shrimad bhagwat puran in hindi pdf
भागवत पुराण कथा भाग-4
अमर कथा
इसी भागवत कथा को सुनकर श्री शंकर जी अमर हैं। अतः इस भागवत कथा को अमरकथा भी कहा जाता है। इसी अमर कथा को एक समय श्री कर जी ने अपनी पत्नी पार्वती को सुनाया था, परन्तु श्रीपार्वती जी इस अमरकथा को पूरा-पूरा नहीं सुन पायीं तथा बीच में ही निद्राग्रस्त हो गयीं । अर्थात् इस प्रसंग का विस्तार से अन्यत्र ग्रन्थों में कथा है कि एक बार श्रीकृष्ण भगवान् महालक्ष्मी श्री राधाजी के साथ अपने वैकुण्ठ यानी गोलोक धाम में बैठे थे तो अचानक भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि हे राधा जी मैं अब पृथ्वी लोक पर जाऊँगा, आप भी चलें। श्री राधाजी ने कहा कि मैं पृथ्वीलोक पर तभी चलूँगी जब पृथ्वीलोक पर इस गोलोक के समान गोवर्धन – वृन्दावन, आदि उपस्थित हों ( प्रभु की कृपा से श्री राधा जी की कामना के अनुसार वृन्दावन, गोकुल एवं गोवर्धन पर्वत आदि पृथ्वी लोक में प्रकट हो गये) ।
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इधर जब श्रीराधा जी पृथ्वी लोक पर चलने लगीं तो गोलोक के श्रीराधाजी का लीलापक्षी श्रीशुकदेवजी ने भी साथ चलने को कहा तो वहीं राधाजी की आज्ञा से भगवान् की अमरकथा रूपी भागवत कथा के प्रचार करने के लिए गोलोक के लीलापक्षी श्रीशुकदेवजी एक सुग्गी के गर्भ के अण्डे के रूप में प्रकट होकर अमरनाथ में प्रकट हुए थे।
वह अण्डा हवा के झकोरों के कारण फूट गया था तथा अमरनाथ में फूटा हुआ पड़ा था। इधर एक बार श्री नारद जी घूमते-घूमते कैलास पर्वत पर पहुँचे तो श्री पार्वती जी ने नारद को सत्कार करने के बाद पूछा की नारद जी आप कहाँ से आ रहे हैं तो नारद जी ने कहा कि मैं हर जगह घूमते हुए आ रहा हूँ परन्तु अब घुमना कम कर दिया हॅू क्योकि लोगों पर विश्वास नहीं है इसका कारण लोगों में प्रेम एक दूसरे के प्रति नहीं है केवल दिखावा का प्रेम है वस्तुतः नही ।
तब पार्वती जी ने कहा कि हे नारद जी ! इस जगत् के लोगों में आपस में प्रेम है या नहीं, मैं नहीं जानती, लेकिन, हमारे और हमारे पति भूतभावन शंकर जी में तो बहुत प्रेम है।
यानी श्री शंकरजी हमसे बहुत प्रेम करते हैं। तब श्रीनारद जी ने कहा कि हे पार्वतीजी ! जब आपके पतिदेव श्री शंकरजी आपसे प्रेम करते हैं तो यह जरूर बतलाये होंगे कि श्री शंकर जी जो अपने गले में माला पहनते हैं वह कैसी और किसकी माला है, तब पार्वती ने कहा कि हे नारदजी! यह माला पहनने का रहस्य तो वे अभी तक नहीं बतलायें है।
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तब नारद जी ने कहा कि फिर आपके प्रति आपसे झूठा या दिखावे का प्रेम करते हैं। वस्तुतः प्रेम नहीं करते हैं। इतना कहकर श्रीनारदजी वहाँ से चल दिये। इधर वही एक बार पार्वतीजी ने भोलेनाथ से अनुरोध किया कि कृपया यह बतलायें कि आपकी गले में किसकी माला है तथा यह वर दें कि हे स्वामी मुझे आपसे वियोग नहीं हो और हमेशा आत्मज्ञान बना रहे, इसका कोई उपाय बतायें। आगे श्री शंकरजी ने कहा कि इस आत्मज्ञान को मैं समय से बतलाऊँगा।
परंतु श्रीनरद द्वारा जो भेद वचन है उन भेद वचनों के समाधान को करते हुये श्रीशंकरजी ने कहा कि हे पार्वती यह हमारे गले में जो मुण्डों की माला है वह मुण्डमाला तुम्हारे ही मुण्डों की है जिनको मैंने तुम्हारे बार-बार मरने पर तुम्हारी यादगारी में माला के रूप में धारण किया है क्योकि मैं तुमसे अति प्रेम करता ह। तब पार्वती जी ने कहा कि मैं बार-बार मर जाती हूँ और आपकी मृत्यु नही होती इसका कारण क्या है ?
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तब श्री शंकर जी ने कहा कि हे पार्वती ! मैने अमर कथा सुना है जिससे मैं अमर हूँ। यह घटना सुनकर श्री पार्वती जी ने अमर कथा सुनने के लिये श्री शंकर जी से प्रार्थना की तब शंकर जी ने कहा कि हे पार्वती इस समय मैं तुझमे अमरकथा सुनने का पुर्ण लक्षण नहीं देख रहा हूँ फिर भी तुम्हारे आग्रह करने के कारण मैं अवश्य कथा सुनाउगाँ यानी आज आपको अति गोपनीय कथा सुना रहा हूँ जिसको सुनकर तुम भी अमर हो सकती हो। इसलिए आप जरा बाहर देख आइये कि कहीं कोई है तो नहीं।
श्री पार्वतीजी ने बाहर आकर चारों तरफ अच्छी तरह देखा तो वहाँ एक शुक शावक के विगलित अंडे के सिवा कुछ नहीं था। उन्होंने श्री शंकरजी से कहा कि बाहर कोई नहीं नहीं है। तब श्री शंकरजी ने ध्यानस्थ मुद्रा में ‘अमरकथा’ का अमृत प्रवाह शुरू किया। बीच-बीच में पार्वती जी हुँकारी भरती थीं।
दशम स्कन्ध की समाप्ति पर वे निद्राग्रस्त हो गई एवं बारहवें स्कन्ध की समाप्ति पर पार्वतीजी ने शंकर जी से कहा कि हे प्रभो क्षमा करेंगे, मुझे दशम स्कन्ध के बाद नींद आ गयी थी।
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मैं आगे की कथा नहीं सुन सकी हूँ। अर्थात् श्री कृष्ण उद्धव संवाद जो ग्यारहवे स्कन्ध में है उसको मैंने नहीं सुना तथा बारहवें स्कन्ध की कथा भी नहीं सुनी। इधर यह जानने हेतु कि फिर कथा के बीच में हुंकारी कौन भर रहा था ? यह जानने के लिए शिवजी बाहर निकले। उन्होंने एक सुन्दर शुक शावक को देखा।
श्री शंकरजी ने पार्वती जी से पूछा- आखिर यह शुक शावक कहाँ से आ गया ? पार्वतीजी ने विनीत वाणी में कहा कि यह तो विगलित अंडे के रूप मे पडा था श्री भागवत कथा रूपी अमृत पान से जीवित हो गया। इस प्रकार अमर कथा की गोपनीयता भंग होने से शंकर जी शुक- शावक को पकड़ने के लिए झपटे ।
शुक शावक उड़ गया और उड़ते-उड़ते भय से श्री बद्रिकाश्रम के निकट स्थित व्यास आश्रम पर श्रीव्यास जी की पत्नी पिंगला के मुख में प्रवेश कर गया। फिर शंकर जी ने श्रीव्यासजी द्वारा सन्तावना प्राप्त कर वापस अपने आश्रम पर लौट गये। इधर श्री शुकदेवजी १६वर्षों तक पिंगला के गर्भ में रहे ।
अन्ततोगत्वा श्री व्यास जी के अनुरोध करने पर शुकदेवजी ने अपना भय बताया। उन्होंने गर्भ के भीतर से कहा कि उन्हें बाहर आनेपर माया से ग्रसित होने का भय है। यदि भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा माया से ग्रसित नहीं होने का आश्वासन मिले तभी वे बाहर आयेंगे। व्यासजी के अनुरोध से भगवान् श्रीकृष्ण ने शुकदेवजी को माया से ग्रसित नहीं होने का आश्वासन दिया, तब शुकदेवजी गर्भ से बाहर आये ।
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शौनक जी ! मैं आप सभी को सम्पूर्ण ज्ञान के सारभूत तथा जिससे माया मोह से मुक्ति प्राप्त होकर ज्ञान वैराग्य भक्ति की वृद्धि हो जाए ऐसी ही कथा को सुनाऊँगा । जो कथा अपात्रता के कारण देवताओं को भी दुर्लभ हो जाती है ।
एक बार जब राजा परीक्षित् शाप के कारण गंगातट पर वही भागवत की कथा सुनने के लिए बैठे थे तो श्री शुकदेवजी के सामने देवता लोग स्वर्ग से अमृत कलश लेकर कथा के बदले में राजा परीक्षित् को पिलाना चाहा तथा कथा को स्वयं देवताओं ने अपने कानरूपी प्याले से पीना या सुनना चाहा।
परन्तु उन देवताओं को उचित अधिकारी नहीं समझकर श्री शुकदेवजी ने डाँट कर हटा दिया तथा कथा रूपी अमृत नहीं पिलाया बल्कि पूर्ण अधिकारी राजा परीक्षित को ही श्री शुकदेवजी ने श्री मद्भागवत कथा रूपी अमृत पिलाया जिसके फलस्वरूप राजा परीक्षित् को सातवें दिन सद्यः मोक्ष प्राप्त हो गया।
“सुधाकुम्भं गृहीत्वैव देवास्तत्र समागमन्”
( अर्थात देवता लोग स्वर्ग से अमृत कलश लेकर कथा के बदले में राजा परीक्षित् को पिलाना चाहा तथा कथा को स्वयं देवताओं ने अपने कानरूपी प्याले से पीना या सुनना चाहा ) इधर राजा परीक्षित की मुक्ति के बाद स्वयं ब्रह्माजी को बड़ा आश्चर्य हुआ तथा वह ब्रह्मा जी ने तराजु के एक पलड़े पर समस्त साधन जैसे यज्ञ, दान, तप, जप, ध्यान आदि को रखा एवं दूसरे पलड़े पर श्रीमद्भागवत महापुराण को रखा तो तराजू के भागवत वाला पलड़ा सबसे भारी सिद्ध हुआ।
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मेनिरे भगवद्रूपं शास्त्र भागवते कलौ । पठनाच्र्छवणात्सद्यो वैकुण्ठफलदायकम् ।।
उस समय समस्त ऋषियों ने माना इस भागवत को पढ़ने से श्रवण से वैकुंठ की प्राप्ति निश्चित होती है ।
श्रीमद्भागवत महापुराण की कथा को पहले ब्रह्माजी ने देवर्षि नारद जी को सुनाया परन्तु सप्ताह विधि से इस कथा को श्री नारदजी ने सनक – सनन्दन – सनातन सनत्कुमार अर्थात् सनकादि ऋषियों से सुना था। वह सप्ताह कथा जो सनकादियों ने श्री नारदजी को सुनायी थी। वही कथा को एक बार मैं ( श्रीसुतजी) श्री शुकदेवजी से सुनी थी उसी कथा को हे शौनकजी मैं आपलोगों के बीच आज नैमिषारण्य में सुनाऊँगा।
इस प्राचीन कथा को कहने और सुनने की परम्परा को सुनकर श्री शौनकजी ने कहा कि हे सूतजी ! यह कथा कब और कहाँ पर श्री नारदजी ने सनकादियों से सुनी थी इसको विस्तार से बतलायें ? तब श्री सूतजी ने कहा कि हे शौनकजी! एक समय श्री बद्रीनारायण की तपोभूमि विशालापुरी में एक बड़े ज्ञान यज्ञ का आयोजन हुआ था जिसमें बहुत से ऋषियों सहित सनकादि ऋषि भी पधारे थे।
संयोग से उस समय उस स्थल पर श्री नारदजी ने सनकादियों को देखा तो प्रणाम किया एवं मन ही मन वे उदासी का अनुभव कर रहे थे।
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कथं ब्रह्मन्दीनमुखं कुतश्चिन्तातुरो भवान् । त्वरितं गम्यते कुत्र कुतश्चागमनं तव ।।
यह देखकर सनकादियों ने नारदजी से उदासी का कारण पूछा तो श्री नारदजी ने कहा-
अहं तु प्रथवीं यातो ज्ञात्वा सर्वोत्तमामिति ।
हे मुनीश्वरों मैं अपनी कर्मभूमि तथा सर्वोत्तम लोक समझकर एवं वहाँ के पवित्र तीर्थों का दर्शन करने पृथ्वी लोक पर आया था । परन्तु इस पृथ्वी के तीर्थों को भ्रमण करते हुए मैंने अनुभव किया कि सम्पूर्ण तीर्थ जैसे काशी, प्रयाग, गोदावरी, पुष्कर में भी कलियुग का प्रभाव है जिससे इन तीर्थों में नास्तिकों, भ्राष्टचारियों का बोलबाला एवं अधिकांशतः वास हो गया है। जिससे तीर्थ का सारतत्त्व प्रायः नष्ट हो गया है। अतः मुझे तीर्थों में जाने से भी शान्ति नहीं मिली। इस कलियुग के प्रभाव से सत्य, तप, दया, दान आदि सद्गुणों का लोप हो गया है। सबकोई अपना ही पेट भरने या अपना पोषण में लगा है।