भक्तमाल-स्वरूपवर्णन bhaktamal katha

भक्तमाल-स्वरूपवर्णन bhaktamal katha

 जाको जो स्वरूप सो अनूप लै दिखाय दियो, कियो यों कवित्त पट मिहिं मध्य लाल है।
गुण पै अपार साधु कहैं आँक चारि ही में, अर्थ विस्तार कविराज टकसाल है।
सुनि संत सभा झूमि रही, अलि श्रेणी मानो, घूमि रही, कहैं यह कहा धौं रसाल है।
सुने हे अगर अब जाने मैं अगर सही, चोवा भये नाभा, सो सुगंध भक्तमाल है।॥७॥
जिस भक्तका जैसा सुन्दरस्वरूप है, उसको श्रीनाभाजीने अति उत्तम प्रकारसे अपने काव्यमें स्पष्ट कर दिया है। कविता ऐसी की है कि जैसे महीन वस्त्रके अन्दर रखे हुए माणिक्य रत्नकी चमक बाहर प्रकाश करे, उसी प्रकार कविताकी शब्दावलीसे भक्तस्वरूप प्रकट होता है।
साधु-भक्तोंके गुण और उनकी महिमा अपार है, किंतु नाभाजीने सन्तगुरुकृपासे थोड़े ही अक्षरोंमें भक्तोंके गुणोंका ऐसी विचित्रताके साथ वर्णन किया है कि उसके अनेक अर्थ होते हैं और गुणोंका अपार विस्तार हो जाता है। यही सच्चे टकसाली कविकी विशेषता है।
सन्तोंकी सभा इसे सुनकर भक्तमाल काव्यका रसास्वादनकर आनन्दविभोर होकर झूम रही है, मानो सन्तरूपी भ्रमरसमूह चरित्ररूपी सुगन्धित पुष्पोंपर मँडरा रहा है। आश्चर्यचकित होकर वे कहते हैं कि यह कैसी विचित्र रसमयी कविता है !
मैंने अगर अर्थात् स्वामी श्रीअग्रदेवजीका नाम तो सुना था, परंतु अब मैंने जाना और अनुभव किया कि अगर (श्रीअग्रदेवजी) वस्तुतः अगर (सुगन्धित वृक्ष ही) हैं, जिनसे नाभाजी-जैसा इत्र उत्पन्न हुआ है और जिसकी दिव्य सुगन्ध यह भक्तमाल है॥७॥

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भक्तमाल bhaktamal katha all part

भक्तमाल-स्वरूपवर्णन bhaktamal katha

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