bhagwat purana katha hindi/भागवत कथा

bhagwat purana katha hindi-14 /भागवत कथा

( अथ द्वादशो अध्यायः )

रहूगण का प्रश्न और भरत जी का समाधान- राजा रहूगण बोले प्रभु आप साक्षात परमात्मा रुप हैं |आपने जो उपदेश मुझे किया उसे और ठीक से समझाएं , भरत जी बोले राजन तुम जो यह समझते हो कि मैं पृथ्वी का स्वामी हूं तो ना जाने कितनी राजा इस धरती पर आए और चले गए किंतु यह धरती किसी की भी नहीं हुई , संसार में जीव आता है और प्रभु को भूल मैं मेरेपन के चक्कर में पड़ जाता है , अतः एकमात्र परमात्मा ही सत्य है |

इति द्वादशो अध्यायः

( अथ त्रयोदशो अध्यायः )

भवाटवी का वर्णन और रहूगण का संशय नाश-  भरत जी बोले हे राजा संसार के समस्त जीव एक व्यापारियों का मंडल जैसा है, यह व्यापारी व्यापार के लिए घूमते घूमते संसार रूपी जंगल में आ गए, उस जंगल में छह डाकू हैं, इन व्यापारियों को लूट लेते हैं, इस जंगल में रहने वाले हिंसक पशु भी उन्हें नोचते हैं, इस जंगल मे बड़े झाड़ झंकाड है जिसमें यह भटकते रहते हैं, कभी प्यास से व्याकुल हो जाते हैं | आपस में द्वेष भी करते हैं , विवाह संबंध भी करते हैं, वे इस जगंल में ना जाने कबसे घूम रहे हैं पर अपने लक्ष्य पर अब तक नहीं पहुंचे | राजा बोले अहो यह मनुष्य जन्म ही सर्वश्रेष्ठ है, जहां आप जैसे योगी पुरुषों का संग तो कल्याणकारी है |

इति त्रयोदशो अध्यायः

( अथ चतुर्दशो अध्यायः )

भवाटवी का स्पष्टीकरण- श्री शुकदेव जी कहते हैं कि यह संसार ही जंगल है, मन सहित छः इंद्रियां ही छः डाकू हैं, सगे संबंधी ही सब जंगली जीव हैं, स्त्री पुत्र आदि का मोह ही झाड़ झंकाड है | इस प्रकार संसार को ही जंगल कहा गया है |

इति चतुर्दशो अध्यायः

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( अथ पंचदशो अध्यायः )

भरत के वंश का वर्णन- भरत जी का पुत्र सुमति था, उसने ऋषभदेव जी के मार्ग का अनुसरण किया इसलिए कलयुग में बहुत से पाखंडी अनार्य  वेद विरुद्ध कल्पना करके उसे देवता मानेंगे इनके वंश में एक गय नाम के प्रतापी राजा हुए, उन्होंने कई यज्ञ किए थे |
इति पंचदशो अध्यायः

( अथ षोडशो अध्यायः )

भुवन कोश का वर्णन- श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित, जहां तक सूर्य का प्रकाश जहां तक तारागण दिखते हैं वहां तक भूमंडल का विस्तार है , हम जहां निवास करते हैं उसे जंबूद्वीप कहते हैं | भागवत जी में जो नाम दिए हैं, वर्तमान में जो नाम उनसे भिन्न हैं, अतः समझने में कठिनाई है , एशिया महाद्वीप जंबूद्वीप है, इसी तरह छः अन्य द्वीपों के नाम आजकल जो प्रचलन में है वे यूरोप, दक्षिणी अमेरिका, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, उत्तरी अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया है इन महाद्वीपों के भीतर जो देश स्थित हैं, उन्हें ही वर्ष कहा गया है | भारतवर्ष का नाम यथावत है अन्य किं पुरुष ही चीन है हरि वंश तिब्बत आदि देशों का वर्णन है |

इति षोडशो अध्यायः

( अथ सप्तदशो अध्यायः )

गंगा जी का वर्णन शंकर कृत संकर्षण देव की स्तुति- श्री शुकदेव जी बोले परीक्षित, जब वामन अवतार के समय भगवान ने तीन पैर में पृथ्वी नापने के लिए अपना पैर बढ़ाया तो उनके पैर के अंगूठे से ब्रह्मांड का ऊपरी भाग फट गया तो उस छिद्र से जो जल आया ब्रह्मा जी ने उस जल से भगवान के चरण को धोया, वही चरण धोबन भगवान विष्णुपदी गंगा है | राजा भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न हो ब्रह्मा जी ने धरती पर भेजा जो तीन धारा में विभक्त हो गई भागीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी तीनों मिलकर भारत को सींचती हुयी समुद्र में जा गिरी |

इति सप्तदशो अध्यायः

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( अथ अष्टादशो अध्यायः )

भिन्न-भिन्न वर्षों का वर्णन- जैसे जंबूद्वीप में नववर्ष हैं उसी तरह अन्य द्वीपों में भी अनेक वर्ष हैं, सभी वर्षों में भगवान के अनेक स्वरूपों की अलग-अलग पूजा होती है |

इति अष्टादशो अध्यायः

( अथ एकोनविंशो अध्यायः )

किंपुरुष और भारतवर्ष का वर्णन- किं पुरुष वर्ष में लक्ष्मण जी के बड़े भाई आदि पुरुष सीता हृदयाभि राम भगवान श्री राम के चरणों की सन्निधि के रसिक परम भागवत श्री हनुमान जी अन्न किन्नरों के सहित अविचल भक्ति भाव से उनकी उपासना करते हैं | भारतवर्ष में भी भगवान दयावश नर नारायण का रूप धारण करके, संयम शील पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिए अव्यक्त रूप से कल्प के अंत तक तप करते रहते हैं, वहां नारद जी सावर्णि मनु को पांच रात्रगम का उपदेश कराने के लिए भारत की प्रजा के साथ भगवान नर नारायण की उपासना करते हैं |

इति एकोनविंशो अध्यायः

( अथ विंशो अध्यायः )

अन्य छः द्वीप तथा लोकालोक पर्वत का वर्णन- जैसे जंबूद्वीप एशिया महाद्वीप है ऐसे ही अन्य
छः दीपों के नाम भी आज के नामों से भागवत में भिन्न हैं, उनको समझने के लिए प्रचलित नाम ही उपयुक्त रहेंगे यह नाम हैं- यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिणी अमेरिका, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, उत्तरी अफ़्रीका इस तरह समस्त पृथ्वी सातद्वीपों में विभक्त है |

इति विंशो अध्यायः

( अथ एकविंशो अध्यायः )

सूर्य के रथ और उसकी गति का वर्णन- श्री शुकदेव जी कहते हैं कि भूलोक के समान ही द्युः लोक हैं दोनों के बीच में अंतरिक्ष लोक है | अंतरिक्ष लोक में भगवान सूर्य तीनों लोकों को प्रकाशित करते रहते हैं | ये उत्तरायण व दक्षिणायन गतियों से चलते हुए दिन रात को छोटा बड़ा करते हैं | जब सूर्य मेष या तुला राशियों पर होते हैं दिन रात बराबर होते हैं , वृष आदि पांच राशियों पर दिन एक एक घड़ी बढ़ता रहता है और रात्रि छोटी होती रहती है, वृश्चिक आदि पांच राशियों पर रात्रि बढ़ती रहती है और दिन छोटे होते रहते हैं |

इति एकविंशो अध्यायः

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( अथ द्वाविशों अध्यायः )

भिंन्न भिंन्न ग्रहों की स्थिति और गति का वर्णन-  समस्त आकाश को बारह भागों में बांट कर उन्हें राशि नाम दिया गया है, तथा सत्ताइस उप भागों में बांट कर उसे नक्षत्र नाम दिया गया है, पृथ्वी के सबसे नजदीक चंद्रमा है यह एक नक्षत्र को एक दिन में तथा एक राशि को सवा दो दिनों में बारह राशियों को एक माह में पार कर लेता है, इससे आगे मंगल यह एक राशि पर डेढ़ माह रहता है, गुरु एक राशि को तेरह माह में पार करता है, शुक्र बुध और सूर्य लगभग थोड़ा आगे पीछे साथ ही रहते हैं एक माह में एक राशि पार करते हैं और बारह राशियों को एक वर्ष में पूरा करते हैं | सबसे मंद गति शनि की है यह ढाई वर्ष में एक राशि पार करता है |

इति द्वाविंशो अध्यायः

( अथ त्रयोविंशो अध्यायः )

शिशुमार चक्र का वर्णन- श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित ! ध्रुव लोक के सप्त ऋषि सहित सभी नवग्रह, नक्षत्र परिक्रमा करते हैं , परिक्रमा मार्ग में जो तारों का समूह है आकाश में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है इसे आकाशगंगा भी कहते हैं, यही शिशुमार चक्र है |

इति त्रयोविंशो अध्यायः

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( अथ चतुर्विंशो अध्यायः )

राहु आदि की स्थिति अतलादि नीचे के लोकों का वर्णन- सूर्यलोक और चंद्रलोक के बीच में राहु का लोक है यह यद्यपि राक्षस है, भगवान की कृपा से इसे देवत्व प्राप्त हुआ है अमृत वितरण के समय सूर्य और चंद्रमा के बीच बैठ गया था उन्होंने इसका भेद खोल दिया तभी से राहु इनसे शत्रुता रखता है इसलिए अमावस्या पूर्णिमा को राहु इन्हें ग्रसता है इसे ग्रहण कहते हैं | पृथ्वी के नीचे अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, महातल और पाताल ये सात लोक हैं |

इति चतुर्विशों अध्यायः

( अथ पंचविशो अध्यायः )

श्री संकर्षणदेव का विवरण और स्तुति- श्री शुकदेव जी कहते हैं राजन ! पाताल के नीचे तीस हजार योजन की दूरी पर अनंत नाम से विख्यात भगवान की तामसी नित्य कला है | यह अहंकार रूपा होने से दुष्टा और दृश्य को खेंचकर एक कर देती है , इसलिए पांच रात्र आगम के अनुयाई इसे संकर्षण कहते हैं | इनके हजार मस्तक हैं जिनमें से एक पर रखा हुआ यह भूमंडल सरसों के दाने के बराबर है | प्रलय काल में इनसे असंख्य रूद्र गण उत्पन्न होकर सृष्टि का संहार करते हैं | ऐसे अनंत भगवान को हम प्रणाम करते हैं |

इति पंचविंशों अध्यायः

( अथ षडविंशो अध्यायः )

नरकों की विभिन्न गतियों का वर्णन- शुकदेव बोले दक्षिण में नरक लोक में पितृराज सूर्यपुत्र यम राज्य करते हैं उनके समीप ही एक और पितृ लोक दूसरी ओर अनेक प्रकार के नर्क हैं | जिनमें मरने के बाद पापियों को अपने पापों की सजा दी जाती है | ये पापों के अनुसार कई प्रकार के हैं |

इति षडविंशो अध्यायः
इति पंचम स्कन्ध समाप्त

अथ षष्ठः स्कन्ध प्रारम्भ

( अथ प्रथमो अध्यायः )

अजामिल उपाख्यान- श्री सुखदेव जी बोले राजन बड़े-बड़े पापों का प्रायश्चित एकमात्र भगवान की भक्ति है इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं ! कान्यकुब्ज नगर में एक दासी पति ब्राह्मण रहता था उसका नाम अजामिल था वह ब्राह्मण कर्म से भ्रष्ट अखाद्य वस्तुओं का सेवन करने वाला पराए धन को छल कर लूटने वाला बड़ा अधर्मी था | एक बार कुछ महात्मा उस पर कृपा करने को आए उसकी पत्नी गर्भवती थी महात्माओं ने ब्राह्मण से कहा अब जो पुत्र हो उसका नाम नारायण रख देना | अजामिल ने अपने छोटे पुत्र का नाम नारायण रख दिया वह नारायण को बहुत प्यार करता था उसे बार-बार नारायण नाम लेकर बुलाता था , एक दिन उसे लेने के लिए यमदूत आ गए वे बडे भयंकर थे उन्हें देख घबराकर अजामिल ने नारायण को पुकारा भगवान के पार्षदों ने देखा यह अन्त समय में हमारे स्वामी भगवान का नाम ले रहा है वे भी वहां पहुंचे और यमदूतों को मार कर हटा दिया | और उनसे पूंछा तुम कौन हो इस पर यमराज के दूत बोले हम धर्मराज के दूत हैं, नारायण पार्षद बोले क्या तुम धर्म को जानते हो ? यमराज के दूत बोले जो वेदों में वर्णित है वही धर्म है , उससे जो विपरीत है वह अधर्म है | हे देवताओं आप तो जानते हैं यह कितना पापी है, अपनी विवाहिता पत्नी को छोड़कर वैश्या के साथ रहता है, यह ब्राह्मण धर्म को छोड़ अखाद्य वस्तुओं का सेवन करता है, इसे हम धर्मराज के पास ले जाएंगे इसे दंड मिलेगा तब यह शुद्ध होगा |

इति प्रथमो अध्यायः

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( अथ द्वितीयो अध्यायः )

विष्णु दूतों द्वारा भागवत धर्म निरूपण और अजामिल का परमधाम गमन- विष्णु दूत बोले यमदूतो तुम नहीं जानते हो कि शास्त्रों में पापों के कई चंद्रायण व्रत आदि प्रायश्चित बताए हैं, फिर अंत समय में जो भगवान नारायण का नाम ले लेता है उससे बड़ा तो कोई प्रायश्चित है ही नहीं | इसलिए तुम अजामिल को छोड़ जाओ और जाकर अपने स्वामी से पूछो, इतना सुनकर यमदूत वहां से चले गए और भगवान के पार्षद भी अंतर्ध्यान हो गए तब अब अजामिल को ज्ञान हुआ यह क्या सपना था वह यमदूत कहां चले गए और भगवान के पार्षद भी कहां चले गए , उसे ज्ञान हो गया और वह घर छोड़कर हरिद्वार चला गया और भगवान का भजन करके भगवान को प्राप्त कर लिया |

इति द्वितीयो अध्यायः

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( अथ तृतीयो अध्यायः )

यम और यमदूतों का संवाद- यमदूतों ने जाकर यमराज से पूछा स्वामी क्या आप से भी बड़ा कोई दंडाधिकारी है ? धर्मराज बोले हां भगवान नारायण सबके स्वामी हैं, उनके भक्तों के पास नहीं जाना चाहिए वह कितने भी पापी हो मेरे जैसे कई दंडाधिकारी उनके चरणों में नतमस्तक हैं |

इति तृतीयो अध्यायः

( अथ चतुर्थो अध्यायः )

दक्ष के द्वारा भगवान की स्तुति और भगवान का प्रादुर्भाव- श्री शुकदेव जी बोले परीक्षित जब प्रचेताओं ने वृक्षों की कन्या मारीषा से विवाह किया उससे उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम हुआ दक्ष था, प्रजा के सृष्टि के लिए उसने अघमर्षण तीर्थ में जाकर तपस्या की, हंसगुह्य नामक स्तोत्र से भगवान की स्तुति की जिससे प्रसन्न होकर भगवान उसके सामने प्रकट हो गए और बोले दक्ष मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ, यह पंचजन्य प्रजापति की कन्या अस्क्नि है तुम इसे पत्नी के रूप में स्वीकार करो जिससे तुम बहुत सी प्रजा उत्पन्न कर सकोगे , इतना कह भगवान अंतर्धान हो गए |

इति चतुर्थो अध्यायः

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( अथ पंचमो अध्यायः )

नारद जी के द्वारा दक्ष पुत्रों की विभक्ति तथा नारदजी को दक्ष का श्राप- श्री शुकदेव जी बोले दक्ष ने असिक्नि के गर्भ से दस हजार पुत्र पैदा किए, यह सब हर्यश्व कहलाए ये सब नारायणसर नामक तीर्थ में जाकर तपस्या करने लगे तो नारद जी आए और बोले हर्यश्वो तुम सृष्टि रचना के लिए तप कर रहे हो, क्या तुमने पृथ्वी का अंत देखा है, क्या तुम जानते हो एक ऐसा देश है जिसमें एक ही पुरुष है, एक ऐसा बिल है जिससे निकलने का रास्ता नहीं है, एक ऐसी स्त्री है जो बहूरूपड़ी है, एक ऐसा पुरुष है जो व्यभिचारिणी का पति है, एक ऐसी नदी है जो दोनों ओर बहती है , ऐसा घर है जो पच्चीस चीजों से बना है, एक ऐसा हंस है जिसकी कहानी बड़ी विचित्र है, एक ऐसा चक्र है जो छूरे और वज्र से बना है जो घूमता रहता है इन सब को जब तक देख ना लोगे कैसे सृष्टि करोगे ? हर्यश्व नारद जी की पहेली को समझ गए कि उपासना के योग्य तो केवल एक नारायण ही है वह उस परमात्मा की उपासना कर परम पद को प्राप्त हो गए | दक्ष को मालूम हुआ तो उसे बड़ा दुख हुआ उसने एक हजार पुत्रों को जन्म दिया और वह भी तपस्या करने गए नारद जी के उपदेश से उन्होंने भी बड़े भाइयों का अनुसरण किया, तब दक्ष को बड़ा क्रोध आया उसने नारद जी को श्राप दे दिया तुम कहीं भी एक जगह पर नहीं टिक सकोगे, संसार में घूमते रहोगे | इससे नारद जी बड़े प्रसन्न हुए |

इति पंचमो अध्यायः

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( अथ षष्ठो अध्यायः )

दक्ष की साठ कन्याओं का वंश वर्णन- अपने ग्यारह हजार पुत्रों के विरक्त हो जाने पर दक्ष ने अपनी भार्या से साठ कन्याएं पैदा की इनको उन्होंने दस धर्म को, तेरह कश्यप को, सत्ताइस चंद्रमा को, दो भूतों को, दो अंगिरा को, दो कृश्वास को, शेष तार्कक्ष्य नाम धारी कश्यप को ही ब्याह दी इनकी संतानों से सृष्टि का बहुत विस्तार हुआ |

इति षष्ठो अध्यायः

( अथ सप्तमो अध्यायः )

बृहस्पति जी के द्वारा देवताओं का त्याग और विश्वरूप को देवगुरु के रूप में वरण- श्री शुकदेव जी बोले परीक्षित त्रिलोकी का ऐश्वर्य पाकर देवराज इंद्र को घमंड हो गया था, इसलिए वे मर्यादाओं का उल्लंघन करने लगे | एक समय की बात है जब देवराज इंद्र अपनी सभा में ऊंचे सिंहासन पर अपनी पत्नी सची देवी के साथ बैठे थे तभी गुरु बृहस्पति वहां आ गए उन्हें देख इन्द्र ना तो खड़ा हुआ ना ही उनका कोई सम्मान किया,  यह देख बृहस्पति जी वहां से चुपचाप चल दिए कुछ देर बाद इंद्र को चेत हुआ, उन्होंने बृहस्पति को ढुड़ावाया पर वह कहीं नहीं मिले, इस पर इंद्र को बड़ा दुख हुआ इस बात का पता राक्षसों को लग गया उन्होंने देवताओं पर चढ़ाई कर दी और उन्हें भगा दिया | सब देवता ब्रह्मा जी की शरण में गए ब्रह्मा जी ने पहले तो उनसे बहुत बुरा भला कहा और फिर कहा जाओ शीघ्र ही त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप को अपना गुरु बनाओ, सभी देवता विश्वरूप के पास पहुंचे और उन्हें अपना पुरोहित बना लिया, विश्वरूप ने ब्रम्हविद्या के द्वारा देवताओं का स्वर्ग उन्हें दिला दिया |

इति सप्तमो अध्यायः

( अथ अष्टमो अध्यायः )

नारायण कवच का उपदेश- विष्णु गायत्री में भगवान के तीन नाम प्रधान हैं-

नारायण विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णु प्रचोदयात ||

नारायण वासुदेव और विष्णु इन तीनों के तीन मंत्र ओम नमो नारायणाय अष्टाक्षक मंत्र, ओम नमो भगवते वासुदेवाय द्वादश अक्षर मंत्र , तीसरा ॐ विष्णवे नमः षडाक्षर मंत्र इन तीनों मंत्रों के एक-एक अक्षर का अपने अंगों में न्यास करें फिर अन्य नाम जो कवच में है उन नामों को अपने अंगों में रक्षा के लिए प्रतिष्ठित करें यह भगवान के नामों का बड़ा उत्तम कवच है |

इति अष्टमो अध्यायः

( अथ नवमों अध्यायः )

विश्वरूप का वध वृत्रासुर द्वारा देवताओं की हार भगवान की प्रेरणा से देवताओं का दधीचि ऋषि के पास जाना- श्री शुकदेव जी बोले विश्वरूप के तीन सिर थे एक से देवताओं का सोम रसपान करते, दूसरे से सुरा पान करते, तीसरे से अन्न खाते थे | वे यज्ञ के समय उच्च स्वर से देवताओं को आहूति देते और चुपके से राक्षसों को भी आहुति देते क्योंकि उनकी माता राक्षस कुल की थी |.जब इंद्र को इस बात का पता चला उन्होंने वज्र से विश्वरूप के तीनों सिर काट दिए जिससे उन्हें ब्रहम हत्या का दोष लगा | उसे उन्होंने चार हिस्सों में एक जल को दूसरा पृथ्वी को तीसरा वृक्षों को चौथा स्त्रियों को बांट दिया | जब  विश्वरूप के पिता को मालूम हुआ तो उन्होंने एक तामसिक यज्ञ किया है, इंद्र शत्रु तुम्हारी अभिवृद्धि हो और शीघ्र ही तुम अपने शत्रु को मार डालो यज्ञ के बाद अग्नि से एक भयंकर दैत्य पैदा हुआ उसका नाम था वृत्तासुर उसने त्रिलोकी को अपने वश में कर लिया, उससे घबराकर सब देवता भगवान की शरण में गए , भगवान बताये तुम दधीचि के पास जाओ और उनसे उनकी हड्डियों की याचना करो उसी से वज्र बनाकर वृत्त्तासुर से युद्ध करो, तब वह राक्षस मारा जाएगा |

इति नवमो अध्यायः

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( भागवत कथानक )श्रीमद्भागवत महापुराण की सप्ताहिक कथा के सभी भाग यहां से आप प्राप्त कर सकते हैं |

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