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श्री राम कथा Ram Katha Lyrics
✳ श्री राम कथा ✳
अखिल हिय प्रत्ययनीय परमात्मा, पुरुषोत्तम गुण गुण निलय , कौशल्या नंदनंदन परम ब्रह्म , परम सौंदर्य माधुर्य लावण्य सुधा सिंधु , परम आनंद रस सार सरोवर समुद्भूत पंकज, कौशल्या आनंद वर्धन अवध नरेंद्र नंदन श्री रघुनंदन , विदेह वनस् वैजयंती जनक नरेंद्र नंदनी, भगवती भास्वती परांबा जगदीश्वरी माँ सुनैना की आंखों की पुत्तलिका , विदेहजा जनकजा जनकाधिराज तनया, जनक राज किशोरी वैदेही मैथिली श्री राम प्राण वल्लभी श्री जानकी जी |
इन दोनों युगल श्री सीता रामचंद्र भगवान के चरण कमलों में कोटि-कोटि नमन नतमस्तक वंदन एवं अभिनंदन, चारों भैया और चारों मैया को कोटि-कोटि प्रणाम ,अनंत बलवंत गुणवंत श्री हनुमान जी महाराज के चरणों में बारंबार नमस्कार समुपस्थित भगवत भक्त श्रीरामकथानुरागी सज्जनों आप सभी को भी कोटि-कोटि नमन |
सज्जनों हम सब अत्यंत भाग्यशाली हैं जो कि वेद रूपी बाल्मीकि रामायण श्री राम कथा को सुनने का पावन संकल्प अपने हृदय में धारण किए हैं |कयी कयी जन्मों के हमारे पूण्य जब उदय होते हैं तब जाकर हमको यह भगवान की सुंदर कथा सुनने को पढ़ने को प्राप्त होती है |
सज्जनों- बाल्मीकि रामायण की कथा अतिशय रम्य है | यह सच है जितनी भी रामायण की रचना की गई सभी रामायणों में भगवान श्री राघवेंद्र के विषय में कुछ – कुछ है ! श्री भरत जी , लक्ष्मण जी और शत्रुघ्न के रूपों में | देखिए परमात्मा के रूप अनेक है पर स्वरूप एक ही है |
अनेक रूप रूपा़य विष्णवे प्रभु विष्णवे |
भगवान चार रूपों में आए तो, वेद भी चार थे और वेद एक रूप लेकर के बाल्मीकि रामायण के रूप में अपने श्री राघवेंद्र के गुणानुवाद करने के लिए आये | भगवान चार रूप ग्रहण कर लिए तो चारों वेद एक रूप धारण करके बाल्मीकि रामायण के रूप में अपने श्री राघवेंद्र के गुणानुवाद करने आए |
साक्षात वेद का अवतार ही है | वेद के रामायण के रूप में अवतार लेने की आवश्यकता क्या पड़ी ? यदि आप वेदाध्ययन करने चलें तो आज के समय में( आज के परिवेश में ) वेद को पढ़ना समझना बड़ा कठिन सा लग रहा है |
लेकिन जैसे परमात्मा को समझना बड़ा कठिन सा होता है, भगवान के अवतार के बिना उनके विज्ञान को समझा नहीं जा सकता | उसी प्रकार जब तक वेद का अवतार नहीं हुआ तब तक वेद को भी ठीक से समझ पाना बड़ा कठिन था|
तौ जैसे भगवान अवतार लेकर इस धरा पर आए तो सबके लिए सरल हो गये ( सहज हो गए ) वह जाकर शबरी जी के यहां शबरी से मिले , कोल भील लोगों को भी मिले , केवट को भी मिले और बंदर भालू के लिए भी सहज हो गए |
उसी प्रकार जब भगवान वेद अवतार लेकर के रामायण के रूप में आए तो वह भी सबके लिए सरल हो गए | यह भगवान वेद का अवतार है वह श्री रामायण का अवतार लेकर इस धारा में पधारे , जीवन में ज्ञान की कितनी उपयोगिता है इसको बताने की जरूरत नहीं है |
और वेद का अर्थ ही होता है ज्ञान की राशि ( ज्ञान का पुंज ) विद ज्ञाने धातु से वेद शब्द निस्पंन्न होता है , लेकिन हम अल्प ज्ञानी जीव जो वेद को नहीं समझते वेद को सरलतम ढंग से समझाने के लिए दो प्रकार के ग्रंथों की रचना हमारे यहां हुई– एक को इतिहास कहते हैं , दूसरे को पुराण कहते हैं !
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इतिहास पुराणाभ्यां वेदाभ्यां समुप बृंहयेत् |
इतिहास पुराण वेदो के समुप बृहंण के लिए हैं, अब प्रश्न उठता है कि हमें इतिहास की कथा सुननी चाहिए कि पुराण की कथा सुननी चाहिए , तो हमारे एक आचार्य स्वामी श्री लोकाचार्य जी कहते हैं–
उभयोर्मध्ये इतिहासप्रबलः |
अगर इतिहास पुराण की बात आती है तो हमें इतिहास की कथा सुननी चाहिए पुराण की अपेक्षा, तो इतिहास भी हमारे यहां दो हैं- एक है रामायण और दूसरा है महाभारत तो हम रामायण की कथा सुनें की महाभारत की कथा सुनें |
तो हमारे आचार्य कहते हैं कि- महाभारत की अपेक्षा हमें रामायण की कथा सुननी चाहिए ! रामायण का तात्पर्य है बाल्मीकि रामायण से , रामायण की कथा क्यों सुने इस पर बहुत सी बातें कही गई हैं अलग-अलग आचार्यों के द्वारा और वही आचार्य आगे लिखते हैं कि–
इतिहास श्रेष्ठेन कारागृहवासकतृय वैभवं मुच्यते |
यह रामायण श्रेष्ठ इतिहास है क्योंकि इसमें कारागृह वास कर्तृ श्री जानकी जी के वैभव का वर्णन है | देखिए श्री रामचरितमानस की अतिशय ख्याति हैो वर्तमान में , यदि रामचरितमानस में राम चरित्र की प्रधानता है तो महर्षि बाल्मीकि लिखते हैं–
काव्यं रामायणं कृत्स्नं सीतायां चरितं महत् |
कि बाल्मीकि रामायण में श्री सीता जी के चरित्र की प्रधानता है, और सीता जी के वैभव का वर्णन होने के कारण यह रामायण श्रेष्ठ इतिहास है | किस वैभव का वर्णन है | तो देखिये- श्री राम जी का जानकी जी से तीन विश्लेष हुआ, ( तीन वियोग हुआ ) पहला वियोग दंडकारण्य में, दूसरा वियोग भगवान ने जब जानकी जी को पुनः वन भेजा था, और वह महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रहीं, और तीसरा वियोग हुआ श्री जानकी जी जब धरती के भीतर प्रविष्ट हो गई थीं |
यह तीन वियोग हुए और हमारे आचार्यों ने कहा है– तीनों वियोग तीन कारण से हुये प्रथम वियोग- कृपापक्ष को प्रकाशित करने के लिए है , दूसरा वियोग- पारतंत्र को प्रकट करने के लिए और तीसरा वियोग- अनन्यार्हत को प्रकट करने के लिए है |
तो कृपा क्या है ? क्या रावण में इतनी सामर्थ्य थी कि जो जानकी जी का अपहरण कर – सीता जी को लंका ले जा सकता था ? मानस में तो गोस्वामी जी ने लिखा है- लक्ष्मण ने छोटी रेखा भी खींची थी |
रामानुज लघु रेख खिंचाई सो नहिं लांघइ अस मनुषाई |
रावण में इतनी सामर्थ्य भी नहीं थी कि जो लक्ष्मण जी के द्वारा खींची गई छोटी सी रेखा का उल्लंघन कर सके , तो क्या वह जानकी जी का अपहरण करने में समर्थ था | तो हमारे आचार्य कहते हैं– जानकी जी जानबूझकर के लंका में गई क्योंकि कहा कि दुष्टों का उद्धार कराने के लिए गई | देखिए–
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श्री राम कथा Ram Katha Lyrics
आनुकूलस्य भक्तिः प्रातिकूलस्य मुक्तिः |
हमारे आचार्यों ने कहा जो भगवान के अनुकूल होते हैं उसे भक्ति देते हैं और जो प्रतिकूल होते हैं उन्हें मुक्ति देते हैं |
जानकी जी की कृपा क्या है कहते हैं कि स्वयं को इसलिए बंधन में डाल दिया कि रावण जैसे दुष्ट व्यक्ति को मुक्ति दिला सकें , जानकी जी के वैभव का वर्णन जिस रामायण में हो वह रामायण श्रेष्ठ इतिहास है |
श्री राम कथा Ram Katha Lyrics
और दोनों के जीवन में एक बार समान घटना घटी दोनों के आंखों के सामने एक स्त्री की लाज लूटी जा रही थी, लेकिन आप पाएंगे कि महाभारत के इस सबसे बड़े पात्र पितामह भीष्म ने एक स्त्री की लुटती हुई लाज का खड़े होकर के विरोध नहीं किया और रामायण के इस छोटे से पात्र ने रावण के रास्ते को रोक लिया और रोक कर के कहा– रावण ‘ मैं जानता हूं तुम से युद्ध लडने में समर्थ नहीं हूं |
वृध्दोहं त्वमयुवाधन्वी शक्ती कवची शरी
मैं बूढ़ा हूं तुम युवा हो, तुम रथ पर हो मैं बिरथ हूं, तुम अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित हो मेरे पास कोई अस्त्र शस्त्र नहीं है, तुम्हारे पास अनेकों युद्धों का अनुभव है , मैंने कोई बड़ी लड़ाई जीवन में नहीं लड़ी है |
लेकिन यह भारत वर्ष है भारत का बाप कितना भी बूढ़ा हो जाए लेकिन उसके आगें, आंखों के सामने कोई उसकी बेटी को हाथ नहीं लगा सकता और आप पाएंगे रामायण के इस छोटे से पात्र ने इस मांस भक्षी पक्षी ने एक स्त्री की लाज की रक्षा के लिए अपने प्राण उत्सर्जित कर दिए ,आत्मोत्सर्जित कर दिए |
रामायण के एक छोटे से छोटा पात्र भी अपने जीवन से शिक्षा देता है, इसलिए हमें रामायण की कथा सुननी चाहिए | देखिए काव्य की तीन कोटियां हमारे यहां बताई गई हैं-तीन प्रकार के काव्य होते हैं-एक शब्द प्रधान, दूसरा अर्थ प्रधान, तीसरा व्यंग प्रधान |
शब्द प्रधान काव्य वेद हैं, अर्थ प्रधान काव्य महाभारत आदि और व्यंग प्रधान काव्य है श्रीमद् बाल्मीकि रामायण, जो शब्द प्रधान काव्य होता है वह प्रभु सम्मित होता है ,जो अर्थ प्रधान काव्य होता है वह सुहृत संम्मित होता है और जो व्यंग प्रधान काव्य होता है वह कांता सम्मित होता है |
तो जो वेद हैं वह प्रभु सम्मित हैं, जो महाभारत आदि हैं सुहृत संम्मित हैं और जो बाल्मीकि रामायण है यह कांता संम्मित काव्य है |
जैसे- उपदेश तीन प्रकार के होते हैं ना , पहला प्रभु सम्मित उपदेश या स्वामी सम्मित उपदेश , सुहृत सम्मित, कान्ता सम्मित उपदेश|
अब इसे ऐसे समझें किसकी बात ज्यादा समझ में आती है कोई स्वामी समझाए यह बात समझ में आती है? कोई मित्र समझाएं वह बात ज्यादा समझ में आती है? या आपकी पत्नी समझाए वह बात ज्यादा समझ में आती है? जैसे भगवान वेद कहते हैं ना-
धर्मं चर सत्यं वद, आचार्य देवो भव, मातृदेवो भव, पितृ देवो भव|
यह सब आदेश आत्मक है धर्मं चर- धर्म पर चलो, सत्यं वद- सत्य बोलो, यह सब आदेशात्मक है, और सुहृत सम्मित है जैसे भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता समझाई यह सुहृत संम्मित है , लेकिन जो बाल्मीकि रामायण में है यह कांता सम्मित उपदेश है | कांता समिति काव्य है | जो काव्य होते हैं कांता सम्मित होते हैं |
जैसे- पत्नी मीठी मीठी बातों के द्वारा अपने पति को समझाती है, वैसे यह का बड़े से बड़े सिद्धांतों को मीठे ढंग से समझा देती है | भगवत चरित्र का आश्रय लेकर के और हमारे एक आचार्य ने लिखा है कि शब्द प्रधान होने के कारण बाल्मीकि रामायण वेद की तरह है |
अर्थ प्रधान होने के कारण यह महाभारत और पुराणों आदि की तरह भी है और व्यंग प्रधान होने के कारण यह कांता सम्मित तो है ही , यह श्रेष्ठ काव्य है ही ( व्यंग का तात्पर्य है ) कि जहां एक शब्द कई अर्थों को व्यन्जित करते हों, अर्थ प्रगट करते हों उसे व्यंग प्रधान कहते हैं |
श्री गोविंद राज जी ने भूषण टीका में अधिकतम भगवत अनंतपादी स्वामी श्री रामानुजाचार्य जी के भावों को सहेज कर के रखा है, एक अचार्य ने तो बाल्मीकि रामायण को द्वयमंत्र की व्याख्या स्वीकार की है |
श्रीमन्नारायण चरणौ शरणं प्रपद्ये श्रीमते नारायणाय नमः
वह कहते हैं श्रीमन्नारायण की व्याख्या बालकांड में , चरणों की व्याख्या अयोध्याकांड में, शरणम् की व्याख्या अरण्यकांड में , प्रपद्ये की व्याख्या किष्किंधा कांड में, श्रीमते की व्याख्या सुंदरकांड में, नारायण की व्याख्या लंकाकांड में और नमः की व्याख्या उत्तरकांड में की गई है |
श्री माननीय सीता जी नारायण श्रीमान कैसे हुये ? नारायणावतार भगवान श्री राघवेंद्र है जब श्री सीता जी से ब्याह हुआ उनका तो श्रीमन्नारायण हुए, तो बालकाडं में श्री सीता राम जी की विवाह की चर्चा है, इसीलिए श्रीमन्नारायण की व्याख्या बालकांड में की गई है |
चरणों की व्याख्या अयोध्या कांड में की गई है चरणों में द्विवचन का प्रयोग है दो लोगों की शरणागति का वर्णन है, भैया लक्ष्मण की शरणागति अयोध्या में हुई है और भैया भरत की शरणागति चित्रकूट में हुई |
मां जानकी को जो प्रभु ने कहा कि आप मेरे साथ चलो तो लखन भैया का हृदय स्पंदित होने लगा मैं सेवक हूं मैं कैसे कहूंगा कि राघव भैया मुझे भी साथ ले चलो तो जब कोई उपाय नहीं देखा तो महर्षि बाल्मीकि ने लिखा है–
साभ्रातुस्चरणौ गाढं निरूप्य रघुनन्दन
लखन भैया ने दोनों हाथों श्री भैया राघवेंद्र के चरणों को पकड़ लिए, जब जीव निरूपाय हो जाए तो एक मात्र उपाय बचता है भगवत शरणागति का और यहां पर शरणागति जब लखन भैया ने की तो राम जी उनको साथ ले गए और जब भैया भरत चित्रकूट में गए तो–
पादाव प्राप्ति रामस्य परात भरतौ रुधम्
तो चरणों की व्याख्या अयोध्या कांड में की और शरणम् की व्याख्या—-
सारे ऋषि महात्मा आए भगवान की अंगुली पकड़े और कहते हैं प्रभु यह जो पहाड़ देख रहे हैं ना यह पत्थर मिट्टी के नहीं हैं , हम संतो के मांस को खाकर राक्षस यही हड्डियां फेंक देते हैं यह संतों की हड्डियों का पहाड़ है |
राम जी के नेत्र सजल हो गए, जो शरण में आया राम जी ने प्रतिज्ञा करी—
तो शरणम की व्याख्या अरण्यकांड में की गई और प्रपद्ये की व्याख्या किष्किंधा कांड में, प्रपद्य कहते हैं पांव पकड़ने वाले को | हनुमान जी राम जी को पीठ पर बिठाल कर लाए—
पृष्ठ मारोप्यितो वीरो जगाम कपि कुन्जराः |
जीवन में श्रेष्ठ सदगुरु मिल जाए तो भगवान को पीठ पर बिठा कर लाता है और जीव की शरणागति करा देता है और जब सुग्रीव जी ने शरणागति ग्रहण कर ली, सुग्रीव की रक्षा भई |
और पुनः श्रीमते की व्याख्या सुंदरकांड है- राम जी फिर श्रीहीन हो गए थे–
रावण जानकी जी का हरण कर लिया था और हनुमान जी ने आकर कहा—
नियतां अक्षतां देवी राघवाय निवेदयत
वह नियत है और अक्षिता है, फिर से श्रीमान राम जी हो गए | तो श्रीमते की व्याख्या सुंदरकांड में की गई नारायण के लिए ही हर कोई है, भगवान श्री राघवेंद्र ने रणक क्रीडा करी और इन सारे लंका के दुष्टों को अपने धाम में भेज दिया |
और फिर नमः की व्याख्या उत्तरकांड में है , देखिए- दोनों चाहे रामचरितमानस का उत्तरकांड हो, चाहे बाल्मीकि रामायण का इसमें भगवान के परत्व का प्रतिपादन किया गया है |
और नमः माने नमस्कार के योग्य शरणागति कुयोग्य एकमात्र भगवान राम ही हैं | इस बात को वहां पर सत्यापित किया गया है, तो आचार्यों ने इसको शरणागति की व्याख्या स्वीकार किया है | संसार के जितने भी काव्य हैं उन सारे काव्यों का उपजिव्य कोई है तो श्रीमद् बाल्मीकि रामायण है |
परवर्ति जितने भी साहित्य हैं सबको किसी ने प्रभावित किया है , चाहे वह पैराटाइज लास्ट हो (जार्ज मिल्टन की रचना है संभवतः) चाहे भाष्य हों, कालिदास हों, भारवि हों, माघ हों आगे चलकर कालिदास जी हों सबका जो उपजिव्य काव्य है वह श्रीमद् बाल्मीकि रामायण ही है |
पठरामायणं व्यासं काव्य बीजं सनातनम् |
जब मैंने उस सनातन काव्य के आदि बीज बाल्मीकि रामायण का स्वाध्याय किया तब हममें श्लोक बनाने की क्षमता आई ,यह श्री वेदव्यास जी ने स्वीकार किया है जो पुराणों के रचयिता हैं, वह वेदव्यास जी भी स्वीकार करते हैं कि हमारा उपजिव्य ग्रन्थ भी श्रीमद् बाल्मीकि रामायण ही है |
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निवेदन यह करना है कि जब यह वेदावतार है तो कोई यह अन्वेषण करे कि भाई वेद कब से हैं ? एक मन में विचार आता है तो यदि हम आप से पूछें कि बताइए कि आपकी स्वांस कब से है ? आप क्या कहेंगे- आपकी श्वांस कब से है , कहा जब से आप हैं तब से आपकी श्वांस है , सांस ना हो तो आप नहीं होंगे | तो वेद भगवान के स्वांस हैं—–
गोस्वामी जी भी कहते हैं–
तो वेद भगवान के स्वांस है इसका मतलब जब से भगवान हैं तब से उनकी स्वांस है, तात्पर्य कि जब से भगवान हैं तब से वेद हैं तो हम लोग आज भी काल निर्धारण के चक्कर में पडते हैं कि वेदों का काल निर्धारण किया जाए कि वेद कब से हैं ?
दुनिया का कोई भी ऐतिहविद आज तक वेद का काल निर्धारण नहीं कर सका क्योंकि वह जिस काल में भी ढूंढते हैं उस काल में वेद पाए ही जाते हैंं तो यह वेद अनादि हैं |
ऐसा वेदावतार यह श्रीमद् बाल्मीकि रामायण है , हमारे आचार्यों ने इसमें खूब डुबकी लगाई खूब रसास्वादन किया समास्वादन किया |
रामायण कहते किसको हैं ? तो पहले कहा पहले तो—
रामस्य अयनं रामायणम् |
राम जी का निवास हो वह रामायण है , जो राम जी का घर हो वह रामायण है, जिसमें राम जी निवास करे वह रामायण है |
श्रीरामस्य चरितान्वितं काव्यं रामायणम् |
जो श्री राम चरित्र से युक्त काव्य हो वह रामायण है , लेकिन एक आचार्य ने कहा कि यहां–
( अय गतौ धातु है ) और ल्युट का अन् होता है उससे रामायण शब्द बना |
तो जो भगवान श्री राघवेंद्र की प्राप्ति करा दे उसे कहते हैं रामायण | यह समझने वाली बात है कि कथा रामायण की हो तो प्राप्ति राम जी की होनी चाहिए ( अथवा )
श्री रामः अय्यतेप्रतिपाद्यते अनेन तद रामायणम् |
जो भगवान श्रीराम का ही प्रतिपादन करें वह रामायण है ,माने कथा रामजी की हो तो प्रतिपादन भी भगवान श्री राम जी का होना चाहिए |
कभी-कभी ऐसा भी होता है की कथा रामायण की हो और उसमें चरित्र सारे भागवत वाले सुनाए जाते हैं, तो रामायण की कथा में जो प्रतिपादन हो वह राम चरित्र का हो अथवा एक तन्निश्लोकी का हमारे दाक्षणाचार्य हैं उन्होंने अर्थ किया है कि—
रामा माने जानकी जी के चरित्र को ही राम कहा जाता है—
मतलब जानकी जी के चरित्र से सम्प्रित्य जो गुम्फित जो काव्य हो उसी को कहा जाता है रामायण | इसीलिए महर्षि बाल्मीकि कहते हैं–
काव्यं रामायणं कृष्नं सीतायास्चरितं महत् |
का चरित्र से अच्छा, यहां महत विशेषण सीता जी का चरित्र का है , महत का राम जी के चरित्र में महत विशेषण नहीं लगा है, तो ऐसे ही श्री सीता चरित्र युक्त बाल्मीकि रामायण में हम सब प्रवेश करें |
बाल्मीकि रामायण में राम जी के गुणों के विषय में प्रश्न किया गया
और आरंभ में तो 16 गुणों की चर्चा महर्षि बाल्मीकि जी ने नारद जी से की और नारद जी ने 68 गुण और सुना दिए साथ में, सब 84 गुणों की चर्चा है |
और राम जी के गुणों की चर्चा उनके भक्तों में नहीं होगी तो कहां होगी हमारे राम भक्ति शाखा में रसिक संप्रदाय के संस्थापक स्वामी युगलानंद जी महाराज ने एक श्री रघुवर गुणदर्पण नाम का ग्रंथ लिखा है, उसमें उन्होंने लिखा है कि साधनावस्था में जीवो का अवलंबन तो भगवान के गुण ही होते हैं , सिद्धा वस्था में भले हम उनके रूप माधुर्य का स्वाद ले सकें लेकिन साधनावस्था में तो हमारा अवलम्बन ही भगवान के गुण ही हैं |
एक बात और कहूं आपसे- गोस्वामी जी ने धर्म के स्वभाव की व्याख्या बहुत की है, कोई गोस्वामी जी से पूछे आप जरा धर्म को परिभाषित करें तो एक जगह गोस्वामी जी कहते हैं–
सत्य के समान कोई दूसरा धर्म नहीं है और दूसरी जगह कहते हैं–
दूसरे के हित के समान कोई धर्म नहीं है यहां भी समान शब्द का प्रयोग करते हैं, यहां भी सरिस शब्द का प्रयोग करते हैं | किसी ने पूछा कि महाराज आप निश्चित बात बताएं कि सत्य के समान कोई दूसरा धर्म नहीं है, कि परहित के समान कोई दूसरा धर्म नहीं है | तो संतो ने कहा कि यह सब धर्म के स्वभाव हैं, धर्म का स्वरूप क्या है ? तो महर्षि बाल्मीकि ने कहा- धर्म के स्वरूप को देखना है तो
रामो विग्रह वान धर्मः साधुः सत्यत्वास्त्तमः |
राम जी धर्म के विग्रह हैं, राम जी साक्षात धर्म के स्वरूप हैं, राम जी को देख लो धर्म को समझ जाओगे | राम जी का उठाना, चलना, बोलना, राम जी की जीवन की प्रत्येक क्रियाएं यहां तक शत्रु के साथ भी जो राम जी का व्यवहार है वह भी धर्म संश्लिष्ट है , वह भी धर्म युक्त है |
दृष्टांत महासागर drishtant mahasagar
तो राम जी साक्षात धर्म के विग्रह हैं और एक बात और है धर्म को समझना हो तो हमारे यहां धर्म के 10 लक्षण बताए गए हैं |
ये 10 चीजें जिनमें हो तो आप समझिए वास्तव में वह धार्मिक है | आप पाएंगे कि रावण के दस सिर तो हैं, लेकिन यह धर्म के दस लक्षण दिखाई नहीं दे रहे हैं , बहुत से लोग तो रावण को भी बड़ा धार्मिक स्वीकार करने को तैयार होते हैं रावण में दस सिर हैं लेकिन रामजी में दश लक्षण हैं |
इसको आप समझेंगे धर्म के समस्त लक्षण भगवान श्री राघवेंद्र के जीवन में परिघटित होते दिखाई देते हैं | इसलिए श्री बिंदुपाद जी ने बड़ी सुंदर रचना की है कि यदि धर्म को सच्चे अर्थ में समझना हो और धर्म पर चलना हो तो सबसे पहले आपको रामायण की कथा सुननी चाहिए , क्योंकि निज धर्म को समझाने की क्षमता तो रामायण की ही पंक्तियों में है |
बिंदुपाद के शब्दों में हम लोग देखें निज धर्म पर तो रामायण ही चलना सिखाती है, गोस्वामी श्री बिंदु पाद जी ने अपने शब्दों में यह बात कही–
धर्म को समझना हो तो हमें रामायण की कथा समझनी पड़ेगी, आइए श्री बाल्मीकि रामायण में प्रवेश करते हैं क्योंकि हम समय की व्यस्तता को समझते हैं बहुत कम समय है यह प्रथम दिन की कथा है तो प्रवेश हो जाए, क्योंकि बाल्मीकि रामायण में दूसरे दिन ही राम जी का जन्म होता है , तो दूसरे दिन की कथा में तो अयोध्या के राजमहल में जन्मोत्सव मनाया जाएगा |
तो यथा किचिंत थोड़ा सा प्रवेश हम लोग करलें देखिए बाल्मीकि रामायण का आरंभ ऋषियों के संवाद से आरंभ होता है, महर्षि बाल्मीकि वर्णन कर रहे हैं—
ॐ तपः स्वाध्याय निरतं ॐ लगाया है वेद मंत्रों में जैसे ॐ लगता है, वैसे बाल्मीकि रामायण के भी आरंभ में ॐ है ,प्रणव शब्द | तपः स्वाध्याय निरतं , देखिए तवर्ण से बाल्मीकि रामायण का आरंभ होता है और अद्भुत बात यह है कि त अक्षर पर ही बाल्मीकि रामायण का अंत भी होता है |
जगाम त्रिदिवं महत, तकार से आरंभ और तकार से अंत , बाल्मीकि रामायण में चौबीस हजार श्लोक हैं, आप सभी लोग ब्रह्म गायत्री से परिचित होंगे ब्रह्म गायत्री में भी चौबीस ही अक्षर होते हैं | ॐ यह प्रणव है भुः भुवः स्वः यह तीन व्याघ्रतियां हैं, मंत्र का आरंभ होता है- तत्सवितुर्वरेण्यं- तकार से आरंभ होता है और प्रचोदयात के तकार पर मंत्र का अंत होता है | जैसे ब्रह्म गायत्री का आरंभ त से हो कर ता पर अंत होता है वैसे ही,,,
बाल्मीकि रामायण का आरंभ भी त से होता है और ता से ही अंत होता है |
जैसे उसमें चौबीस अक्षर हैं, वैसे बाल्मीकि रामायण में चौबीस हजार श्लोक हैं, हमारे आचार्यों ने माना है कि एक एक अक्षर पर एक हजार श्लोकों की रचना की है और जैसे त के बाद अगला वर्ण गायत्री मंत्र में स है, ऐसे छंद में हलंत वर्ण का ग्रहण नहीं होता अकारांत का ही ग्रहण होता है तो त के बाद दूसरा अक्षर है स वैसे ही एक हजार श्लोक के बाद इसमें भी अगला अक्षर स है इस वैज्ञानिक रूप से बाल्मीकि रामायण का आरंभ है |
वैसे आपने सुना होगा गोपी गीत की रचना कनक मंजरी छंद में की गई है, तो जो प्रथम चरण का दूसरा अक्षर है वह दूसरे चरण का दूसरा अक्षर, वही तीसरे चरण का दूसरा अक्षर , वहीं चौथे चरण का दूसरा अक्षर |
जयति तेधिकं तो ज के बाद य है , जयति तेधिकं जन्मना व्रजः तो फिर श्रयत इन्दिरा –श्र के बाद पुनः य है,
श्रयत इन्दिरा शस्वदत्र हि फिर दयित दृश्यतां तीसरे चरण में दूसरा अक्षर है य दयित दृश्यतां दिक्षुतावकास् फिर त्वयि धृता सवस्त्वां विचिन्वते | फिर दूसरा अक्षर चौथे चरण का भी य है |
तो एकात गीतों पर कहीं वैज्ञानिकता दिखती है लेकिन बाल्मीकि रामायण के संपूर्ण रचना में तो वैज्ञानिकता ही दिखाई देती है | किसी ने गोस्वामी जी से पूछा कि बाबा आपकी दृष्टि में श्री सीताराम जी के गुण ग्राम का सबसे अधिक जानकार कौन है ?
गोस्वामी जी कहते हैं मेरी दृष्टि में दो लोग–
दोनों शुद्ध नहीं विशुद्ध है दोनों ज्ञानी नहीं विज्ञानी हैं, यह कौन है कहा हमारी दृष्टि में एक हनुमान जी हैं और एक महर्षि बाल्मीकि हैं | तो किसी ने पूछा की आप हनुमान जी को पहले महत्व दोगे कि महर्षि बाल्मीकि को ? तो गोस्वामी जी कहते हैं मैं पहले महर्षि बाल्मीकि को महत्व दूंगा –
वंदे विशुद्ध विज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ
पहले कवीश्वर फिर कपीस्वर | और आरंभ में भी विज्ञानी कहा ऐसे विशिष्ट ज्ञान या ऐसे कहें कि विशेष ज्ञान है महर्षि वाल्मीकि का | गायत्री मंत्र की संपूर्ण व्याख्या बाल्मीकि रामायण को स्वीकार किया गया |
तपः स्वाध्याय निरतं |
आचार्य को कैसा होना चाहिए तपस्वी भी होना चाहिए स्वाध्यायी भी होना चाहिए , केवल तपस्वी व्यक्ति भी आपके प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता और केवल स्वाध्यायी भी आपके प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता | श्रेष्ठ आचार्य वह है जिसमें तपस्या भी हो और स्वाध्याय भी हो–
तपश्च स्वाध्यायश्च तपः स्वाध्यायौतयोर्निरतं तप स्वाध्याय निरतं |
और दूसरा अर्थ है– तप कहते हैं ब्रह्म को, ब्रह्म के स्वाध्याय से निरंतर लगा रहे ऐसा आचार्य श्रेष्ठ आचार्य है अथवा तप कहते हैं वेद को जो वेद के स्वाध्याय में निरंतर लगा रहे ऐसा आचार्य श्रेष्ठ आचार्य होता है |
और दूसरा विशेषण है- वाग्विदां वरम् वाक शब्द के दो अर्थ होते हैं—-
उच्चते असौ इति वाक्-उच्चते अनया इति वाक |
जिसका उच्चारण किया जाए उस वेद को भी वाक कहते हैं और जिसकी कृपा से उच्चारण किया जाए उस सरस्वती को भी वाक् कहते हैं |विद् लृ धातु भी और विद् ज्ञाने धातु भी है , तो इसका अर्थ हुआ कि जो वेद विद थे ( जो वेदों को जानने वाले थे ) श्रेष्ठ थे ऐसे नारद जी आचार्य थे अथवा सरस्वती की कृपा लाभ को भी पाने वाले नारद जी थे | आचार्य में दोनों होना चाहिए वेद का भी बोध हो और सरस्वती की कृपा भी हो वही श्रेष्ठ आचार्य होता है | और तीसरा विशेषण है–मुनि पुङ्गवम्
जो मनुष्य मननशील हो वह मुनि है |
मननाति इति मुनि पुङ्गव माने श्रेष्ठ, उस समय जितने भी मननशील लोग थे उसमें श्रेष्ठ थे देवर्षि नारद | एक बात और कहूं उपनिषद में कहा गया है–
तद् विज्ञानार्थं सगुरोमेवाभिगच्छेत
यदि विज्ञान पाना हो- विशेष ज्ञान पाना हो तो गुरु जी की शरण में जाओ ! कैसे गुरु की शरण में जाओ ? तो कहा– समितपांणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं
जो श्रोत्रिय हो और ब्रह्मनिष्ठ हो, श्रोत्रिय गुरु | आचार्य उसे कहते हैं जिसको श्रुति माने वेद का ज्ञान हो और ब्रह्मनिष्ठ आचार्य उसे कहते हैं जिसे ब्रह्म का साक्षात्कार किया हो | श्रोत्रिय आचार्य श्रुति ज्ञान से शिष्य के संशय का उच्छेदन करते हैं और ब्रह्मनिष्ठ आचार्य ब्रह्म साक्षात्कार कराकर शिष्य के जीवन के संशय का उन्मूलन कर देते हैं |और देवर्षि नारद श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ दोनों प्रकार के आचार्य हैं
तपः स्वाध्याय निरतं और वाग्विदां वरम् |
यह दो विशेषण उनके श्रोत्रिय होने का प्रमाण है, और मुनिपुङ्गवम् उनके ब्रह्मनिष्ठ होने का प्रमाण है | और शिष्य को कैसा होना चाहिए कहा- तपस्वी होना चाहिए या वक्ता में तीन गुण हों |श्रोता को तपस्वी होना चाहिए-
तपो न्यासः न्यासः शरणागतिः |
श्रेष्ठ शिष्य वह है जो शरणागत हो अथवा श्रेष्ठ श्रोता वह है जिसने शरणागति ले ली हो जो वैष्णव हो , क्योंकि भागवत के महात्म्य में कहा गया है |
तो यहां पर तपस्वी एक तात्पर्य यह भी है जो वैष्णव है वह श्रेष्ठ श्रोता है | क्योंकि वह कथा सुनना जानता है और इस बाल्मीकि रामायण के श्रोता तो रामजी हैं, अभी इसकी चर्चा आगें आएगी दुनिया की जितनी कथाएं हुई हैं सबके श्रोता भक्त दिखाई देते हैं , लेकिन यह ऐसी कथा है बाल्मीकि रामायण की जिसके श्रोता स्वयं भगवान ही हैं |
एक बात और कहूं वेद का अधिकार हर किसी को प्राप्त नहीं है लेकिन वही वेद जब रामायण के रूप में अवतार लेकर के आए तो इसमें सब का अधिकार हो गया , जो फल वेद परायण से होता है वही फल बाल्मीकि रामायण के पारायण, श्रवण से मिलता है | तो तपस्वी बाल्मीकि ने देवर्षि नारद से शोलह प्रश्न पूछें कौन कौन–
एक बात और निवेदन कर दूं जिज्ञासा से ही हमारे भारतीय दर्शन का आरंभ होता है , दर्शन का तात्पर्य है वह ग्रंथ जिसके माध्यम से ईश्वर को देखा जा सके | दृश्यते अनेनेति दर्शनम् |
अथवा जैसे आप लोग मैथमेटिक्स पढ़े होंगे उसमें अलजेब्रा,मैनश्योरेशन,त्रिकोणमिति पढ़ते हैं तो आपने अलजेब्रा में पड़ा- (a + b)2 = a2 + b2 + 2ab अपने एक सूत्र याद कर लिया तो सारे गणितीय सूत्र हल होते जाते हैं , वैसे ही ब्रह्म सूत्र का तात्पर्य है, जो ब्रह्म को हल कर दे सरलतम ढंग से सहज ढंग से | एक सूत्र आ गया तो आप धर्म के विज्ञान को समझ सकते हैं, और ब्रह्म सूत्र का आरंभ होता है-
अथातो ब्रह्म जिज्ञासा
तो जैसे वेदांत का आरंभ ब्रह्म जिज्ञासा से होता है वैसे बाल्मीकि रामायण का आरंभ भी ब्रह्म की जिज्ञासा से होता है | रामचरितमानस में भी ब्रह्म जिज्ञासा ही है–
राम कवनु प्रभु पूछहुं तोही
कहहि बुझाई कृपा निधि मोही | अथवा
प्रथम सो कारण कहो बिचारे
निर्गुण ब्रह्म सगुण वपु धारे |
पुनि प्रभु कहेउ राम अवतारा
बाल चरित पुनि कहेउ उदारा |
कहेउ जथा जानकी ब्याही
राजा तजा सो दूषण काही |
आदि लेकिन वेदांत की जिज्ञासा में जो उत्तर दिया गया वह है- जन्माद्यस्य यतः
हमारे आचार्य कहते हैं शुष्ठु उत्तर है | लेकिन बाल्मीकि रामायण की जिज्ञासा के बाद जो उत्तर दिया गया है यह सरस जिज्ञासा है क्योंकि यहां उत्तर में भगवान के गुणों की चर्चा की गई है और भगवान के गुण बड़े सरस होते हैं |
इसलिए वेदांत की ब्रह्म जिज्ञासा की अपेक्षा बाल्मीकि रामायण की ब्रह्म जिज्ञासा श्रेष्ठ है, ऐसा हमारे आचार्यों ने स्वीकार किया है |महर्षि बाल्मीकि ने पूछा इस समय वर्तमान में धरती पर गुणवान कौन है गुणवान का अर्थ होता है सीलवान कौन है |
गुण्यते आवत्यते आश्रितजनैः पुनः पुनः अनुसन्धियते इति गुणः स्वशिल्यम् |
श्री गोविंद राज जी ने गुण शब्द का अर्थ है शील से लिया है और राम जी के सील की बड़ी विशद विवेचना की गई है | एक निवेदन करूं एक घटना मिलती है हनुमन्नाटकं में इसका जिक्र है और बाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड में भी इसका सूत्र है , रावण एक सेनापति के मरने के बाद में युद्ध करने राम जी से आ गया राम जी ने विभीषण से पूछा भाई यह कौन है ? मित्र यह कौन है ?
तो विभीषण ने कहा प्रभु यह तो भैया लंकेश हैं राम जी ने कहा अभी तो बड़े बड़े योद्धा हैं मेघनाथ,कुंभकरण हैं मध्य में युद्ध करने कैसे आ गया रावण ? तो विभीषण जी ने कहा प्रभु यह अपने सेनापति से बहुत प्रेम करते थे इसलिए आ गए , राम जी ने कहा आया है तो लड़ने तो जाना पड़ेगा रामजी लड़ने आए राम जी ने रावण के छत्र चंवर को काट दिया सारथी को मार दिया रथ को भंग कर दिया, रावण निहत्था निहाल रणाङ्गण में खड़ा था रावण थर थर कांप रहा था रावण को लगा कि श्रीराम का अगला बांण मेरा प्राणांत कर देगा |
लेकिन जब बहुत क्षण व्यतीत हो गए रावण कांपता हुआ नेत्र खोला तो देखा मुस्कुराते हुए श्रीराम सामने खड़े थे , और भगवान श्री राम ने कहा रावण मै निहत्थे पर वार नहीं करता जाओ पूरा स्वस्थ होकर आना फिर मुझसे युद्ध करना रावण आज वापस आया, रात की बेला है महल की सबसे ऊपरी छत पर टहल रहा था पीछे से मंदोदरी ने कंधे पर हाथ रखा कहा महाराज आंखों में नींद नहीं है ?
रावण ने कहा मंदोदरी एक हृदय की बात कहूं मंदोदरी ने कहा- महाराज कहो , अच्छा यह बतलाओ दुनिया श्रीराम के विषय में क्या क्या कहती है मुझे बताओ ! अच्छा बताओ दुनिया कहती है ना कि पुत्र हो तो राम की तरह ? मंदोदरी ने कहा महाराज सच तो यही है दुनिया कहती है पुत्र हो तो श्रीराम की तरह |
रावण ने कहा मंदोदरी दुनिया कहती है ना कि भाई हो तो राम की तरह ?
मंदोदरी ने कहा हमारा हां सच तो यही है दुनिया कहती है भाई हो तो राम की तरह !
रावण मंदोदरी से पुनः कहा दुनिया कहती है ना मित्र हो तो राम की तरह ?
मंदोदरी ने कहा महाराज यह भी सत्य है दुनिया कहती है मित्र हो तो राम की तरह !
रावण ने कहा मंदोदरी आज रावण कहता है कि यदि शत्रु भी हो तो राम की तरह हो तो जीवन धन्य हो जाए | आज रावण का जीवन धन्य हो गया क्योंकि राम की तरह सत्रु मिला ,
राम जी की ऐसी शीलता है जिसने शत्रु के हृदय को भी जीत लिया |
वैरिव राम बड़ाई करहीं |
समुद्र पार जाना था दोनों लोग खड़े थे अपना भाई और शत्रु का भाई , राम जी ने पूछा कैसे समुद्र के पार जाऊं ? अपने भाई ने कहा बांणो से शोषित कर लो ! शत्रु के भाई ने कहा प्रार्थना करो , राम जी ने अपने भाई की बात नहीं मानी शत्रु के भाई की बात मान ली , तीन दिन तक बैठे रहे समुद्र सामने नहीं आया तब–
चापमान स्वामित्रे
लक्ष्मण लाओ धनुष मैं इस समुद्र का शोषण करूंगा, लखन भैया ने कहा भैया तीन दिन पहले तो हमारी बात नहीं मानी, आपने तब तो शत्रु के भाई की बात मान ली | आज अपने भाई की बात याद आ रही है , आपने लड़ाई के तीन दिन सत्रु को दिए, शत्रु सावधान हो गया होगा |
तो रामजी ने कहा लक्ष्मण रावण को जीतना बड़ी बात नहीं है , रावण को कभी भी जीत सकता हूं लेकिन इन तीन दिनों में मैंने विभीषण के हृदय को जीता है और यह ज्यादा महत्व देता है | हृदय पर जीत ज्यादा महत्वपूर्ण होती है और स्थल , स्थल पर तो रामजी की शीलता ने दुश्मनों के हृदय पर भी जीत प्राप्त कर ली है |
मित्र के हृदय को तो जीत ही लेते हैं , विभीषण ने देखा जिस प्रभु ने अपने भाई की बात नहीं मानी मेरी बात स्वीकार कर ली है, वह विभीषण कभी श्रीराम के विमुख हो ही नहीं सकता |
यह सब रामजी की नीतियां हैं और प्रत्येक नीति का परिपालन राम जी ने शीलता के साथ किया है, तो महाराज यह बताइए कि शीलवान कौन है-
वीर्यवान कौन है, पराक्रमवान कौन है, धर्मज्ञ कौन है, धर्म के तत्व को जानने वाला कौन है, किए के उपकार को भूलने वाला कौन नहीं है |
आज आप दुनिया में सौ उपकार कर दें लोगो का भूल जाएंगे एक अपकार कर दें याद रखेंगे | और राम जी का कोई सौ अपकार कर दे भूल जाएं और एक उपकार कर दे तो जीवन भर नहीं भूलते | कृतज्ञ कौन है , सत्य वाक्य कौन है, धृडवृत कौन है, चरित्र से युक्त कौन है ?
अपना ही दुनिया करती है | सर्वभूतेषु कोहित: | ऐसा कौन है, विद्वान कौन है, समर्थ कौन है,
एक प्रियललस्यन
कौन है और एक एक गुण राम जी के ब्रह्मत्व के प्रतिपालन के लिए है इसको सुना तो देवर्षि नारद ने कहा–
इक्ष्वाकु वंश प्रभवो रामानाम जनैः श्रुतः |
यह सारे गुण इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न भगवान श्रीराम में पाए जाते हैं | महर्षि बाल्मीकि को प्रश्न का उत्तर मिला वह आए , एक दिन अपने शिष्य भरद्वाज के साथ तमसा के तट पर स्नान करने आते हैं, प्रातः काल की सुमधुर वेला है, कल-कल निनाद करते हुए तमशा की धारा प्रवाहित हो रही है , वृक्षों के घोसले से जो पक्षी के बच्चे हैं वह झांक रहे हैं बाहर की ओर, जो पशुओं का वृंद है वह पूछ उठाकर इधर उधर भाग रहे हैं , जो तमसा के तट पर लगी वृक्षाबलिया हैं और प्रातः काल के पावन पवन के प्रवाह के कारण जब उसके पत्ते हिलते हैं, उससे सुमधुर ध्वनि प्रतीत होती है , जो महर्षि बाल्मीकि के मन को मुग्ध कर रही है | ऐसा प्राकृतिक सौंदर्य, ऐसी नैसर्गिक छटा…
महर्षि बाल्मीकि के हृदय को प्रफुल्लित कर रही है |
कभी प्रवाहित होते तमसा के जल को देखते, कभी पक्षियों के मधुर कलरव को सुनते , कभी फुदकते हुए पशुओं को देखकर खुश होते, जिधर भी दृष्टि जा रही थी बहुत मनोरम दृश्य था | उसी समय एक वृक्ष के ऊपर दृष्टि गई देखा एक क्रौंच पक्षी आपस में प्रेमालाप कर रहे हैं , मिथुनावस्था में हैं, जैसे महर्षि बाल्मीकि की दृष्टि गई सहसा एक सनसनाता हुआ तीर आया और नर क्रोन्च के हृदय को भेद कर दिया |
देखते ही देखते वह नर क्रौंच धड़ाम से धरती पर नीचे गिर गया, कुछ देर तडफा उसके बाद उसकी मौत हो गई, अपने क्रौंच को मरते देख करके वह क्रोंची जोर-जोर से विलाप करने लगी , जोर-जोर से रुदन करने लगी उसके करुण विलाप को सुनकर के महर्षि बाल्मीकि के हृदय से सहसा एक शोक प्रकट हुआ और यह शोक ही दुनिया का प्रथम श्लोक बन गया |
यह दुनिया का प्रथम श्लोक है, वेद की ऋचाओं के बाद दुनिया का प्रथम प्रकट होने वाला यह श्लोक है | संपूर्ण काव्य कानन का प्रथम बीजाक्षर है यह श्लोक, जैसे एक बीज में अनंत वृक्ष और उन अनंत वृक्षों में अनंत बीज- उन अनन्त बीजों में अनेकों वृक्ष छिपे होते हैं |
वैसे ही दुनिया के इस प्रथम सनातन काव्य बीज में अनेकसः काव्य वृक्ष छिपे हुए हैं | इसी को आधार मानकर संसार के सारे काव्य प्रकट हुए, उन समस्त काव्यों का जो सनातन बीज है, वह यह प्रथम श्लोक है |(मानसाद प्रतिष्ठां•)
इसी को लेकर सुमित्रानंदन पंत ने लिखा है–
दुनिया की पहली कविता तो पीड़ा से ही प्रगट हुई होगी , और सच है कविता का प्रकटीकरण और काव्य का सुप्रण हो या कहीं से कोई रचना प्रगट होती है, तो वह बिना पीड़ा के , बिना वेदना के प्रगट नहीं हो सकती | वेदना से ही काव्य का प्रकटीकरण होता है |
एक संत कह रहे थे- जीवन में वेद नहीं है तो बहुत घबराने की बात नहीं है , लेकिन यदि वेदना ना हो तो जीवन मुश्किल हो जाएगा | जीवन में वेदना का होना आवश्यक है और बाल्मीकि रामायण की जो उपलब्धि है वह हृदय में वेदना को प्रकट करती है |
बाल्मीकि रामायण की कथा हृदय को सम्बेदित बना देती है, और हमारे यहां कहा जाता है- तपस्या भी पाषाण तप हो तो उसका भी कोई मतलब नहीं है यदि हृदय में वेदना ना हो | वेदना से ही हृदय का दृवीकर होता है और व्यक्ति भक्त बनता है | जैसे–
भक्त को भात को संस्कृत में भक्त कहते हैं |
चावल की कठोरता खत्म हो जाए तो भात बनता है, वैसे ही हृदय की जब कठोरता खत्म होती है वेदनाओं से वह सच्चे अर्थ में भक्त बनता है और बाल्मीकि रामायण की कथा की उपलब्धि यह है , जीवन की कठोरता को खत्म करके हृदय की पाषाणता को खत्म करके उसको संबेदित करके सच्चे अर्थों में हमें भक्त बनाती है |
और भक्त होना ही वह पात्रता है जो सहजता से हमें परमात्मा की उपलब्धि करा दे | विष्णु सहस्त्रनाम में भगवान को काव्य कहा गया है भगवान का एक नाम ही काव्य है , और–
काव्य का प्रकटीकरण बेदना से होता है,
इसका मतलब परमात्मा को प्रगट करना हो तो हृदय में बेदना का होना आवश्यक है,और यह काव्य प्रगट हुआ|
यह बाल्मीकि रामायण वेद का अवतार है और महनीय महारग महान ग्रंथ है, इस दुनिया का प्रथम महाकाव्य है | इसके पूर्व केवल वैदिक वांग्मय हमारे जीवन में था , यह विश्व वांग्मय का प्रथम महाकाव्य कहलाया और महर्षि वाल्मीकि आदि कवि के नाम से अभिहित हुए |
गोस्वामी जी ने भी जो रामायण जी लिखी है उसमे आरती लिखी है, उसमें लिखा- व्यास आदि कवि वर्ज बखानी ! आदि कवि वर्य कौन है ? कहा आदि कविवर्य महर्षि बाल्मीकि हैं, और यदि महर्षि बाल्मीकि नहीं होते तो आज हमारे जीवन में इस रूप में रामकथा नहीं होती |
उसी प्रकार राम कथा की गंगा सर्वप्रथम कहां से चली ?
जब आप इसका अन्वेषण करेंगे तो आप पाएंगे यह राम कथा की गंगा सर्वप्रथम महर्षि बाल्मीकि के लेखनी से प्रसूत हुई, प्रभुत्व हुई, प्रगट हुई इसका मूल उत्स, मूल स्त्रोत्र महर्षि बाल्मीकि की लेखनी है |
तो राम कथा का जो मुख्य उत्स है वह महर्षि बाल्मीकि की लेखनी है | एक बात और अच्छा धारा तो वहां गंगोत्री से बहुत पतली चलती है लेकिन जब वह मूल स्रोत आगे बढ़ता है तो बहुत सी नदियां इसमें मिलती है और फिर उसे समस्त समिश्रित जल को हम गंगा जी ही कहते हैं |
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आगे चलकर के कई आचार्यों ने अपनी लेखनी से कई-कई राम कथा की नदियों को इसमें मिलाया चाहे वह कविकुलगुरु कवि कालिदास की रचना रघुवंशम् महाकाव्य के रूप में हो ,चाहे प्रतिमा नाटकम में हो या भवभूति की रचना उत्तररामचरितम् के रूप में हो या आगे चलकर के श्री तुलसीदास जी की रचना श्रीरामचरितमानस के रूप में हो या केशवदास की रचना रामचंद्रिका के रूप में हो या मैथिलीशरण गुप्त की रचना साकेत के रूप में हो इन सभी लोगों ने इस मूल स्रोत महर्षि बाल्मीकि की लेखनी से निश्रित रामकथा की गंगा में अपनी गंगा को मिलाया है |
अब आप विचार करें रास्ते में अनेक नदियां और नाले मिलते हैं ,
लेकिन गंगा जी का संस्पर्श होने के कारण हम सबको गंगाजी ही कहते हैं, लेकिन यदि मूल स्रोत बंद हो जाए, मूल उत्स बंद हो जाए तो रास्ते में नदियां और नाले मिले तो क्या हम उन्हें गंगाजी कहेंगे ? वैसे ही प्रथम राम कथा की गंगा महर्षि बाल्मीकि की लेखनी से ही प्रकट हुई, उद्भूत हुई
यह जो रामायण है ना यह मानव जीवन का संविधान है |
एक मनुष्य का आचरण क्या होना चाहिए ? वेदव्यास जी ने रामावतार का यही प्रयोजन भागवत महापुराण के पंचम स्कंध में बतलाये हैं-
राम जी के अवतार का प्रयोजन है, सज्जनों की रक्षा करना और मानवों को आचरण की शिक्षा देना | एक और बात आती है पंचम स्कंध में कोई व्यक्ति अपने जीवन को जीना चाहे तो उसकी कसौटी क्या है ?
कोई सोना खरा है उसकी कसौटी है चौबीस कैरेट का होना चाहिए, तब वह खरा सोना है | वैसे ही मानव जीवन की कसौटी क्या है ? तो वेदव्यास जी ने भागवत के पंचम स्कंध में लिखा है- किम् पुरुष के वर्णन में––
ॐ नमो भगवते उत्तमश्लोकाय आर्य लक्षण शीलव्रताय साधुवादनिकक्षणाय श्री राम चन्द्राय |
कोई सज्जन, कोई साधु, कोई मानव अपने चरित्र की कसौटी देखना चाहता है तो वह कसौटी भगवान श्री राम जी का चरित्र है | भगवान श्री राघवेंद्र का चरित्र मानव जीवन का मापदंड है, मानव जीवन का मानक है यदि उस चरित्र पर आपका चरित्र खरा उतरता है , तो आप समझें कि आप एक श्रेष्ठ मानव बन रहे हैं |
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दो गंगा हमारे जीवन में हैं, एक गंगा तो श्री राम जी के चरण से प्रगट हुई है और दूसरी गंगा भगवान श्री राम के आचरण से प्रकट हुई है | तो वह जो गंगा है उसको आज हम भागीरथी गंगा कहते हैं और यह आचरण की जो गंगा है इसे हम रामायणी गंगा कहते हैं |
श्री रामायणी गंगा पुनाति भुवनत्रयम् |
एक बात और बाल्मीकि रामायण में कोई मंगलाचरण महर्षि बाल्मीकि जी ने नहीं किया, यह अद्भुत बात है अन्य जितने भी ग्रंथ है सब में मंगलाचरण है, श्री भागवत जी में जन्माद्यस्य* एक ऐसे आचार्य हुए गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज जो इतनी बंदना किसी ग्रंथ में नहीं की गई जितनी बंदना तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में किया | और कहा जाता है आस्तिकों का ग्रंथ है कि आरंभ में मंगलाचरण होना चाहिए, किसी देवी देवता को प्रणाम होना चाहिए | लेकिन महर्षि बाल्मीकि ने तो कोई मंगलाचरण किया ही नहीं, सीधे–
तपः स्वाध्याय निरतं तपस्वी वाग्विदांवरम् |
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तो कुछ आचार्यों ने कहा कि तप शब्द का अर्थ ब्रम्ह होता है, इसलिए यह प्रथम शब्द ही मंगलात्मक है | कुछ लोगों ने कहा–
तकार ही मंगलाचरणात्मक है, लेकिन सीधी बात तो यह है कि मंगलाचरण करते दिखाई नहीं देते | मंगलाचरण क्यों करना चाहिए ? इस पर बड़ा विमर्श है और बड़ा शास्त्रार्थ है–
न्याय सिद्धांत मुक्तावली में तो पूरा शास्त्रार्थ है कि ग्रंथ के आरंभ में मंगलाचरण क्यों करना चाहिए और जो उसका निर्णय हुआ वह यह हुआ कि
हमारे कार्य के मध्य में कोई विघ्न ना आए इसलिए हमें मंगलाचरण करना चाहिए | तो किसी ने कहा हाथ जोड़कर, आंख बंद करके मंगलाचरण कर लेते लिखकर करने की क्या जरूरत है ? तो कहा कि
( शिष्य शिक्षायै निबध्नाति )
आने वाली शिष्य परंपरा भी जाने की ग्रन्थ के आरंभ में मंगलाचरण करना चाहिए | तो महर्षि बाल्मीकि ने क्यों नहीं किया ? कहा महर्षि बाल्मीकि का तात्पर्य यह है कि यह जो राम जी की कथा है ना यह स्वयं अपने आप में मंगलात्मक है यह राम जी का संपूर्ण चरित्र , संपूर्ण कथा ही मंगलात्मक है , इसलिए गोस्वामी श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि यह जो रामचरित्र है–
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कथा ही मंगल करने वाली है, जब स्वयं कथा मंगलात्मक है तो अलग से मंगलाचरण करने की जरूरत नहीं है | दूसरी बात मंगलाचरण की जरूरत उसे है जिसके कार्य के मध्य में विघ्न आने का भय हो लेकिन महर्षि बाल्मीकि की मान्यता है कि राम जी के चरित्र के मध्य में विघ्न संभव ही नहीं है | इतना विश्वास है अपने आराध्य पर इसलिए उन्होंने मंगलाचरण किया ही नहीं |
हमारे एक दक्षिणात्य के आचार्यों ने कहा है कि यह शरणागति का ग्रंथ है , एक बार जीव शरणागत हो जाए तो उसके जीवन में कोई विघ्न आ ही नहीं सकता |
कहा तो सबने हैं लेकिन विश्वास जताया केवल और केवल महर्षि वाल्मीकि जी ने कि हम जब प्रभु शरणागत होंगे तो विघ्न की संभावना ही नहीं है , इसलिए मंगलाचरण का कोई आश्रय नहीं लिया | देवर्षि नारद से शोलह प्रश्न पूंछे और उसके उत्तर में देवर्षि नारद ने कहा–
इक्ष्वाकुवंश प्रभवो रामोनाम जनैः श्रुतः |
आपने जितने प्रश्न किए हैं यह सारे गुण इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न श्री राम जी में पाए जाते हैं, और महर्षि बाल्मीकि ऋषि भरद्वाज जी के साथ आये तमसा के तट में स्नान करने और प्रेमालाप करते हुए युगल क्रौंच पर दृष्टि गई , उसी समय तीर आया और नर क्रौन्च के हृदय को विद्ध कर दिया वह क्रौंच तड़पकर के नीचे गिरा , क्रौन्ची की पीड़ा और क्रौंच की तडफ जब दोनों को महर्षि बाल्मीकि ने देखा तो उनके हृदय से सहसा अकस्मात एक शोक प्रकट हुआ और यही दुनिया का प्रथम श्लोक बन गया |
शोकंश्लोकत्व मागता
शोक शब्द में एक लकार जोड़ दीजिए शब्द बन जाएगा श्लोक , इसके पहले श्लोक नहीं होता था |
उत्तमैः श्रेष्ठ जनै: गीयते इति उत्तम श्लोकः |
श्रेष्ठ जनों के द्वारा जिसके चरित्र का गान होता है उसको उत्तमश्लोक कहते हैं | मतलब कोई इस श्लोक का आश्रय ले तो उत्तम श्लोक भगवान श्रीराम को प्राप्त कर लेगा |
देखिए काव्य का प्रकटीकरण या कविता का प्रकटीकरण प्रयास से नहीं होता कुछ लोग रात रात भर डायरी और कलम लेकर बैठे रहते हैं और एक पंक्ति नहीं लिख पाते , जहां श्रम करना पड़े मेहनत करना पड़े वह काव्य नहीं हो सकता | जो सहसा प्रगट , अकस्मात प्रगट हो, स्वतः प्रगट हो वही कविता या काव्य होता है | जो सयास ना हो अनायास हो ,जो सप्रयास ना हो वह काव्य है |और शोक प्रकट हुआ-
मानसाद प्रतिष्ठां अरे निषाद, अरे बहेलिया, अरे क्रूर तू अनंत काल तक प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं करेगा , क्योंकि तुमने प्रेमालाप करते समय मिथुनावस्था में तुमने नर क्रौंच को मार गिराया है |
बोलिए श्री राघवेंद्र सरकार की जय
[ यत क्रौन्चo ] यह दुनिया का प्रथम श्लोक है और पिछले प्रसंग में आपने पढ़ा कि कोई भी काव्य पीड़ा से ही प्रकट होता है, वेदना से ही प्रकट होता है | यदि वेदना जीवन में ना हो तो हम मनुष्य कहलाने के अधिकारी नहीं है, हमारा आपका कोई संबंध नहीं है लेकिन वेदना के नाते हर व्यक्ति एक दूसरे का संबंधी है | वेदना के बिना व्यक्ति पत्थर हो जाएगा |
पीड़ा का काव्य प्रगट जैसे आजकल उर्दू का एक बिधा है उसको ग़ज़ल कहते हैं, तो यह जो ग़ज़ल शब्द है ना गजाला से बनता है | गजाला कहते हैं, मृगी को | हरिणी के आगें खाई हो पीछे सिंह हो और उसके आंखों में जो दर्द पैदा हो जो टीस पैदा हो उसी को कहते हैं गजल | तो कोई भी काव्य , कोई भी गीत, कोई भी गजल बिना पीड़ा के, बिना वेदना के प्रकट नहीं हो सकता | और
दुनिया का प्रथम श्लोक भी पीडा से ही प्रकट हुआ
और बाल्मीकि रामायण की कथा की उपलब्धि भी यही है कि वह हमारे हृदय में वेदना का प्रकटीकरण कर दे |
अरे बहेलिए तू कभी प्रतिष्ठा नहीं पाएगा क्योंकि दो प्रेमियों को अलग करना यह बहुत बड़ा दोष , पाप माना गया है | हमारे आचार्यों ने कहा दुनिया का प्रथम श्लोक शापात्मक नहीं हो सकता |
यह तो मंगलाचरणात्मक होना चाहिए ? और इसका अर्थ बदल दिया मंगलाचरण तीन प्रकार के होते हैं- नमस्कारात्मक, आशीर्वादात्मक, वस्तुनिर्देशात्मक | अर्थ कैसे बदला फिर आचार्यों की वाणी सुनें- उनका भाव,, मां शब्द जो है यह अमरकोश में मा लक्ष्मी का पर्यायवाची है |
इंदिरा लोकमाता माक्षिरोद तनया रमा |
मा कहते हैं लक्ष्मी जी को और निषाद कहते हैं- सिद् धातु का अर्थ होता है बैठना, ( सीदति ) माने जो पास में बैठता है, अथवा निषाद का अर्थ निवास भी होता है | मा माने इंदिरा यानी लक्ष्मी जी और लक्ष्मी जी ही रामावतार में सीता जी के रूप में आई , तो मां शब्द सीता जी का उपलक्षण है |
तो अर्थ हुआ मानसाद माने, हे राम जी, हे सीता जी के पास में बैठने वाले , या हे सीता निवास, हे जानकी निवास, हे रघुनंदन | अब अर्थ बदल गया जो मां का अर्थ निषेधात्मक था वह नहीं रहा, ( ना मांङ्ग योगे ) व्याकरण में अब अर्थ हो गया- हे राम जी आप अनंत काल तक प्रतिष्ठा को प्राप्त करें, क्योंकि आपने- यतक्रौन्च मिथुनादेकं अवधी काम मोहितम् |
देखिए क्रुन्चो धातु व्याकरण में तीन अर्थों में प्रयोग में लाया जाता है
क्रुन्च दति कौटिल्याति भावयोः |
क्रुन्च धातु- दत्यर्थ भी है, क्रुन्च का अर्थ कुटिलता भी है और क्रुन्च का अर्थ अल्पिभाव भी है | तो इस रामायण में भी महाराज युगल क्रौन्च हैं, क्रौन्च माने कुटिल तो आचार्यों ने रावण को ही रामायण का क्रौन्च कहा है | क्योंकि रावण में कुटिलता है , रावण क्रौन्च कहा और मंदोदरी को क्रौन्ची कहा |
देखिए रामायण का सबसे बड़ा अपराधी पात्र कौन है ? रावण को अपराधी नहीं माना, रामायण का सबसे बड़ा अपराधी जयंत को माना क्योंकि जयंत ने जानकी जी की अंग पर चन्चुक प्रहार किया जिसकी पर्णति हुई |
चला रुधिर रघुनायक जाना
ऐसा प्रहार किया जानकी जी के शरीर पर गात्र पर की जानकी जी के भीतर से रक्त की धारा फूट पड़ी थी | रावण आहरण भले किया हो जनक नंदिनी का, लेकिन रावण ने किसी अंग प्रत्यङ्ग में चोट पहुंचाने की कुचेष्टा नहीं की | इसलिए- रामायण का सबसे बड़ा अपराधी हमारे आचार्यों ने जयंत को माना है, लेकिन रावण को कुटिल माना- क्योंकि कुटिलता अपराधी से बहुत बड़ी चीज है ,
अपराध से बड़ी चीज है कुटिलता |
कैसे ? कहा जयंत को जब कोई गलत कार्य करना हुआ तो जयंत ने कौवे का वेश बनाकर के गलत कार्य को अंजाम दिया, चांडाल पक्षी बनकर आया जयंत | लेकिन रावण ने जब अपहरण जैसा कार्य किया तो रावण ने सन्यासी का भेष बनाकर किया |
ध्यान से सुनेंगे गलत व्यक्ति समाज में कोई गलत कार्य करें तो समाज को उतनी पीड़ा नहीं होती , लेकिन जब कोई अच्छा व्यक्ति समाज में गलत कार्य करता है तो समाज को अतिशय पीड़ा होती है | काग बनकर यदि कोई अपराध किया जयंत ने तो समाज को उतनी पीड़ा नहीं हुई, लेकिन रावण ने जब संन्यासी बनकर के अपहरण जैसे गलत कार्य किया उससे समाज को पीड़ा हुई और इसीलिए रावण को कुटिल कहा गया है |
तो हमारे यहां आचार्य कहते हैं कि रावण क्रौंच है और मंदोदरी क्रौन्ची है |
हे रघुनंदन , हे राम , हे मां जानकी निवास आप अनंत काल तक पद को प्राप्त करें क्योंकि आपने रावण मंदोदरी में से रावण का वध कर दिया है, इसलिए प्रतिष्ठा आप प्राप्त करें |