satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा

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पहला अध्याय

एक समय नैमिषारण्य तीर्थ में शौनकादि अट्ठासी हजार ऋषियों ने श्री सूत जी से कहा-हे प्रभु! इस कलियुग में वेद-विद्या रहित मनुष्यों को प्रभु भक्ति किस प्रकार मिलेगी तथा उनका उद्धार कैसे होगा ? हे मुनि श्रेष्ठ ! कोई ऐसा तप कहिए जिससे थोड़े समय में पुण्य प्राप्त होवे तथा मनवांछित फल मिले, ऐसी कथा सुनने की हमारी इच्छा है। सर्वशास्त्रज्ञाता श्री सूतजी बोले-हे वैष्णवों में पूज्य! आप सबने प्राणियों के हित की बात पूछी है। अब मैं उस श्रेष्ठ व्रत को आप लोगों से कहूँगा, जिस व्रत को नारदजी ने लक्ष्मी नारायण भगवान से पूछा था और लक्ष्मीपति ने मुनिश्रेष्ठ नारदजी से कहा था, सो ध्यान से सुनो-
एक समय योगीराज नारदजी दूसरों के हित की इच्छा से अनेक लोकों में धूमते हुए मृत्युलोक में आ पहुंचे। यहाँ अनेक योनियों में जन्मे हुए प्रायः सभी मनुष्यों को अपने कर्मो के अनुसार अनेकों दुखों से पीड़ित देखकर सोचा, किस यत्न के करने से निश्चय ही प्राणियों के दुखों का नाश हो सकेगा। ऐसा मन में सोचकर विष्णुलोक को गये। वहाँ श्वेत वर्ण और चार भुजाओं वाले देवों के ईश नारायण को देखकर, जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पह्म थे तथा वरमाला पहने हुए थे, स्तुति करने लगे-हे भगवान्! आप अत्यन्त शक्ति से सम्पन्न हैं। मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती, आपका आदि-मध्य-अन्त भी नहीं है। आप निर्गुण स्वरूप, सृष्टि के आदि भूत व भक्तों के दुखों को नष्ट करने वाले हो। आपको मेरा नमस्कार है। नारद जी से इस प्रकार की स्तुति सुनकर विष्णु भगवान बोले-हे मुनिश्रेष्ठ! आपके मन में क्या है? आपका किस काम के लिये आगमन हुआ है, निःसंकोच कहें।
तब नारद मुनि बोले-मृत्युलोक में सब मनुष्य जो अनेक योनियों में पैदा हुए हैं, अपने-अपने कर्मो के द्वारा अनेक प्रकार के दुखों से दुखी हो रहे हैं। हे नाथ! यदि आप मुझ पर दया रखते हो तो बतलाइये कि उन मनुष्यों के सब दुःख् थोड़े से ही प्रयत्न से कैसे दूर हो सकते है ? श्री विष्णु भगवान जी बोले- हे नारद! मनुष्यों की भलाई के लिए तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस काम के करने से मनुष्य मोह से छूट जाता है वह मैं कहता हूँ, सुनो-
बहुत पुण्य देने वाला, स्र्वग तथा मृत्युलोक दोनों में दुर्लभ एक एक उत्तम व्रत है। आज मैं प्रेमवश होकर तुमसे कहता हूँ। श्री सत्यनारायण भगवान का यह व्रत अच्छी तरह विधिपूर्वक करके मनुष्य धरती पर आयुपर्यन्त सुख भोगकर मरने पर मोक्ष को प्राप्त होता है। श्री भगवान के वचन सुनकर नारद मुनि बोले- हे भगवन्! उस व्रत का फल क्या है, क्या विधान है और किसने यह व्रत किया है और किस दिन यह व्रत करना चाहिए ? विस्तार से कहिये।
विष्णु भगवान बोले- हे नारद! दुःख, शोक आदि को दूर करने वाला धन-धान्य को बढ़ाने वाला, सौभाग्य तथा संतान को देने वाला यह व्रत सब स्थानों पर विजयी करने वाला है। भक्ति ओर श्रद्धा के साथ किसी भी दिन मनुष्य श्रीसत्यनारायण की प्रातः काल के समय ब्राह्यणों और बंधुओं के साथ धर्मपरायण होकर पूजा करे। भक्ति भाव से नैवेद्य, केले का फल, शहद, धी, दूध और गेहूँ का आटा सवाया लेवे।( गेहूँ के अभाव में साठी का चूर्ण भी ले सकते हैं। ) और सब पदार्थो को भगवान के अर्पण कर देवे तथा बंधुओं सहित ब्राह्यणों को भोजन करावे, पश्चात् स्वयं भोजन करे। रात्रि में नृत्य, गीत आदि का आयोजन कर सत्यनारायण भगवान का स्मरण करते हुए समय व्यतीत करे। इस तरह व्रत करने पर मनुष्यों की इच्छा निश्चय पूरी होती है। विशेष रूप से कलि-काल में भूमि पर यही मोक्ष का सरल उपाय है।

satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा

satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा
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प्रथमोऽध्यायः

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् | देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जय मुदीरयेत् ॥
एकदा मुनयः सर्वे सर्वलोकहिते रताः । सुरम्ये नैमिषारण्ये गोष्ठीं चक्रुर्मनोरमाम् ॥१॥ तत्रान्तरे महातेजा व्यासशिष्यो महायशाः । सूतः शिष्यगणैर्युक्तः समायातो हरिं स्मरन् ॥२॥ तमायान्तं समालोक्य सूतं शास्त्रार्थपारगम् । नेमुः सर्वे समुत्थाय शौनकाद्यास्तपोधनाः ॥३॥ सोऽपि तान् सहसा भक्त्या मुनीन् परमवैष्णवान् । ननाम दण्डवद् भूमो सर्वधर्मविदां वरः ॥४॥ वरासने महाबुद्धिस्तैर्दत्ते मुनिसत्तमः । उवाच सदसो मध्ये सर्वैः शिष्यगणैर्वृतः ॥५॥ तत्रोपविष्टं तं सूतं शौनको मुनिसत्तमः । बद्धाञ्जलिरिमां वाचमुवाच विनयान्वितः ॥६॥ शौनक उवाच  महर्षे सूत सर्वज्ञ कलिकाले समागते । केनोपायेन भगवन् हरिभक्तिर्भवेन्नृणाम् ॥७॥ कलौ सर्वे भविष्यन्ति पापकर्म परायणाः । वेदविद्याविहीनाश्च तेषां श्रेयः कथम्भवेत् ॥८॥ कलावन्नगतप्राणाः लोकाः स्वल्पायुषस्तथा । निर्द्धनाश्च भविष्यन्ति नानापीडाप्रपीडिताः ॥९॥ प्रयाससाध्यं सुकृतं शास्त्रेषु श्रूयते द्विज । तस्मात् केऽपि करिष्यन्ति कलौ न सुकृतं जनाः ॥१०॥
सुकृतेषु विनष्टेषु प्रवृत्ते पापकर्मणि । सवंशा प्रलयं सर्वे गमिष्यन्ति दुराशयाः ॥११॥ स्वल्पश्रमैरल्पवित्तरल्पकालैश्च सत्तम । यथा भवेन्महापुण्यं तथा कथय सूत नः ॥१२॥ यस्योपदेशतः पुण्यं पापं वा कुरुते जनः । स तद्भागी भवेन्मर्त्य इति शास्त्रेषु निश्चितम् ॥१३॥ पुण्योपदेशी सदयः कैतवैश्च विवर्जितः । पापायनविरोधी च चत्वारः केशवोपमाः ॥१४॥ ज्ञानं सम्प्राप्य संसारे यः परेभ्यो न यच्छति ज्ञानरूपी हरिस्तस्मै प्रसन्न इव नेक्षते ॥१५॥ ज्ञानरत्नैश्च रत्नैश्च परसन्तोषकृन्नरः । स ज्ञेयः सुमते नूनं नररूपघरो हरिः ॥१६॥ व्रतेन तपसा किं वा प्राप्स्यते वाञ्छितं फलम् । तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि कथयस्व महामते ॥१७॥ त्वमेव मुनिशार्दूल वेदवेदाङ्गपारगः । त्वदृते न हि वक्ताऽन्यो यतस्त्वं व्यासशासितः ॥१८॥ सूत उवाच  धन्योऽसि त्वं मुनिश्रेष्ठ त्वमेव वैष्णवाग्रणीः । यतः समस्तभूतानां हितं वाञ्छसि सर्वदा ॥१९॥ शृणु शोनक वक्ष्यामि यत्त्वया श्रोतुमिष्यते । नारदेनैवमुक्तः सन् भगवान् कमलापतिः ॥२०॥ सुरर्षये यथैवाह तच्छृणुध्वं समाहिताः ॥२१॥
[इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे श्रीसत्यनारायणव्रतकथायां प्रथमोऽध्यायः ]
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दूसरा अध्याय

सूतजी बोले- हे ऋषियों! जिसने पहले समय में इस व्रत को किया है उसका इतिहास कहता हूं ध्यान से सुनो। सुंदर काशीपुरी नगरी में एक अत्यन्त निर्धन ब्राह्यण रहता था। वह भूख और प्यास से बेचैन हुआ नित्य पृथ्वी पर धूमता था। ब्रह्यणों से प्रेम करने वाले भगवान ने ब्राह्यण को दुःखी देखकर बूढ़े ब्राह्यण का रूप धर उसके पास जा आदर के साथ पूछा- हे विप्र! तुम नित्य दुःखी हुए पृथ्वी पर क्यों धूमते हो ? हे ब्राह्यण! यह सब मुझसे कहो, मैं सुनना चाहता हूँ। ब्राह्यण बोला- मै निर्धन ब्रह्यण हूँ, भिक्षा के लिए पृथ्वी पर फिरता हूँ।
हे भगवान्! यदि आप इससे छुटकारा पाने का कोई उपाय जानते हो तो कृपा कर मुझे बताएँ। वृद्ध ब्राह्यण बोला- हे विप्र! सत्यनारायण भगवान मनवांछित फल देने वाले हैं। इसलिये तुम उनका पूजन करो, जिसके करने से मनुष्य सब दुखों से मुक्त हो जाता हैं। ब्राह्यण को व्रत का सारा विधान बतलाकर बूढ़े ब्राह्यण का रूप धारण करने वाले सत्यनारायण भगवान अन्तध्र्यान हो गये। जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्यण ने बतलाया है, मैं उसको करूंगा, यह निश्चय करने पर उसे रात में नींद भी नही आईं। सवेरे उठ सत्यनारायण के व्रत का निश्चय कर भिक्षा के लिये चला। उस दिन उसको भिक्षा में बहुत धन मिला जिससे बंधु-बांधवों के साथ उसने सत्यनारायण भगवान का व्रत किया। इसके करने से वह ब्राह्यण सब दुखों से छुटकर अनेक प्रकार की सम्पत्तियों से युक्त हुआ। उस समय से वह ब्राह्यण हर मास व्रत करने लगा। इस तरह सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो करेगा वह मनुष्य सब दुःखों से छूट जायेगा। इस तरह नारद जी से सत्यनारायण भगवान का कहा हुआ यह व्रत मैंने तुमसे कहा। हे विप्रों ! मैं अब क्या कहूँ ?
ऋषि बोले- हे मुनिश्वर! स्ंसार में इस ब्राह्यण से सुनकर किस-किस ने इस व्रत को किया ? हम वह सब सुनना चाहते हैं। इसके लिये हमारे मन में जिज्ञासा है। सूत जी बोले- हे मुनियों! जिस-जिस ने इस व्रत को किया है वह सब सुनो। एक समय वह ब्राह्यण धन और ऐश्वर्य के अनुसार बन्धु-बान्धवों के साथ व्रत करने को तैयार हुआ उसी समय एक लकड़ी बेचने वाला बूढ़ा आदमी आया और बाहर लकड़ियों को रखकर ब्राह्यण के मकान में गया। प्यास से दुःखी लकड़हारा उनको व्रत करते देखकर ब्राह्यण को नमस्कार कर कहने लगा-आप यह क्या कर रहे हैं इसके करने से क्या फल मिलता हैं ? कृपा करके मुझको बताइए।
ब्राह्यण ने कहा- सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह सत्यनारायण भगवान का व्रत है, इसकी ही कृपा से मेरे यहां धन-धान्य आदि की वृद्धि हुई है। ब्राह्यण से इस व्रत के बारे में जानकर लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ। चरणामृत ले प्रसाद खाने के बाद अपने धर को गया।
अगले दिन लकड़हारे ने अपने मन में इस प्रकार का संकल्प किया कि आज ग्राम में लकडी बेचने से जो धन मिलेेगा उसी से सत्यनारायण देव का उत्तम व्रत करूंगा। यह मन में विचार कर वह बूढ़ा आदमी लकड़ियां अपने सिर पर रखकर, जिस नगर में धनवान लोग रहते थे, ऐसे सुन्दर नगर में गया। उस दिन वहां पर उसे उन लकड़ियों का दाम पहले दिनों से चैगुना मिला। तब वह बूढ़ा लकड़हारा दाम ले और अति प्रसन्न होकर पके केले, शक्कर, घी, दूध, दही ओर गेहूँ का चूर्ण इत्यादि, सत्यनारायण भगवान के व्रत की कुल सामग्रियों को लेकर अपने घर गया। फिर उसने अपने भाइयों को बुलाकर विधि के साथ भगवान का पूजन और व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन, पुत्र आदि से युक्त हुआ और संसार के समस्त सुख भोगकर बैकुण्ड़ को चला गया।
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अथ सप्तश्लोकी दुर्गा saptashloki durga lyrics
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द्वितीयोऽध्यायः

एकदा नारदो योगी नरानुग्रहङ्काङ्क्षया । पर्यटन् विविधान् लोकान् मर्त्यलोकमुपागतः ॥२२॥ तत्र दृष्ट्वा जनाः सर्वे नानादुःखसमन्विताः । नानायोनिसमुत्पन्नाः क्लिश्यन्ते पापकर्मभिः ॥२३॥ केनोपायेन चैतेषां दुःखनाशो भवेद्ध्रुवम्‌ । इति संचिन्त्य मनसा विष्णुलोकं गतस्तदा ॥२४॥ तत्र नारायणंदेवं शुक्लवर्णं चतुर्भुजम्‌ । शंख चक्र गदा पद्म वनमाला विभूषितम्‌ ॥२५॥ नारद उवाच – नमस्ते वाङंगमनोतीत रूपायाऽनंतशक्तये । आदिमध्यांतहीनाय निर्गुणाय गुणात्मने ॥२६॥ सर्वेषामादिभूताय भक्तानामार्तिनाशिने । श्रुत्वा स्तोत्रंततो विष्णुर्नारदं प्रत्यभाषत्‌ ॥२७॥ श्रीभगवानुवाच – किमर्थमागतोऽसि त्वं किं ते मनसि वर्तते । कथयस्व महाभाग तत्सर्वं कथायमि ते ॥२८॥ नारद उवाच – मर्त्यलोके जनाः सर्वे नानाक्लेशसमन्विताः । ननायोनिसमुत्पन्नाः पच्यन्ते पापकर्मभिः ॥२९॥
तत्कथं शमयेन्नाथ लघूपायेन तद्वद् । श्रोतुमिच्छामि तत्सर्वं कृपास्ति यदि ते मयि ॥३०॥ श्रीभगवानुवाच – साधु पृष्टं त्वया वत्स लोकानुग्रहकांक्षया । यत्कृत्वा मुच्यते मोहत्तच्छृणुष्व वदामि ते ॥३१॥ व्रतमस्ति महत्पुण्यं स्वर्गे मर्त्ये च दुर्लभम्‌ । तव स्नेहान्मया वत्स प्रकाशः क्रियतेऽधुना ॥३२॥ सत्यनारायणस्यैवं व्रतं सम्यग्विधानतः । कृत्वा सद्यः सुखं भुक्त्वा परत्र मोक्षमाप्युयात्‌ ॥३३॥ तच्छ्रुत्वा भगवद्वाक्यं नारदः पुनरब्रवीत्‌ । नारद उवाच  किं फलं किं विधानं च कृतं केनैव तद्व्रतम्‌ ॥३४॥ तत्सर्वं विस्तराद् ब्रूहि कदा कार्यं हि तद्व्रतम्‌ ॥३५॥ श्रीभगवानुवाच – दुःखशोकादिशमनं धनधान्यप्रवर्धनम्‌ । सौभाग्यसन्ततिकरं सर्वत्रविजयप्रदम्‌ ॥३६॥ यस्मिन्कस्मिन्दिने मर्त्यो भक्ति श्रद्धासमन्वितः । सत्यनारायणं देवं यजेच्चैव निशामुखे । ब्राह्मणैर्बान्धवैश्चैव सहितो धर्मतत्परः ॥३७॥
नैवेद्यं भक्तितो दद्यात्सपादं भक्ष्यमुत्तमम्‌ । रंभाफलं घृतं क्षीरं गोधूममस्य च चूर्णकम्‌ ॥३८॥ अभावे शालिचूर्णं वा शर्करा वा गुडस्तथा । सपादं सर्वभक्ष्याणि चैकीकृत्य निवेदयेत्‌ ॥३९॥ विप्राय दक्षिणां दद्यात्कथां श्रुत्वाजनैः सह । ततश्चबन्धुमिः सार्धं विप्रांश्च प्रतिपादयेत्‌ ॥४०॥ प्रसादं भक्षयेद् भक्त्या नृत्यगीतादिकं चरेत्‌ । ततश्च स्वगृहं गच्छेत्सत्यनारायणं स्मरन्‌ ॥४१॥ एवंकृते मनुष्याणां वाञ्छासिद्धिर्भवेद्ध्रुवम्‌ । विशेषतः कलियुगे नान्योपायोऽस्ति भूतले । कथां सम्यक् प्रवक्ष्यामि कृतं येन पुरा द्विज ।॥ ४२ ॥ कश्चित् काशीपुरीवासी विप्र आसीच्च निर्द्धनः । क्षुघा तृष्णाकुलो भूत्वा सततं भ्रमते महीम् ॥४३॥ दुःखितं ब्राह्मणं दृष्ट्वा भगवान् ब्राह्मणप्रियः । वृद्धब्राह्मणरूपः सन् पप्रच्छ द्विजमादरात् ॥४४॥ किमर्थं भ्रमसे विप्र महीं कृत्स्नां सुदुःखितः । तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि कथ्यतां यदि रोचते ॥४५॥ विप्र उवाच – ब्राह्मणोऽतिदरिद्रोऽहं भिक्षार्थं भ्रमते महीम् । उपायं यदि जानासि कृपया कथय प्रभो ॥४६॥
बृद्धबाह्मण उवाच – सत्यनारायणो विष्णुर्वाञ्छितार्थफलप्रदः । तस्य त्वं द्विजशार्दूल कुरुष्व व्रतमुत्तमम् । यत् कृत्वा सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो भवति मानवः ॥४७॥ विधानं च व्रतस्याऽस्य विप्रायाऽभाष्य सङ्गतम् । सत्यनारायणो देवस्तत्रैवान्तरधीयत ॥४८॥ ततः प्रातः करिष्यामि व्रतं मनसि चिन्तितम् । इति संचिन्त्य विप्रोऽसौ रात्रौ निद्रां न चाऽलभत् ॥४९॥ ततः प्रातः समुत्थाय सत्यनारायणव्रतम् । करिष्येऽहञ्च संकल्प्य भिक्षार्थमगद् द्विजः ॥५०॥ तस्मिन्नेव दिने विप्रः प्रचुरं द्रव्यमाप्तवान् । तेनैव बन्धुभिः सार्द्धं सत्यस्य व्रतमाचरत् ॥५१॥ सर्वदुःखविनिर्मुक्तः सर्वसंपत्समन्वितः । बभूव स द्विजश्रेष्ठो व्रतस्याऽस्य प्रभावतः । ततः प्रभृति कालञ्च मासि मासि व्रतं कृतम् ॥५२॥ सूत उवाच – एवं नारायणाद् देवाद् व्रतं ज्ञात्वा द्विजोत्तमः । सर्वपापविनिर्मुक्तो दुर्लभ मोक्षमाप्नुयात् ॥५३॥ व्रतं चैतद् यदा विप्र पृथिव्यां सञ्चरिष्यति । तदैव सर्वदुःखं हि नराणाञ्च विनश्यति । एवं नारायणे नोक्तं नारदाय महात्मने ॥५४॥
[ इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे श्रीसत्यनारायणन्त्रतकथायां द्वितीयोऽध्यायः ]
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तीसरा अध्याय

सूतजी बोले- हे श्रेष्ठ मुनियों! अब आगे की कथा कहता हूँ, सुनो-पहले समय में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा रहता था। वह सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय था। प्रतिदिन देव स्थानों पर जाता तथा गरीबों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था। उसकी पत्नी कमल के समान मुख वाली और सती साध्वी थी। पुत्र प्राप्ति के लिए भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनों ने सत्यनारायण भगवान का व्रत किया।
उस समय में वहां एक साधु नामक वैश्य आया। उसके पास व्यापार के लिये बहुत-सा धन था। वह नाव को किनारे पर ठहरा कर राजा के पास आ गया और राजा को व्रत करते हुए देखकर विनय के साथ पूछने लगा- हे राजन्! भक्तियुक्त चित्त से यह आप क्या कर रहे हैं ? मेरी सुनने की इच्छा हैं। सो आप यह मुझे बताइये। राजा बोला- हे वैश्य! अपने बान्धवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए यह महाशक्तिवान सत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूँ। satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा
राजा के वचन सुनकर साधू आदर से बोेेेला- हे राजन्! मुझसे इसका सब विधान कहो, मैं भी आपके कथनानुसार इस व्रत को करूंगा। मेरे भी कोई संतान नहीं है मुझे विश्वास है कि इस व्रत के करने से निश्चय ही होगी। राजा से सब विधान सुन व्यापार से निवृत्त हो वह आनन्द के साथ अपने घर को गया। साधु ने अपनी स्त्री को संतान देने वाले इस व्रत को सुनाया और प्रण किया कि जब मेरे संतान होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा।
साधु ने ऐसे वचन अपनी स्त्री को संतान होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा। साधु ने ऐसे वचन अपनी स्त्री लीलावती से कहे। एक दिन उसकी स्त्री लीलावती पति के साथ आनन्दित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत्त होकर सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई तथा दसवें महीने में उसके एक सुन्दर कन्या का जन्म हुआ। दिनों-दिन वह इस तरह बढ़ने लगी जैसे शुक्ल पक्ष का चन्द्रमा बढ़ता है। कन्या का नाम कलावती रखा गया। तब लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति से कहा कि जो आपने संकल्प किया था कि भगवान का व्रत करूंगा, अब आप उसे करिये। साधु बोला- हे प्रिये! इसके विवाह पर करूंगा। इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन दे वह नगर को गया।
कलावती पितृ-गृह में वृद्धि को प्राप्त हो गई। साधु ने जब नगर में सखियों के साथ अपनी पुत्री को देखा तो तुरन्त दूत बुलाकर कहा कि पुत्री के वास्ते कोई सुयोग्य वर देखकर लाओ। साधु की आज्ञा पाकर दूत कंचन नगर पहुंचा और वहाँ पर बड़ी खोजकर देखभाल कर लकड़ी के लिए सुयोग्य वणिक पुत्र को ले आया। उस सुयोग्य लड़के को देखकर साधु ने अपने बन्धु-बान्धवों सहित प्रसन्नचित हो अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया, किन्तु दुर्भाग्य से विवाह के समय भी उस व्रत को करना भूल गया। तब श्री सत्यनारायण भगवान क्रोधित हो गये और साधु को श्राप दिया कि तुम्हे दारूण दुःख प्राप्त होगा। satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा
अपने कार्य में कुशल साधु वैश्य अपने जमाता सहित समुद्र के समीप स्थित रत्नपुर नगर में गया और वहाँ दोनों ससुर-जमाई चन्द्रकेतु राजा के उस नगर में व्यापार करने लगे। एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से प्रेरित कोई चोर राजा का धन चुराकर भागा जा रहा था, किन्तु राजा के दूतों को आता देखकर चोर घबराकर भागते हुए धन को वहीं चुपचाप रख दिया जहां वे ससुर-जमाई ठहरे हुए थे। जब दूतों ने उस साधु वैश्य के पास राजा के धन को रखा देखा तो वे दोनों को बांधकर ले गये ओर राजा के समीप जाकर बोले- हे राजन्! यह दो चोर हम पकड़ लाये हैं, देखकर आज्ञा दीजिए।
तब राजा की आज्ञा से उनको कठोर कारावास में डाल दिया और उनका सब धन छीन लिया। सत्यनारायण भगवान के श्राप के कारण साधु वैश्य की पत्नी व पुत्री भी धर पर बहुत दुःखी हुईं। उनके घर पर जो धन रखा था, चोर चुराकर ले गये शारीरिक व मानसिक पीड़ा तथा भूख-प्यास से अति दुखित हो अन्न की चिन्ता में कलावती एक ब्राह्यण के घर गई। वहां उसने सत्यनारायण भगवान् का व्रत होते देखा, फिर कथा सुनी तथा प्रसाद ग्रहण कर रात को घर आई। माता ने कलावती से कहा- हे पुत्री! अब तक कहां रही व तेरे मन में क्या हैं ?
कलावती बोली- हे माता! मैंने एक ब्राह्यण के घर श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत होता देखा है। कन्या के वचन सुनकर लीलावती भगवान् के पूजन की तैयारी करने लगी। लीलावती ने परिवार और बन्धुंओं सहित श्री सत्यनारायण भगवान का पूजन किया और वर मांगा कि मेरे पति और दामाद शीध्र घर आ जायें। साथ ही प्रार्थना की कि हम सबका अपराध क्षमा करो। सत्यनारायण भगवान इस व्रत से संतुष्ट हो गये और राजा चन्द्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा- हे राजन्! थ्जन दोनों वैश्यों को तुमने बन्दी बना रखा है, वे निर्दोष हैं, उन्हें प्रातः ही छोड़ दो और उनका सब धन जो तुमने ग्रहण किया है, लोटा दो, नही तो मैं तेरा धन, राज्य, पुत्रादि सब नष्ट कर दूंगा। राजा से ऐसे वचन कहकर भगवान अन्तध्र्यान हो गये। प्रातः काल राजा चन्द्रकेतु ने सभा में अपना स्वप्न सुनाया, फिर दोनों वणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में बुलाया। दोनों ने आते ही राजा को नमस्कार किया। राजा मीठे वचनों से बोला- हे महानुभावों! तुम्हें भावीवश ऐसा कठिन दुःख प्राप्त हुआ है, अब तुम्हें कोई भय नहीं। ऐसा कहकर राजा ने उनको नये-नये वस्त्राभूषण पहनवाये तथा उनका जितना धन लिया था उससे दुगना धन देकर आदर सहित विदा किया। दोनों वैश्य अपने घर को चल दिये।
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तृतीयोऽध्यायः

मयाऽपि कथितं विप्र किमन्यत् कथयामि ते ॥५५॥ शौकन उवाच  तस्माद् विप्र व्रतं केन पृथिव्यां चरितं मुने । तत् सर्वं श्रोतुमिच्छामि श्रद्धाऽस्माकं प्रजायते ॥५६॥ सूत उवाच – शृणुध्वं मुनयः सर्वे तस्माद् येन कृतं भुवि ॥५७॥ एकदा स द्विजवरो यथाविभवविस्तरैः । बन्धुभिः स्वजनैः सार्द्धं व्रतं कर्तुं समुद्यतः ॥५८॥ एतस्मिन्नन्तरे काले काष्ठक्रेतुः समागतः । बहिष्काठञ्च संस्थाप्य विप्रस्य मन्दिरं ययौ ॥५९॥ तृष्णया पीडितात्मा स विप्रं दृष्ट्वा तथाविधम् । प्रणिपत्य द्विज प्राह किमिदं क्रियते त्वया । कृते कि फलमाप्नोति विस्तराद् वद मे प्रभो ॥६०॥ विप्र उवाच – सत्यनारायणस्येदं व्रतं सर्वेप्सितप्रदम् । दुःखशोकादिशमनं सर्वत्र विजयप्रदम् ॥६१॥ satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा
धनधान्यसन्ततिकरं सर्वेषामीप्सितप्रदम् । यस्य प्रसादान्मे सर्वं धनधान्यादिकं महत् ॥६२॥ ततस्तु तद्व्रतं ज्ञात्वा काष्ठकर्ताऽतिहर्षितः । पपो जलं प्रसादं च भुक्त्वा तन्नगरं ययौ ॥६३॥ सत्यनारायणं देवं चिन्तयन् स्थिरमानसः । काष्ठं विक्रीय नगरे प्राप्स्यते चाद्य यद्धनम् । तेनैव सत्यदेवस्य व्रतं सम्यक् करोम्यहम् ॥६४॥ इति सञ्चित्य मनसा काष्ठं कृत्वा तु मस्तके । जगाम नगरे रम्ये धनिनां यत्र संस्थितिः ॥६९॥ तद्दिने काष्ठमूल्यञ्च द्विगुणं प्राप्तवानसौ । ततः प्रसन्नहृदयः सुपक्वं कदलीफलम् ॥६६॥ शर्कराघृतदुग्धं च गोधूमस्य च चूर्णकम् । प्रत्येकं तु सपादं च गृहीत्वा स्वगृहं ययौ ॥६७॥ ततो बन्धून् समाहूय चकार विधिवद् व्रतम् । तद्व्रतस्य प्रभावेण धनपुत्रान्वितोऽभवत् ॥६८॥ इह लोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ । पुनरन्यत् प्रवक्ष्यामि शृणुध्वं मुनिसत्तमाः ॥६९॥
[ इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे श्रीसत्यनारायणव्रतकथायां तृतीयोऽध्यायः ]
satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा
 

चौथा अध्याय

सूतजी बोले-वैश्य ने मंगलाचार करके यात्रा आरम्भ की और अपने नगर को चला। उनके थोड़ी दूर निकलने पर दण्डी वेषधारी सत्यनारायण ने उनसे पूछा- हे साधु! तेरी नाव में क्या है ? अभिमानी वणिक हंसता हुआ बोला-हे दण्डी! आप क्यों पूछते हो ? क्या धन लेने की इच्छा है ? मेरी नाव में तो बेल ओर पत्ते भरे हैं। वैश्य का कठोर वचन सुनकर भगवान ने कहा- तुम्हारा वचन सत्य हो। दण्डी ऐसा कहकर वहां से दूर चले गये ओर कुछ दूर जाकर समुद्र के किनारे बैठ गये। satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा
दण्डी के जाने पर वैश्य ने नित्य क्रिया करने के बाद नाव को ऊंची उठी देखकर अचम्भा किया और नाव में बेल-पत्ते आदि देखकर मूर्छित हो जमीन पर गिर पड़ा। फिर मूर्छा खुलने पर अत्यन्त शोक प्रकट करने लगा तब उसका दामाद बोला कि आप शोक न करें, यह दण्डी का श्राप है। अतः उनकी शरण में चलना चाहिए, तभी हमारी मनोकामना पूरी होगी। दामाद के वचन सुनकर वैश्य दंडी के पास पहुंचा और अत्यन्त भक्तिभाव से नमस्कार करके बोला- हे भगवान्! आपकी माया से मोहित ब्रह्या आदि भी आपके रूप को नहीं जानते, तब मैं अज्ञानी कैसे जान सकता हूँ ? आप प्रसन्न होइये, मैं सामथ्र्य के अनुसार आपकी पूजा करूंगा, मेरी रक्षा करो और पहले के समान नौका में धन भर दो।
उसके भक्तियुक्त वचन सुनकर भगवान् प्रसन्न हो उसकी इच्छानुसार वर देकर अन्तध्र्यान हो गये। तब उन्होंने नाव पर आकर देखा कि नाव धन से परिपूर्ण है फिर वह भगवान् सत्यनारायण का पूजन कर साथियों सहित अपने नगर को चला। जब अपने नगर के निकट पहुंचा तब दूत को घर भेजा। दूत ने साधु के घर जा उसकी स्त्री को नमस्कार कर कहा कि साधु अपने दामाद सहित इस नगर के समीप आ गयें हैं। ऐसा वचन सुन साधु की स्त्री ने बड़े हर्ष के साथ सत्यदेव का पूजन कर पुत्री से कहा- मैं अपने पति क दर्शन को जाती हूँ, तू कार्य पूर्ण कर शीध्र आ। परंतु कलावती माता के वचनों को अनसुना कर प्रसाद छोड़कर पति के पास चली गई।
प्रसाद की अवज्ञा के कारण सत्यदेव रूष्ट हो, उसके पति को नाव सहित पानीमें डूबो दिया। कलावती अपने पति को न देखकर रोती हुई जमीन पर गिर गई। इस तरह नौका को डूबा हुआ तथा कन्या को रोता देख साधु दुखित हो बोला- हे प्रभु! मुझसे या मेरे परिवार से जो भूल हुई है उसे क्षमा करो। उसके दीन वचन सुनकर सत्यदेव प्रसन्न हो गये ओर आकाशवाणी हुई- हे साधु! तेरी कन्या मेरे प्रसाद को छोड़कर आई है इसलिए इसका पति अदृश्य हुआ है, यदि वह घर जाकर प्रसाद खाकर लौटे तो इसे पति अवश्य मिलेगा। ऐसी आकाशवाणी सुनकर कलावती ने घर पहुंचकर प्रसाद खाया। फिर आकर पति के दर्शन किये तत्पश्चात् साधु ने बंधु-बांधवों सहित सत्यदेव भगवान का विधिपूर्वक पूजन किया। उस दिन से वह प्रत्येक पूर्णिमा को सत्यनारायण भगवान का पूजा करने लगा। फिर इस लोक का सुख भोगकर अन्त में स्र्वग लोक को गया।
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चतुर्थोऽध्यायः
आसीदुल्कामुखो नाम नृपतिर्बलिनां वरः । जितेन्द्रियः सत्यवादी ययौ देवालयं प्रति । दिने दिने धनं दत्त्वा द्विजान् सन्तोषयन् सुधीः ॥७०॥ भार्या तस्य प्रमुग्धा च सरोजवदना सती । सत्यव्रतं भद्रशीला सिन्धुतीरेऽकरोन्मुने ॥७१॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र साधुरेकः समागतः । वाणिज्यार्थं बहुधनैः रत्नाद्यैः परिपूरिताम् ॥७२॥ नावं संस्थाप्य तत्तीरे जगाम तत्तटं प्रति । दृष्ट्वा तत्र व्रतं सम्यक् पप्रच्छ विनयान्वितः ॥७३॥ साधुरुवाच – किमिदं कुरुषे राजन् भक्तियुक्तेन चेतसा । प्रकाशं कुरु तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम् ॥७४॥
राजोवाच – पूजनं क्रियते साधो विष्णोरतुलतेजसः । व्रतं च स्वजनैः सार्द्धं पुत्रादि प्राप्स्यते मया ॥७५॥ प्रत्युवाच ततो नत्वा राजानं मधुरं वचः । साङ्गं कथय मे राजन् व्रतमेतत् करोम्यहम् ॥७६॥ ममापि सन्ततिर्नास्ति सत्यमेतद् ब्रवीम्यहम् । ततो विधानतो राजा कथयामास तद् व्रतम् ॥७७॥ राज्ञो मुखाद् व्रतं श्रुत्वा परं हर्षमवाप्तवान् । ततो निवर्त्य वाणिज्यात् सानन्दो गृहमागतः ॥७८॥ भार्यायै कथितं सर्वं व्रतं च सन्ततिप्रदम् । तदा व्रतं करिष्यामि यदा मे सन्ततिर्भवेत् ॥७९॥ कस्मिश्चित् दिवसे तस्य भार्या लीलावती सती । गर्भयुक्ताऽऽनन्दचित्ताऽभवद्धर्म परायणा ॥८०॥ पूर्ण गर्भे ततो जाता बालिका चातिनिर्मला । दिने दिने वर्द्धमाना शुक्लपक्षे यथा शशी ॥८१॥
ततो वणिक् सुतायाश्च जातकर्मादिकं चरन् । नाम्ना कलावती चेति सन्नामकरणं कृतम् ॥८२॥ ततो लीलावती प्राह स्वामिनं मधुरं वचः । न करोषि किमर्थं वा पुरा यच्च प्रतिश्रुतम् ॥८३॥ विवाहसमयेऽप्यस्याः करिष्यामि व्रतं प्रिये । इति भार्यां समाश्वास्य जगाम नगरं प्रति ॥८४॥ ततः कलावती कन्या वर्द्धिता पितृवेश्मनि । दृष्ट्वा कन्यां ततः साधुर्नगरे बन्धुभिः सह ॥८५॥ मन्त्रयित्वा द्रुतं दूतं प्रेषयामास धर्मवित् । विवाहार्थं च कन्याया वरं श्रेष्ठं विचारयन् ॥८६॥ तेनाज्ञप्तश्च दूतोऽसौ काञ्चनं नगरं ययौ । तस्मादेकं वणिक्पुत्रं समादायागतो हि सः ॥८७॥ दृष्ट्वा तु सुन्दरं बालं वणिक्पुत्रं गुणान्वितम् । ज्ञातिभिर्बन्धुभिः सार्द्धं परितुष्टेन चेतसा ॥८८॥ दत्तवान् साधुपुत्राय कन्यां विधिविधानतः । ततोऽभाग्यवशात् तेन विस्मृतं व्रतमुत्तमम् ॥८९॥ विवाहसमयेऽप्यस्यास्तेन रुष्टोऽभवद्विभुः ॥९०॥ ततः कालेन क्रियता निजकर्म विशारदः ॥९१॥ satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा
( वाणिज्यार्थं गतः शीघ्रं जामात्रा सहितो वणिक्  रत्नसारपुरे रम्ये गत्वा सिन्धुसमीपतः ॥) वाणिज्यं कुरुते साधुर्जामात्रा श्रीमता सह । पुरीन्निर्माय नगरे चन्द्रकेतोर्नृपस्य च ॥९२॥ एतस्मिन्नेव काले तु सत्यनारायणः प्रभुः । भ्रष्टप्रतिज्ञमालोक्य शापं तस्मै प्रदत्तवान् । श्वः प्रभृति कियत्कालं महद् दुःखं भविष्यति ॥९३॥ तस्मिन्नेव दिने राज्ञो धनमादाय तस्करः । तेनैव वर्त्मना यातः पृष्ठदेशं विलोकयन् ॥९४॥ (तेन दूतान् समाहूय निजमाज्ञां च दत्तवान् ।) तत्पश्चाद्धावकान् दूतान् दृष्ट्वा भीतेन चेतसा । धनं संस्थाप्य तत्रैव गतः शीघ्रमलक्षितः ॥९५॥ ततो दूताः समायाता यत्रास्ते सज्जनो वणिक् । दृष्ट्वा नृपधनं तत्र बद्ध्वा दूता वणिक्सुतौ ॥९६॥ हर्षयुक्ता धावमाना ऊचुर्नृपसमीपतः । तस्करौ द्वौ समानीतौ विलोक्याज्ञापय प्रभो ॥९७॥ तेनाज्ञप्तस्ततः शीघ्रं दृढं बद्ध्वा तु तावुभौ । स्थापितव्यौ महादुर्गे कारागारेऽविचारयन् ॥९८॥
[ इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे श्रीसत्यनारायणव्रतकथायां चतुर्थोऽध्यायः ]
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पांचवाँ अध्याय
श्रीसूतजी बोले- हे ऋषियों! मैं एक और कथा कहता हूँ, सुनो। प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। उसने भी भगवान का प्रसाद त्यागकर बहुत दुःख पाया। एक समय वन में जाकर वन्य पशुओं को मारकर बड़ के पेड़ के नीचे आया, वहां उसने ग्वालों को भक्ति-भाव से बांधवों सहित सत्यनारायणजी का पूजन करते देखा। परंतु राजा अभिमान वश देखकर भी वहां नहीं गया और न नमस्कार ही किया। जब ग्वालों ने भगवान का प्रसाद उसके सामने रखा तो वह प्रसाद को त्यागकर अपनी सुन्दर नगरी को चला गया। वहां उसने अपना सब कुछ नष्ट पाया तब वह जान गया कि यह सब भगवान ने ही किया है। तब वह उसी स्थान पर ग्वालों के समीप गया और विधिपूर्वक पूजन कर प्रसाद खाया तो सत्यदेव की कृपा से पहले जैसा था, वैसा ही हो गया। फिर दीर्धकाल तक सुख भोगकर मरने पर स्र्वगलोक को गया। satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा
जो मनुष्य इस परम दुर्लभ व्रत को करेगा भगवान की कृपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन धनी और बन्दी बंधन मुक्त होकर निर्भय हो जाता है। सन्तानहीनों को संतान प्राप्ति होती है तथा सब मनोरथ पूर्ण होकर अंत में बैकुण्ठ धाम को जाता है। satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा
जिन्होंने पहले इस व्रत को किया अब उनके अगले जन्म की कथा कहता हूँ। वुद्ध शतानन्द ब्राह्यण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष को पाया। उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुण्ठ को प्राप्त हुआ। साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष को प्राप्त किया। महाराज तुंगध्वज स्वयंभू मनु हुए। उन्होने बहुत से लोगों को भगवान की भक्ति में लीन कर स्वयं मोक्ष प्राप्त किया। लकड़हारा भील अगले जन्म में गुह नामक निषाद राजा हुआ जिसने राम के चरणों की सेवा कर मोक्ष प्राप्त किया।
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पञ्चमोध्यायः

मायया सत्यदेवस्य न श्रुतं च तयोर्वचः । ततस्तयोर्धनं राज्ञा गृहीतं चन्द्रकेतुना ॥९९॥ तच्छापाच्च तयोर्गेहे भार्या च दुःखिताऽभवत् । चौरेणापहृतं सर्वं गृहे यच्च स्थितं धनम् ॥१००॥ आधिव्याधिसमायुक्ता क्षुत्पिपासातिपीडिता । अन्नचिन्तापरा भूत्वा भ्रमते च गृहे गृहे ॥१०१॥ तथा कलावती कन्या भ्रमते प्रतिवासरम् । एकस्मिन् दिवसे रात्रौ क्षुधार्ता द्विजमन्दिरम् ॥१०२॥ गत्वाऽपश्यद् व्रतं तत्र सत्यनारायणस्य च । उपविश्य कथां श्रुत्वा वरं सम्प्रार्थ्य वाञ्छितम् ॥१०३॥ प्रसादभक्षणं कृत्वा ययौ रात्रौ गृहं प्रति । ततो लीलावती कन्यां भर्त्सयामास तां भृशम् ॥१०४॥ पुत्रि रात्रौ स्थिता कुत्र किं ते मनसि वर्तते । द्विजालये व्रतं मातदृष्टं वाञ्छितसिद्धिदम् । तच्छ्रुत्वा कन्यकावाक्यं व्रतं कर्तुं समुद्यता ॥१०५॥ ससुता सा वणिग्भार्या सत्यनारायणस्य च । व्रतं हि कुरुते साध्वी बन्धुभिः स्वजनैः सह ॥१०६॥ satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा
भर्तृजामातरी क्षिप्रमागच्छेतां निजाश्रमम् । इति देवं वरं याचे सत्यदेवं पुनः पुनः ॥१०७॥ अपराधं च भर्तुर्मे जामातुः क्षन्तुमर्हसि । व्रतेन तेन तुष्टोऽसौ सत्यनारायणः प्रभुः ॥१०८॥ दर्शयामास स्वप्ने हि चन्द्रकेतुं नृपोत्तमम् । बन्धनान्मोचय प्रातर्वणिजौ नृपसत्तम ॥१०९॥ देयं धनं च तत्सर्वं विधियुक्तं हृतं च यत् । नो चेत्त्वां नाशयिष्यामि सराज्यधनपुत्रकम् ॥११०॥ एवमाभाष्य राजानं ध्यानगम्योऽभवत् प्रभुः । ततः प्रभातसमये राजा च स्वजनैः सह ॥१११॥ उपविश्य सभामध्ये प्राह पौरजनान् प्रति । बद्धो महाजनो शीघ्रं मोचयध्वं वणिक्सुतौ ॥११२॥
इति राज्ञो वचः श्रुत्वा मोचयित्वा महाजनौ । समानीय नृपस्याग्रे प्रोचुस्ते विनयान्विताः ॥११३॥ आनीतौ द्वौ वणिक्पुत्रौ मुक्तौ निगडबन्धनात् । ततो महाजनौ नत्वा चन्द्रकेतुं नृपोत्तमम् ॥११४ स्मरन्तो पूर्ववृत्तान्तं विस्मयाद् भयविह्वलो । राजा वणिक्सुतौ वीक्ष्य प्रोवाच सादरं वचः ॥११५॥ दैवात् प्राप्तं महद् दुःखमिदानीं नास्ति ते भयम् । इदानीं कर्तुमुचितं क्षौरकर्मादिकं च यत् ॥११६॥ ततो नृपाज्ञया सर्वं नित्यकृत्यं समाप्य च । शुक्लाम्बरधरौ शीघ्रं सभामध्ये समागतौ ॥११७॥ ततो नृपवरः श्रीमान् स्वर्णरत्नविभूषणैः । पुरस्कृत्य वणिक्पुत्रौ वचसा प्रीणयन् भृशम् ॥११८॥ पुरानीतं च यद् द्रव्यं द्विगुणीकृत्य दत्तवान् । प्रोवाच तौ ततो राजा गच्छ साधोनिजाश्रमम् ॥११९॥ राजानं प्रणिपत्याह गन्तव्यं त्वत्प्रसादतः ॥१२०॥
[ इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे श्रीसत्यनारायणव्रतकथायां पञ्चमोध्यायः ]
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षष्ठोऽध्यायः

सूत उवाच – यात्रां कृत्वा ततः साधुर्मङ्गलाचारपूर्विकाम् । ब्राह्मणाय धनं दत्त्वा सहर्षं नगरं ययौ ॥१२१॥ कियद् दूरे गते साधौ सत्यनारायणः प्रभुः । जिज्ञासां कृतवान् साधो किमस्ति तरणौ तव ॥१२२॥ ततो महाजनो मत्तो हेलया च प्रहस्य च । कथं पृच्छसि भो दण्डिन् मुद्रां कि लब्धुमिच्छसि ॥१२३॥ लतापत्रादिकं चैव वर्तते तरणौ मम । निष्ठुरं च वचः श्रुत्वा सत्यं भवतु त्वद्वचः ॥१२४॥ एवमुक्त्वा गतः शीघ्रं दण्डी तस्य समीपतः । गते दण्डिनि साधुश्च कृतनित्यक्रियस्तदा ॥१२५॥ उत्थितान्तरणिं दृष्ट्वा विस्मयं परमं ययो । लता पत्रादिकं दृष्ट्वा मूच्छितो न्यपतद् भुवि ॥१२६॥ लब्धसंज्ञो वणिक्पुत्रस्ततश्चिन्तान्वितोऽभवत् । जामाता दुहितुः कान्तो वचनं चेदमब्रवीत् ॥१२७॥ satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा
किमर्थं कुरुषे शोकं शापो दत्तश्च दण्डिना । शक्यते तेन सर्वं हि कर्तुं हर्तुं न संशयः ॥१२८॥ अतस्तच्छरणं याहि वाञ्छितार्थो भविष्यति । जामातुश्च वचः श्रुत्वा तत्सकाशं गतस्तदा ॥१२९॥ दृष्ट्वा तु दण्डिनं भक्त्यानत्वा प्रोवाच सादरम् । मया दुरात्मना देव मुग्धेन तव मायया ॥१३०॥ यदुक्तं तद्वचो नाथ दोषम्मे क्षन्तुमर्हसि । यतः परहिताः सर्वे क्षमासाराहि साधवः ॥१३१॥ पुनः पुनस्ततो नत्वा रुरोद शोकविह्वलः । तमुवाच ततो दण्डी विलपन्तं बिलोक्य च ॥१३२॥ मा रोदीः शृणु मे वाक्यं मम पूजाबहिर्मुखः । मामवज्ञाय दुर्बुद्धे लब्धं दुःखं मुहुर्मुहुः ॥१३३॥
तच्छ्रुत्वा भगवद्वाक्यं स्तुतिं कर्तुं समुद्यतः ॥१३४॥ साधुरुवाच – त्वन्मायामोहिताः सर्वे ब्रह्माद्यास्त्रिदिवौकसः । न जानन्ति गुणं रूपन्तवाश्चर्यमिदं विभो ॥१३५॥ मूढोऽहं प्राक् कथं जाने मोहितस्तव मायया । प्रसीद पूजयिष्यामि यथाविभवविस्तरैः ॥१३६॥ पुत्रं वित्तं च संवृत्तिं पाहि मां शरणागतम् ॥१३७॥ श्रुत्वा स्तवादिकं वाक्यं परितुष्टो जनार्दनः । वरञ्च वाञ्छितं दत्त्वा तत्रैवान्तरधीयत ॥१३८॥ ततोऽसौ नावमारुह्य दृष्ट्वा रत्नादिपूरिताम् । कृपया सत्यदेवस्य सफलं वाञ्छितं मम । इत्युक्त्वा स्वजनैः सार्द्ध पूजां कृत्वा यथाविधि ॥१३९॥ satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा
हर्षेण महता साधुः प्रयाणञ्चाकरोत्तदा । नावं संवाह्य वेगेन स्वदेशमगमत्तदा ॥१४०॥ ततो जामातरं प्राह पश्य वत्स पुरीं मम । दूतञ्च प्रेषयामास निजवित्तस्य रक्षकम् ॥१४१॥ ततोऽसौ नगरं गत्वा साघोर्भार्यां विलोक्य च । प्रोवाच वाञ्छितं वाक्यं नत्वा बद्धाञ्जलिस्तदा ॥१४२॥ तटे तु नगरस्यैव जामात्रा सहितो वणिक् । आगतो बन्धुवर्गैश्च धनैर्बहुविधैस्तदा ॥१४३॥ श्रुत्वा दूतस्य तद्वाक्यं महाहर्षयुता सती । सत्यपूजां ततः कृत्वा प्रोवाच तनुजां प्रति । व्रजामि शीघ्रमागच्छ साधुसन्दर्शनाय च ॥१४४॥ इति मातृवचः श्रुत्वा व्रतं कृत्वा समाप्य च । प्रसादञ्च परित्यज्य गता सापि पतिम्प्रति ॥१४५॥ तेन रुष्टः सत्यदेवो भर्तारं तरणिं तथा । संहृत्य च धनैः सार्द्धं जले तस्मिन् न्यमज्जयत् ॥१४६॥ satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा
ततः कलावती कन्या नाऽवलोक्य निजं पतिम् । शोकेन महता तत्र रुदन्ती चाऽपतद् भुवि ॥१४७॥ दृष्ट्वा तथाविधां कन्यां न दृष्ट्वा तत्पतिन्तरिम् । भीतेन महता साधुः किमाश्चर्यमिदन्त्विति । चिन्त्यमानाश्च ते सर्वे बभूवुस्तरिवाहकाः ॥१४८॥ ततो लीलावती साध्वी दृष्ट्वा च विह्वला सती । विललापातिदुःखेन भर्तारञ्चेदमब्रवीत् ॥१४९॥ इदानीं नौकया सार्धमदृष्योऽभूदलक्षितः । न जाने केन देवेन हेलया चाऽपहारितः ॥१५०॥ सत्यदेवस्य माहात्म्यं किंवा ज्ञातुं न शक्यते । इत्युक्त्वा बिललापाथ तत्रत्यैः स्वजनैः सह । ततो लीलावती कन्यां क्रोडे कृत्वा रुरोद च ॥१५१॥ ततः कलावती कन्या नष्टे स्वामिनि दुःखिता । गृहीत्वा पादुकां तस्यानुगन्तुञ्च मनोदधे ॥१५२॥ कन्यायाश्चरितं दृष्ट्वा सभार्यः सज्जनो वणिक् । अतिशोकेन सन्तप्तश्चिन्तयामास धर्मवित् ॥१५३॥ हृतो हि सत्यदेवेन जामाता सत्यमायया । सत्यपूजां करिष्यामि यथाविभवविस्तरैः ॥१५४॥ इति सर्वान् समाहूय कथयँश्च मनोरथम् । नत्वा च दण्डवद् भूमौ सत्यदेवं पुनः पुनः ॥१५५॥ satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा
ततस्तुष्टः सत्यदेवो गगनाद्वणिजम्प्रति । जगाद वचनञ्चेदं नैवेद्यञ्चावमन्य च । आगता स्वामिनं द्रष्टुमतोऽदृश्योऽभवत् पतिः ॥१५६॥ गृहं गत्वा प्रसादञ्च भुक्त्वा चायाति चेत् पुनः । लब्धभर्त्री सुता साधो भविष्यति न संशयः ॥१५७॥ ततस्तत्प्राणदं वाक्यं श्रुत्वा गगनमण्डलात् । क्षिप्रन्तदा गृहं गत्वा प्रसादं प्रतिगृह्य च । अपश्यत् पुनरागत्य पतिं नाविजनैः सह ॥१५८॥ ततः कलावती तुष्टा जगाद पितरं प्रति । एहि तात गृहं यामो विलम्बं कुरुषे कथम् ॥१५९॥ तच्छ्रुत्वा कन्यकावाक्यं सन्तुष्टोऽभूद् वणिक्सुतः । पूजनं सत्यदेवस्य कृत्वा बहुविधानतः । धनैर्बन्धुजनैः सार्द्धं जगाम निजमन्दिरम् ॥१६०॥ मासि मासि च संक्रान्त्यां पूजां कृत्वा यथाविधि । इह लोके सुखं भुक्त्वा चाऽन्ते सत्यपुरं ययौ ॥१५१॥ अथ चान्यत् प्रवक्ष्यामि शृणुध्वं मुनिसत्तमाः ॥१६२॥satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा
[ इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे श्रीसत्यनारायण व्रतकथायां षष्ठोऽध्यायः ]
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सप्तमोऽध्यायः

आसीद् वंशध्वजो राजा प्रजापालनतत्परः । प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्वा दुःखमवाप सः ॥१६३॥ एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान् मृगान् । आगत्य वटमूले च दृष्ट्वा सत्यस्य पूजनम् ॥१६४॥ गोपाः कुर्वन्ति सन्तुष्टाः नृत्य-गीतपरायणाः (राजा दृष्ट्वा तु दर्पेण नाऽऽगतो न ननाम सः) ॥१६५॥ ततो गोपगणाः सर्वे प्रसादं नृपसन्निधौ । संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्वा सर्वेर्यथेप्सितम् ॥१६६॥ तत्प्रसादं परित्यज्य राजा दुःखमवाप्तवान् । तस्य पुत्रशतं नष्टं धनधान्यादिकञ्च यत् ॥१६७॥ ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणैः सह । भक्ति-श्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृपः ॥१६८॥ तद्व्रत्तस्य प्रभावेण धनपुत्रान्वितोऽभवत् । इह लोके सुखं भुक्त्वा पश्चात् सत्यपुरं ययौ ॥१७९॥ satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा
माहात्म्य – य इदं कुरुते सत्यव्रतं परमदुर्लभम् । शृणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तेन चेतसा ॥१॥ धनधान्यादिकं तस्य भवेत् सत्यप्रसादतः । दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत बन्धनात् ॥२॥ भीतो भयात् प्रमुच्येत सत्यमेव न संशयः । ईप्सितं च फलं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं व्रजेत् ॥३॥ इति वः कथितं विप्राः सत्यनारायणव्रतम् । यत्कृत्वा सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो भवति मानवः ॥४॥ विशेषतः कलियुगे सत्यपूजा फलप्रदा । केचित् कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव हि ॥५॥ सत्यनारायणं केचित् सत्यदेवं तथाऽपरे । नानारूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रदम् ॥७॥ य इदं पठते नित्यं शृणोति मुनिसत्तमाः । तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेवप्रसादतः ॥८॥ satyanarayan katha pdf श्री सत्यनारायण व्रत कथा
[ इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे श्रीसत्यनारायणव्रतकथायां सप्तमोऽध्यायः ]

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