Monday, September 16, 2024
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कहानी जीवन की सच्चाई

दृष्टांत – ( 1 )
एक ब्राह्मण और एक सन्यासी सांसारिक और धार्मिक विषयों पर बातचीत करने लगे, सन्यासी ने ब्राह्मण से कहा बच्चा इस संसार में कोई किसी का नहीं है |

ब्राह्मण इसको कैसे मान सकता था वह तो यही समझता था कि अरे मैं तो दिन रात अपने कुटुंब के लोगों के लिए मर रहा हूं क्या यह मेरी सहायता समय पर ना करेंगे , ऐसा कभी नहीं हो सकता |

उसने सन्यासी से कहा महाराज जब मेरे सिर में थोड़ी सी पीड़ा होती है तो मेरी मां को बड़ा दुख होता है और दिन-रात वह चिंता करती है, क्यों कि वह मुझे प्राणों से भी अधिक प्यार करती है | प्रायः वह कहा करती है कि भैया के सिर की पीड़ा अच्छी करने के लिए मैं अपने प्राण तक देने को तैयार हूँ |

        ऐसी मां समय पड़ने पर मेरी सहायता ना करें यह कभी नहीं हो सकता ! सन्यासी ने जवाब दिया यदि ऐसी बात है तो तुम्हें वास्तव में अपनी मां पर भरोसा करना चाहिए ?
लेकिन मैं तुमसे सत्य कहता हूं कि तुम बड़ी भूल कर रहे हो इस बात का कभी भी विश्वास ना करो कि तुम्हारी मां, तुम्हारी स्त्री या तुम्हारे लड़के तुम्हारे लिए प्राणों का बलिदान कर देंगे ! तुम चाहो तो परीक्षा कर सकते हो घर जाकर पेट की पीड़ा का बहाना करो और जोर जोर से चिल्लाओ मैं आकर तुमको एक तमाशा दिखाऊंगा |

ब्राह्मण के मन में परीक्षा करने की लालसा हुई उसने पेट दर्द का बहाना किया वैद्य, हकीम सब बुलाए गए लेकिन दर्द नहीं मिटा | बिमार की मां स्त्री और लड़के सभी बहुत दुखी थे |
इतने में सन्यासी महाराज भी पहुंच गए उन्होंने कहा बीमारी तो बड़ी गहरी है, जब तक बीमार के लिए कोई अपनी जान नहीं देगा तब तक वह अच्छा नहीं होने वाला |

        इस बात पर सब भवचक्के हो गए सन्यासी ने मां से कहा— बूढ़ी माता ! तुम्हारे लिए जीवित रहना और मरना दोनों ही एक समान है, इसलिए यदि तुम अपने कमाऊ पूत के लिए अपने प्राण दे दो तो मैं इसे अच्छा कर सकता हूं अगर तुम माँ होकर भी अपने प्राण नहीं दे सकती तो फिर अपने प्राण दूसरा कौन देगा ?

बुढ़िया स्त्री रो कर कहने लगी बाबा जी आपका कहना तो सत्य है मैं अपने प्यारे पुत्र के लिए प्राण देने को तैयार हूं लेकिन ख्याल यही है कि यह छोटे-छोटे बच्चे मुझसे बहुत लगे हैं मेरे मरने पर इनको बड़ा दुख होगा ? अरे मैं बड़ी अभागिनी हूं कि अपने बच्चे के लिए अपने प्राण तक नहीं दे सकती |

      इतने में स्त्री भी अपने सास-ससुर की ओर देखकर बोल उठी मां तुम लोगों की वृद्धावस्था देखकर मैं अपने प्राण नहीं दे सकती |
सन्यासी ने घूमकर स्त्री से कहा पुत्री तुम्हारी मां तो पीछे हट गई लेकिन तुम तो अपने प्यारे पति के लिए अपनी जान दे सकती हो , उसने उत्तर दिया महाराज मैं बड़ी अभागिनी हूं मेरे मरने से मेरे मां-बाप मर जाएंगे ? इसलिए मैं यह हत्या नहीं ले सकती | इस प्रकार सब लोग प्राण देने के लिए बहाना करने लगे |

तब सन्यासी ने रोगी से कहा– क्यों जी ! देखते हो ना कोई तुम्हारे लिए प्राण देने को तैयार नहीं है, कोई किसी का नहीं है ! मेरे इस कहने का मतलब अब तुम समझे कि नहीं, ब्राह्मण ने जब यह हाल देखा तो वह भी कुटुंब को छोड़कर सन्यासी के साथ हि वन को चल दिया |
 

मित्रों हमें विश्वास है कि आपने पहले वाले दृष्टांत का मतलब समझ चुके होंगे ? 
कहने का मतलब यह है कि👇
संसार में रहो लेकिन सांसारिक मत बनो, किसी कवि ने सच कहा है | मेंढक को सांप के साथ नचाओ लेकिन ख्याल रखो कि साँप मेंढक को निगलने ना पाए |

दृष्टान्त – ( 2 )

एक बार एक पहुंचे हुए एक साधु रासमणि के काली जी के मंदिर में आए , जहां परमहंस रामकृष्ण रहा करते थे | एक दिन उनको कहीं से भोजन ना मिला यद्यपि उनको जोरों से भूख लग रही थी, फिर उन्होंने किसी से भी भोजन के लिए नहीं कहा |

थोड़ी दूर पर एक कुत्ता झूठी रोटी के टुकड़े खा रहा था वह चैट दौड़ कर उसके पास गये और उसको छाती से लगाकर बोले भैया तुम मुझे बिना खिलाए क्यों खा रहे हो और फिर उसी के साथ खाने लगे | भोजन के अनंतर वे फिर काली जी के मंदिर में चले आए और इतनी भक्ति के साथ में माता की स्तुति करने लगे कि सारे मंदिर में सन्नाटा छा गया |

प्राथना समाप्त करके जब वे जाने लगे तो श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपने भतीजे हृदय मुकर्जी को बुलाकर कहा— बच्चा इस साधु के पीछे पीछे जाओ और जो वह कहे उसे मुझसे कहो ! हृदय उसके पीछे-पीछे जाने लगा साधु ने घूम कर उससे पूछा कि मेरे पीछे पीछे क्यों आ रहा है ?

हृदय ने कहा महात्मा जी मुझे कुछ शिक्षा दीजिए ! साधु ने उत्तर दिया— जब तू इस गंदे घड़े के पानी को और गंगाजल को सामान समझेगा और जब इस बांसुरी की आवाज और इस जनसमूह की कर्कश आवाज़ तेरे कानों को एक समान मधुर लगेगी ? तब तू सच्चा ज्ञानी बन सकेगा |

ह्रदय ने लौटकर राम कृष्ण से कहा— रामकृष्ण जी बोले उस साधु को वास्तव में ज्ञान और भक्ति की कुंजी मिल चुकी है ! पहुंचे हुए साधु बालक, पिशाच, पागल और इसी तरह के और और भेषों में घूमा करते हैं |

लोहा जब तक पकाया जाता है , तब तक लाल रहता है | लेकिन जब बाहर निकाल लिया जाता है तब वह काला पड़ जाता है | यही दशा सांसारिक मनुष्यों की भी है जब तक वे मंदिरों में अथवा अच्छी संगति में बैठते हैं  तब तक उनमें धार्मिक विचार भी रहते हैं किंतु जो हि उनसे अलग हो जाते हैं , तब वे फिर धार्मिक विचारों को भूल जाते हैं |

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