bhagwat katha drishtant चींटी को कणभर हाथी को मनभर

जो मनुष्य परमात्मा का सेवक बनकर स्वयं को उनको समर्पित कर देता है वह अपनी सभी इच्छायें, सुख-सुविधायें उनके भरोसे छोड़ देता है। वह समझ लेता है कि जिसने उसे यह मनुष्य की काया दी है, उसे क्या मेरी इच्छा और सुख-सुविधा को पूर्ण करने की चिन्ता नहीं होगी? bhagwat katha drishtant

जब मैं पैदा हुआ था तो उसी समय आवश्यकता के अनुसार मेरी माँ के आँचल में दूध पैदा कर दिया। उसने उस अवस्था में जबकि मैं कुछ भी करने में असमर्थ था, मेरे पोषण की व्यवस्था कर दी थी। bhagwat katha drishtant

यह निश्चित है कि जिसने यह मानव जन्म दिया है, यह शरीर बख्शा है, वही भरण-पोषण के साधन भी जुटायेगा।

संसार में रहता हुआ मनुष्य अपना सर्वस्व उस प्रभु के विश्वास पर छोड़ दे और उसी पर भरोसा करते हुए, उससे आस लगाये हुए पूर्ण रूप से उसके समर्पित हो जाये तो फिर उसे अपनी चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जायेगी।

अत: यह सोचकर चला जाये कि-

जा विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए।

का सीताराम सीताराम सीताराम कहिए॥

एक प्रसंग प्रस्तुत है जो मनन करने योग्य है-

बलख बुखारे का नाम सबने सुना होगा। वहाँ के सुलतान थे हजरत इब्राहीम। एक बार उन्होंने एक गुलाम खरीदा। जब गुलाम को सुलतान के सामने प्रस्तुत किया गया तो सुलतान ने बड़े प्यार से पूछा- “क्या नाम है तेरा?”

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गुलाम ने विनम्रता से उत्तर दिया-“हुजूरे आला! जिस नाम से भी आप मुझे पुकारना पसन्द करें।”

सुलतान ने पूछा-“तू खाता क्या है?” गुलाम का उत्तर था-“जो भी बादशाह सलामत खाने को दे देंगे।” बादशाह ने पूछा-“तुझे पहनने के लिए कैसे कपड़े चाहिए?”

गुलाम बोला-“जैसे आप पहनने को देंगे।” सुलतान ने अगला प्रश्न किया-“क्या काम करना पसन्द करोगे?”

गुलाम ने सहज भाव से उत्तर दिया-“जो कुछ आप कहेंगे या करायेंगे वह सब।”

सुलतान ने अन्तिम प्रश्न किया-“तुम चाहते क्या हो?”

खरीदे हुए गुलाम ने एकदम कहा-“मेरे मालिक! गुलाम की कोई चाहत नहीं होती। जो आपकी इच्छा होगी वही मेरी चाहत भी होगी।”

इतना सुनते ही बादशाह राज-सिंहासन से नीचे उतर आये और उस गुलाम से बोले-“तुम तो भई, मेरे भी उस्ताद निकले। आज मैंने तुमसे जान लिया कि अल्लाह की इबादत कैसे की जाती है! तुमने मुझे बता दिया कि सब कुछ मालिक की मर्जी पर छोड़ दो। क्योंकि-

जो चीटी को कणभर देता हाथी को मनभर देता है।

वह दीनानाथ दयासागर, सब जीवों की सुधि लेता है।

अतः हम सबको प्रभु के प्रति समर्पित होने से पूर्व उनसे प्रार्थना करनी चाहिए-

होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवे।

गुण ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे॥

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One Response

  1. हमे आपके लेख बहोत मन को भा गये आपको दास कोटी कोटी प्रणाम

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