भागीरथ गंगा को धरती पर कैसे लाएं ganga kaise prakat hui
भागीरथ और गंगा का धरती पर आगमन
सर्वत्र पावनी गंगा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा।
गंगा द्वारे प्रयागे च गंगासागर संगमे।।
भारतीय जनमानस के लिए गंगा एक सामान्य नदी ही नदी, बल्कि यों कहें भारत की आत्मा है। गंगा भारतीय संस्कृति और सभ्यता की साक्षी रही है। भूगोल की एक सामान्य नदी, भारत की अस्मिता को समेटे हुए है।
महाभारत, रामायण पुराण ही नहीं अपितु विश्व सभ्यता के प्राचीनतम् ग्रन्थ वेद मे भी गंगा का उल्लेख गंगा की अपरिसीम महत्व को दर्शाता है। ऋगवेद के एक श्लोक मे यमुना सरस्वती, असिवनी, शुतुद्रि मरुतबृधा, सुषोमा, आर्जिकीया, शुतुद्रि आदि नदियों के साथ गंगा का उल्लेख गंगा का प्रचीनता का प्रमाण है :
इमं मे गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि । स्तोमं सचता परुषत् ॥
आसिकन्या मरुत्बृधे वितस्तयार्जिकीये। धुनुह्या सुषोमया ॥
गंगा के मृत्युलोक मे अवतरण सम्बन्धि अनेक पौराणिक अख्यान पुराणों में मिलते जो परस्पर विरोधाभास लिए हुए की ब्रम्हबैर्वत पुराण के अनुसार गंगा, लक्ष्मी और सरस्वती तो विष्णु पत्निया है।
आपसी कलह और बैमन्स्य के चलते ये तीनो मृत्युलोक मे नदी के रूप में चली आयी जो मृत्युलोक वासियो के लिा वरदान साबित हुई। ये तीनो नदियाँ-गंगा, पद्मा और सरस्वती के सलिल से भारतभूमि धन-धान्य परिपूर्ण हुआ।
गंगा के उत्पत्ति के विषय मे एक और लोकप्रिय कहानी सुनने में आता है कि महर्षि नारद को अपने संगीतज्ञान पर बहुत अहंकार था। वे सोचते थे कि, उनके जैसा कोई संगीतज्ञ नहीं है।
इस अहंकार के चलते वे उट-पटांग ढंग से संगीताभ्यास करते जिसके चलते राग-रागिनिया विकलांग होती गयी। इधर नारद का अपने अहंकार के चलते राग-रागिनियों की दशा का ख्याल ही न रहा।
सम्पूर्ण संगीत शास्त्र विकृत हो चला। अन्त में राग-रागिनियो ने अपने दुःख का कारण नारद मुनि को बताया। महर्षि नारद अहंकार के कारण अपनी भूल को पकड़ नही पा रहे थे। यह ठीक हुआ कि यदि देवाधिदेव महादेव संगीताभ्यास करे तो राग-रागिनियां सामान्य हो सकेगी।
यह कथा यह दर्शता है कि व्यक्ति को सामान्य ज्ञान के मोह में अहंकारी नही होना चाहिए, बल्कि ज्ञान प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। वैसे भी संगीत को नादब्रह्म कहा गया है।
संगीत साधना हो या कुछ और सामान्य अहंकार के चलते देवर्षि नारद जैसा साधक का-भी पतन हुआ। अत: अहंकार से सदैव परहेज करना चाहिए। इधर महादेव देवसभा में राग-रागिनियों के कल्याणार्थ गा रहे है।
पर महादेव के इस संगीत के रस-गांभीर्य को समझने की क्षमता भला किसमे है ? विष्णु कुछ हद तक हृदयंगम कर रहे थे। पुराणो में ऐसा वर्णन है, कि शंकर की संगीत लहरी से विष्णु का अंगुठा द्रवीभूत हो गया, जिससे सम्पूर्ण देवलोक प्लावित हो गया। ब्रह्मा ने इस द्रवीभूत विष्णु सत्ता को अति सावधानी के साथ, अपने कमण्डल मे भरकर रखा जिसे भगीरथ अपनी अकात तपस्या के बलपर सगर पुत्रो के कल्याणार्थ लाये। विष्णुपद से विगलित होने, के कारण गंगा का एक नाम विष्णुपदी भी है।
श्रीमद् भगवत के अनुसार अयोध्या में इक्ष्वाकुवंशीय राजा सगर राज्य किया करते थे। वे बड़े ही दयालु धर्मात्मा व प्रजारक्षक थे। सगर का शाब्दिक अर्थ है बिष के साथ जब हैहय तालजंध ने सगर के पिता वाहु को संग्राम मे परास्त किया तो वे राज्यच्युत हो अग्नि और्व ऋषि के आश्रम चले गये।
उसी दौरान किसी शत्रु ने वाहु की भार्या को बिष खिला दिया। उस समय सगर मातगर्भ में थे। ऋषि और्व ने अपने प्रयास से वाहु-भार्या को बचा लिए, और सगर का जन्म हुआ। गरल या बिष के साथ इनका जन्म हुआ, इस लिए ये स+गर सगर कहलाये।
सगर के पिता वाहु तो ऋषि अग्नि और्व के आश्रम में ही स्र्वगगत हुए। सगर बड़े होकर अपने बाहुवल और पराक्रम के बलपर, अपना खोया राज्य प्राप्त किया। सगर ने हैहयों को जीत कर अपने पिता वाहु की पराजय का बदला लिया।
उसी समय ऋषि अग्निऔर्वजो हैहयों के परम्परागत शत्रु थे, सगर को भारी सहायता दी। सगर ने समुचे मध्यभारत को जीत कर अपना महासाम्राज्य स्थापित किया।
महाराजा सगर बाहुबली और पराक्रमी के साथ साथ धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति थे ! वे ऋषि-महर्षियों का सदैव सम्मान किया करते थे। एक बार राजा सगर बशिष्ठ मुनि के सुझाव पर महासाम्राज्य स्थापित करने के बाद अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया।
प्राचीन काल के सभी यज्ञो में अश्वमेध और राजसुय यज्ञ ही प्रधान थे। भारत के श्रेष्ठ पराक्रमशाली सम्राट अश्वमेध यज्ञ का आयोजन करते थे। इस यज्ञ मे ९९ यज्ञ सम्पन्न होने पर एक अति सुलक्षण घोड़ें पर जयपत्र बाँध कर छोड़ दिया जाता था।
जयपत्र पर लिखा होता अश्व जिस स्थान व राज्य से होकर गुजरे वह राज्य यज्ञकर्ता राजा के अधीन माना जायेगा जो जो राजा या क्षेत्रप अधीनता स्वीकार नही करते वे अश्व को रोक कर युद्ध करते।
अश्व के साथ उसकी देखरेख के लिए सहस्त्रों सैनिक भी साथ चलते। एक वर्ष बाद जब अश्व वापस राज्य में आता तो शास्त्रानुसार युपवद्ध कर अश्व की बलि दी जाती।
अश्व का मांस खण्ड यज्ञ में आहुति स्वरूप दी जाती। महाराज सगर यज्ञाश्व की सुरक्षा के लिए अपने साठ सहस्र सैनिको का नियोग किया था। प्रतापशाली सैनिक महासामारोह के साथ अश्व को लेकर भारत भ्रमण करते रहे।
इधर सगर राजा के बल-पराक्रम तथा अश्वमेध यज्ञ सम्पूर्ण होते देख देवराज इन्द्र को शंका हुई, शंकालु इन्द्र यह सोचने लगे कि अश्वमेध यज्ञ सफल होने के बाद यज्ञकर्ता को स्वर्गलोक का-भी राजत्व प्राप्त हो जाता है।
इन्द्र ने दिग्विजयी अश्व को अपने मायाजाल के बुते पर चराकर पाताल लोक में तपस्या रत महामुनि कपिल के आश्रम में छिपा दिया। ऐसा माना जाता है, कि पृथ्वी को धारण करने में शेषनाग के साथ महामुनि कपिल का भी विशेष योगदान है।
इन्द्र ने जब अश्व को लाकर छुपाया उस समय मुनि एकान्त साधना में लीन थे। अत: वे अश्व के विषय में सर्वथा अनभिज्ञ ही रहे। ।
इधर एक वर्ष पुरा होने को हुआ। यज्ञाश्व के साथ साठ हजार पुत्रों का प्रत्यार्वतन न होते देख “चक्रवर्ती” सगर चिन्तित हो उठे। सगर की दो पत्नियाँ थी, एक का नाम वैदभी तथा दुसरी शैव्या।
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वैदभी के गर्भ से एक मात्रपुत्र असमञ्जस हुए। इनका जैसा नाम था वैसा ही गुण, ये बड़े प्रजापीड़क थे। धार्मिक, सहिष्णु और उदार सगर के लिए, असमञ्जस का व्यवहार कष्टकारक था।
सगर ने उसे व्याग दिया। किन्तु असमञ्जस के औरस से प्रबल पराक्रमी अंशुमान का जन्म हुआ। जिन्होने अश्वमेध और राजसुय यज्ञ सम्पन्न कराये और राजर्षि की उपाधि प्राप्त की। शैव्या यासुमति के गर्भ से साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए जो सभी एक से बढ़कर एक वीर और पराक्रमी हुए।
जिसके बलपर सगर ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। राजा सगर का आदेश पाकर उनके साठ सहस्त्र पुत्र (सैनिक) यज्ञाश्व को खोजने निकल पड़े। उन्होने सम्पूर्ण पृथ्वी एक कर डाली, पर कही पर यज्ञाश्व का पता न चला।
असफल हो वे पुन: अयोध्या लौट आये। राजा का पुनः आदेश हुआ। पाताल लोक में खोजकर देखो। पाताल लोक में खोजते-खोजते सहसा सगर पुत्रो को मानों अमृत कलश मिल गया हो। उन्होनें देखा निविड़, शांत और पवित्र स्थान पर एक दिव्यदर्शी साधु अपनी साधना में लीन है।
संसारिक सगर पुत्र को ऐसा आभास हुआ, यज्ञाश्व चोर युद्ध करने के भय से समाधि लगाने का ढोंग कर रहा है। भला उन्हे क्या पता था कि यह साधु साक्षात् वासुदेव है।
सगर पुत्रो ने मुनि को अश्व चोर समझ कर नानाबिध अत्याचार किये। मुनि का कोई उत्तर न पा वे क्रोधित हुए। सगर पुत्रो ने महामुनि की समाधि भंग की। हुआ वही जो अभिष्ट था।
महामुनि की क्रोधाग्नि ने, साठ सहस्त्र सगर पुत्रो को जलाकर भस्म कर दिया। इधर शोक संतप्त यज्ञकर्ता सगर यज्ञाश्व व अपने साठ हजा पुत्रो को न आता देख और अधिक व्याकुल होने लगे।
उन्होने असमञ्जस के पुत्र अंशुमान को यज्ञाश्व व साठ हजार पुत्रो के अनुसंधान का गुरु कार्य दिया। आदेश पाते ही तेजस्वी अंशुमान अपने उद्देशय की पूर्ति के लिए निकल पड़े।
अंशुमान अनेक बाधाओं को पारकरते हुए, सैनिको के पदचिह्नों पर चलते-चलते अन्तः पातालपुरी पहुँचे। कपिलाश्रम पँहुचते ही अंशुमान साधना रत कपिल के सामने करवद्ध खड़े रहे।
महामुनि का ध्यान भंग होने पर अपना परिचय और आने का उद्देश्य निवेदन किया। अंशुमान के ओज और विनय से ऋषि कपिल प्रभावित हुए और उन्होंने सारी घटना अंशुमान को बता-दिया। यह सब सुनते ही अंशुमान का हृदय व्यथित हो उठा।
अश्रुपूर्ण नेत्रो से अंशुमान ने ऋषि को प्रणाम किया और अपने बन्धुवान्धओं की आत्मा के मुक्ति के लिए उपाय पूछा। ऋषि ने कहा “भस्मराशि मे परिणत साठ हजार पुत्रों की आत्मा के मुक्ति के लिए त्रिलोक तारिणी, त्रिपथगामिनी गंगा का अवतरण आवश्यक है। गंगा की पुण्य वारिधारा ही सगर पुत्रों को मुक्ति के द्वार तक पहुँचा सकती है।”
राजा सगर की भार्या सुमति या शैव्या गरुण की सगी बहन थी। इस प्रकार पक्षिराज गरुण ने भी अपने भाजो के कल्याणार्थ पतितपावनी गंगा के अवतरण की बात ही कही।
अंशुमान को यज्ञाश्व के साथ अयोध्या पहुँचनेपर राजा सगर ने अपना यज्ञ पुरा किया और अपने जीवन का अवशिष्ट समय गंगा अवतरण के प्रयास में लगा दिया। राजा सगर के बाद उनके पौत्र अंशुमान सन्नासीन हुए।
इसके बाद अंशुमान के पुत्र दिलोप भी अपनी सारी ऊर्जा गंगा को मर्त्यलोक मे अवतरण कराने के प्रयास में लगा दिया! अर्थात तीन पुरुपो का कुल समय, गंगा अनयन में ही शेष हो गया। पर वे गंगा को मर्त्यलोक मे लाने मे सफल नहीं हो सके। राजा दिलीप नि:संतान थे।
उनकी दो रानियाँ थी। वंश लोप के भय से दोनो रानियाँ ऋषि और्व के यहाँ शरणापन्न हुई। ऋषि के आदेश से दोनों रानियो ने आपस में संयोग किया जिसके फलस्वरूप एक रानी गर्भवती हुइ।
प्रसव के बाद एक मांसपिण्ड का जन्म हुआ जिसका कोई निश्चित आकार न था। कातर रानी पुन: ऋषि अग्नि और्व के यहाँ शरणापन्न हुई। ऋषि के आदेश से मांसपिण्ड को राजपथ पर रखवा दिया गया।
इधर अष्टब्रक मुनि स्नान के बाद अपने आश्रम को लौट रहे थे। अपने समने मांस का पिण्ड फड़कता देखकर क्रुद्ध हुए, उन्होनें सोचा मांसपिण्ड उन्हें चिढ़ा रहा है।
मुनि ने क्रोध में आकर कहा, यदि तुम्हारा आचरण स्वभाव सिद्ध हो, तो तुम सर्वांगसुन्दर होओ और यदि मेरा उपहास कर रहे हो तो मृत्यु को प्राप्त हो। मांसपिण्ड ऋषि के वचन सुनते ही सर्वांगसुन्दर युवक मे वदल गया। वह युवक दोनो रानियो के भग संयोग से जन्म लिया था अत: उनका नाम हुआ भगीरथ” ।
भगीरथ अपनी माता द्वारा पूर्वजो की कहानी सुनने का बाद वे स्वयं उनकी मुक्ति के लिए सोच में पड़ गये। एक तरफ संसारिक बन्धन, तथा दुसरी ओर पूर्वजों की मुक्ति का भार किसे चुने?
अन्त: उन्होने अपने पूर्वजो को मुक्ति दिलाना ही श्रेष्यकर समझा। और राज्य का भार मंत्रियो पर छोड़ वंश-उद्धार के महत् कार्य मे चलपड़े। गृहत्यागी होकर हिमायल क्षेत्र में जाकर भगीरथ इन्द्रकी स्तुति की। इन्द्र ने गंगा अवतरण में अपनी असमर्थता प्रकट की तथा देवाधिदेव की स्तुति का सुझाव दिया।
सौम्य भगीरथ देवाधिदेव को प्रसन्न कर उनकी आज्ञा-से सृष्टिकर्ता को अराधना की। भगीरथ की कठिन तपस्या से प्रजापति प्रसन्न हुए। प्रजापति ने विष्णु का अराधना का सुझाव दिया।
इस प्रकार ब्रह्मा-विष्णु और महेश तीनों ही भगीरथ के प्रति संतुष्ट हुए। अन्त: भगीरथ गंगा को संतुष्ट कर मर्त्यलोक मे अवतरण की सम्मति मांग ली। विष्णु ने अपना शंख भगीरथ को देकर कहा शंखध्वनि गंगा को पथ निर्देश करेगी।
गंगा शंख ध्वनि का अनुसरण करेगी। इस प्रकार शंख लेकर आगे-आगे भगीरथ चले और उनके पीछे-पीछे पतितपावनी, त्रिपथगामिनी, शुद्ध सलिला गंगा।
ब्रह्मलोक से अवतरण के समय, गंगा साठ हजार योजन विस्तृत सुमेरु पर्वत के मध्य आवद्ध हो गयी। इस समय इन्द्र के अपना गज ऐरावत भगीरथ को प्रदान किया।
अहंकारी “गजराज”. ऐरावत ने सुमेरु को चार भागों में विभक्त किया-जिससे गंगा की चार धराए प्रवाहित हुई। ये चारों धाराये बसु, भद्रा, श्वेता और मन्दाकिनी के नाम से जानी जाती है।
बसु-नाम की गंगा पूर्व सागर, भद्रा-नाम की गंगा उत्तर सागर, श्वेता-नाम की गंगा पश्चिम सागर और मन्दाकिनी-नाम की गंगा अलकनन्दा के नाम से मर्त्यलोक में जानी जाती है।
सुमेरु पर्वत से निकल कर गंगा कैलाश पर्वत होती हुई प्रबल वेग के साथ भू-पृष्ठ पर अवतरित होने लगी। उसी समय महादेव ने अपनें जटा-जाल में गंगा को धारण किया।
इस प्रकार गंगा अपने अहंम् भाव के चलते बारह वर्षों तक शंकर के जटाजाल में जकड़ी रही। भगीरथ अपनी साधना के बलपर शिव को प्रसन्न करा गंगा को मुक्त कराया।
शिव ने गंगा की धारा का अपनी जटा को चीर कर बिन्ध-सरोबर में उतारा। यहाँ सप्तऋषिओं ने शंखध्वनि की! गंगा सात भागों में विभक्त हो चली। मूलधारा भगीरथ के साथ चली।
वह स्थान हरिद्वार के नाम से जाना जाता है। हरिद्वार के बाद गंगा की मूलधारा भगीरथ का अनुसरण करतें हुए त्रिवेणी, प्रयागराज, वाराणसी होते हुए जंहु मुनि के आश्रम पहुँची।
भगीरथ की बाधाओ का यहा भी शेष न था। संध्या समय भगीरथ ने वही विश्राम करने को सोची, परन्तु विधाता ने ऐसा रचा ही कहाँ ? संध्या आरती के समय जंहु मुनि के आश्रम में शंखध्वनि हुई। शंखध्वनि का अनुसरण कर गंगा ने जंहु मुनि का आश्रम बहा लेगयी। ऋषि ने विचति हाकर अपने तेज के बलपर गंगा को एक चुल्लु में ही पान कराया।
भगीरथ आर्श्यय चकित हो प्रार्थना करने लगे। गा-मुनि के कर्ण-विवरो से अवतरित हुयी। गंगा यहाँ जहावी के नाम से प्रसिद्ध हुयी। कौतुहलवश जंहु मुनि की कन्या पद्मा ने भी शंखध्वनि की।
पद्मा वारिधारा में परिणत हो गंगा से साथ चली मुर्शिदाबाद के धुलियान के पास भगीरथ दक्षिण मुखी हुए। गंगा की वारिधारा पद्मा का संग छोड़कर शंखध्वनि के आकर्षण से दक्षिण मुखी हुयी।
पद्मा पूर्वकी और बहते हुए वर्तमान बंगलादेश को धन-धान्य से परिपूर्ण की। दक्षिण-गामिनी गंगा भगीरथ के साथ महामुनि कपिल के आश्रम तक पँहुची।
ऋषि ने वारि को अपने मस्तक से लगाया और कहा हे माता। पतितपावनी क्रलिकलुष-नाशिनी गंगे। पतितों के उद्धार के लिए ही तुम्हार मर्त्यपर अवतरण हुआ है। अपने कर्मदोष के कारण ही सगर के साठ हजार पुत्र क्रोधाग्नि का शिकार हुए है।
तुम अपने पारस रूपी पवित्र जल से उन्हे मुक्ति प्रदान करो माँ। वारि धारा आगे बढ़ी। भष्मराशि प्लावित हुआ। भगीरथ का कर्मयज्ञ सम्पूर्ण हुआ। धन्य हुआ “इश्वांकुवंश”। धन्य हुयी “भारतभूमि”। वारिधारा सागर में समाहित हुयी।
गंगा और सागर का यह पुण्य मिलन “गंगासागर” के नाम से सुप्रसिद्ध हुआ। आज भी महामुनि कपिल की प्रतिमा सागर की फेनिल-नील-जलराशि उस विरल मिलन की स्मृति को संजोये हुए है। आज गंगासागर एक प्रत्यन्त ग्राम नहीं, भारतीय संस्कृति का संगम स्थल है।