shri mad bhagwat maha puran भागवत कथा नोट्स
एक बार गोमती नदी के पावन तट पर पावन तीर्थ क्षेत्र नैमिषारण्य में अठासी हजार संत, ऋषियों सहित शौनकादि ऋषिगण उपस्थित हुए तथा श्रीभगवान् की केवल प्राप्ति के उद्देश्य से हजार वर्षों में पूर्ण होनेवाले यज्ञादि का अनुष्ठान किया। नित्य यज्ञादि करने के बाद समय मिलने पर कुछ न कुछ भगवत् चर्चा भी करते थे।
उस अनुष्ठान में ऐसे भी तपस्वी संत उपस्थित थे जिनकी तपस्या के काल में ही चारों युग कितने बार बदल चुके थे। उसी नैमिषारण्य के धर्मक्षेत्र में श्री व्यास जी के शिष्य एवं रोमहर्षण सूतजी के पुत्र उग्रश्रवा सूत जी भी पधारे थे।
एक दिन उसी महायज्ञ के अवसर पर प्रातः कालीन हवनादि करने के बाद सभी संत ज्ञानसत्र के सभामंडप में बैठे हुए थे तो उसीसमय अपने प्रवास आश्रम से निकलकर श्रीउग्रश्रवा सूत जी भी वहीं पर उपस्थित हो गये।
ज्ञानसत्र में उपस्थित सबलोगों ने खड़े होकर यथायोग्य श्रीसूत जी का सत्कार किया एवं व्यासगदी पर उन्हें बैठाकर श्रीसूत जी से श्रीशौनक जी ने कहा हे सूत जी! आप व्यासजी के शिष्य हैं ।
शिष्य का मतलब होता है कि जो गुरु के उपदेश को अपने आचरण में लेता है और प्रचार भी करता हो तथा जिसपर गुरु का अनुशासन हो, वह गुरु की आज्ञा मानने वाला हो, गुरु के अनुशासन पर जो चलता हो, वही शिष्य है।
गुरु का भी मतलब होता है कि जो भगवान् की प्राप्ति की प्यास को बढ़ा दे या जगा दे तथा धर्म में लगाकर अधर्म से अलग करके, आसक्ति का त्याग करा दे, वह गुरु है ।
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आप इतिहास पुराण के ज्ञाता हैं तथा श्रीव्यासजी जो रहस्य जानते है, उसे आप भी पूर्ण रूप से जानते हैं। अतः आप कृपा कर हमारी जिज्ञासा शान्त करें।
किं श्रेयः शास्त्र सारः कः स्वावतारः प्रयोजनम् । किं कर्म केवताराश्च धर्मः कः शरणं गताः ।।
१. मनुष्य को अथवा श्री वैष्णव लोगों को भगवान् की प्राप्ति के लिए क्या करना चाहिए ? २. मनुष्य के लिए मुख्य श्रेय का साधन क्या है ? ३. शास्त्रों में जो कुछ वर्णन किया गया है, उसका सार क्या है ? ४. भगवान् देवकी के पुत्र रूप में किस कार्य के लिए अवतीर्ण हुए थे ? ५. भगवान् के अद्भुत चरित्रों के बारे में बतायें जिसे कवियों, ऋषियों ने गाया हैं फिर भगवान् के अवतार की कथाओं को भी सुनाये । ६. यह भी बतायें कि श्रीकृष्ण भगवान् जब अपने धाम को चले गये तब निराश्रय धर्म किसकी शरण में गया ? श्रीसूतजी ने ऋषियों के प्रश्नों को सुनकर प्रसन्न होकर सबसे पहले गुरुपुत्र एवं गुरुभ्राता श्री शुकदेवजी को ध्यान करते हुये दो श्लोकों का उच्चारण करके वन्दन किया-
यः स्वानुभावमखिलश्रुतिसारमेक मध्यात्मदीप मतितिर्षतां तमोन्धम् ।
संसारिणां करुणयाह पुराणगुह्मं तं व्याससूनुमुपयामि गुरुं मुनीनाम् ।।
शौनक जी यह श्रीमद्भागवत महापुराण आत्म स्वरूप का अनुभव कराने वाला है और समस्त वेदों का सार है अज्ञान अंधकार में पड़े हुए और इस संसार सागर से पार पाने के इच्छुक प्राणियों पर करूणा कृपा करके श्री सुखदेव जी ने यह अध्यात्म दीप प्रज्वलित किया है ऐसे व्यास जी के पुत्र और प्राणियों के गुरु श्री सुखदेव जी को मैं प्रणाम करता हूं उन की शरण ग्रहण करता हूं ।
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् । देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जय मुदीरयेत् ।।
फिर सरस्वती एवं व्यासजी को प्रणाम करके फिर श्रीसूतजी शैनकादि ऋषियों के प्रश्नों को सुनकर बहुत प्रसन्न होते हुए बोले कि हे शौनकजी ! यह प्रश्न लोक मंगलकारी है। ऐसे भगवान् श्रीकृष्ण सम्बन्धी प्रश्नों से लोगों का कल्याण होता है एवं आत्मा को शांति मिलती है, परन्तु यह कार्य तब पूर्ण होता है जब कथा में हम बैठें। कथा सुनने बैठें तो मानव का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है।
अतः कथा में बैठने के लिए मन का एकाग्र होना चाहिये। उन मन को एकाग्र करने के लिए भगवान की कथा श्रेष्ठ है जीन भागवान की परिभाषा को बतलाते हुए ऋषियों ने कहा है जो संसार के ज्ञान–अज्ञान, जन्म-संहार, भूतों की गति – अगति को जानता है उसको भगवान् कहते हैं या वही भगवान् है।
श्री सूतजी ने ऋषियों द्वारा कहे गये प्रश्नों का उत्तर देते हुए बताया कि हे ऋषियों-
( 1 ) मनुष्य को अथवा श्री वैष्णव लोगों को भगवान् की प्राप्ति के लिए भगवान् की शरणागति करना चाहिये क्योकि धर्म का प्रयोजन भगवान के शरणागति से हि पूर्ण होता हैं वह भगवान सबके पति एवं रक्षक भी हैं।
अतः उन श्री परमात्मा की कथा सुनें एवं अराधना भी करें। ऐसा करने से अविचल भक्ति हो जाती है। यही प्रभु प्राप्ति का उपाय है।
(2) यज्ञ, तप, वेदाध्ययन भगवत् प्राप्ति के लिए उपाय हैं या साधन हैं यानी अतः यहीं श्रेय का साधन है।
( 3 ) शास्त्रो में जो कुछ भी वर्णन किया गया है जैसे- यज्ञ, तप, दान आदि ये सभी साधन का सार परमात्मा के श्रीचरणों में प्रीति के लिए ही हैं या शरणागति के लिए हैं यही शास्त्रों का सार है।
(4) वह प्रभु अपनी लीला करने एवं भक्तों को कृतार्थ कर दुष्टों का संहार, धर्म की स्थापना करने के कार्य के लिए ही श्री देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण भगवान अवतार लिये थे।
(5) भगवान् ने अनेक अद्भुत चरित्र किये हैं जैसे पूतना – कंस आदि का वध तथा कारागार से गोकुल आदि में पहुँचना एवं गोवर्धन आदि को उठाना, वह भगवान् ने अनन्त अवतार लिया जैसे राम-कृष्ण, वामन, नृसिंह आदि,
(6) जब प्रभु अपने धाम चले गये तो वह धर्म ने एकमात्र भागवत कथा में आश्रय लिया ।
आगे श्रीसुतजी ने कहा कि वह प्रभु के अनन्त अवतारों में प्रभु के मुख्य अवतार चौबीस हैं-उन अवतारों के मंगलमय नाम हैं । १. सनकादि महर्षियों का अवतार, २. वराहावतार, ३. नारदावतार, ४. नर-नारायणावतार, ५. कपिलावतार, ६. दत्तात्रेय अवतार, ७. यज्ञावतार, ८. ऋषभदेवावतार, ६. पृथु का अवतार, १० मत्स्यावतार, ११ कूर्मावतार, १२. धन्वन्तरि अवतार, १३. मोहिनी अवतार, १४. नृसिंहावतार, १५. वामनावतार, १६. परशुरामावतार, १७ व्यासावतार, १८ रामावतार, १६. बलदेवावतार, २०. श्रीकृष्णावतार, २१. हरि अवतार, २२. हंसावतार, २३. बुद्धावतार, २४. कल्कि अवतार ।
इसके अलावा प्रभु का हयग्रीव का भी अवतार हुआ है। यहाँ पर दस अवतार की गणना (मोहिनी एवं धन्वन्तरि को छोड़कर) करने पर मत्स्यावतार प्रथम तथा रामावतार सातवाँ होता है, परन्तु २४ अवतार की गणना करने पर मत्स्यावतार दसवाँ एवं रामावतार अठारहवाँ होता है। इस प्रकार इन चौबीसों अवतारों का श्रवण भजन करने से मनुष्य का कल्याण होता है एवं वह दुःख सागर से निवृति पाता है तथा आसक्ति को त्याग कर संसार बंधन से मुक्त होता है।
अन्यत्र ग्रन्थो में प्राचीन एक आख्यायिका है कि एक सेठ थे। उनका लक्ष्य केवल अर्थ अर्जित करना था। लक्ष्मी की कृपा जिसपर होती है वह किसलय युक्त पौधे के समान हो जाता है।
सेठजी भी लहलहा रहे थे। वे वृद्ध हो चले थे। संयोगवश व्यापार में घाटा हो गया। उन्हें चिन्ता बढ़ गयी। अब क्या होगा ? बोल भी नहीं पाते थे, बीमार हो गये। मन ही मन रोते थे। सोचते-सोचते बोलने की क्षमता खो बैठे। मरणासन्न हो गये। पुत्रों ने वैद्य को बुलाया ताकि पिताजी द्वारा कम से कम छिपाकर रखी सम्पत्ति की जानकारी तो मिल जाय ।
वैद्यजी ने दवा दी। दवा के प्रभाव से मरणासन्न सेठजी की चेतना जगी। उन्होंने आँखें खोलीं तो सामने देखा कि बछड़ा झाडू चबा रहा था । वे पुत्रों को इशारा करने लगे, तो पुत्र पास आकर पूछने लगे कि हे पिताजी क्या आज्ञा है। तब सेठजी बोले ‘हमको क्या देख रहे हो, देखो उधर बछड़ा झाडू चबा रहा है और उसके बाद उन सेठ के प्राण पखेरु उड़ गये ।
यही आसक्ति है, जो छूटती नहीं परन्तु भगवान् के चौबीस अवतारों के भजन, चिन्तन से आसक्ति छूटती है एवं परमात्मा की कृपा होती है तथा आसक्ति से मुक्ति मिलती है।
एक समय श्रीशुकदेवजी महाराज ने राजा परीक्षित को भगवत् स्वरूप श्रीभागवत की कथा सुनायी थी । आगे शौनकजी ने सूतजी से कहा की हे सुतजी ! जो कथा श्रीशुकदेवजी ने गंगा तट पर शुकताल में राजा परीक्षित् को सुनायी थी, वही कथा सुनायें तथा यह भी बतलायें कि वह भागवत कथा किस कारण से, किस स्थान पर और क्यों सुनायी गयी एवं किस भावना से प्रेरित होकर व्यासजी ने भागवत पुराण की रचना की ?
सौनक जी यह भागवत नाम का पुराण वेदों से सम्मत है इसे मैंने श्री सुखदेव जी की कृपा से उन्हीं के अनुग्रह से जव वेराजा परीक्षित को कथा सुना रहे थे उसी समय मैंने भी इसका अध्ययन किया ।
तदपि जथा श्रुत जस मति मोरी । कहिहंउ देखि प्रीति अति तोरी ।।
इसी को जैसा मैंने सुना और जितना मेरी बुद्धि ने ग्रहण किया उसी के अनुरूप में तुम लोगों को सुनाऊंगा । सौनक जी पूछते हैं—
कस्मिन युगे प्रवृत्तेयं स्थाने वा केन हेतुना । कुतः सन्चोदितः कृष्णः कृतवान संहितां मुनिः ।।
इस श्रीमद् भागवत महापुराण का निर्माण वेदव्यास जी ने किस युग में किया किस स्थान पर तथा किस कारण से किया तब श्री सूतजी कहते हैं—–
द्वापरे समनुपप्राप्ते तृतीये युग पर्यये । जातः पराशरद्योगी वासव्यां कलयाहरे ।।
सौनक जी तीसरे युग द्वापर में महर्षि पाराशर के द्वारा वसुकन्या सत्यवती के गर्भ से भगवान के कला अवतार श्री वेदव्यास जी भगवान का जन्म हुआ व्यास जी भूत भविष्य के जानकार थे उन्होंने भविष्य पर दृष्टि डाली तो देखा कलयुग के प्राणी कम बुद्धि वाले कम आयु वाले और भाग्यहीन होंगे आलसी होंगे उस समय उन्होंने प्राणियों की सरलता के लिए एक वेद के चार भाग किए ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद ऋग्वेद अपने शिष्य महर्षि पैल को प्रदान किया सामवेद जैमिनी को यजुर्वेद वैशम्पायन को और अथर्ववेद सुमन्तु ऋषि को प्रदान किया
स्त्रीशूद्र द्विज बन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचराः ।
श्री व्यास जी ने स्त्री एवं शूद्रों आदि के कल्याण के लिए एक लाख वेदों के मंत्रों के भवार्थ को संग्रह कर महाभारत की रचना कर दी। महाभारत में भी एक लाख श्लोक हैं, जिन पर सबका अधिकार है।
जो महाभारत में है उससे अलग दूसरी बात दूसरे शास्त्र में नहीं है। व्यासजी ने १७ पुराण लिख डाले। फिर भी उन्हें आत्मतोष नहीं हुआ। वे सोचने लगे कि मुझसे क्या भूल हुई है जिससे मन में अशान्ति है। किसी कार्य में मन नहीं लगता ऐसी उद्विग्नता क्यों ? उसी समय उनके पास श्री नारदजी आ गये।
श्री व्यासजी नारदजी को देखकर प्रसन्न होकर खड़े हो गये। फिर उनको आसन देकर उन्होंने उनकी अर्चना पूजा की एवं फिर अपनी अशान्ति का कारण पूछा तो नारदजी ने उपदेश देना शुरू किया और कहा-
यथा धर्मादयश्चार्था मुनिवर्यानुकीर्तिताः । न तथा वासुदेवस्य महिमाह्यनुवर्णितः ।।
कि आप भगवान् की भक्ति प्राप्ति के ग्रन्थ की रचना करें। तब आपको शान्ति मिलेगी।
नारदजी का पूर्व जन्म –
नारदजी ने कहा कि आपने निर्मल ज्ञान और भक्ति से युक्त परमात्मा की प्राप्ति का गान नहीं किया और आपने महाभारत ग्रन्थ अपनी लेखनी से लिखकर कहीं-कहीं हिंसा इत्यादि का वर्णन कर दुष्ट व्यक्ति को हिंसा आदि करने का नेत्र खोल दिया ।
अर्थात् अब आपके ही ग्रंथों का प्रमाण देकर लोग हिंसा आदि करना प्रारम्भ करेंगे। महाभारत का मतलब तो होता है कि महा मानें सबसे उत्तम, यानी शुद्ध ज्ञान में रत रचना। अतः आपने भगवान् के चरित्र का गान पूर्ण रूप से नहीं किया है।
नैष्कर्म्य मप्यच्युत भाव वर्जितं न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।
जो प्रभु के चरित्रों को छोड़, अन्य जो कुछ भी वर्णन करता है, उससे उसकी बुद्धि स्थिर नहीं रहती। निष्काम कर्म और ज्ञान भी, भक्ति रहित होने पर स्थिरता एवं शान्ति नहीं देते। जिस प्रकार मनुष्य को दुःख बिना प्रयास के ही प्राप्त हो जाता है, उसी तरह विषय वासना, सुख भी बिना प्रयास के भी प्राप्त हो जाते हैं।
प्रवृति मार्ग अपनाकर कोई विरला ज्ञानी ही भगवत् सुख को प्राप्त करता है लेकिन भगवत भक्ति का सहारा लेकर मनुष्य भगवान् को पा सकता है या भवसागर पार कर जाता है। व्यासजी! चूँकि आप वसुदेवता की पुत्री सत्यवती के लाडले पुत्र हैं, अतः आप भगवान् के उत्कृष्ट (उत्तम) गुणों का गान करें एवं वर्णन करें। इससे आपको संतोष होगा, खिन्नता मिटेगी ।
नारदजी व्यासजी को भगवान् की कला बताते हुए कहते हैं कि आप लोक कल्याण के लिए ही धराधाम पर आये हैं । वस्तुतः आप भगवान् की कला का अवतार हैं, इसलिए भगवान् के उत्तम चरित्रों का वर्णन करें। भगवान् का अर्थ होता है-
उत्पत्तिं प्रलयं चैव भूतानामगतिं गतिम्वेति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति
जो पुरे जगत का उत्पति- प्रलय, भुतों के गति अगति, विद्या-अविद्या को जानता है वह भगवान कहा जाता है।
अहं पुरातीत भवे भवं मुने दास्यास्तु कस्याश्चन वेदवादिनाम् ।
निरूपितो बालक एव योगिनां शुश्रूषणे प्रावृषि निर्विविक्षताम् ।।
श्रीनारदजी ने कहा कि हे व्यास जी ! मैं दासीपुत्र नारद आज प्रभु के चरित्रों के गुणगान करने के कारण इस समय ब्रह्मा का पुत्र बना हुआ हूँ । अर्थात् मैं नारद पूर्वजन्म में दासी का पुत्र था। मेरा जन्म हुआ इधर मेरे पिता की मृत्यु हो गयी। इसप्रकार मेरे पिता के मृत्यु के बाद मेरी माँ मेरे को लेकर राजऋषि के यहा चली गयी।
वहाँ मेरी माँ राज ऋषि घराने में सेवा का कार्य कर जो कुछ प्राप्त करती, उसी से स्वयं तथा अपने पुत्र का पालन करती थी। मेरी दासी माता ने बहुत प्यार एवं स्नेह से मेरा पालन पोषण किया। जहाँ पर मेरी दासी माँ काम करती थी, संयोग से वहीं पर एक संत चातुर्मास्यव्रत करने के लिए आ गये। राज ऋषि के आदेश से मेरी दासी माँ को संत की सेवा में लगा दिया गया।
दासी पुत्र मुझ नारद की उम्र उस समय केवल पाँच वर्ष की थी। वे कम खेलते और कम ही बोलते थे। महात्मा के आदेश से यथासंभव सेवा करते थे तथा महात्मा का उच्छिष्ट प्रसाद पाकर आनन्द से जीवन बिताते थे। शास्त्र का कथन है कि :-
“उच्छिष्ट भोजिनः श्वानः”
जूठा भोजन करनेवाला भरकर कुत्ता होता है लेकिन यह भी मतलब होता है कि “उत्कृष्टशिष्टम् उच्छिष्टं” यानी पाक (पाकशाला ) का बचा प्रसाद भी उच्छिष्ट कहलाता है। महात्माजी के भोजन के बाद शुद्धपात्र में जो उच्छिष्ट यानी शेष अन्न बचता, वही खाकर मैं भी रहता । शुद्ध पात्र में उच्छिष्ट या शेष अन्न जूठा नहीं होता। चातुर्मास्यव्रत में संत महाराज भगवान् का कथा सुनाते थे।
नारदजी कथा को श्रवण करते थे। नारदजी सोचते कि माँ यदि आज्ञा दे देती तो वे व्रत समाप्ति पर संत महाराज के साथ चले जाते। कथा श्रवण करते-करते नारदजी का चित्त शुद्ध हो गया। भगवान् में अविचल भक्ति हो गयी ।
संत महाराज का चातुर्मास्यव्रत समाप्ति पर आया तो उन संतो ने नारदजी को भागवत धर्म का उपदेश दिया। नारदजी उसी समय समझ गये कि यह संसार माया हैं। यहाँ माँ, धन, धरती, बाग-बगीचा – किसी में भी अनुरक्ति नहीं रखनी चाहिए। नारदजी को विरक्ति हो गयी। अनेकों शास्त्रों ने कहा है कि हमलोग दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से जलते रहते हैं।
संसार के लोग इन्हीं तीन तापों से दुःख पाते हैं इन तीनों दोषों की दवा यह है कि जो कुछ धर्म, कर्म, दिनचर्या हम करें, उसे भगवान् के चरणों में समर्पित कर दें । यही शांति का उपाय है ।
अतः मनुष्य को दिन भर खेती, व्यापार, नौकरी, अध्ययन-अध्यापन, किये हुए सभी सुकृत कार्य दिनचर्या को भगवान् के चरणों में अर्पित कर दें। श्री नारद जी ने कहा कि हे व्यास जी! आप तो बहुश्रुत हैं ।
अतः भगवान् के चरित्रों का ऐसा गान करें या ऐसी रचना करें जैसा अबतक न किसी ने किया हो और न आगे कर सके । इधर फिर श्री नारद जी के शेष आगे के चरित्र को जानने की इच्छा से व्यास जी ने पूछा कि हे श्री नारद जी संतों के जाने के बाद आपने क्या किया एवं आपकी शेष आयु कैसे बीती ? जीवन का त्याग कैसे किया ? पूर्व जन्म की स्मृति कैसे रही ? –
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