Saturday, October 5, 2024
Homebhagwat kathanakbhagwat katha bhagwat katha -19

bhagwat katha bhagwat katha -19

bhagwat katha bhagwat katha

  भागवत पुराण कथा भाग-19

सुखस्य दुखस्य ना कोपि दाता । परो ददातीति कुबुद्धि देशः ।।

सुख और दुख देने वाला कोई दूसरा नहीं है जो दूसरों को दुख देने वाला मानता है वह अज्ञानी है विद्वानों को इसमें बड़ा मतभेद है कि दुःख का कारण क्या है ? या कौन है ? कुछ विद्वानों का कहना है कि आत्मा के अज्ञान से सुख-दुःख की अनुभूति होती है अतः सुख दुःख का कारण कोई नहीं है।

तार्किक सुख-दुःख का कारण आत्मा को मानते हैं। ज्योतिषी – ग्रहादि देवताओं को मानते हैं। मीमांसक कर्म को, नास्तीक-स्वभाव को, सांख्यवादी – स्वभाव शब्द से गुण परिणाम को सुख-दुःख का कारण मानते हैं। इसलिए हे राजन् ! आप ही क्लेशदाता का निर्णय कर लीजिए ।

राजा परीक्षित ने विचार किया कि सुख-दुःख मिथ्या तो नहीं हो सकते, क्योंकि उनकी अनुभूति आत्मा में होती है। जीवात्मा भी दुःख का कारण नहीं हो सकती, क्योंकि वह दूसरे के अधीन है। कर्म कारण नहीं सकते, क्योंकि वे जड़ हैं। स्वभाव भी कारण नहीं हो सकता, क्योंकि वह आचरण दोष से ग्रसित है।

bhagwat katha bhagwat katha

अतः सुख-दुःख के कारण इनमें से कोई नहीं है। अगर कोई सुख-दुःख का कारण है तो अपने मन की सलाह से किया गया कर्म ही जीव के सुख-दुःख का कारण है।

कोउ न काहू सुख दुख कर दाता । निज कृत कर्म भोग सब भ्राता  ।।

अतः राजा परीक्षित ने कहा तुम ठीक कहते हो तुम वृषभरूप धर्म ही हो, इसलिए घातक को जानते हुए भी बताना उचित नहीं समझते। क्योंकि अधर्म करनेवाले को जिस नरक आदि की प्राप्ति होती है, वही गति सूचना देनेवाले की भी होती है। अधार्मीको जो गति होती है, वही उसकी चर्चा करनेवाले की भी होती है। अर्थात् क्लेशदाता की भी आलोचना नहीं करनी चाहिए।

राजा परीक्षित ने वृषभ एवं गो माता दोनों को आश्वासन देते हुए विदा किया तथा कलि को मारने के लिए अपनी तलवार खींच ली। भयभीत होकर कलि अपना मुकुट फेंक कर राज परीक्षित के चरणों में गिर पड़ा।

bhagwat katha bhagwat katha

शरणागत कहू जे तजहि निज अनहित अनुमान ।

ते नर पावत पाप भय  तिनहिं बिलोकत हानि ।।

राजा परीक्षित ने हँसते हुए कहा कि हम पांडववंशियों का यह धर्म है कि शरणागति करनेवाला कितनी भी पतित क्यों न हो, हम उसे मारते नहीं। राजा परीक्षित् कलि को आश्वासन देते हुए कहते हैं कि मैं तुम्हें मारूँगा नहीं, लेकिन तुम मेरा राज्य छोड़कर चले जाओ । भगवान् के अग्र भाग से धर्म तथा पीछे के भाग से अधर्म पैदा होते हैं। अधर्म के परिवार हैं- लोभ, अनृत, कलह, दम्भ आदि ।

राजा परीक्षित ने कलि को अपने राज्य से बाहर जाने को कहा, तो कलि नतमस्तक होकर बोला मैं जहाँ कहीं भी क्यों न रहूँ। परन्तु आप वहीं धनुष बाण को लिए खड़े दिखायी देते हैं। मैं कहाँ रहूँ ? आप ही हमारे रहने का आश्रय स्थान बता दें । ऐसे शरणागत कलि के अनुरोध पर राजा परीक्षित ने कलि को रहने के लिए चार स्थान निश्चित कर दिया –

द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः । पुनश्च याचमानाय जातरूपमदात्प्रभुः ।

ततोनृतं मदं कामं रजो वैरं च पञ्चमम् ।।

bhagwat katha bhagwat katha

१. जुआ खेलने का स्थान, २ मदिरा, धूम्रपान, व्यसन करने का स्थान, ३. वेश्यालय तथा ४. कसाईखाना । जहाँ इन चार में से कोई कार्य होता है, वहीं कलि का निवास राजा परीक्षित ने निश्चित किया । कलि ने पुनः राजा परीक्षित से अनुरोध किया कि आपने मेरे निवास के लिए चारो ही निकृष्ट स्थान निश्चित किया है। इन स्थानों पर अच्छे लोग नहीं होते। मेरे निवास के लिए कम से कम एक सुन्दर स्थान भी दें। राजा परीक्षित् ने पुनः कलि को सुवर्ण में निवास करने को कहा क्योकि सुवर्ण को सर्वसाधारण तथा बड़े लोग प्रायः सभी स्वीकार करते हैं। –

अनीति से प्राप्त धन या वैभव या सोना आदि में कलि रहता है । इस प्रकार इस निर्धारण के पश्चात् पुनः धर्म के द्वारा तप, दया, शौच, सत्य का आचरण होने लगा। यानी धर्म के चारों पैर पुनः ठीक हो गये । धार्मिक लोग पुनः तप, दया, शौच, सत्य इन चारों आचारण को पालन करने लगे। इधर पृथ्वी को भी राजा परीक्षित् ने निर्भय कर दिया। परन्तु इधर एक दिन कलि ने राजा परीक्षित के स्वर्णमय मुकुट में प्रविष्ट हो गया ।

कथा से यह उपदेश प्राप्त होता है कि प्रायः गलत व्यक्ति को आश्रय देने पर एक दिन वह निश्चित ही अपने आश्रयदाता पर ही कुठाराघात करता है ।

bhagwat katha bhagwat katha

अन्यत्र शास्त्रों में प्रसंग आता है कि :- जरासंध के मरने के बाद उसके पुत्र सहदेव ने अपने पिता का मुकुट लेना चाहा था परन्तु भीम ने जरासंध का मुकुट ले लिया था। उस मुकुट को जरासंध के पुत्र सहदेव को नहीं दिया गया। भीम ने उस अनृतकर्ता जरासंध के प्राप्त मुकुट को अपनी तिजोरी में लाकर रख दिया।

तिजोरी तभी से बंद पड़ी थी। एक दिन राजा परीक्षित् ने उस तिजोरी को खोला। उसमें उस अपूर्व मुकुट को देखा तो राजा परीक्षित् ने अपना मुकुट रख दिया और तिजोरी में रखे जरासंध के मुकुट को धारण कर लिया। अब कलि ने परीक्षित के सिर पर रखे स्वर्ण मुकुट को भी अपना आश्रय बना लिया। वह अनृतकर्ता जरासंघ के मुकुट को पहनने के कारण एक दिन राजा परीक्षित् को शिकार करने कि इच्छा हुई।

bhagwat katha bhagwat katha

वह परीक्षित वही मुकुट पहनकर शिकार करने निकले। मार्ग में शिकार नहीं मिला। उन्हें प्यास लग गयी। वहाँ आसपास जलाशय नहीं था। वहीं पास में शमीक ऋषि के आश्रम में पहुँचे। वे ऋषि तपस्या कर रहे थे और समाधि की अवस्था में थे अतः उनको बाहर का कुछ भी ज्ञान नहीं था। उनसे राजा ने जल माँगा परन्तु ऋषि ध्यान में बैठे थे। अतः राजा को ऋषि ने जल नहीं दिया। धर्म के ऊपर अधर्म का वर्चस्व ही कलि का प्रभाव है।

प्यास से व्याकुल राजा परीक्षित् ने दो-चार बार शमीक ऋषि को पुकारा लेकिन शमीक ऋषि की समाधि नहीं टूटी । कलि के प्रभाव से राजा क्रोधित हो गये। क्रोध में उन्होंने पास ही पड़े एक मरे हुए साँप को उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया। इधर शमीक ऋषि के पुत्र शृंगी ऋषि बालको के साथ कौशिकी नदी के तट पर खेल रहे थे।

खेलते समय उन्हें मालूम हुआ कि राजा परीक्षित् ने उनके समाधि में लीन पिता के गले में मरा हुआ साँप डाल दिया है। यह जानकर बाल ऋषि के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। उन्होंने नदी के जल का आचमन कर राजा परीक्षित् को शाप दे डाला।

“इत्युक्त्वा रोषताम्राक्षो वयस्यानृषि बालकः ।

कौशिक्याप उपस्पृश्य वाग्वजं विससर्ज ह।।

श्रीमदभा० १.१८.३६

इति लघितमर्यादं तक्षकः सप्तेऽहनि ।

दङ्क्ष्यतिस्म कुलांगारं चोदितो मे ततद्रुहम् ।।

श्रीमद्भा० १.१८.३७

ऋषिपुत्र ने शाप दिया कि मर्यादा का हनन करनेवाले इस दुष्ट राजा को सातवें दिन मुझसे प्रेरित होकर तक्षक सर्प डंसेगा। तक्षक सर्प का मतलब काल रूपी नाग होता है जो जीव को डँसता है। ऐसा शाप देकर श्रृंगी ऋषि अपने पिता के आश्रम में आये। पिता के गले में मरा हुआ साँप लटकता देख वह जोर-जोर से रोने लगे।

bhagwat katha bhagwat katha

पुत्र को रोने की आवाज से शमीक ऋषि की समाधि टूट गयी। उन्होंने आँखे खोलीं। अपने गर्दन में मरा हुआ साँप लटकते देख उसे फेंका। फिर पुत्र से पूछा- क्यों रो रहे हो ? किसने तुम्हारा अपकार किया है ? ऋषि पुत्र शृंगि ने अपने पिता से सारा वृतान्त कहा। शमीक मुनि अपने पुत्र द्वारा राजा परीक्षित् को शाप दिये जाने की बात जानकर बहुत दुःखी हुए।

अपने पुत्र की नादानी पर उन्हें बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने कहा कि इस छोटे से अपराध के लिए तुने राजा को इतना बड़ा दण्ड दे दिया । राजा साधारण मनुष्य जैसा दण्ड का अधिकारी नहीं होता। वह विष्णु का अंश होता है। भगवत्स्वरूप राजा से रक्षित प्रजा अपने धर्म कर्म में सुरक्षित रूप से लगी रहती है।

यशस्वी राजा के न रहने पर अराजकता फैल जाती है और अपराध कर्म बढ़ जाते हैं तथा अपराधियों का साम्राज्य हो जाता है। लूटपाट भी बढ़ जाती है। इस प्रकार राजा के अभाव में स्त्रियों का अपहरण होने लगता है, वर्णसंकर संतान पैदा होने लगती है। इन सबका पाप नृपहन्ता को लगता है। अतः हे पुत्र ! शाप देकर तूने बहुत अनुचित कार्य किया ।

bhagwat katha bhagwat katha

प्यास से व्याकुल राजा मेरे आश्रम में आया था अतः वह शाप के योग्य कदापि नहीं था । इस तरह दुःखी होकर शमीक ऋषि भगवान् से प्रार्थना करने लगे-

‘अपापेषु स्वमृत्येष बालेनापक्वबुद्धिना । पापं कृतं तद्भगवान् सर्वात्मा क्षन्तुमर्हति ।

श्रीमद्भा० ०१/१८/४७

हे भगवन्! अपरिपक्व बुद्धि के मेरे पुत्र ने आपके भक्त राजा को शाप दे डाला। बालक होने के कारण उसके अपराध को क्षमा करें। इधर राजा परीक्षित् जब वन से लौटकर राजभवन आये और सिर से मुकुट को उतार कर रखा तो उन्हें शमीक ऋषि के गले में मरे साँप डालने की घटना का स्मरण हुआ। वे पाश्चात्ताप में डूब गये। उन्हें चिन्ता हुई कि दुर्जन की भाँति उन्होंने मुनि के गले में मृतक साँप डालकर बड़ा ही नीच कर्म किया।

भागवत पुराण कथा के सभी भागों कि लिस्ट देखें- 

shiv puran katha list

______________________

bhagwat katha bhagwat katha
bhagwat katha bhagwat katha

bhagwat katha bhagwat katha

यह जानकारी अच्छी लगे तो अपने मित्रों के साथ भी साझा करें |
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments

BRAHAM DEV SINGH on Bhagwat katha PDF book
Bolbam Jha on Bhagwat katha PDF book
Ganesh manikrao sadawarte on bhagwat katha drishtant
Ganesh manikrao sadawarte on shikshaprad acchi kahaniyan