भागवत कथा नोट्स bhagwat puran saptahik katha

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bhagwat puran saptahik katha

भागवत कथा नोट्स bhagwat puran saptahik katha

श्रीमद्भागवत महापुराण की जय

भूमिका

भागवत महापुराण भूमिका —अनंतकोटि ब्रह्मांड नायक, अचिंत्य कल्याण गुणगण निधान, सर्वेश्वर, सर्वाधिपति, अकारण करुणा वरुणालय, अकारण करुणा कारक, सकल जनकल्याण शापहारक, परात्पर परब्रह्म, अनंतकोटि कंदर्पदर्प दलन पटीयान, निर्गुण निराकार, सगुण साकार, जगदैक बंधु, करुणैक सिंधु, सच्चिदानंदघन परमात्मा श्रीकृष्ण एवं श्री राधारानी जी के युगल चरणारविंदों में दास का बारंबार प्रणाम। समुपस्थित भगवत् भक्त, भागवत कथा अनुरागी सज्जनों, भक्तिमयी मातृशक्ति, भगिनी-बांधवों —

सियाराममय सब जग जानी, करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी।

भगवतः इदं स्वरूपं भागवतम् — जो भगवान का स्वरूप है, उसे ‘भागवत’ कहते हैं।

तेन इयं वाडमयी मूर्तिः प्रत्यक्षः कृष्ण एव हि। — यह श्रीमद्भागवत भगवान श्रीकृष्ण की प्रत्यक्ष शब्दमयी मूर्ति है।
भगवतः प्रोक्तं भागवतम्। — भगवान ने जिसका उपदेश किया है, उसे ‘भागवत’ कहते हैं।
भगवतः चरितं यस्मिन् तत् भागवतम्। — जिसमें भगवान के परम पवित्र चरित्र का वर्णन किया गया है, उसे ‘भागवत’ कहते हैं।
भगवत्याः श्रीराधायाः गुप्तचरितं यस्मिन् तत् भागवतम्। — जिसमें श्री राधारानी के गुप्त चरित्र का वर्णन किया गया है, उसे ‘भागवत’ कहते हैं।
भगवतोः श्रीराधा-कृष्णयोः इदं स्वरूपं भागवतम्। — जिसमें श्री राधा-कृष्ण के पावन चरित्र का वर्णन किया गया है, जो राधा-कृष्ण के युगल स्वरूप हैं, उसे ‘भागवत’ कहते हैं।
भक्ति-ज्ञान-वैराग्याणां तत्त्वं यस्मिन् तत् भागवतम्। — जिसमें भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के तत्त्व का वर्णन किया गया है, उसे ‘भागवत’ कहते हैं।

अथवा भागवत में चार अक्षर हैं — भा, ग, व और त:
भा = भाष्यते सर्ववेदेषु,
ग = गीयते नारदादिभिः,
व = वदन्ति त्रिषु लोकेषु,
त = तरन्ति भवसागरम्।

— जिससे समस्त देवता प्रकाशित होते हैं, जिसका गान नारदादि ऋषि करते हैं, जो तीनों लोकों में विख्यात है और जो भवसागर से तारने वाली है — उसे ‘भागवत’ कहते हैं।

भा कीर्तिवाचक शब्द है,
 ज्ञानवाचक है,
 वैराग्यदायक है,
 संसार सागर से तारक है।

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वंतराणि च।
वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम्॥

 इसमें सूक्ष्म सृष्टि, स्थूल सृष्टि, सूर्य-चंद्र आदि के वंश, मन्वंतर में होने वाले राजाओं तथा भगवान के भक्तों के वंश का वर्णन किया गया है। ऐसे पाँच लक्षणों से युक्त ग्रंथ को पुराण कहते हैं, परंतु श्रीमद्भागवत में दश लक्षण (दस लक्षण) हैं — इसलिए यह महापुराण है। श्रीमद्भागवत के प्रारंभ में महात्म्य का वर्णन किया गया है। महात्म्य का अर्थ होता है महिमा

महात्म्यज्ञानपूर्वकं श्रद्धा भवति। महिमा के ज्ञान के पश्चात ही श्रद्धा उत्पन्न होती है। परम पूज्य गोस्वामी श्री तुलसीदास जी कहते हैं —bhagwat puran saptahik katha

“जाने बिनु न होत प्रीती, बिनु प्रीती होत नहीं प्रीती।

जब तक ज्ञान नहीं होता, तब तक प्रेम उत्पन्न नहीं होता। इस महात्म्य में छह अध्याय हैं जो पद्मपुराण से लिए गए हैं, जिनमें प्रारंभ के तीन अध्यायों में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का वर्णन है; दो अध्यायों में पिशाच धुंधकारी का उद्धार और अंतिम एक अध्याय में भागवत सुनने की विधि बताई गई है।

                      सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे, तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः||

सत्स्वरूप, चित्स्वरूप और आनंदस्वरूप जो विश्व की उत्पत्ति, पालन और संहार के एकमात्र हेतु हैं, आध्यात्मिक – मानसिक ताप, आधिदैविक – देवताओं के द्वारा प्रदान किया जाने वाला ताप और आधिभौतिक – प्राणियों के द्वारा प्रदान किए जाने वाला ताप, इन त्रिविध तापों का जो नाश करने वाले हैं, ऐसे श्रीकृष्णाय, श्रियः सहितः कृष्णाय, श्री राधारानी के सहित भगवान श्रीकृष्ण को हम सभी नमस्कार करते हैं।

 

यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव |
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ||

जिस समय श्री शुकदेव जी का उपनयन आदि संस्कार भी नहीं हुआ था, उस समय वे व्यस्त होकर वन की ओर चल पड़े। उन्हें वन की ओर जाते देख उनके पिता वेदव्यासजी पुत्रमोह से व्यथित होकर उन्हें पुकारने लगे — “हे बेटा! हे पुत्र! मत जाओ, रुक जाओ।” उस समय वृक्षों ने तन्मय होकर श्री शुकदेव जी की तरफ से उत्तर दिया bhagwat puran saptahik katha— “हे वेदव्यास जी! आप अत्यंत ज्ञानी हैं और इस प्रकार पुत्रमोह से दुखी हो रहे हैं। हम अज्ञानी हैं, परंतु हमें देखिए — प्रतिवर्ष हम में न जाने कितने फल लगते हैं, उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं, परंतु हम दुखी नहीं होते। इसलिए आप भी दुख त्याग दीजिए क्योंकि आत्मरूप से श्री शुकदेव जी हम सबके हृदय में विराजमान हैं।” ऐसे सर्वभूतहृदय श्री शुकदेव जी को मैं नमस्कार करता हूँ।

नैमिषे सूतमासीनमभिवाद्य महामतिम् |
कथामृतरसास्वादकुशलः शौनकोऽब्रवीत् ||

तीर्थों में श्रेष्ठ नैमिषारण्य, जो अत्यंत पवित्र है और साधकों को सिद्धि प्रदान करने वाला है — ऐसे नैमिषारण्य तीर्थ में विराजमान परम विद्वान श्री सूत जी से कथामृत का रसास्वादन करने में कुशल श्री शौनक जी ने कहा —

अज्ञानध्वान्तविध्वंस कोटिसूर्यसमप्रभा |
सूताख्य! आहि कथासारं मम कर्णरसायनम् ||

सूत जी! आपका ज्ञान अज्ञानता रूपी अंधकार का नाश करने में करोड़ों सूर्य के समान है, इसलिए आप हमारे कानों को अमृत के समान मधुर लगने वाली कथा सुनाइए — वह कथा जो भक्ति, ज्ञान, वैराग्य को प्रदान करने वाली हो, जिससे माया-मोह का नाश हो, जिसे वैष्णव भक्तों ने कही हो। इस घोर कलिकाल के कारण प्रायः जीव आसुरी स्वभाव के हो गए हैं — वह कथा उन्हें शुद्ध करने वाली हो, श्रेष्ठ से श्रेष्ठ तथा पवित्र से पवित्र हो, और शीघ्र ही भगवान श्रीकृष्ण को प्राप्त कराने वाली हो। bhagwat puran saptahik katha

कालव्यालमुखग्रासत्रासनिर्णाश हेतवे |
श्रीमद्भागवतं शास्त्रं कलौ कीरेण भाषितम् ||

कालरूपी महान सर्प के मुख का ग्रास बने हुए प्राणियों के दुख की निवृत्ति के लिए, कलिकाल में श्री शुकदेव जी ने श्रीमद्भागवत का प्रवचन किया।

जन्मान्तरे भवेत् पुण्यं तदा भागवतं लभेत् ||
जब मनुष्य के जन्म-जन्मांतरों के पुण्य उदय होते हैं, तब भागवत की कथा सुनने को मिलती है। जिस समय श्री शुकदेव जी राजा परीक्षित को यह कथा सुना रहे थे, उस समय देवता अमृत का कलश लेकर आए, श्री शुकदेव जी के चरणों में प्रणाम किया और कहा — “यह अमृत का कलश आप राजा परीक्षित को पिला दीजिए और बदले में हम सभी देवताओं को अमृत का पान कराइए।” श्री शुकदेव जी कहते हैं —

क्व सुधा क्व कथा लोके क्व काचः क्व मणिर्महान् |
ब्रह्मरातो विचार्यैवं तदादेवान् जहास ह ||

श्री शुकदेव जी ने देवताओं की इस व्यापारिक बुद्धि को देखा तो कहने लगे — “देवताओं! जैसे कांच मणि की बराबरी नहीं कर सकता, उसी प्रकार स्वर्ग का अमृत कथामृत के बराबर नहीं हो सकता। स्वर्ग का अमृत तो दीर्घजीवी बनाता है और कथामृत मनुष्य को दिव्यजीवी बनाता है। स्वर्ग के अमृत का फल है — पुण्ये क्षीणे मर्त्यलोकं विशन्ति, पुण्य क्षीण हो जाने पर पुनः मृत्युलोक में आना पड़ता है। और कथामृत का फल है — कल्मषापहम्, यह पापों का नाश करने वाली है।
देवताओं! यदि तुम जिज्ञासु बनकर आते, भक्त बनकर आते तो मैं तुम्हें अवश्य इस कथामृत का पान कराता, परंतु तुम व्यापारी बन कर आए हो, इसलिए इसके अधिकारी नहीं हो।”

भागवत कथा वाचक कैसे बने shrimad bhagwat katha kaise sikhe
भागवत कथा वाचक कैसे बने shrimad bhagwat katha kaise sikhe

श्रीमद्भागवती वार्ता सुराणामपि दुर्लभा ||
शौनक जी! यह श्रीमद्भागवत की कथा देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। जब श्री शुकदेव जी ने देवताओं की हंसी उड़ा दी, तो देवता मुँह लटका कर ब्रह्मा जी के पास आए तथा पृथ्वी में जो घटना हुई थी, वह सब ब्रह्माजी से कह सुनाया।
ब्रह्मा जी ने कहा — “देवताओं! दुखी मत हो, सात दिन के पश्चात देखते हैं राजा परीक्षित की क्या गति होती है।”
और सात दिन के पश्चात जब राजा परीक्षित को मोक्ष प्राप्त हुआ, तो ब्रह्मा जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सत्यलोक में एक तराजू बांधा, उसमें एक तरफ समस्त साधनों को रखा और दूसरी तरफ श्रीमद्भागवत को रखा। भागवत जी की महिमा के सामने समस्त साधन हल्के पड़ गए।

 

मेनिरे भगवद्रूपं शास्त्र भागवते कलौ |
पठनाच्छवणात्सद्यो वैकुण्ठफलदायकम् ||

उस समय समस्त ऋषियों ने माना – इस भागवत को पढ़ने से, श्रवण से वैकुण्ठ की प्राप्ति निश्चित होती है। यह श्रीमद्भागवत की कथा देवर्षि नारद ने ब्रह्मा जी से सुनी, परंतु साप्ताहिक कथा उन्होंने सनकादि ऋषियों से सुनी।शौनक जी ने कहा – देवर्षि नारद तो एक ही स्थान पर अधिक देर ठहर नहीं सकते, फिर उन्होंने किसी स्थान पर और किस कारण से इस कथा को सुना? श्री सूत जी कहते हैं – एक बार विशालापुरी बद्रिका आश्रम में सत्संग के लिए सनकादि चारों ऋषि आए। वहाँ उन्होंने नारद जी को आते हुए देखा, तो पूछा— bhagwat puran saptahik katha

कथं ब्रह्मन्दीनमुखं कुतश्चिन्तातुरो भवान् |
त्वरितं गम्यते कुत्र कुतश्चागमनं तव ||

देवर्षि! इस प्रकार आप चिंतातुर क्यों हैं? इतने शीघ्र तुम्हारा आगमन कहाँ से हो रहा है और अब तुम कहाँ जा रहे हो? देवर्षि नारद ने कहा—

अहं तु पृथवीं यातो ज्ञात्वा सर्वोत्तमामिति |

मुनिश्रेष्ठों! मैंने पृथ्वीलोक को उत्तम जानकर वहाँ के तीर्थों में भ्रमण किया — पुष्कर, प्रयाग, काशी, गोदावरी, हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, श्रीरंग और सेतुबंध रामेश्वर आदि तीर्थों में भी गया, परंतु मन को संतोष देने वाली शांति मुझे कहीं नहीं मिली। अधर्म के मित्र कलियुग ने समस्त पृथ्वी को पीड़ित कर रखा है। सत्य, तपस्या, पवित्रता, दया, दान कहीं भी दिखाई नहीं देते। सभी प्राणी अपने पेट भरने में लगे हुए हैं —

पाखण्डनिरताः सन्तो विरक्ताः सपरिग्रहाः ||
संत पाखंडी हो गए, विरक्त संग्रही हो गए।

तपसि धनवंत दरिद्र गृही | कलि कौतुक तात न जात कही ||

घर में स्त्रियों की प्रभुता चलती है, साले सलाहकार बन गए हैं, पति-पत्नी में झगड़ा मचा रहता है। इस प्रकार कलियुग के दोषों को देखता हुआ मैं यमुना के तट, श्रीधाम वृंदावन में पहुँचा, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण की लीला स्थली है। वहाँ मैंने एक आश्चर्य देखा — एक युवती स्त्री खिन्न मन से बैठी हुई थी। उसके समीप में दो वृद्ध पुरुष अचेत अवस्था में पड़े जोर-जोर से साँस ले रहे थे। वह युवती उन्हें जगाने का प्रयास करती, जब वे नहीं जागते तो वह रोने लगती। सैकड़ों स्त्रियाँ उसे पंखा कर रही थीं और बारंबार समझा रही थीं। यह आश्चर्य दूर से देख मैं पास गया। मुझे देखते ही वह युवती स्त्री खड़ी हो गई और कहने लगी — bhagwat puran saptahik katha

भो भो साधो क्षणं तिष्ठ मच्चिन्तामपि नाशय ||

हे महात्मन! कुछ देर ठहर जाइए और मेरी चिंता का नाश कीजिए। मैंने कहा — देवी! आप कौन हैं? यह दोनों पुरुष और ये स्त्रियाँ कौन हैं तथा अपने दुख का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। उस युवती ने कहा — bhagwat puran saptahik katha

अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ |
ज्ञानवैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ ||

देवर्षि! मैं भक्ति हूँ, और ये दोनों ज्ञान तथा वैराग्य मेरे पुत्र हैं। काल के प्रभाव से ये वृद्ध हो गए हैं और ये सब गंगा आदि नदियाँ मेरी सेवा के लिए यहाँ आई हैं। bhagwat puran saptahik katha

उत्पन्ने द्रविणे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता |
क्वचित्क्वचिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता ||

मैं दक्षिण में उत्पन्न हुई तथा कर्नाटक में वृद्धि को प्राप्त हुई, कहीं-कहीं महाराष्ट्र में सम्मानित हुई और गुजरात में जाकर जीर्णता को प्राप्त हो गई। वहाँ घोर कलिकाल के कारण पाखंडियों ने मुझे अंग-भंग कर दिया — bhagwat puran saptahik katha

वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेन सुरूपिणी ||

और वृंदावन को प्राप्त करके पुनः मैं युवती हो गई। परंतु मेरे पुत्र अभी भी वैसे ही थके-माँदे पड़े हुए हैं, इसलिए अब मैं इस स्थान को छोड़कर अन्यत्र जाना चाहती हूँ। देवर्षि नारद ने कहा — देवी! यह दारुण कलियुग है, जिसके कारण सदाचार, योगमार्ग और तपस्या लुप्त हो गए हैं। इस समय संत, सत्पुरुष दुखी हैं और दुष्ट प्रसन्न। इस समय जिसका धैर्य बना रहे वही ज्ञानी है।

वृन्दावनस्य संयोगात्पुनस्त्वं तरुणीनवा |
धन्यं वृन्दावनं तेन भक्तिर्नृत्यति यत्र च ||

इस वृंदावन को प्राप्त करके आज पुनः आप युवती हो गईं। यह वृंदावन धन्य है, जहाँ भक्ति महारानी नृत्य करती हैं।भक्ति देवी कहती हैं — देवर्षि! यदि यह कलियुग ही अपवित्र है, तो राजा परीक्षित ने इसे क्यों स्थापित किया? और करुणा परायण भगवान श्रीहरि भी इस अधर्म को होते हुए कैसे देख रहे हैं? देवर्षि नारद ने कहा — देवी! जिस दिन भगवान श्रीकृष्ण इस लोक को छोड़कर अपने धाम में गए, उसी समय साधनों में बाधा पहुँचाने वाला कलियुग आ गया। दिग्विजय के समय राजा परीक्षित की दृष्टि जब इस पर पड़ी, तो कलियुग दीन के समान उनकी शरण में आ गया। भ्रमर के समान सारग्राही राजा परीक्षित ने देखा —bhagwat puran saptahik katha

 

यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिना |
तत्फलं लभते सम्यक्कलौ केशवकीर्तनात् ||

जो फल अन्य युगों में तपस्या, योग, समाधि के द्वारा नहीं प्राप्त होता था, वह फल कलियुग में मात्र भगवान श्रीहरि के कीर्तन से प्राप्त हो जाता है। इस एक गुण के कारण राजा परीक्षित ने कलियुग को स्थापित किया। देवी, इस कलिकाल के कारण पृथ्वी के संपूर्ण पदार्थ बीजहीन भूसी के समान व्यर्थ हो गए हैं। धन के लोभ के कारण कथा का सार चला गया। bhagwat puran saptahik katha

अयं तु युगधर्मो हि वर्तते कस्य दूषणम् |

यह युगधर्म ही है, इसमें किसी का कोई दोष नहीं। देवर्षि नारद के इन वचनों को सुनकर भक्ति महारानी को बहुत आश्चर्य हुआ। bhagwat puran saptahik katha उन्होंने कहा, “देवर्षि, आप धन्य हैं तथा मेरे भाग्य से ही आपका यहाँ आना हुआ। साधुओं का दर्शन इस लोक में समस्त सिद्धियों को प्रदान करने वाला है।”bhagwat puran saptahik katha

जयति जगति मायां यस्य काया ध्वस्ते, वचनरचनमेकं केवलं चाकलय्य |
ध्रुवपदमपि यातो यत्कृपातो ध्रुवोऽयं, सकल कुशल पात्रं ब्रह्मपुत्रं नतास्मि ||

जिनके एकमात्र उपदेश को धारण करके कयाधु नन्दन प्रह्लाद ने माया पर विजय प्राप्त कर ली और जिनकी कृपा से ध्रुव ने ध्रुव पद को प्राप्त कर लिया, ऐसे ब्रह्मा जी के पुत्र देवर्षि नारद को मैं प्रणाम करती हूँ। bhagwat puran saptahik katha

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