Tuesday, September 17, 2024
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रामायण सार- मंगलाचरण ramayan sar hindi

रामायण सार- मंगलाचरण ramayan sar hindi

बंदना *
नमामि भक्त वत्सलं कृपालु शील कोमलं,
भजामि ते पदाम्बुजं अकामिनां स्वधामदं |
निकाम स्याम सुन्दरं भवाम्बु नाथ मंदरं,
प्रफुल्ल कज लोचनं मदादि दोष मोचनम्‌ । ।
हे भक्तों पर कूपा करनेवाले, हे कृपालु कोमल स्वभाव वाले मैं आपको प्रणाम
करता हू । आपके चरणकमलों का मैं ध्यान करता हू जो निष्काम पुरुषों को
परमधाम के दाता है । ठे नाथ! आप नीलकमल के समान उज्जवल सुन्दरता के
घर एवं कामनाओं से रहित हैँ । खिले कमल के समान नेत्रवाले विभु ! आप मद
आदि दोषों से मुक्त करते हो ।
त्वमेकमदुभुतं प्रभुं निरीहमीश्वरं विभु,
जगदगुरु च शाश्वतं तुरीयमेव केवलम्‌ |
भजामि भाव बल्लभं कुयोगिनां सुदुर्लभं,
स्वभक्त कल्प पादपं समं सुसेव्यमन्वहम्‌ | |
आप ही केवल एक अद्भुत प्रभु, इच्छा रहित ईश्वर व्यापक, जगत के सनातन
गुरु हो! केवल तुरीय अवस्था में दिखाई देने वाले परमेश्वर विभु! मैं आपका प्रेमभाव
से भजन करता हूँ आप कुयोगियों के लिए अति दुर्लभ है | आपके चरणकमल अपने
भक्तों के लिए एवं उत्तम सेवक-भक्तों कं लिए कल्पवृक्ष के समान हैँ |
विशुद्ध बोध विग्रहं समस्त दूषणापहम्‌ |
नमामि इन्दिरापतिं सुखाकरं सतां गति,
भजे सशक्ति सानुजं शचिपति प्रियानुजम्‌ । ।
कामदेव के शत्रु शिव जी आपकी वंदना करते हैं और ब्रह्मादि देवता आपकी
सेवा करते हैं। विशुद्ध ज्ञान मयी-आपकी देह विज्ञान स्वरूप है और समस्त दोषों
को नष्ट करने वाली है। हे विभु! आप शक्तिपति शिव और लक्ष्मीपति विष्णु के प्यारेहैं, आपको मैं प्रणाम करता हूँ।
त्वदंप्रिमूल ये नरा भजन्ति हीन मत्सराः,
पतंति नो भवाण्वि वितर्कं वीचि संकुले ।
विविक्त वासिनः सदा भजंति मुक्तये मुदा,
निरस्य इन्द्रियादिक प्रयान्ति ते गतिं स्वकम्‌ । ।
जो मानव sat रहित होकर आपके चरणकमलों का ध्यान करते है, वे
तकं-वितक रूपी लहरों से परिपूर्ण संसार सागर में नहीं गिरते । एकान्त वासी
साधुजन मुक्ति के लिए सांसारिक विषयों से विरक्त होकर इन्द्रिय निग्रह करके
आनंदपूर्वक नित्य आप का ध्यान करते हैं वे आपके परमधाम को पाकर सेवा
भक्ति में लग जाते हे ।
प्रलंब बाहु विक्रमं प्रभो प्रमेय वेभवं,
मुनीन्द्र संत रजनं सुरारि वृन्दं भजनम्‌ ।
अनूप रूप भूपतिं नतोडहमुर्विजा पतिं |,
प्रसीद मे नमामि ते पदाब्न भक्ति देहिमे । ।
हे विभो ! आपकी लम्बी भुजाओं का वैभव अपार टै । आप संतों एवं भक्तों को
शत्रुओं को नष्ट करके सुख देने वाले है । ठे विश्वपति आपका रूप परम अनूप हे ।
आपको मैं प्रणाम करता हूं । आप कृपा करके अपने चरण कमलं की भक्ति दीजिए ।
अपटन्ति ये स्तवं इदं नरादरेन ते पद ।
व्रजंति नात्र संशयं त्वदीय भक्ति देहिमे ।।

भूमिका

रामायण का अध्ययन कर रहा था कि एक दिन पढ़ते समय देखा कि-रामायण
में प्रसंग अधूरे हैं। बहुत खोजने पर भी नहीं मिले तो श्री ज्वाला प्रसाद मिश्र की
क्षेपक सहित टीका वाली रामायण पढ़ी। तब यह समझ में आया कि जिस प्रकार
मूल कथा क्षेपक में मिल गई है इसी प्रकार क्षेपक की कथाएं भी मूल में मिल गई
होंगी। देव योग से प्रथम strate की भूमिका पढ़ी जिसमें पं. श्री ज्वालाप्रसादजी ने
लिखा है
“गुणी और गुण में कोई विशेष भिन्नता नहीं होती, यह राम चरित राम का गुण
होने से राम से भिन्न दृष्टि नही आता और सबको आनन्द दायक है। इस ग्रन्थ पर
बड़े-बड़े-प्रेमी महात्माओं ने तिलक भी रचे हैं और उनमें यथाशक्ति अपनी प्रीति भी
झलकाई है। परन्तु अब काल क्रम से इस पुस्तक में क्षेपक भी बहुत से मिश्रित हो
गये हैं और उन का भी प्रचार इस के संग होने से ऐसा हो गया है कि जिस रामायण
मे क्षेपक कथा नहीं होती उसको बहुत ही कम मनुष्य लेना अंगीकार करते हैं।
बहुधा रामायण जो तिलक सहित हैं उनमें क्षेपक छोड़कर मुख्य कथा की ही महात्माओं
ने टीका रची है। जिसमें क्षेपक न होने से लोग उसे ग्रहण करने में हिचकिचाते हैं। इस कारण मेरा बहुत दिनों से यह विचार था कि तुलसीकृत रामायण के तिलक की रचना इस प्रकार की जाय जिसमें सम्पूर्ण क्षेपक की कथाओं की भी तिलक रचना हो और उस टीका में किसी बात की अपेक्षा न रहे ।
इस तिलक को इतना नहीं बढ़ाया है जो मूल अर्थ खो जाय और समझ में न आए। सम्बंधित कथाएं इसमें जहां उचित जाना है वहां मिश्रित कर दी गई हैं और उनका भी तिलक कर दिया गया है। यद्यपि
इस के मिलाने पर विद्वान कहेंगे कि मिलाकर इस ग्रन्थ मेँ यह केसे विदित रहेगा कि
कौन सी कविता तुलसीदास जी की है और कौन सी मिलाई गई है। इसके निश्चय करने
में बड़ी गड़बड़ी होगी। सो यह दोष भी इसमें से निकाल दिया है।”!
वास्तव में मूल से क्षेपक अथवा ATH से मूल को पृथक करना उतना ही
असम्भव है कि जितना कोई द्रव पदार्थ गंगाजल में मिलाकर निकालना कठिन है। बहुत दिनों से इच्छा थी कि राम चरित मानस की शुद्ध टीका की जाय।
आनंदकंद सच्चिदानंद भगवान की असीम कृपा, जगदम्बे माँ भवानी की दया एवं
अति आग्रह करने पर-हृदय सप्राट-प्राण पति श्री भोलेनाथ जी के अनुग्रह से अथवा
जिन के सहारे के बिना कार्य सफल नहीं होता उन श्री लक्ष्मी जी, सर्व मंगलों की
दाता श्री पार्वती जी का सहारा पाकर अनेकों महापुरूषों की देख रेख में-कार्यकर्ताओं,
प्रमी भक्तों का सहयोग पाकर इस अनुपम सटुग्रन्थ-““श्री राम चरित मानस”? के सातो
काण्डों की भाव प्रबोधिनी भाषा टीका लिखी गई है । जिससे मानव मात्र राम चरित
मानस के भाव को समझकर उस आनन्द को प्राप्त करें जिसका वर्णन प्राणेश्वर श्री
विश्वनाथ जी ने श्री पार्वती जी के प्रति किया ओर अपने हृदय में रखा जिससे इसका
नाम मानस हुआ। इस मन के-हृदय के सरोवर में गोता लगाए बिना बड़े-बड़े ज्ञानी
भक्तों की बुद्धि भी पवित्र नहीं होती एवं संतों की थकान भी दूर नहीं होती |
चरित मानसः मानव मात्र के लिए भगवान शंकर की एक अनुपम देन
हे । सारे विश्व की आत्मा जिसे परमात्मा कहते हैं वह एक हे । वह विश्वात्मा आकार
आदि विकार से रहित-निर्विकार है ओर वह ad शक्तिवान है। शक्ति सहित प्रगट
होने से वह निराकार साकार हो गया | कैसे हो गया? क्यों हो गया? ओर कब हुआ
यह विश्वपति श्री स्वयंभु नाथ शंकर जी ने श्री पार्वती जी को-जगदम्बा उमा श्री
भवानी जी को अतिशय आग्रह एवं दीन भाव से विनय करने पर बताया ठै ।
भगवान शंकर ने यह भी समझाया है कि वास्तव म विश्वात्मा-विश्वपति परमात्मा
विभु जो सारे विश्व में व्यापक हैं वह अपने स्वरूप से परम प्रकाश में निवास करता है
जो कि ध्यान करने पर जव प्राण ओर अपान समान हो जाते है ओर उसमे प्राणी समा
जाता है तब दिखाई देता हे 1 इसीलिये शिव जी ने अपने हृदय में प्रसनन होकर इसका
नाम “राम चरिति मानसः रखा है। उस विश्वपति को हदय के मानसरोवर में जब
विश्वपति शंकरजी ने खोजा तो उसे सारे विश्व में रमा हुआ होने से “राम’ शक्ति का गुण
होने से “चरित ओर हदय मे प्राणो की स्थापना करने वाला होने से मानसरोवर-“ “मानसः”
बताया जिसमें हंस निवास करता हे । यह “राम चरित मानस” शिव जी के मनका, हृदय
का सर अर्थात्‌ सरोवर है जिसमें सभी गुण एकत्रित हो जाते है ।
भूमिका 7
अतः वह विश्वात्मा-परमात्मा सर्वगुण सम्पन्न है किन्तु ज्ञान के वक्ताओं ने
समझाने के लिए अप्रगट रूप को निर्गुण और प्रगट रूप को सगुण कहा है। वह हंस
आकार से रहित होने पर निराकार और साकार होने से साकार कहा गया है। कितु
इस रहस्य को न समझकर उस अदेत आत्मा को जो सारे विश्व की आत्मा हेदेत
मान लिया। यहाँ तक कि उसके बार-बार प्रगट होने पर वह जिस-जिस नाम से
पुकारा गया उसे अलग-अलग मानकर लोगों में भेदभाव उत्पन्न कर दिया और
अज्ञानता के कारण अनेकों मतों की स्थापना की गई। जिसके कारण लोग आपस
में लड़ने लगे, देष भावना की जागृति हुई और धर्म अनेको भागों में बंट गया। इन
धर्मावलम्बियों ने स्वार्थ एवं अज्ञानता के कारण लोभवश लोगों को आपस में लड़ा
कर देश के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। लोग अपने देश व धर्म को भूल गए। यहाँ तक
कि अपने कर्त्तव्य को भूल कर कर्म की जाति भेद को न समझकर अहंभववश
ऊंच-नीच का भेदभाव प्रगट करके नष्ट-भ्रष्ट हो गये हैं।
जब एक ही परिवार में एक भोजन बनाता है दूसरा बच्चों को पढ़ाता है तीसरा
खेत में जाकर किसान का काम करता है तथा सामान को आवश्यकतानुसार
खरीदता और बेचता है तो उसे नीच और ऊंच नहीं समझा जाता तो नीच जाति
और उच्च जाति का मानना एवं घृणा करना महान मूर्खता है। अज्ञानता के कारण
द्वेष भाव का फैलाना ही महान मूर्खता है। अज्ञानता के कारण द्वेष भाव का फैलाना
ही महान नीचता है। नीच तो वही है जो प्रभुकी भक्ति न कर के दूसरों को भी प्रभु
के दर्शन से वंचित रखता है। मानव मात्र का धर्म तो ईश्वर को अपने हृदय में
जानकर उसकी अनुभूति करना है। जो धर्म से विमुख है उसके समान नीच इस
संसार में और कौन होगा?
द्वेषाग्नि में जलते हुए प्राणियों को देख करके एवं कलियुग के सभी पापों से
मुक्त करने के लिए शिवजी ने इस “राम चरित मानस”? की जो कि नाम के गुणों
का सरोवर है सर्व प्रथम मान सरोवर के निकट रहने वाले तत्वदर्शी-सर्वज्ञ
त्रिकालदर्शी एवं अविनाशी-जीवन मुक्त महामुनि लोमश को प्रदान किया। जिससे
मुनि भुसुण्डि जी ने पाया और वे भी जीवन मुक्त-अविनाशी हो गये।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने जीव से लेकर ब्रह्म और पार ब्रह्म की वन्दना करते
हुए उनके सभी गुण-दोष, कर्म-स्वभाव, प्रभाव और प्रताप का भी वर्णन किया है।
जिससे साधारण व्यक्ति भी पढ़कर या सुनकर समझ सके। ATS को, संतों को,
दुष्टों को, संत-असंतों को, ऋषि-मुनियों को, देव दनुजों को, साधु के वेष में जो
 
असाधु है उन्हें पहचान सकं । तुलसीदास जी कहते हैं
तेहिते कषु गुण दोष बखाने संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने ।।
कुछ IPT और दोषों का इसलिए वर्णन किया है कि विना जाने न तो गुण ग्रहण
किये जा सकते हैं और न अवगुणों का त्याग ही हो सकता है । संत ओर असन्तो की
पहचान उन के गुण एवं दोषों को देखकर ही हो सकती हे ।
पहचान ने की बड़ी आवश्यकता है क्योकि पहचाने बिना मानव धोखे में आ
जाता है । असाधु को साधु मानकर एवं निगुरों को गुरु मानकर ही मानव यमराज
के Heal में पड़ जाता है। अतः इस ग्रन्थ का पढ़ना बड़े-बड़े ज्ञानीभक्तों के लिए भी
परम आवश्यक है ।
इसमें एक बहुत ही बड़ी विशेषता यह भी है कि प्रभु के
वास्तविक नाम जिसके जाने बिना आज के भक्तों का समान अज्ञानता को प्राप्त
होकर अनेकों भागों में बंट चुका है, जिसका जानना मानव मात्र का धर्म है, जिसके
जाने बिना बड़े-बड़े विद्वान, पुण्यात्मा, दानी, संयमी, साधु एवं धर्मात्मा होने पर भी
अज्ञान वश कलि के मल से ग्रसित हैं, कलियुग के मल को दूर करने वाले प्रभु उस
नाम को भी प्रभाव, प्रताप एवं गुण सहित वर्णन करते हुए यह बताया है कि वह
नाम क्या है और कलियुग में कैसे प्रगट होता है।
पाठकगण-ज्ञान, भक्ति, सदुगुण एवं सतकरमोँ में निपुण होते हुए भी इसका
अध्ययन अवश्य करं | यह प्रतिदिन पाठ करने योग्य है कितु लक्ष्य समझने का होना
बहुत ही आवश्यक हे । केवल पाठ करने का नहीं क्योकि विवेक के विना पढ़ना
निष्फल हे । जैसा कि-सूर्पणखा ने रावण को चेतावनी देते समय बताया कि

भूमिका

राज नीति ae fag धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा।।
विद्या बिनु उपजाए। श्रम फल पढे किये अरु पाए।।
नीति के बिना राज्य, धर्म के बिना धन प्राप्त करने से, आनंदकंद सच्चिदानंद
सदूगुरुदेव भगवान विष्णु को अर्पण किये बिना सतकर्म करने से और विवेक उत्पन्न
किए बिना विद्या पढ़ने से परिणाम में केवल परिश्रम ही हाथ लगता है। नीति के
बिना अनीति अर्थात्‌ अधर्म होता है जिसका फल महान दुःख-चौरासी लाख योनियों
में भोगना पड़ता है। जो धन-धर्म में न लगा उसे अधर्म कहते हैं और प्रभु को अर्पण
किया हुआ तन, मन, धन धर्म आदि उनकी सेवा भक्ति में न लगाकर या उन्हें अर्पण
न कर के यदि दान, पुण्य में हवन किया जाय तो उसका फल नरक में भी भोगना
पड़ता है।
इस रामचरित मानस में अहंकारी रावण के मद को दमन करने एवं
महामुनि नारद का मोह-भ्रम दूर करने का उपाय भी बताया है और ऐसे अनेक
प्रश्नों के उत्तर हैं जिनके जाने बिना ज्ञानी भक्त भी भ्रम में पड़कर संशय आत्म
विनश्यति की गति पाते हैं।
सम्पूर्ण वेद-शास्त्रों को पढ़कर अहंभाव हो सकता है परन्तु “राम चरित मानस”?
का नित्य नियम पूर्वक अध्ययन करने पर प्रभु की भक्ति एवं निष्काम प्रेम उत्पन्न
होता है जिसके बिना कोई भी परमगति नहीं पा सकता। अतः अपने जीवन का
बहुमूल्य समय सांसारिक धन्धों से वचाकर इसका अध्ययन अवश्य करें।
यह “मानस”? कल्पवृक्ष के समान इच्छानुसार अभीष्ट एवं उत्तम फलों का
दाता है। किंतु कुछ दम्भियों ने व्यर्थ की बातें इसमें मिलाकर इसके प्रभाव को
घटा दिया और कलियुग के श्रोत्तागण भी उन्हें मनोरंजन के लिए सुनना पसंद
करते हैं। जिससे वे वास्तविकता से वंचित रह जाते हैं। अतः उन व्यर्थ की
बातों को छोड़कर जो प्रसंग को काटती थी और मूल कथा जो क्षेपक में थीं उन्हें
लेकर प्रसंग पूरे किये गये हैं। निवेदकमहात्मा सर्वाज्ञानन्द

मंगलाचरण

कुन्देन्दी वर सुन्दरावति बलौ विज्ञान धामा विभौ
ब्रह्माम्भोधि समुद्भवं कलिमल प्रध्वंसनं चाव्ययं |
श्री मच्छम्भु मुखेन्दुं सुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा
धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्री राम नामा मृतम्‌ ।।¶।।
चमेली के पुष्प नील कमल एवं पूर्णचन्द्र के समान उज्जवल प्रकाश युक्त
गौरवर्ण अति बलवान एवं विज्ञान के धाम विभु! आप ज्ञानियों के दारा वंदित
पूजनीय और विज्ञानियों दारा, कहे सुने जाते हो एवं ब्रह्म के ध्यान में प्रगट होते
हो । कलियुग के मल को सर्वथा नष्ट कर देने वाले अविनाशी प्रभो! शंकर के
मुखारविन्द से गाये जाने वाले एवं हृदय मं सदा शोभायमान विभो ! आपके नामरूपी
अमृत को वही पान कर सकते हैं जो शुभकर्म-सेवाभक्ति करने वाले है ।
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनषं निर्वाण शान्तिप्रदं
ब्रह्मा शम्भु फणीन्द्र सेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌ |
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं TANT कारण परं रामाख्यमीशं हरिम्‌ ।।२।।
शान्त, सनातन, अनुपम, निष्याप, मोक्ष, सरूप, परम शान्ति देने वाले-जिसकी
विधाता, शंभु ओर विष्णु दिन रात सेवा करते हैं। जो ज्ञानियों के परम लक्ष्य, जानने
योग्य परम प्रभु विभु है । जिनके चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा वालों के लिये
एक मात्र नौका हैं जो अंधकार से अत्यन्त परे एवं कर्ता कर्म के कारण है । उन
राम कहलाने वाले भगवान विष्णु की मैं वंदना करता हू ।
भाव-“भ्यहां विभु के विश्व व्यापी प्रकाश का वर्णन 1”
यन्मायावशवर्तिविश्वमखिलं ब्रह्मादि देवा सुरा
यत्सत्वादमृषेव भाति सकलं रज्जौ यथाछहेर्श्रप्रः।
योगीन्र ज्ञानगम्यं गुणनिधिमनितं निर्गुणं निर्विकारं
मायातीतं सुरेशं खल बध निरतं ब्रह्म वृन्देक देवम्‌ । । ३।।
 
जिनकी माया के वशीभूत सम्पूर्णं विश्व ब्रह्मादि सम्पूर्ण देवता ओर असुर
हैं । जिनकी सत्ता से यह सारा जगत्‌ यद्यपि यह भ्रम है किन्तु रस्सी में सर्प की
भाँति सत्य नान पड़ता है । नो योगियों के स्वामी, ज्ञान के द्वारा जानने योग्य ओर
गुणों कं भण्डार है | अजेय, निगुर्ण, निर्विकार, माया से परे, देवताओं कं स्वामी
है । दुष्ट जनों को नष्ट करने के लिए तत्पर और व्रस्मवृन्द-शिष्यगणों के एकमात्र
परम देव-सदुगुरू विभु है ।
यं ब्रह्मा वरूणेन्द्र स्र मरूतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवैः
वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदे गायन्ति यं सामगाः |
ध्यानावस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्तियं योगिनो
यस्यान्तं न विदुः सुरासुर गणा देवाय तस्मै नमः।। ४।।
जिसकी ब्रह्मा, वरूण, इन्द्रादि देवगण दिव्य स्तोत्रं द्वारा स्तुति करते हें ।
वेद उपनिषद्‌ सामा-पद-क्रम-छन्द सहित जिसका गायन करते हैं और ध्यान
अवस्था में योगीजन जिस विभु को गत चित होकर हृदय में देखते हैँ । जिसके
आदि अन्त को देव ओर दैत्य कोई भी नहीं जानते उस परम प्रभु विभु को मेरा
कोटि-कोटि प्रणाम है।
मूलं धर्म तरोविवेक जलधेः पूर्णन्दुमानन्ददं
वैरागयाम्बुन भास्करं स्यथघनध्वान्तापहं तापहं
मोहाम्भोधरपूगपाटन विधौ स्वः सम्भवं शंकरं
वन्दे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्री रामभूपप्रियम । ।५।।
धर्म रूपी वृक्ष के मूल, विवेक रूपी समुद्र के आनंद दाता-पूर्ण चन्द्रमा एवं
qa रूपी कमल के विकसित करने वाले सूर्य हैं। पापरूपी घोर अंधकार को
निश्चय ही मिटाने वाले, तीनों तापों को हरण करके मोहरूपी बादलों के समूह को
छिन्न-भिन्न करने की विधि में निपुण हैं। कल्याण स्वरूप शंकर एवं स्वयं प्रगट होने
वाले विभु जो ब्रह्मकुल के कलंक को नाश करने वाले-महाराज राम के प्रिय हैं। में
उस परम प्रभु विभु की वंदना करता हूँ।
वंदे बोधमयं नित्यं गुरू शंकरं रूपिणम्‌
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्यते ।
ब्रह्मानन्दं परम सुखदं केवलं ज्ञान मूर्तिम्‌
भावातीतं त्रिगुण रहितं सदगुरु तं नमामि ।। ६।।
मैं भवानीपति शंकर जी की वंदना करता हूँ जो ज्ञानमय नित्य सनातन सतगुरु
है। जिनकी शरण मे आने पर टेटे चन्दमा की भाँति अनिष्ट करने-कराने वालों की भी
वंदना की जाती है। जो ब्रह्मानंद ओर परम सुख के दाता केवल ज्ञान ही की मूर्ति हैं
तथा भावनाओं से भी परे त्रिगुणातीत हैं। तीनों गुणों के स्वामी-सदुगुरूदेव को हाथ
जोड़कर चरणों में मत्था टेककर मैं बार-बार प्रणाम करता EI
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण सुभांगम्‌।
लक्ष्मी कान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यान गम्यं
बन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्व लोकंकनाथम्‌ । । ७ ।।
विश्वाधार, शान्ताकार, जगन्निवास, देवेश; जिनकी नाभि में कमल है और
आकाश के सदृश मेघवर्णं सुन्दर बदन है । लक्ष्मीपति-कमलनेत्र सर्वलोको के
ईश्वर, भवभयहारी, योगियों के ध्यान में आने वाले आनन्दकद-सच्चिदानन्द
भगवान विष्णु की मैं वन्दना करता हूँ।
सीताराम गुणग्राम पुण्यारण्य विहारणौ
वंदे विशुद्ध विज्ञानौ कवीश्वर कपीश्वरौ ।
उद्भव स्थिति संहारकारिणी कलेश हारिणीं
सर्व श्रेयस्करी सीतां नतोऽहं राम वल्लभाम्‌ । । ८ । ।
योगियों के हृदय स्वरूपी मानसरोवर में रमन करने वाले राम-सीता रूपी प्रभु
के नाम-गुण समूह-पुण्य रूपी पवित्र वन में विहार करने वाले भवानी-शंकर जहाँ
विशुद्ध विज्ञान स्वरूप कवियों के ईश्वर हैं वहां वानरो के स्वामी भगवान राम और
श्री सीता जी हैं मैं उनकी वंदना करता हूँ। आदि शक्तिभवानी जो उत्पत्ति, पालन एवं
संहार करने वाली हैं तथा उनके सभी श्रेष्ठ कार्यो कं करने वाली-लक्ष्मी स्वरूपा राम
की प्रिया श्री सीताजी को प्रणाम करता हूँ।
 
नील सरोरुह श्याम, तरुन बारिज नयन।
BE सो मम उर धाम, सदा क्षीर सागर सयन ।।९।।
से कुन्द इन्दु सम देह, उमा रमण करुणा अयन ।
जाहि दीन पर नेह, HE कृपा मर्दन मयन ।।२।।
नील कमल के समान श्याम और पूर्ण खिले हुए लाल कमल कं समान जिनके
नेत्र है । जो सदा क्षीरसमुद्र अर्थात्‌ अथाह अमृत रस के सागर में शयन करते है ।
वे सदैव परमप्रकाश में निवास करनेवाले विभु मेरे हृदयाकाश में निवास करे ।
जिनका चमेली के पुष्य एवं चन्द्रमा के सदश उज्जवल गौरवर्ण वदन है जिस में
आदि शक्ति-जगतमाता भवानी सहित परमेश्वर-भगवान शंकर रमण करते है । जो
दया के सागर हैं, जिनका dat पर स्नेह है, वे कामदेव के मर्दन करने वाले
अर्थात्‌-जिस हंस नाम का स्मरण करने से काम-शक्ति शान्त हो जाती है वे भवानीपति
शंकर मुझ पर कृपा करे |
प्रकाशक
श्री हंसलोक जनकल्याण समिति (रजि.)
वी-18, भाटी माइन्स रोड, भाटी, महरोली, नई दिल्ली-11007
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