भी आज के नामों से भागवत में भिन्न हैं, उनको समझने के लिए प्रचलित नाम ही उपयुक्त रहेंगे यह नाम हैं- यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिणी अमेरिका, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, उत्तरी अफ़्रीका इस तरह समस्त पृथ्वी सातद्वीपों में विभक्त है |
इति विंशो अध्यायः
( अथ एकविंशो अध्यायः )
सूर्य के रथ और उसकी गति का वर्णन- श्री शुकदेव जी कहते हैं कि भूलोक के समान ही द्युः लोक हैं दोनों के बीच में अंतरिक्ष लोक है | अंतरिक्ष लोक में भगवान सूर्य तीनों लोकों को प्रकाशित करते रहते हैं | ये उत्तरायण व दक्षिणायन गतियों से चलते हुए दिन रात को छोटा बड़ा करते हैं | जब सूर्य मेष या तुला राशियों पर होते हैं दिन रात बराबर होते हैं , वृष आदि पांच राशियों पर दिन एक एक घड़ी बढ़ता रहता है और रात्रि छोटी होती रहती है, वृश्चिक आदि पांच राशियों पर रात्रि बढ़ती रहती है और दिन छोटे होते रहते हैं |
इति एकविंशो अध्यायः
( अथ द्वाविशों अध्यायः )
भिंन्न भिंन्न ग्रहों की स्थिति और गति का वर्णन- समस्त आकाश को बारह भागों में बांट कर उन्हें राशि नाम दिया गया है, तथा सत्ताइस उप भागों में बांट कर उसे नक्षत्र नाम दिया गया है, पृथ्वी के सबसे नजदीक चंद्रमा है यह एक नक्षत्र को एक दिन में तथा एक राशि को सवा दो दिनों में बारह राशियों को एक माह में पार कर लेता है, इससे आगे मंगल यह एक राशि पर डेढ़ माह रहता है, गुरु एक राशि को तेरह माह में पार करता है, शुक्र बुध और सूर्य लगभग थोड़ा आगे पीछे साथ ही रहते हैं एक माह में एक राशि पार करते हैं और बारह राशियों को एक वर्ष में पूरा करते हैं | सबसे मंद गति शनि की है यह ढाई वर्ष में एक राशि पार करता है |
इति द्वाविंशो अध्यायः
( अथ त्रयोविंशो अध्यायः )
शिशुमार चक्र का वर्णन- श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित ! ध्रुव लोक के सप्त ऋषि सहित सभी नवग्रह, नक्षत्र परिक्रमा करते हैं , परिक्रमा मार्ग में जो तारों का समूह है आकाश में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है इसे आकाशगंगा भी कहते हैं, यही शिशुमार चक्र है |
इति त्रयोविंशो अध्यायः
bhagwat katha hindi
( अथ चतुर्विंशो अध्यायः )
राहु आदि की स्थिति अतलादि नीचे के लोकों का वर्णन- सूर्यलोक और चंद्रलोक के बीच में राहु का लोक है यह यद्यपि राक्षस है, भगवान की कृपा से इसे देवत्व प्राप्त हुआ है अमृत वितरण के समय सूर्य और चंद्रमा के बीच बैठ गया था उन्होंने इसका भेद खोल दिया तभी से राहु इनसे शत्रुता रखता है इसलिए अमावस्या पूर्णिमा को राहु इन्हें ग्रसता है इसे ग्रहण कहते हैं | पृथ्वी के नीचे अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, महातल और पाताल ये सात लोक हैं |
इति चतुर्विशों अध्यायः
( अथ पंचविशो अध्यायः )
श्री संकर्षणदेव का विवरण और स्तुति- श्री शुकदेव जी कहते हैं राजन ! पाताल के नीचे तीस हजार योजन की दूरी पर अनंत नाम से विख्यात भगवान की तामसी नित्य कला है | यह अहंकार रूपा होने से दुष्टा और दृश्य को खेंचकर एक कर देती है , इसलिए पांच रात्र आगम के अनुयाई इसे संकर्षण कहते हैं | इनके हजार मस्तक हैं जिनमें से एक पर रखा हुआ यह भूमंडल सरसों के दाने के बराबर है | प्रलय काल में इनसे असंख्य रूद्र गण उत्पन्न होकर सृष्टि का संहार करते हैं | ऐसे अनंत भगवान को हम प्रणाम करते हैं |
इति पंचविंशों अध्यायः
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( अथ षडविंशो अध्यायः )
नरकों की विभिन्न गतियों का वर्णन- शुकदेव बोले दक्षिण में नरक लोक में पितृराज सूर्यपुत्र यम राज्य करते हैं उनके समीप ही एक और पितृ लोक दूसरी ओर अनेक प्रकार के नर्क हैं | जिनमें मरने के बाद पापियों को अपने पापों की सजा दी जाती है | ये पापों के अनुसार कई प्रकार के हैं |
इति षडविंशो अध्यायः
इति पंचम स्कन्ध समाप्त