Saturday, October 5, 2024
Homebhagwat kathanakbhagwat katha dijiye -20

bhagwat katha dijiye -20

bhagwat katha dijiye

  भागवत पुराण कथा भाग-20

अब न जाने मेरी क्या गति होगी ? वे उद्विग्न मन से सोचने लगे । ईश्वर मुझे ऐसा दण्ड दे, जिससे फिर कभी मेरी मति गौ, ब्राह्मण, ऋषि-मुनियों को सताने एवं अपमानित करने की न हो। उस तेजस्वी ब्राह्मण के शाप से मेरी समृद्धि, राज्य तथा सेना का नाश हो जाय । इससे मेरे पाप का कुछ प्रायश्चित हो जायेगा।

परीक्षित् ऐसा सोच ही रहे थे कि शमीक मुनि के शिष्य गौरवमुख आये और उन्हें ऋषि पुत्र श्रृंगी द्वारा दिये गये शाप के बारे में बताया तथा परिमार्जन का अनुरोध किया।

मानस में कहा गया है कि कलि में-

“मानस पुण्य हों हि नहि पापा

मनुष्य के मन से की गयी पूजा, अराधना भी देवता प्राप्त कर लेते हैं एवं मनुष्य उस सत्कर्म के फल को प्राप्त करता है।

राजा परीक्षित् ने कलि में मानसिक पुण्य का फल होने का गुण देखकर ही कलि को आश्रय दिया था। इधर शमीक मुनि द्वारा शाप निवारण हेतु की गयी प्रार्थना से वह शाप ही राजा परीक्षित् की मुक्ति का कारण बन गया। परीक्षित् जीवित रहते तो भोग-लिप्सा में लगे रहते और उन्हें शुकदेवजी से भागवत कथा सुनने का सौभाग्य नहीं मिलता तथा इस देह से मुक्ति को नहीं पाते ।

bhagwat katha dijiye

राजा परीक्षित् ने शाप की बात सुनकर राजमुकुट एवं राज्य सिंहासन छोड़ दिया एवं राजपाट त्यागकर गंगा नदी के तट पर चल आये और वहाँ अन्न जल को त्याग कर श्रीभगवान् के श्रीचरणों में ध्यान करने लगे। इधर इस घटना की सूचना मिलते ही अनेक सन्त ऋषि जैसे अत्रि, वसिष्ठ, व्यास, नारद, गौतम इत्यादि सभी ऋषि मुनि वहाँ पर पधारे ।

राजा परीक्षित् को ७ दिनों में ही मरना था। वे अन्न जल छोड़कर कुशासन पर बैठ गये और भगवान् का स्मरण करने लगे। वहाँ कुछ लोग उपाय बताने लगे। कुछ लोग कहते हैं कि हे परीक्षित तुम सभी तीर्थस्थलों का यात्रा करो । कोई कहता है कि हे परीक्षित तुम यज्ञ करो । इसप्रकार राजा परीक्षित के पापों के प्रायश्चित का कोई भी एक सुनिश्चित उपाय ऋषियों द्वारा तय नही हो पाया।

राजा परीक्षित् ने महात्माओं से कहा कि हे ऋषियों ! म्रियमाण मनुष्य को क्या करना चाहिए ? या जो सात दिनो में मर जाने वाला हो जो मरने की तैयारी नहीं किया हो तथा उसे मरना निश्चित हो ऐसे मरणशील मनुष्य को क्या करना चाहिये । इसका सामाधान कृपया आपलोग करें।

bhagwat katha dijiye

मरणशील मनुष्य का धर्म-

म्रियमाण मनुष्य का कर्तव्य क्या है ? इस प्रश्न पर मुनियों में भी विवाद हो गया। यानि ज्ञानी को, जप करने वाला जप को, दान देनेवाले दान को ही म्रियमाण मनुष्य का कर्तव्य बताने लगे। मतान्तर से कोई निर्णायक बात तय नहीं हुई उसी समय अपने पिता श्रीव्यास जी से श्रीभागवत कथा को पढ़कर और उस भागवत को गुनगुनाते हुए एवं घूमते हुए श्री शुकदेव जी महाराज वहाँ पधारे।

उस समय उन श्री शुकदेव जी की उम्र सोलह वर्ष की प्रतीत होती थी। वहाँ पर उपस्थित सभी लोगों ने भी शुकदेवजी महाराज को प्रणाम किया एवं सभी ने व्यास गदी के रूप में स्थित आसन पर वृक्ष के नीचे श्री शुकदेवजी को बैठाया। वास्तव में भागवत कथा तो उसी समय प्रारम्भ होती है जब राजा परीक्षित और शुकदेव का संवाद होता है।

उसी समय श्री नारदजी के इशारे पर श्री राजा परीक्षित ने श्री शुकदेव जी से अपने उद्धार की प्रार्थना की। उन्होंने कहा हे महाराज ! हमारे जैसे अपराधी के उद्धार का क्या उपाय है ? अर्थात ऋषि शाप से शापित होकर केवल सात दिन तक शेष जीवन जो मेरा है उन सात दिनों में ही मेरी मुक्ति -यानि भगवान की प्राप्ति का क्या उपाय है ?

bhagwat katha dijiye

वह शुकदेवजी के कोमल- सुन्दर शरीर, मधुर मुस्कान, तपस्या से नीला वर्ण, मधुर वाणी, सहज चितवन तथा मुखमंडल पर तेज देखकर स्त्रिायाँ एवं बालक उनके पीछे-पीछे चलने लगते। ऐसे उन श्रीशुकदेव जी के आने पर लगा कि साक्षात् भगवान् ही व्यास पुत्र बनकर श्री शुकदेव जी के रूप में आये हैं।

तत्रा भवद भगवान व्यास पुत्रो

इधर राजा परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी को प्रणाम किया और आदर के साथ उन्हें वृक्ष के नीचे बैठाया तथा फिर राजा परीक्षित ने कहा कि हे भगवन् ! आप जैसे परमहंस ज्ञानी ही आज यहाँ पधारे हैं। ऋषि बालक शृंगी का शाप ही आज वरदान गया अन्यथा आप जैसे सन्तों का दर्शन नहीं हो सकता।

श्रीकृष्ण भगवान् की कृपा से ही आज सभी मुनिगण एवं आप इस म्रियमाण पुरुष के पास आ गये हैं। ऐसी स्थिति में भी दुर्लभ सन्तों के दर्शन हो गये । ग्रियमाण मनुष्य के पास आप जैसे संत जाकर स्वयं दर्शन दें, यह तो दुर्लभ हैं और यह प्रभु की अहेतुकी कृपा है। आज मैं धन्य हो गया, मेरा कुल पवित्र हो गया।

bhagwat katha dijiye

अतः पृच्छामि संसिद्धिं योगिनां परमं गुरुम् । पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा  ।।

यच्छृोतव्यमथो जप्यं यत्कर्तव्यं नृभिः प्रभो । स्मर्तव्यं भजनीयं वा ब्रूहि यद्वा विपर्ययम् ।।

राजा परीक्षित ने श्री शुकदेवजी से विनम्रतापूर्वक ग्रियमाण मनुष्य का धर्म पूछा। म्रियमाण मनुष्य के लिए करणीय कार्य क्या है ? उसे क्या श्रवण करना चाहिए, किसे स्मरण करना चाहिए ? इसप्रकार राजा परीक्षित् के इन प्रश्नों को सुनकर श्री शुकेदवजी प्रसन्न हो गये और उन्होंने सोचा कि,

“जन्म-मृत्यु जरा-व्याधि दुःख–दोषानुदर्शनम” ।

बार बार जन्म-मृत्यु, वृद्धावस्था – रोग, दुःख आदि में दोष को देखें तो उस जीव का कल्याण हो जाता है। इस प्रकार परीक्षित् द्वारा अन्त समय में भगवान् की प्राप्ति के उपाय पूछे जाने पर श्री शुकदेवजी आह्लादित हो जाते हैं। शास्त्र में कहा गया है कि प्रभु का भक्त अनेक कष्ट आने पर भी अन्त समय में भी प्रभु को ही याद करता है।

वह ज्ञानी व्यक्ति को सुत, वित्त, नारी की ऐषणा की समाप्ति हो जाती है तथा केवल श्रीनारायण ही याद आते हैं। परन्तु साधारण मानव अन्त में वात, पित, कफ से ग्रसित होने पर प्रभु को भूल जाता है।

bhagwat katha dijiye

गीता के १३वें अध्याय में भी ज्ञान के बारे में कहा गया है कि-

‘इन्द्रियार्थेषु वैराग्यं अनहंकार एव च जन्म-मृत्यु जरा-व्याधि-दुःखदोषानुदर्शनम् ।

श्रीमद्भ०गी० १३/८

जगत् और जगत् के वस्तु एवं जगत के व्यहार से आसक्ति – मोह को त्याग कर वैराग्य आ जाने से पाप कर्मों का लोप हो जाता है और मनुष्य मुक्त हो जाता है परन्तु जगत् और जगत् के वस्तु एवं जगत के व्यहार से आसक्ति – मोह के होने पर मनुष्य का बन्धन हो जाता है। पाप लोहे की हथकड़ी है तो पुण्य सोने की।

पाप कर्म करने से निकृष्ट योनि में जन्म होता है एवं नरक होता है। पुण्य करने से स्वर्ग होता हैं। वह मनुष्य जो पुण्य करता है जिसके कारण उसको स्वर्ग प्राप्त होता है तथा कुछ काल तक स्वर्ग का उपभोग कर फिर उसे इस पृथ्वी के बन्धन में आना पड़ता है। इसलिए पुण्यकर्म को भगवान् को समर्पित कर दें यही योग है।

अर्थात् परमात्मा से संयोग या मिलने का नाम योग है। अतः खेती, व्यापार, नौकरी करते हुए भगवान् के निमित्त कार्य करें एवं आसक्ति या मोह को त्याग कर अपने जीवन को बितावें ।

अस्पताल में लोगों को मरते हम देखते हैं या कष्ट में देखते हैं, हम दुःखी नहीं होते। वहीं पर कोई स्वजन बीमार हो जाय या मर जाय तो हम दुःखी हो जाते हैं। यही मोह है या यही मोह-जनित शोक या दुःख है। अतः प्रत्येक कर्म को एवं कर्म के फल को तथा कर्म की भावना को यदि भगवान् को समर्पण किया जाए तो उस कर्म का प्रभाव मनुष्य पर नहीं पड़ता है। यही संन्यास या योग या त्याग या तपस्या

॥ प्रथम् स्कन्ध की कथा समाप्त ।।

bhagwat katha dijiye

द्वितीय स्कन्ध प्रारम्भ

‘‘वरीयानेष ते प्रश्नः कृतो लोकहितो नृप । आत्मवित्सम्मतः पुंसां श्रोतव्यादिषु यः परः ।।

श्रीमद्भा० ०२/१/१

शुकदेवजी महाराज राजा परीक्षित के प्रश्नों से प्रसन्न होकर भगवत भक्ति में इतना डूब गये कि कथा से पहले होने वाले मंगलाचरण को करना हीं भूल गये और प्रभु स्वरूप में निमग्न होते हुए राजा परीक्षित् से कहे कि हे राजन! आपके प्रश्न बहुत श्रेष्ठ हैं ये केवल आपके लिए नहीं हैं बल्कि लोकहित के लिए भी हैं। ऐसे प्रश्नो का आत्मज्ञानी लोग हमेशा आदर करते हैं तथा उनके श्रवण से शान्ति मिलती है।

भागवत पुराण कथा के सभी भागों कि लिस्ट देखें- 

shiv puran katha list

______________________

bhagwat katha dijiye
bhagwat katha dijiye

bhagwat katha dijiye

यह जानकारी अच्छी लगे तो अपने मित्रों के साथ भी साझा करें |
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments

BRAHAM DEV SINGH on Bhagwat katha PDF book
Bolbam Jha on Bhagwat katha PDF book
Ganesh manikrao sadawarte on bhagwat katha drishtant
Ganesh manikrao sadawarte on shikshaprad acchi kahaniyan