Thursday, October 10, 2024
Homebhagwat katha 335श्रीमद्भागवत कथा-15 bhagwat katha hindi story

श्रीमद्भागवत कथा-15 bhagwat katha hindi story

श्रीमद्भागवत कथा bhagwat katha hindi story

भाग-15

[ षष्ठम स्कन्ध ]

( अथ दशमो अध्यायः )

देवताओं द्वारा दधीचि ऋषि की अस्थियों से वज्र निर्माण और वृत्तासुर की सेना पर आक्रमण- भगवान की ऐसी आज्ञा सुन देवता दधीचि ऋषि के पास पहुंचे और उनसे उनकी अस्थियों की याचना की, ऋषि ने भगवान की आज्ञा जान योगाग्नि से अपना शरीर दग्ध कर अपनी अस्थियां देवताओं को दे दी | देवताओं ने उससे अनेक शस्त्रों का निर्माण किया और वृत्रासुर पर टूट पड़े | शत्रुओं ने भी खूब बांण बरसाए पर वे देवताओं को छू भी नहीं सके तो राक्षस सेना तितर-बितर होने लगी तो वृत्रासुर अपने सैनिकों को कहने लगा सैनिकों जिसने संसार में जन्म लिया है अवश्यंभावी है कि वह मरेगा फिर ऐसा मौका क्यों खोते हो वीरगति को प्राप्त होकर स्वर्ग प्राप्त करोगे |

इति दशमो अध्यायः

श्रीमद्भागवत कथा bhagwat katha hindi story

( अथ एकादशो अध्यायः )

 वृत्रासुर की वीर वाणी और भगवत प्राप्ति- बृत्रासुर ने देखा कि उसकी सेना रोकने पर भी नहीं रुक रही है, उसने अकेले ही देवसेना का मुकाबला किया एक हुंकार ऐसी लगाई जिससे सारी देवसेना भयभीत होकर गिर गई और उसे रौदनें लगा, इंद्र ने उसे रोका तो एरावत को गिरा दिया और स्वयं भगवान की प्रार्थना करने लगा-

अहं हरेतव पादेक मूल दासानुदासो भवितास्मि भूयः |
मनः स्मरेतासुपते र्गुणास्ते गृणीत वाक् कर्म करोतु कायः ||

 हे प्रभु आप मुझ पर ऐसी कृपा करें अनन्य भाव से आपके चरण कमलों के आश्रित सेवकों की सेवा करने का मुझे मौका अगले जन्म में प्राप्त हो , मेरा मन आपके मंगलमय गुणों का स्मरण करता रहे और मेरी वाणी उन्हीं का गान करे | शरीर आपकी सेवा में लग जाए |

इति एकादशो अध्यायः

( अथ द्वादशो अध्यायः )

वृत्रासुर का वध- वृत्रासुर बड़ा वीर है और भगवान का भक्त भी वह भगवान की प्रार्थना कर युद्ध में वीरगति को प्राप्त होना चाहता था ताकि वह भगवान को प्राप्त हो सके , युद्ध में उसने इंद्र को निशस्त्र कर दिया पर उसे मारा नहीं इंद्र वज्र उठाकर अपने शत्रु को मार डालो इन्द्र ने गदा उठाकर बृत्रासुर पर प्रहार किया और बृत्रासुर का वध कर दिया |

इति द्वादशो अध्यायः

( अथ त्रयोदशो अध्यायः )

इंद्र पर ब्रहम हत्या का आक्रमण- ब्रह्महत्या के भय से इंद्र वृत्रासुर को मारना नहीं चाहता था किंतु ऋषियों ने जब कहा कि इंद्र ब्रहम हत्या से मत डरो हम अश्वमेघ यज्ञ कराकर तुम्हें उससे मुक्त करा देंगे तब इंद्र ने वृत्रासुर को मारा था, जब ब्रह्महत्या इंद्र के सामने आई तो ऋषियों ने उसे अश्वमेघ यज्ञ के द्वारा मुक्त कराया |

इति त्रयोदशो अध्यायः

श्रीमद्भागवत कथा bhagwat katha hindi story

( अथ चतुर्दशो अध्यायः )

वृत्रासुर का पूर्व चरित्र- राजा परीक्षित बोले- भगवन बृत्रासुर तो बड़ा तामसिक था उसकी भगवान के चरणों में ऐसी बुद्धि कैसे हुई ? शुकदेव जी बोले मैं तुम्हें एक प्राचीन इतिहास सुनाता हूं सूरसेन देश में एक चक्रवर्ती सम्राट चित्रकेतु राज्य करते थे उनके एक करोड़ पत्नियां थी परंतु किसी के भी संतान नहीं थी एक बार अंगिरा ऋषि उनके यहां आए राजा ने उनकी पूजा की ऋषि ने राजा की कुशल पूछी तो चित्रकेतु ने कहा प्रभु आप त्रिकालग्य हैं सब जानते हैं, कि सब कुछ होते हुए भी मेरे कोई संतान नहीं है , कृपया आप मुझे संतान प्रदान करें |

इस पर ऋषि त्वष्टा ने देवता का यजन करवाया जिससे उसकी छोटी रानी कृतद्युति को एक पुत्र की प्राप्ति हुई , जिसे सुनकर प्रजा में खुशी की लहर दौड़ गई | रानियों को इससे ईर्ष्या हो गई और उन्होंने समय पाकर बालक को जहर दे दिया पालने में सोते हुए बालक को जब दासी ने देखा वह जोर-जोर रोने लगी उसने उसके रोने की आवाज सुनी कृतद्युति वहां आई और जब देखा कि पुत्र मर गया तो रोने लगी, जब राजा को मालूम हुआ वह भी रोने लगा | तब अंगिरा ऋषि नारद जी के साथ वहां आए |

इति चतुर्दशो अध्यायः

( अथ पंचदशो अध्यायः )

चित्रकेतु को अंगिरा और नारद जी का उपदेश- राजा चित्रकेतु को यों विलाप करते देख दोनों ऋषि उन्हें समझाने लगे राजन इस संसार में जो आता है वह जाता भी अवश्य है, फिर किसी जीव के साथ हमारा कोई संबंध नहीं है, किसी जन्म में कोई बाप बन जाता है कोई बेटा, दूसरे जन्म में वही बेटा बाप और बाप बेटा बन जाता है |इसीलिए शोक छोड़ कर मैं जो मंत्र देता हूं उसे सुनो इससे सात रात में तुम्हें संकर्षण देव के दर्शन होंगे उनके दर्शन से तुम्हें परम पद प्राप्त होगा |

इति पंचदशो अध्यायः

श्रीमद्भागवत कथा bhagwat katha hindi story

( अथ शोडषो अध्यायः )

चित्रकेतु को वैराग्य और संकर्षण देव के दर्शन- शुकदेव बोले राजन ! तदन्तर नारद जी ने मृत शरीर में उस जीव को बुलाया और कहा जीवात्मन देखो तुम्हारे लिए यह तुम्हारे माता-पिता दुखी हो रहे हैं, तुम इस शरीर में रहो और उन्हें सुख पहुंचाओ और तुम भी राजा बनकर सुख भोगो | इस पर जीव बोलने लगा–

कस्मिन् जन्मन्यमी मह्यम पितरं मातरोभवन् |
कर्मभि भ्राम्यमाणस्य देवतिर्यन्नृयोनिषु ||

जीव बोला देवर्षि मैं अपने कर्मों के अनुसार देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियों में भटकता रहा हूं यह मेरे किस जन्म के माता-पिता है प्रत्येक जन्मों में रिश्ते बदलते रहते हैं  | ऐसा कह कर चला गया चित्रकेतु को ज्ञान हो गया वह नारद जी के दिए हुए मंत्र का जप करने लगा उसे संकर्षण देव के दर्शन हुए राजा ने उनकी स्तुति की | भगवान बोले– राजन् नारद जी के इस ज्ञान को हमेशा धारण करें कल्याण होगा |

इति शोडषो अध्यायः

( अथ सप्तदशो अध्यायः )

चित्रकेतु को पार्वती का श्राप- भगवान संकर्षण से अमित शक्ति प्राप्त कर चित्रकेतु आकाश मार्ग में स्वच्छंद विचरण करने लगा , एक दिन वह कैलाश पर्वत पर गया जहां बड़े-बड़े सिद्ध चारणों की सभा में शिवजी पार्वती को गोद में लेकर बैठे थे उन्हें देख चित्रकेतु जोर जोर से हंसने लगा और बोला अहो यह सारे जगत के धर्म शिक्षक भरी सभा में पत्नी को गोद में लेकर बैठे हैं | यह सुन शिवजी तो हंस दिए किंतु पार्वती से यह सहन नहीं हुआ और क्रोध कर बोली रे दुष्ट जा असुर हो जा , चित्रकेतु नें दोनों से क्षमा याचना की और आकाश मार्ग से चला गया |

इति सप्तदशो अध्यायः

( अथ अष्टादशो अध्यायः )

अदिति और दिति की संतानों की तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति का वर्णन– श्री शुकदेव जी बोले राजन दिति के दोनों पुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु को भगवान की सहायता से इंद्र ने मरवा दिए तो अतिदि को इंद्र पर बड़ा क्रोध आया और उसे मरवाने की सोचने लगी, उसने सेवा कर कश्यप जी को प्रसन्न किया और उनसे इंद्र को मारने वाला पुत्र मांगा इस पर कश्यप जी ने उन्हें एक व्रत बताया जिसका नाम है पुंसवन व्रत उसके कुछ कठिन नियमों के साथ संध्या के समय जूठे मुंह बिना आचमन किए बिना पैर धोए ना सोना आदि नियम बताए | दिति उसको करने लगी इंद्र को इसका आभास हो गया था वेश बदलकर ब्रह्मचारी का रूप बना दिति की सेवा करने लगा और यह मौका देखने लगा कि कब उसका नियम खंडित हो |

एक दिन उसको यह मौका मिल गया दिति संध्या के समय बिना आचमन किये बिना पैरों को धुले सो गई | यह देख इन्द्र उसके अंदर गर्भ मे प्रवेश किया और दिति के गर्भ के सात टुकड़े कर दिए तो अलग-अलग जीवित होकर रोने लगे, इस पर इन्द्र सात के सात-सात टुकड़े कर दिए, वह उनच्चास जीवित होकर इंद्र से बोले इंद्र हमें मत मारो हम देवता हैं, इंद्र बड़ा प्रसन्न हुआ अपने भाइयों को साथ ले दिति के गर्भ से बाहर आ गया, दिति ने देखा इंद्र के साथ उनच्चास पुत्र खड़े हैं और पेट में कोई बालक नहीं है | उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और इंद्र से बोली बेटा सच सच बताओ यह क्या रहस्य है ? इन्द्र ने सब कुछ सही सही बता दिया और कहा माता अब ये सब देवता हो गए , दिति ने भगवान की इच्छा समझ उनको विदा कर दिया |

इति अष्टादशो अध्यायः

श्रीमद्भागवत कथा bhagwat katha hindi story

( अथ एकोनविंशो अध्यायः )

पुंसवन ब्रत की विधि- श्री शुकदेव जी बोले हे राजन पुंसवन व्रत मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा से प्रारंभ होता है , पहले पति की आज्ञा ले मरुद्गणों की कथा सुने फिर ब्राह्मणों की आज्ञा ले व्रत प्रारंभ करें स्नानादि कर लक्ष्मी नारायण की पूजा करें और निम्न मंत्र का जप करें–

ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महानुभावाय महाविभूति पतये सहमहाविभूतिभिर्बलि मुपहराणि ||

संध्या के समय इस मंत्र से हवन करे इससे सब प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है |

इति एकोनविंशो अध्यायः
इति षष्ठः स्कन्धः समाप्त
अथ सप्तमः स्कन्ध प्रारम्भ

( अथ प्रथमो अध्यायः )

नारद युधिष्ठिर संवाद और जय विजय की कथा– परीक्षित बोले- भगवन भगवान की दृष्टि में तो सारा संसार एक है, फिर भी लगता है कि वे देवताओं का पक्ष लेते हैं और राक्षसों को दबाते हैं ऐसा क्यों ? शुकदेव जी बोले राजन यही प्रश्न युधिष्ठिर ने नारदजी से किया था शिशुपाल राक्षस भगवान को गाली देने वाला अंत में भगवान में कैसे लीन हो गया | इस पर नारद जी ने कहा जो उसे तुम ध्यान से सुनो नारद जी बोले भगवान को चाहे कोई भक्ति से याद करें या फिर बैर से भगवान तो सबका उद्धार ही करते हैं |  फिर शिशुपाल तो भगवान के पार्षद थे, सनकादिक के श्राप से ये राक्षस हुए थे इस पर परीक्षित ने इस कथा को विस्तार से सुनाने की प्रार्थना की तो शुकदेवजी सुनाने लगे | एक समय सनकादि ऋषि बैकुंठ गए उन्हें जय विजय ने रोक दिया जिससे नाराज होकर उन्हें श्राप दिया कि जाओ तुम असुर हो जाओ | जय विजय पहले जन्म में हिरण्याक्ष,हिरण्यकशिपु दूसरे में रावण कुंभकर्ण और तीसरे जन्म में दन्त्रवक्र और शिशुपाल हुए |

इति प्रथमो अध्यायः

श्रीमद्भागवत कथा bhagwat katha hindi story

( अथ द्वितीयो अध्यायः )

हिरण्याक्ष के बध पर हिरण्यकश्यपु का अपनी माता को समझाना– श्री शुकदेव जी बोले परीक्षित ! हिरण्याक्ष को जब भगवान ने मार दिया तब उसकी माता दिति रोने लगी तो उसे सांत्वना देते हुए हिरण्यकशिपु बोला माता मैं मेरे भाई के शत्रु को अवश्य मारूंगा, आप शोक ना करें क्योंकि संसार में जो आता है वह अवश्य जाता है | अनेक उदाहरण देकर उन सब को शांत किया |

इति द्वितीयो अध्यायः

( अथ तृतीयो अध्यायः )

हिरण्यकशिपु की तपस्या और वर प्राप्ति- अपने  भाई के शत्रु पर विजय पाने के लिए हिरण्यकशिपु ने वन में जाकर ब्रह्मा जी की घोर तपस्या की उसके शरीर के मांस को चीटियां चाट गई मात्र हड्डियों के ढांचे में प्राण थे उसकी तपस्या से त्रिलोकी जलने लगी, इंद्रादि देवता भयभीत हो ब्रह्मा जी की शरण में गए और कहा प्रभु हिरण्यकशिपु की तपस्या से हम जल रहे हैं | ब्रह्मा जी ने हंस पर सवार होकर हिरण्यकशिपु को दर्शन दिए और उसके शरीर पर जल छिड़क कर उसे हष्ट पुष्ट कर दिया और उससे वर मांगने को कहा हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी की स्तुति की और कहा प्रभु यदि आप वरदान देना चाहते हैं तो आप की सृष्टि का कोई जीव मुझे ना मारे, भीतर बाहर, दिन में रात्रि में किसी अस्त्र-शस्त्र से पृथ्वी आकाश में मेरी मृत्यु ना हो |

इति तृतीयो अध्यायः

( अथ चतुर्थो अध्यायः )

हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रहलाद के गुणों का वर्णन- ब्रह्माजी बोले पुत्र हिरण्यकशिपु यद्यपि तुम्हारे वरदान बहुत दुर्लभ है तो भी तुम्हें दिए देता हूं | वरदान देकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए और हिरण्यकशिपु अपने घर आ गया और अपनी शक्ति से समस्त देवता और दिगपालों को जीत लिया, यज्ञो में देवताओं को दी जाने वाली आहुतियां छीन लेता था , शास्त्रीय मर्यादाओं का उल्लंघन करता था, उससे घबराकर सब देवताओं ने भगवान से प्रार्थना की भगवान ने आकाशवाणी की देवताओं निर्भय हो जाओ मैं इसे मिटा दूंगा समय की प्रतीक्षा करो | हिरण्यकशिपु के चार पुत्र थे उनमें प्रहलाद जी सबसे छोटे ब्राह्मणों और संतों के बड़े भक्त थे अतः हिरण्यकशिपु शत्रुता रखने लगा |

इति चतुर्थो अध्यायः

श्रीमद्भागवत कथा bhagwat katha hindi story

( अथ पंचमो अध्यायः )

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रहलाद जी के वध का प्रयत्न– प्रहलाद जी दैत्य गुरु शुक्राचार्य के आश्रम में पढ़ते थे एक बार हिरण्यकशिपु अपने पुत्र प्रह्लाद को गोद में लेकर पूछने लगा तुम्हें कौन सी बात अच्छी लगती है |

त्साधु मन्येसुरवर्य देहिनां सदासमुद्विग्न धियामसद्ग्रहात् |
हित्वात्मपातं गृहमन्धकूपं वनं गतो यद्धरि माश्रयेत ||

प्रहलाद जी बोले- पिता जी संसार के प्राणी मैं और मेरे मन के झूठे आग्रह में पडकर सदा ही अत्यंत उद्विग्न रहते हैं , ऐसे प्राणी के लिए मैं यही ठीक समझता हूं कि वे अपने अद्यः पतन के मूल कारण घास से ढके हुए अधेंरे कुएं के समान इस घर गृहस्ती को छोड़कर वन में चला जाए और भगवान श्री हरि की शरण ग्रहण करे |

प्रहलाद जी की ऐसी बातें सुनकर हिरण्यकशिपु जोर से हंसा और कहा गुरुकुल में कोई मेरे शत्रु का पक्षपाती रहता दिखता है | शुक्राचार्य जी से कहा इसका पूरा ध्यान रखा जाए गुरुकुल में प्रहलाद जी को समझाया जाबे और कुछ दिन बाद हिरण्यकशिपु ने फिर प्रहलाद जी से पूछा तो प्रह्लाद जी ने कहा–

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् |
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ||

पिताजी भगवान की कथाओं को श्रवण करना, उनके नाम का कीर्तन करना, हृदय में उनका स्मरण करना, उनके चरणों की सेवा करना, उनकी अर्चना, उनकी वंदना, दास्य और सखा भाव से पूजा करना और अंत में पूर्ण रूप रूप समर्पण हो जाना यह नव प्रकार की भक्ति की  जाए, यह सुन हिरण्यकशिपु क्रोध से आग बबूला हो गया और प्रहलाद को गोद से उठाकर जमीन पर पटक दिया और कहा ले जाओ इसे मार डालो | शण्डामर्क उसे पुनः आश्रम ले गए और शक्ति के साथ उसे समझाने लगे|

इति पंचमो अध्यायः

श्रीमद्भागवत कथा bhagwat katha hindi story

( अथ षष्ठो अध्यायः )

प्रहलाद जी का असुर बालकों को उपदेश- प्रहलाद जी को आश्रम में लाकर संडा मर्क उन्हें पढ़ाने लगे , एक दिन शण्डामर्क के कहीं चले जाने पर प्रहलाद जी दैत्य बालकों को पढ़ाने लगे |
पढ़ो रे भाई राम मुकुंद मुरारी
चरण कमल मुख सम्मुख राखो कबहु ना आवे हारी
कहे प्रहलाद सुनो रे बालक लीजिए जन्म सुधारी
को है हिरण्यकशिपु अभिमानी तुमहिं सके जो मारी
जनि डरपो जडमति काहू सो भक्ति करो इस सारी
राखनहार तो है कोई और श्याम धरे भुजचारी
सूरदास प्रभु सब में व्यापक ज्यों धरणि में वारी |
प्रहलाद जी की शिक्षा सुन दैत्य बालक उनसे बोले प्रहलाद जी हम लोगों ने गुरु पुत्रों के अलावा किसी दूसरे गुरु को नहीं देखा फिर यह सब बातें आप कहां पढे हैं ? हमने तो आपको अन्यत्र कहीं जाते हुए भी नहीं देखा, ना कहीं पढ़ते ! कृपया हमारा संदेह दूर करें |

इति षष्ठो अध्यायः

श्रीमद्भागवत कथा bhagwat katha hindi story

( अथ सप्तमो अध्यायः )

प्रहलाद जी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन- शुकदेव बोले राजन दैत्य बालकों  के इस प्रकार पूंछने पर पहलाद जी बोले- मेरे पिताजी जिस समय तपस्या करने गए थे तब मौका देख इंद्र ने दैत्यों पर चढ़ाई कर दी और सब राक्षसों को मार कर भगा दिया साथ ही मेरी माता को बंदी बना लिया |

जब इंद्र उसे पकड़ कर ले जा रहा था वह विलाप कर रही थी, रास्ते में नारद जी उसे मिले इंद्र से बोले महाभाग इसे कहां ले जा रहे हो यह निरपराध है इसे छोड़ दो , इंद्र बोला इसके गर्भ में देवताओं का शत्रु है इसके जन्म के बाद बालक को मार देंगे और इसे छोड़ देंगे , इस पर नारद जी बोले इसके गर्भ में परमात्मा का भक्त है इसे श्री तत्काल छोड़ दो इस पर इंद्र ने उसे छोड़ दिया नारद जी उसे अपने आश्रम मे ले गए और जब तक वहां रही जब तक मेरे पिता तपस्या कर नहीं आ गए ,नारद जी ने उन्हें भागवत धर्म की शिक्षा दी जिसे मैंने गर्भ में ही सुना , वही ज्ञान मैंने तुम्हें सुनाया है |

इति सप्तमो अध्यायः

श्री भागवत महापुराण की हिंदी सप्ताहिक कथा जोकि 335 अध्याय ओं का स्वरूप है अब पूर्ण रूप से तैयार हो चुका है और वह क्रमशः भागो के द्वारा आप पढ़ सकते हैं कुल 27 भागों में है सभी भागों का लिंक नीचे दिया गया है आप उस पर क्लिक करके क्रमशः संपूर्ण कथा को पढ़कर आनंद ले सकते हैं |

www.bhagwatkathanak.in // www.kathahindi.com

भागवत सप्ताहिक कथा की सभी भागों का लिस्ट देखने के लिए नीचे लिंक पर क्लिक करें

भक्ति भाव के सर्वश्रेष्ठ भजनों का संग्रह

bhagwat katha all part 335 adhyay

श्रीमद्भागवत कथा bhagwat katha hindi story

यह जानकारी अच्छी लगे तो अपने मित्रों के साथ भी साझा करें |
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments

BRAHAM DEV SINGH on Bhagwat katha PDF book
Bolbam Jha on Bhagwat katha PDF book
Ganesh manikrao sadawarte on bhagwat katha drishtant
Ganesh manikrao sadawarte on shikshaprad acchi kahaniyan