bhagwat mahatmya
Part-7
फिर आगे आत्मदेवजी पुनः कहते हैं-
पुत्रादिसुखहीनोऽयं सन्यासः शुष्क एव हि ।
गृहस्थ: सरसो लोकेपुत्रपौत्रसमन्वितः ।।
श्रीमद्भा०मा० ४ / ३८
महात्मन ! पुत्र आदि का सुख से विहीन यह सन्यास नीरस है तथा गृहस्थ के पुत्र-पौत्र आदि से संपन्न जीवन सरस है। इस प्रकार आत्मदेव पुत्रैषणा के चलते दुराग्रह कर रहे थे एवं सन्यासी महाराज से हर हालत में पुत्र प्राप्ति का आशीष चाहते थे, अन्यथा सरोवर पर आत्महत्या की बात पर अड़े थे।bhagwat mahatmya
सारी स्थिति जानते हुए भी भावी प्रबल समझकर सन्यासी महाराज ने आत्मदेव को एक आम का फल दिया और पत्नी को खिला देने को कहा। आत्मदेवजी ने उस फल को अपने घर लाया। उन्होंने अपनी पत्नी धुंधली को वह फल देते हुए कहा कि भगवान् का नाम लेकर फल खा ले, पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी।
धुंधली अपने मन में कुतर्क करने लगी। गर्भ धारण करने में तो बहुत कष्ट होगा, कहीं बच्चा पेट में टेढ़ा हो गया तो जान ही न चली जाय । यदि बच्चा हो जायेगा तो उसके पालन-पोषण का बोझ भी आ जाएगा। इससे तो अच्छा है कि वह वन्ध्या ही रहे और शारीरिक सुख भोगे।
इसी बीच उसकी छोटी बहन आ गयी, जिसको पहले से ही ४ – ५ बच्चे थे और वह गर्भवती भी थी।
धुंधली ने पति द्वारा संतान प्राप्ति हेतु मिले फल की बात अपनी छोटी बहन को बताया और अपने मन की बात बोली की वह गर्भवती नही होना चाहती।bhagwat mahatmya
उसकी छोटी बहन ने कहा की मै स्वयं गर्भवती हूँ इसलिए हे धुंधली ! तुम फल खाने एवं गर्भवती होने का नाटक अपने पति से करो और घर में ही रहो और जब मुझे बच्चा हो जायगा तो अपना बच्चा तूझे लाकर के दे दूँगी। अपने यहाँ कह दूँगी कि मेरा बच्चा गर्भ में ही मर गया।
फिर हे धुंधली बहन ! तुम अपने पति से यह कहना है कि मुझे दूध नहीं होता है, इसलिए बच्चे का दूध पिलाने के लिए मेरी छोटी बहन को बुला लें।
बदले में आत्मदेवजी मेरे पति को कुछ धन दे देंगे। बच्चे को मैं तुम्हारे घर में ही रहकर पोषण कर दूँगी । इस प्रकार धुंधली ने अपनी बहन के साथ हुई मंत्रणा के अनुसार आत्मदेवजी से कह दिया कि उसने फल खा लिया है और वह गर्भवती हो गयी है।bhagwat mahatmya
इधर संन्यासी महाराज से प्राप्त फल को धुंधली ने आत्मदेवजी की गाय को खिला दिया। संन्यासी महाराज के आशीर्वादयुक्त फल खाकर गाय गर्भवती हो गयी । इधर सात माह में धुंधुली की बहन को बच्चा हुआ जिसे उसने शीघ्र अपनी बहन के पास पहुँचा दिया-यह घटना आत्मदेवजी को कुछ भी मालूम नहीं थी। वे पुत्ररत्न पाकर आनन्दित हो गये ।bhagwat mahatmya
धुंधली ने अपनी बहन की मंत्रणा के अनुसार आत्मदेव से कहा कि मुझे बालक को पिलाने हेतु मेरे पास दूध नहीं है। बच्चे के पोषण के लिए उसकी छोटी बहन को बुला लें। यह बच्चे को अपना दूध पिला देगी। बदले में उसके पति को कुछ आर्थिक योगदान कर दिया करेंगे ।
आत्मदेव ने अपने नवजात पुत्र के लिए धुंधली की सलाह के अनुसार उसकी छोटी बहन को बुला लिया। धुंधली की बहन बच्चे का पालन पोषण करने लगी। इधर तीन माह बाद आत्मदेव की गर्भवती गाय को भी संन्यासी महाराज का दिया आम का फल खाने से एक बच्चा हुआ, जिसका शरीर तो सुन्दर बालक का था, लेकिन कान गाय के समान थे।bhagwat mahatmya
इस बच्चे का नाम रखा गया ‘गोकर्ण‘ । उधर धुंधुली के नाटक से प्राप्त बच्चे का नाम ‘धुंधकारी’ रखा गया।
धुन्धुम कलहं क्लेश करोति कारयति सः सः धुन्धकारी ।।
जो स्वयं तो लड़े और दूसरों को भी लड़ाये उसे धुंधकारी कहते हैं । आत्मदेव दोनों बच्चों का पालन–पोषण एवं शिक्षा-दीक्षा करने लगे। धुंधकारी बाल्यकाल से ही दुष्ट स्वभाव का हो गया।
वह अपने साथ खेलनेवाले बच्चों को धक्का देकर कुएँ में गिरा देता । सयाना हुआ तो शराबी एवं वेश्यागामी हो गया। सम्पत्ति का नाश करने लगा । गोकर्ण साधु स्वभाव के थे। वे विद्या अध्ययन एवं ज्ञान प्राप्ति की ओर उन्मुख हो गये ।
धुंधकारी ने पिता आत्मदेव की सारी अर्जित सम्पत्ति को शराब एवं वेश्या-गमन में नष्ट कर दिया और अन्ततोगत्वा एक दिन उसने धन नहीं रहने पर पिता आत्मदेव द्वारा छिपाकर रखी सम्पत्ति के लिए अपनी माँ को बहुत मारा-पीटा और छिपाकर रखे गहने, चांदी के वर्तन वगैरह बहुमूल्य वस्तुएँ उनसे छीन ली। आत्मदेव सम्पत्ति के नाश एवं पुत्र धुंधकारी के चांडाल कर्म के कारण विलख-विलख कर रोने लगे। इस प्रकार-bhagwat mahatmya
“गोकर्णः पंडितो ज्ञानी धुन्धुकारी महाखलः” ।।
एक दिन धुन्धुकारी के कर्म से चिंतित वृद्ध आत्मदेव को रोते देख गोकर्ण ने उन्हें सांत्वना दी और समझाया कि पुत्र एवं सम्पत्ति के लिए रोना ठीक नहीं। सुख एवं दुःख आते-जाते रहते हैं।
न चेन्द्रस्य सुखं किचिन्न सुखं चक्रवर्तिनः । सुखमस्ति विरक्तस्य मुने रेकान्तजीविनः ।।
इस संसार में ना तो इंद्र को सुख हैं और ना चक्रवर्ती को सुख है यदि कोई सुखी है तो वह है एकांत जीवी विरक्त महापुरुष-
दीन कहे धनवान सुखी धनवान कहे सुख राजा को भारी
राजा कहे महाराजा सुखी महाराजा कहे सुख इंद्र को भारी ।
इंद्र कहे चतुरानन सुखी है चतुरानन कहे सुख शिव को भारी
तुलसी जी जान बिचारी कहे हरि भजन बिना सब जीव दुखारी ।।
संत कहते हैं——
कोई तन दुखी कोई मन दुखी कोई धन बिन रहत उदास ।
थोड़े थोड़े सब दुखी सुखी राम के दास ।।
पिताजी संतान रूपी अज्ञानता का त्याग कर दीजिए और सब कुछ छोड़कर वन में चले जाइए पिता आत्मदेव ने कहा बेटा वन में जाकर मुझे किस प्रकार का साधन भजन करना चाहिए यह बताने की कृपा करो गोकर्ण जी कहते हैं ।bhagwat mahatmya
इसलिए बुद्धि सम रखनी चाहिए। हाड़, मांस, रक्त, मज्जा से बने इस शरीर के प्रति मोह नहीं करनी चाहिए। आप स्त्री पुत्र का मोह छोड़कर वन में जाकर भगवत् भजन करें एवं श्री भागवत पुराण के दशम स्कन्ध का पाठ करें क्योंकि इस संसार को क्षण भंगुर समझकर प्रभु का भक्त बनकर भगवत् भजन कीजिऐ एवं दुष्टों का संग त्यागकर साधुपुरुष का संग कीजिये ।
किसी के गुण-दोष की चिन्ता मत करें क्योंकि पुत्र का पहला धर्म है कि पिता की उचित आज्ञा का पालन, दूसरा पिता की मृत्यु के बाद श्राद्ध करना, न केवल ब्राह्मणों को बल्कि सभी जाति के लोगें को भूरि-भूरि भोजन यानी तबतक खिलाना जबतक खानेवाला अपने दोनों हाथों से पत्तल को छापकर भोजन करानेवाले को रोक न दे।
और तीसरा कार्य है- गया में पिंडदान एवं तर्पण कार्य करना परन्तु ये तीनों लाभ आत्मदेवजी को धुंधकारी से नहीं मिला। गोकर्णजी कहते हैं कि हे पिताजी – इस नश्वर शरीर के मोह को त्याग कर भक्ती करते हुये वैराग से रहकर साधु पुरुषों का संग करते हुये प्रभु को भजे । bhagwat mahatmya
देहेऽस्थिमांसरुधिरेऽभिमतिं त्यज त्वं जायासुतादिषु सदा ममतां विमुंच । 1
पश्यानिशं जगदिदं क्षणभंगनिष्ठं, वैराग्यरागरसिको भव भक्तिनिष्ठः ।।
श्रीमद् भा० मा० ४/७६
धर्मं भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान् सेवस्व साधुपुरुषाञ्जहि कामतृष्णाम् ।
अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु – मुक्त्वा सेवाकथारसमहोनितरां पिब त्वं ।।
श्रीमद् भा० मा० ४/८०
हे पिताजी यह शरीर जो हाड़, मांस, रक्त, मज्जा आदि से बने है इसके प्रति मोह को त्यागकर एवं स्त्री पुत्र आदि के मोह को भी छोड़कर इस संसार को क्षणभंगुर देखते जानते हुए वैराग्य को प्राप्त कर भगवान की भक्ति में लग जायें ।
पुनः संसारीक व्यहारों को त्यागकर निरन्तर धर्म को करते हुए कामवासना को त्यागकर साधुपुरुषों का संग करे एवं दुसरे के गुण दोषों की चिंता को त्याग करते हुए निरन्तर भगवान की मधुरमयी भागवत कथा को आप पान करें।bhagwat mahatmya
इसप्रकार गोकर्ण जी ने उपरोक्त श्लोको के माध्यम से अपने पिताजी को समझाया तो वह आत्मदेवजी जंगल में जाकर भजन करके परमात्मा को प्रप्त किये। परंतु वही आत्मदेवजी ने प्रारम्भ में सन्यासी महाराज का आज्ञा नहीं माने तो संपती एवं यश को समाप्त करके भारी कष्ट को सहे।bhagwat mahatmya इसलिए इस कथा से उपदेश मिलता है कि साधु-महात्माओं के वचनों को, उनके उपदेशों को मानना चाहिए। अन्यथा आत्मदेव जैसा कष्ट उठाना पड़ता है।