Saturday, October 12, 2024
Homeभागवत कथाbhagwat katha bhagwat katha श्रीमद्भागवत महापुराण

bhagwat katha bhagwat katha श्रीमद्भागवत महापुराण

bhagwat katha bhagwat katha श्रीमद्भागवत महापुराण


उसी श्रीमद्भागवत महापुराण की कथा को पहले ब्रह्माजी ने देवर्षि नारद जी को सुनाया परन्तु सप्ताह विधि से इस कथा को श्री नारदजी ने सनक-सनन्दन-सनातन सनत्कुमार अर्थात् सनकादि ऋषियों से सुना था। वह सप्ताह कथा जो सनकादियों ने श्री नारदजी को सुनायी थी।
वही कथा को एक बार मैं(श्रीसुतजी) श्री शुकदेवजी से सुनी थी उसी कथा को हे शौनकजी मैं आपलोगों के बीच आज नैमिषारण्य में सुनाऊँगा।
इस प्राचीन कथा को कहने और सुनने की परम्परा को सुनकर श्री शौनकजी ने कहा कि हे सूतजी ! यह कथा कब और कहाँ पर श्री नारदजी ने सनकादियों से सुनी थी इसको विस्तार से बतलायें? तब श्री सूतजी ने कहा कि हे शौनकजी! एक समय श्री बद्रीनारायण की तपोभूमि विशालापुरी में एक बड़े ज्ञान यज्ञ का आयोजन हुआ था जिसमें बहुत से ऋषियों सहित सनकादि ऋषि भी पधारे थे।
संयोग से उस समय उस स्थल पर श्री नारदजी ने सनकादियों को देखा तो प्रणाम किया एवं मन ही मन वे उदासी का अनुभव कर रहे थे। यह देखकर सनकादियों ने नारदजी से उदासी का कारण पूछा तो श्री नारदजी ने कहा कि हे मुनीश्वरों मैं अपनी कर्मभूमि तथा सर्वोत्तम लोक समझकर एवं वहाँ के पवित्र तीर्थों का दर्शन करने पृथ्वी लोक पर आया था।

bhagwat katha bhagwat katha श्रीमद्भागवत महापुराण

परन्तु इस पृथ्वी के तीर्थों को भ्रमण करते हुए मैंने अनुभव किया कि सम्पूर्ण तीर्थ जैसे काशी, प्रयाग, गोदावरी, पुष्कर में भी कलियुग का प्रभाव है जिससे इन तीर्थों में नास्तिकों, भ्राष्टचारियों का बोलबाला एवं अधिकांशतः वास हो गया है। जिससे तीर्थ का सारतत्त्व प्रायः नष्ट हो गया है।
अतः मुझे तीर्थों में जाने से भी शान्ति नहीं मिली। इस कलियुग के प्रभाव से सत्य, तप, दया, दान आदि सद्गुणों का लोप हो गया है। सबकोई अपना ही पेट भरने या अपना पोषण में लगा है।
साधु-सन्त विलासी, पाखण्डी, दम्भी, कपटी आदी हो गये हैं। इधर गृहस्थ भी अपने धर्म को भूल गये हैं तथा घर में बूढ़े बुजुर्गों का सेवा आदर नहीं है। पुरूषलोग स्त्री के वश में होकर धर्म-कर्म एवं माता-पिता, भाई-बन्धु आदि को त्याग कर केवल साले साहब से सलाह एवं रिश्ता जोड़े हुए हैं।
प्रायः स्त्रियों का ही शासन घर परिवार एवं पति पर चल रहा है एवं तीर्थों-मन्दिरों में विद्यर्मियों ने अधिकार जमा लिया है। इस प्रकार सर्वत्र कलियुग का कौतूहल चल रहा है अर्थात् “तरुणी प्रभूता गेहे श्यालको बुद्धिदायकः” । यानि घर में स्त्रीयों का शासन चल रहा है एवं साले साहब सलाहहकार बने हुये है।
आगे श्री नारद जी कहते हैं कि मैं यह सर्वत्र कौतूहल देखते हुए प्रभु भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाभूमि जब व्रज में यमुना के तट पर पहुँचा तो वहाँ मैंने एक आश्चर्य घटना देखा कि एक युवती के दो बूढ़े पुत्र अचेत पड़े हैं तथा वह युवती आर्त भाव से रो रही है और उस युवती को धैर्य धारण कराने के लिए बहुत सी स्त्रियाँ उपस्थित हैं। परन्तु “घटते जरठा माता तरुणौ तनयाविति’। यानि जगत् में यह देखा जाता है कि माता बूढ़ी होती है और पुत्र युवा होते हैं।
इस प्रकार श्री नारद जी को देखकर वह रोती हुई स्त्री ने आवाज लगाते हुये कहा कि हे महात्मा जी ! आप थोडा रूककर मेरी चिन्ता एवं दुख को दूर करे तब श्रीनारद जी वहाँ पहुँचकर कहा कि हे देवी तुम्हारा परिचय क्या है ? और यह घटना कैसे घटी ? आगे उस देवी ने कहा कि हे महात्मन्! मेरा नाम भक्ति देवी है तथा ये दोनों वृद्ध मेरे पुत्र ज्ञान-वैराग्य हैं और ये सभी स्त्रियाँ अनेक पवित्र नदियाँ हैं।

bhagwat katha bhagwat katha श्रीमद्भागवत महापुराण

हे महात्मन्! मैं द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई एवं कर्णाटक देश में मेरी और मेरे वंश की वृद्धि हुई तथा महाराष्ट्र में कहीं-कहीं मेरा आदर हुआ एवं गुजरात देश में मेरे और मेरे पुत्रों को बुढ़ापे ने घेर लिया और मैं वृन्दावन में आकर स्वस्थ्य तथा युवती हो गयी लेकिन मेरे पुत्र यहाँ आने पर भी वे अस्वस्थ्य और बूढ़े ही रह गये।
अतः मैं इसी चिन्ता में रो रही हूँ। उस भक्ति देवी के कष्ट को सुनकर श्री नारद जी ने कहा कि हे देवि ! भगवान् श्री कृष्ण के जाते ही जब कलियुग पृथ्वी पर आया तो राजा क्षत ने कलियुग के केवल एक गुण की महिमा के कारण (कलियुग में केवल प्रभु के नाम आदि का कीर्तन करने से अन्य तीनों युगों का फल और अनेक धर्म के साधन का फल प्राप्त हो जाता है) कलियुग को मारा नहीं या अपने राज्य से निकाला नहीं।
अन्यथा इस कलियुग में ध्यान, तप, तीर्थ, कथा आदि का सार नष्ट हो गया है, क्योंकि विधर्मीयों के निवास से तीर्थ का सार, पाखण्ड से तप-जप का सार, मन एवं इन्द्रिय नहीं जितने से योग-ध्यान का सार, अल्पज्ञ तथा अनाधिकारियों द्वारा धन के लोभ में घर-घर तथा अश्रद्धालु लोगों के यहाँ बिना बुलाये जाकर कथा कहने से कथा का सार नष्ट हो गया है। यह सुनकर श्री भक्ति देवी ने श्री नारद जी को प्रणाम किया। इस प्रकार भक्ति देवी के प्रणाम करने पर श्री नारद जी ने कहा कि-
वृथा खेदयसे बाले अहो चिन्तातुराकथम्, 
श्रीकृष्णचराणाम्भोजं स्मर दुःखम् गमिष्यति।। (श्रीमद् भा० मा० २/१) 
हे बाले ! तुम व्यर्थ ही खेद क्यों करती हो एवं चिन्ता से व्याकुल क्यों हो रही हो ? वह भगवान् आज भी हैं अतः उन प्रभु के श्रीचरणों का स्मरण करो उन्हीं श्रीकृष्ण की कृपा से तुम्हारा दुःख दूर हो जाएगा।
भक्ति देवी ! तुमको परमात्मा ने अपने से मिलाने के लिए प्रकट किया था तथा ज्ञान वैराग्य को तुम्हारा पुत्र बनाकर इस जगत् में भेजा एवम् मुक्ति देवी को भी तुम्हारी दासी बनाकर भेजा था। परन्तु कलियुग के प्रभाव से मुक्ति देवी तो वैकुण्ठ में चली गई अब केवल तुम ही यहाँ दिखाई देती हो।

bhagwat katha bhagwat katha श्रीमद्भागवत महापुराण

तः मैंने भक्तों के घर-घर में एवं हृदय में भक्ति का प्रचार नहीं कर दिया तो मेरा नाम नारद नहीं समझा जाएगा या मैं सही में भगवान् का भक्त अथवा दास नहीं कहलाऊँगा। इसके बाद श्रीनारद जी ने वेद आदि का पाठ कर उन ज्ञान वैराग्य को जगाया। इसके बाद भी ज्ञान-वैराग्य को होश नहीं आया।
उसी समय नारद जी को सत्कर्म करने की आकाशवाणी हुई। इस प्रकार सत्कर्म करने की आकाशवाणी को सुनकर नारदजी विस्मित हुए और वे तीर्थों में घूमते हुए महात्माओं से सत्कर्म के बारे में पूछने लगे, लेकिन उन महात्माओं से संतोषजनक उत्तर नहीं मिला तथा उनके प्रश्न को सुनकर ऋषि-मुनि कहते हैं कि जब नारदजी ही सत्कर्म के बारे में नहीं जानते तो इनसे बढ़कर और कौन ज्ञानी और भक्त होगा जो सत्कर्म के बारे में संतोषजनक उत्तर दे सकें।
अन्त में थक-हारकर तपस्या द्वारा स्वयं सत्कर्म जानने की इच्छा से श्रीनारद जी बदरिकाश्रम के लिए चल पड़े। वहाँ पहुँचकर अभी तप का विचार कर ही रहे थे कि “तावद्-ददर्श पुरतः सनकादीन् मुनीश्वरान”, अर्थात वहाँ सनकादि ऋषियों के दर्शन हुए। इस प्रकार श्रीनारदजी ने उन्हें प्रणाम निवेदन किया और सत्कर्म के बारे में आकाशवाणी की बात बतायी तथा सनकादि ऋषियों से उन्होंने सत्कर्म के बारे में बताने का अनुरोध किया।
श्री सनकादि ऋषियों ने कहा कि आप चिन्ता न करें। सत्कर्म का साधन अत्यन्त सरल एवं साध्य है। हालाकि सत्कर्म करने के बहुत से उपाय पूर्व में ऋषियों ने बताया हैं, लेकिन वे सब बड़े कठिन है एवं परिश्रम के बाद भी स्वल्प फल देनेवाले हैं। श्रीवैकुण्ठ प्राप्त करानेवाला सत्कर्म तो गोपनीय है। कोई-कोई ज्ञाता बड़े भाग्य से मिलते हैं जो सत्कर्म को जानने के लिए इच्छुक या प्यासे हों। अतः आप सत्कर्म को सुनें-

भागवत कथा ऑनलाइन प्रशिक्षण केंद्र 

भागवत कथा सीखने के लिए अभी आवेदन करें-

bhagwat katha bhagwat katha श्रीमद्भागवत महापुराण

यह जानकारी अच्छी लगे तो अपने मित्रों के साथ भी साझा करें |
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments

BRAHAM DEV SINGH on Bhagwat katha PDF book
Bolbam Jha on Bhagwat katha PDF book
Ganesh manikrao sadawarte on bhagwat katha drishtant
Ganesh manikrao sadawarte on shikshaprad acchi kahaniyan