Bhagwat Puran Katha Hindi -3

Bhagwat Puran Katha Hindi

  भागवत पुराण कथा भाग-3

Bhagwat Puran Katha Hindi 
Bhagwat Puran Katha Hindi

 

पद्म पुराण के उत्तर खण्ड के प्रथम् से लेकर षष्ठम् अध्याय तक इस भागवत के महात्म्य में परम मंगलमय श्री बालकृष्ण की वाङ्मयी प्रतिमूर्त्ति स्वरुप इस भागवत के माहात्म्य को कहने से पहले प्रभु श्री कृष्ण को प्रणाम करके वन्दना करते हुये श्री महर्षी वेदव्यासजी ने जो प्राचीन समय में मंगलाचरण के श्लोक का गान किया है उसी श्लोक का गायन करते हुये नैमीशारण्य के पावन क्षेत्र में अठास्सी हजार संतो के बीच शौनकादी ऋषियों के सामने श्री व्यासजी के शिष्य श्रीसुतजी मंगलाचरण करते हुये महात्म के प्रथम श्लोक में कहते हैं-

सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे ।

तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः ।।

श्रीमद्भा० मा० १/१

सच्चिदानन्दरूपाय अर्थात् सत्+चित्+आनन्द यानी सत् का मतलब त्रिकालावधि जिसका अस्तित्व सत्य हो । चित् माने प्रकाश होता है अर्थात् जो स्वयं प्रकाश वाला है और अपने प्रकाश से सबको प्रकाशित करता है। आनन्द माने आनन्द होता है अर्थात् जो स्वयं आनन्द स्वरूप होकर समस्त जगत् को आनन्द प्राप्त कराता हो इस प्रकार ऐसे कार्यों को करने वाले को सच्चिदानन्द कहते हैं। “वे सच्चिदानन्द श्रीमन्–नारायण स्वरूप श्रीकृष्ण ही हैं। अर्थात् सत् भी कृष्ण हैं, चित् भी कृष्ण हैं एवं आनन्द भी श्रीकृष्ण ही हैं, तथा जिनका आदि, मध्य और अन्त तीनों ही सत्य है तथा सत्य था एवं सत्य रहेगा। ऐसे शाश्वत सनातन श्रीकृष्ण को ही सच्चिदानन्द कहते हैं।

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अतः “सत्” माने शाश्वत – सनातन सत्य एवं चित् माने प्रकाश तथा आनन्द माने आनन्द। “रूपाय” माने ऐसे गुण या धर्म या रूप वाले। “विश्वोत्पत्यादिहेतवे” यानी जो विश्व की उत्पत्ति, पालन, संहार एवं मोक्ष के हेतु हैं, अथवा कारण हैं। “तापत्रयविनाशाय” यानी जो तीनों तापों जैसे- दैहिक, दैविक, भौतिक या जीवों के शरीरादि में उत्पन्न रोग, दैवप्रकोप जैसे आधि-व्याधि – ग्रहादी का प्रकोप एवं भौतिकप्रकोप यानी जीवों द्वारा जो अनेक जीवों से प्राप्त दुःख या कष्ट होता है। अथवा “तापत्रय” का मतलब तीनों लोकों के कष्ट या उन तीनों प्रकार के कष्ट को विनाश करता है। ऐसे “श्रीकृष्णाय” यानी श्रीकृष्णको । वयं नुमः अर्थात् हम सभी प्रणाम करते हैं ।

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अतः इस श्लोक का शाब्दिक अर्थ है- कि सत्य स्वरूप एवं प्रकाशस्वरूप तथा आनन्दस्वरूप होकर जो संसार के उत्पत्ति – पालन – संहार के अलावा मोक्ष को भी देने वाले हैं तथा संसार के प्राणियों के दैहिक – दैविक-भौतिक कष्ट को दूर करते हैं, ऐसे श्रीकृष्ण यानी राधा कृष्ण को हम सभी प्रकार एवं सभी अंगों यानी आठों अंगों से प्रणाम करते हैं।

यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव ।

पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ।।

श्रीमद्भा० मा० १ /२

जो प्रभु की कृपा से माता के गर्भ में सोलह वर्षों तक समाधिस्थ रहकर प्रभु का ध्यान करते रहे तथा प्रभु द्वारा माया से विजय प्राप्ति का वरदान पाकर पिता की आज्ञा से अपनी माता पिंगला देवी या अरणी देवी से इस पृथ्वी पर प्रकट हुए तथा प्रकट होते या जन्म लेते ही व्यावहारिक जगत् के जनेउ संस्कार इत्यादि को बिना पूर्ण किये ही आध्यात्मिक ज्ञान स्वरूप परमात्मा को ध्यान- चिन्तन-धारणा करने का संकल्प रूपी जनेउ को धारण करते हुए सन्यासी ज्ञानियों के समान घर द्वार को त्याग कर जन्म लेते ही सोलह वर्ष के बालक जैसा प्रतीत होते हुए जंगल की यात्रा जिन्होंने तय कर दी और वह घटना देखकर श्री वेदव्यास जी ने पुत्र मोह से मोहित होकर ‘बेटा बेटा’ कहकर पुकारा तो उस समय मानो श्रीव्यास जी की ओर द्रवित होकर वृक्षों – पर्वतों जलाशयों इत्यादि ने भी उन व्यास लाडले को रुकने को कहा । अथवा उन प्रकृतियों ने श्री व्यास जी को समझाकर सबके हृदय स्वरूप भगवान के भक्त उन शुकदेव की महिमा बताया ।

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जिनका दर्शन करने के लिए जलाशय में स्नान करती हुई देवियों ने समीप से आकर प्रणाम किया तथा श्री व्यासजी को देखकर उन्हीं देवियों ने दूर से ही प्रणाम किया। उन देवियों की ऐसी घटना को देखकर श्री व्यासजी को क्षोभ हुआ, परन्तु उन देवियों ने कहा कि यह आपके पुत्र हम समस्त संसार के प्राणियों के हृदय हैं तब श्री व्यास जी को प्रसन्नता हुई। ऐसे सभी प्राणियों के हृदय स्वरूप व्यासनन्दन भगवत् भक्त श्री शुकदेवजी को मैं प्रणाम करता हूँ।

नैमिषे सूतमासीनमभिवाद्यमहामतिम् ।

कथामृतरसास्वादकुशलः शौनकोऽब्रवीत् ।।

श्रीमद्भा० मा० १/३

तीरथ परम नैमिष विख्याता । अति पुनीत साधक सिद्धिदाता ।।

एक बार पावन भूमि नैमिषारण्य में प्रातः काल के अनेक अनुष्ठानों को पूर्ण करके अवकाश मिलने पर श्रीशौनक जी ने ८८ हजार सन्तों का प्रतिनिधित्व करते हुए सभामण्डप में उपस्थित हुये। उस सभा में आये हुए श्रीसूतजी को व्यास गद्दी पर बैठाकर एवं प्रणाम करके उन सूत जी से श्रीशौनकजी ने कहा कि आप व्यास जी के शिष्य एवं पुराणों के वक्ता हैं । अतः हमारे प्रश्नों का समाधान करें तथा व्यास गद्दी को स्वीकार करें। श्री सूत जी ने कहा कि हे महानुभावों ! हमारे जैसे को भी आप सभी बड़े महानुभाव होने पर इतनी क्यों प्रतिष्ठा देते हैं। तब शौनक जी सहित सभी ऋषियों ने कहा कि- हे सूत जी उम्र में भले ही छोटे हैं लेकिन आप गुणों में बड़े (मोटे) हैं क्योंकि शास्त्र में कहा गया है कि –

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“धनवृद्धा बलवृद्धा आयुवृद्धास्तथैव च ।

ते सर्वेऽपि ज्ञानवृद्धाश्च किंकरा शिष्यकिंकराः ।। ।

यानी धन से बड़ा या बल से बड़ा या आयु से बड़ा भले ही कोई हो परन्तु भगवत् भक्ति संपन्न जो ज्ञान में बड़ा है वहीं वस्तुतः बड़ा है और सबके आदर का पात्र है। इसलिए हे सूत जी ! आप वैसे ही ज्ञानियो में श्रेष्ठ हैं। अतः आप ऐसी कथा सुनावें जिससे मानवों की ममता – मोह-अज्ञान दूर हो जायें तथा भगवत् प्रेम पाकर भगवान् को प्राप्त करे या उन्हें श्रीगोविन्द की प्राप्ती हो जायें। आगे आप यह भी बतलायें कि गोविन्द कैसे मिलते हैं ? क्योंकि इस संसार में प्रभु के अलावा सभी वस्तुएँ नश्वर हैं और अन्त में यह संसार भी परमात्मा में विलय या लय हो जाता है।

इस प्रकार उस पावन क्षेत्र नैमिषारण्य में श्री शौनकादि ऋषियों द्वारा प्रार्थना करने पर श्री सूतजी प्रसन्न हो गये और उनके हृदय में भगवान् का गुण और स्वरूप एवं नाम उभर आये । यहाँ पर सूत का मतलब होता है –

“क्षत्रियात् विप्रकन्यायां सूतो भवति जातकः”

क्षत्रिय पुरुष एवं विप्र कन्या के संतान गृहस्थ धर्म से जिनका जन्म हो वह सूत कहलाता है।

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शौनक जी ! भगवान श्रीमन् नारायण के गुणों को जिस भागवत में वर्णन है उस भागवत को सुनने से ही भगवान की प्राप्ति होती है। क्योकि जब बहुत जन्मों का पुण्य उदय होता है या जब अनन्त जन्मों के भाग्य का उदय होता है तो सत्संग का लाभ प्राप्त होता है। उस सत्संग का तात्पर्य श्रीमद्भागवत कथा होती है। श्रीमद्भागवत कथा का संयोग पूर्वजन्म के पुण्य से ही होता है। पूर्वजन्म का पुण्य भगवान् की कृपा से ही होता है।

“भाग्योदयेन बहुजन्मसमर्जितेन सत्संगम् च लभते पुरूषो यदा वै” ।।

प्रभु श्रीमन् नारायण के अलावा इस संसार में हम सभी म्रियमाण हैं। यानी जिसने भी जन्म लिया है उसे संसार से जाना है। अतः हम मरणशील मनुष्यों के उद्धार के लिए, अशान्त मन की शान्ति के लिए, चित्त के विकारों की शुद्धि के लिए भक्तों में भक्ति की भावना सुदृढ़ करने के लिए श्रीमद्भागवतपुराण की रचना श्री व्यासजी महाराज ने की है।

इसी भागवत कथा का उपदेश उन्होंने अपने पुत्र श्री शुकदेवजी को दिया था तथा अध्ययन कराया था। श्री शुकदेवजी ने म्रियमाण राजा परीक्षित् को गंगा नदी के तट पर लगातार ७ दिनों तक वही कथा सुनायी, जिससे राजा परीक्षित की मुक्ति हो गयी। उसी भागवत पुराण की कथा का श्रवण हमलोग यहाँ करेंगे।

भागवत कथा के श्रवणकर्ता ऐसे भक्तजन निश्चय ही खेती व्यपार नौकरी अध्यन अध्यापन के साथ इस लोक में सुखपूर्वक जीवन जीते हुए अन्त में वैकुण्ठलोक की प्राप्ति करते हैं।

अमर कथा

इसी भागवत कथा को सुनकर श्री शंकर जी अमर हैं। अतः इस भागवत कथा को अमरकथा भी कहा जाता है। इसी अमर कथा को एक समय श्री कर जी ने अपनी पत्नी पार्वती को सुनाया था, परन्तु श्रीपार्वती जी इस अमरकथा को पूरा-पूरा नहीं सुन पायीं तथा बीच में ही निद्राग्रस्त हो गयीं । अर्थात् इस प्रसंग का विस्तार से अन्यत्र ग्रन्थों में कथा है कि एक बार श्रीकृष्ण भगवान् महालक्ष्मी श्री राधाजी के साथ अपने वैकुण्ठ यानी गोलोक धाम में बैठे थे तो अचानक भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि हे राधा जी मैं अब पृथ्वी लोक पर जाऊँगा, आप भी चलें। श्री राधाजी ने कहा कि मैं पृथ्वीलोक पर तभी चलूँगी जब पृथ्वीलोक पर इस गोलोक के समान गोवर्धन – वृन्दावन, आदि उपस्थित हों ( प्रभु की कृपा से श्री राधा जी की कामना के अनुसार वृन्दावन, गोकुल एवं गोवर्धन पर्वत आदि पृथ्वी लोक में प्रकट हो गये) ।

भागवत पुराण कथा के सभी भागों कि लिस्ट देखें- 

shiv puran katha list

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