gokarna bhagwat katha गोकर्ण भागवत
गोकर्ण भागवत
देहेस्थिमांसरुधिरेभिमतिं त्यज त्वं |
जायासुतादिषु सदा ममतां विमुंच ||
पश्यानिशम् जगदिदम क्षणभंगनिष्ठम |
वैराग्यरागरसिको भव भक्तिनिष्ठ: ||
धर्मं भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान |
सेवस्य साधूपुरुषांजाहि काम तृष्णतां ||
अन्यस्य दोष गुण चिन्तन माशू मुक्त्वा |
सेवाकथारसमहो नितरां पिब त्वम् ||
उक्त श्लोक श्री मद्भागवत महापुराण के महात्तम के अंतर्गत आते है | श्री गोकर्ण महाराज अपने पिता को देह्जनित अभिमान को छोड़ने को कहते है | वे कहते है शरीर हड्डी मांस और रक्त का पिंड है , इससे आसक्ति हटाकर परमात्मा में आसक्त हो | भगवत भजन ही सबसे बड़ा धर्म है | दुसरो के गुण दोष छोड़कर भगवत सेवा एवं भगवत कथाओ का रसपान करे |
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