भागवत कथा का पहला दिन PDF

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इस प्रकार नारदजी ने अपने पूर्व जन्म की कथा फिर शुरू की और कहा कि हे व्यास जी ! उन संतों के उपदेश के बाद मैं चाहता था कि माँ का स्नेह उनके प्रति कुछ कम हो और माता से छुट्टी मिल जाय ताकि भजन कर सकें लेकिन मेरी माता ने संतों के साथ नहीं जाने दिया ।

अतः मैं अपनी माता की सेवा करता रहा। मेरी माँ गाय दुहने का काम भी करती थी । संयोगवश एक दिन जब वह गाय दुहने गयी थी तो एक साँप ने उसे डंस लिया, माँ गुजर गयी। माँ की मृत्यु को मैंने भगवान् की कृपा मानी । दुःख तो हुआ, लेकिन माँ की ममता से मुक्ति मिल गयी।

अनुग्रहं मन्यमानः प्रातिष्ठं दिशमुत्तराम् ।

उसके बाद मैं उत्तर दिशा की ओर चल दिया। अनेक नगरों, वनों को पार करते मैं एक निर्जन वन में पहुँचा। मैं भूख प्यास से व्याकुल था । संयोग से उस निर्जन वन में एक नदी थी। वहीं पर उस नदी में मैंने स्नान किया, जल ग्रहण किया और एक पीपल के वृक्ष के नीचे विश्राम करने के बाद ध्यान करने लगा।

सहसा मेरे हृदय में भगवान् प्रकट हो गये। मेरे ध्यान में भगवान् का दिव्य रूप आ गया। मैं (नारदजी) भगवान् का दर्शन से आत्मविभोर हो गया तथा अपने पराये का ज्ञान भूल गया।

कुछ देर के बाद भगवान् की मूर्ति लुप्त हो गयी। उस समय मेरी स्थिति पागल – सी हो गयी और मैं व्याकुल हो गया। मैंने फिर ध्यान लगाया, लेकिन दुबारे भगवान् के दर्शन नहीं हुए।

प्यासे को जैसे एक घूँट जल पीने के बाद और जल पीने की ज्वाला जगती है, वेसी ही स्थिति मेरी हो गयी । इसी व्याकुलता में आकाशवाणी हुइ कि इस जीवन में अब भगवान् की स्मृति केवल बराबर बनी रहेगी वह छवि का दर्शन अब नही होगा। इसप्रकार नारदजी ने आकाशवाणी के वचनो को स्वीकार किया तथा वे भगवान् के नाम का गान करते हुये पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे। वे हर जगह भ्रमण किये।

अतः हर मानव अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करे तो अत्याचार, दुराचार नहीं होगा। नारदजी सदा काल की प्रतीक्षा करते थे एक दिन काल विद्युत् की चमक के सदृश आया। नारदजी का भौतिक शरीर छूटकर पंचतत्व में विलीन हो गया। यानी नश्वर शरीर से वह आत्मा निकल गयी । नारदजी तत्क्षण भगवान् के पार्षद बन गये।

फिर प्रलय के बाद विष्णु की नाभि से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई । ब्रह्मा से मैं (नारद ) उत्पन्न हुआ। नारदजी की गति अबाध है। अतः भगवान् की शरणागति करने से चित्त को शान्ति प्राप्त होती है।

आगे नारदजी ने उपदेश दिया कि हे व्यास जी! आप भागवत का गायन करें, शान्ति मिलेगी। इतना उपदेश देकर फिर श्री नारदजी वीणा बजाते हुए प्रस्थान कर गये।

 

व्यासजी ने श्री नारद जी के द्वारा कही गयी भागवतकथा का स्मरण कर श्रीमद् भागवत महापुराण की रचना की। अठारह हजार श्लोक वाली श्रीमद् भागवत कथा की रचना करके सबसे पहले श्रीशुकदेव जी को पढ़ाया।

शौनक जी महर्षि वेदव्यास जी ने इस सात्वत संहिता की रचना की तो विचार करने लगे कि इसका उत्तम अधिकारी कौन है उस समय उन्हें अपने पुत्र परमवीत राग श्री सुखदेव जी का स्मरण आया उन्होंने अपने शिष्यों को भागवत के कुछ श्लोक याद कराएं वे व्यास शिष्य वन मे जाते तो भागवत के श्लोकों का गान करते एक दिन वे उसी वन में पहुंचे जहां श्री सुखदेव जी ध्यान में बैठे हुए थे एक शिष्य के मुख से निकला श्लोक ।

बर्हापीडं नटवर वपुः कर्णयोः कर्णिकारं बिभ्रद् वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् ।

रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दै र्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः ।।

भगवान श्री कृष्ण ने अपने सिर पर मयूर का पिछ धारण कर रखा है श्रेष्ठ नेट के समान उनका सुंदर वेश है कान में कनेर का पुष्प शरीर में पीतांबर और गले में एक वनमाला  शोभायमान हो रही है अपने चरण कमलों से वृंदावन को पवित्र करते हुए भगवान श्री कृष्ण ग्वाल बालों के साथ वन में प्रवेश कर रहे हैं ग्वाल-बाल भगवान के कीर्ति का गान कर रहे हैं ।

श्री सुखदेव जी ने भगवान श्री कृष्ण के स्वरूप का इतना दिन में वर्णन सुना तो उनका ध्यान टूट गया खड़े होने वाले थे कि मन में विचार आ गया कि जो स्वरूप वान होते हैं उन्हें अपने रुप का बहुत अभिमान होता है इसी समय व्यास जी के दूसरे शिष्य ने दूसरा श्लोक सुनाया।

अहो बकीं यं स्तनकाल कूटं जिघांसयापाययदप्य साध्वी ।

लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोन्यं क वा दयालुं शरणं व्रजेम ।।

इस श्लोक में भगवान के स्वभाव का वर्णन किया गया है अहा बक दैत्य की बहन व की पूतना श्री कृष्ण को मारने की इच्छा से अपने स्तनों में कालकूट जहर लगा कर आई थी परंतु भगवान की करुणा कृपा तो देखो उसे भी माता की गति प्रदान कर दी ऐसे श्री कृष्ण को छोड़ कर हम किसकी शरण ग्रहण करें।

श्री सुखदेव जी ने जैसे ही श्री कृष्ण के स्वभाव का वर्णन सुना उठ खड़े हुए कहा आप लोग बहुत अच्छे श्लोक सुना रहे हो और सुनाओ व्यास शिष्यों ने कहा हमें तो इतना ही आता है यदि आपको और सुनने की इच्छा है तो हमारे गुरुदेव के पास चलो उनके पास ऐसे 18000 श्लोक हैं।

सुखदेव जी ने कहा आप के गुरु कौन हैं शिस्यो ने कहा हमारे गुरु वेद व्यास जी हैं श्री सुखदेव जी ने जैसे ही है सुना सुखदेव जी प्रसन्न हो गए और कहने लगे अरे वो तो हमारे पिताजी हैं और चल पड़े अपने पिता श्री वेदव्यास जी के पास और भागवत महापुराण का अध्ययन किया—

आत्मारामाश्च मुनयो निर्गन्था अप्युरुक्रमे । कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः ।।

सौनक् जी भगवान श्री हरि के गुण ही ऐसे हैं कि जो आत्माराम है जिनकी अविद्या की गांठ खुल गई है वह भी भगवान श्रीहरि की निष्काम भक्ति करते हैं।

सुखदेव जी ने इस भागवत संहिता का अध्ययन कर उसे राजा परीक्षित को सुनाया सौनक जी पूछते राजा परीक्षित ने इस श्रीमद् भागवत का श्रवण कहां और किस कारण से किया शौनक जी ने इस प्रकार जब पूछा तो सूत जी राजा परीक्षित के जन्म की कथा सुनाना प्रारंभ करते हैं !         

श्रीसूतजी ने शानक जी से कहा कि हे शौनकजी! अब आगे वह राजा परीक्षित के जन्म, कर्म और उनकी मुक्ति तथा पाण्डवों के महाप्रस्थान की कथा सुनें, जिससे आपके प्रश्नों का समाधान हो जायेगा।

उस महाभारत में भगवान् स्वयं अर्जुन का रथ हॉकने वाले बने थे क्योंकि रथ हाँकने वाला समझदार होगा तभी महारथी का कल्याण होगा। अतः प्रभु श्रीकृष्ण ने अर्जुन के रथ को हाँका तथा उस महाभारत संग्राम में पाण्डवों को विजयी दिलायी।

यदा मृधे कौरवसृञ्जयानां वीरेष्वथो वीरगतिं गतेषु ।

वृकोदराविद्ध गदाभिमर्श भग्नोरूदण्डे धृतराष्ट्र पुत्रे ।।

महाभारत युद्ध में कौरव और पांडवों के पक्ष के अनेकों वीर वीरगति को प्राप्त हो गए और भीमसेन के प्रचंड गदा के प्रहार से दुर्योधन की जंघा भग्न हो गई दुर्योधन कुरुक्षेत्र की समरांगण में अधमरा पड़ा-पड़ा कराह रहा था उस समय अश्वत्थामा उसके पास आया कहा मित्र यदि तुम चाहो तो मैं अकेला ही तुम्हारे भाइयों की मृत्यु का बदला पांडवों से ले सकता हूं।

अश्वत्थामा के इस  प्रकार कहने पर दुर्योधन ने अपने रक्त से अश्वत्थामा का तिलक कर दिया जिससे अश्वत्थामा की बुद्धि बिगड़ गई वह रात्रि में एक वृक्ष के नीचे बैठकर विचार करने लगा पांडवों को कैसे मारूं उसी समय उसने देखा एक उल्लू सोते हुए कौये के घोसले में घुसकर उन्हें मार रहा है यहीं से शिक्षा प्राप्त कर अश्वत्थामा हाथ में तलवार ले रात्रि में ही पांडवों को मारने के लिए निकल पड़ा।

यहां भगवान श्री कृष्ण ने पांडवों से कहा विजय की रात्रि शयन नहीं जागरण करना चाहिए भजन सत्संग करना चाहिए भगवान श्री कृष्ण की बात मान पांडव भजन सत्संग के लिए शिविर से बाहर निकल आए पांडवों के स्थान पर द्रोपती के पांच पुत्र प्रतिदिम्भ.श्रुतसेन. श्रुतकीर्ति शतानीक और श्रुतकर्मा सो रहे हैं जो देखने में बिल्कुल पांडवों की तरह ही लगते हैं।

अश्वत्थामा ने उन्हें पांडव समझकर सोते हुए उनका सिर काट ले गया और दुर्योधन को भेंट किया दुर्योधन ने मृत पांडवों को देखा अत्यंत प्रसन्न हुआ परंतु जब चंद्रमा के प्रकाश में पास से पांडवों को सिर देखा समझ गया पांडव नहीं उनके पुत्र हैं अश्वत्थामा से कहा तुमने तो हमारा वंश ही नाश कर दिया।

दुर्योधन अत्यंत बेदना से पीड़ित हुआ उसे वरदान था जीवन में के साथ अत्यंत हर्ष और शोक होगा वही तुम्हारी मृत्यु का कारण होगा आज दुर्योधन का हर्ष और शोक के कारण प्राणांत हो गया यह अश्वत्थामा को जब यह मालूम हुआ पांडव जीवित है अब वे मुझे नहीं छोड़ेंगे तब भयभीत हो अश्वत्थामा वहां से भागा।

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माता शिशूनां निधनं सुतानां निशम्य घोरं परितप्यमाना ।

तदारूदद्वाष्प कलाकुलाक्षी तां सान्त्वयन्नाह किरीट माली ।।

यहां प्रातः काल द्रोपती ने अपने पुत्रों की मृत्यु का समाचार सुना अत्यंत दुखी हो गई विलाप करने लगी । अर्जुन ने कहा द्रोपती शोक मत करो जिस आतताई अधम ब्राह्मण ने तुम्हारे पुत्रों का वध किया है उसका सिर काट कर तुम्हें भेंट करूंगा तब तुम्हारे आंसू पोछूंगा।

ऐसा कहा अर्जुन ने श्रीकृष्ण को सारथी बनाया और रथ में बैठ अश्वत्थामा का पीछा किया बचने हेतु अश्वत्थामा रथ पर सवार होकर भागा । अन्ततः अश्वत्थामा के घोड़े थक गये। ऐसी स्थिति में उसने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया।

अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। दोनों ब्रह्मास्त्र टकरा गये। प्रलय-सा दृश्य हो गया। चारों ओर हाहाकार मच गया। भगवान् के आदेश से अर्जुन ने अपने ब्रह्मास्त्र को खींचकर शान्त किया और अश्वत्थामा को पकडकर रस्सी में बाँधकर अर्जुन अपने डेरे में ले आये।

अर्जुन ने गुरुपुत्र जानकर उस समय उस अश्वत्थामा की हत्या नहीं की। वह अश्वत्थामा को बँधी अवस्था में देखकर द्रौपदी को दया आ गयी।

उसने कहा कि इसे छोड़ दें, छोड़ दें । आखिर यह गुरु पुत्र है। द्रौपदी ने अश्वत्थामा द्वारा इस तरह का जघन्य बाल वध करने पर भी उसे प्रणाम किया। द्रौपदी ने अर्जुन से कहा कि पूज्य गुरु ने ही आपको धनुर्विद्या सिखायी, सम्पूर्ण शस्त्रों का ज्ञान दिया।

अश्वत्थामा साक्षात् द्रोणाचार्य के रूप में विद्यमान हैं मैं तो स्वयं पुत्र शोक में रो रही हूँ। अब इसकी माता को पुत्र शोक न दें। द्रौपदी अपने पुत्रों की हत्या करनेवाले पर भी दया कर क्षमा की याचना कर रही है। यह उसकी महानता का उत्कर्ष है।

द्रौपदी का चरत्रि जाज्वल्यमान नक्षत्र की भाँति मानव इतिहास में प्रदीप्त है। युधिष्ठिर आदि लोगों ने भी द्रौपदी के विचारों की पुष्टि की। लेकिन, भीम इसे सहन नहीं कर पाये। वे बोले कि इस दुष्ट की हत्या करना ही श्रेयस्कर है।

भीम अश्वत्थामा को मारने चले। द्रौपदी उसे बचाने चली। उस समय कृष्ण भगवान् ने चार भुजा धारण करके दो भुजाओं से भीम को तथा दो भुजाओं से द्रौपदी को रोका। अश्वत्थामा बीच में हैं अर्जुन ने कहा कि पहले तो आपने इसे मारने को कहा और अब इसे बचा रहे हैं।

भगवान् कृष्ण ने कहा गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण वध के योग्य नहीं होते। लेकिन शस्त्रधारी एवं आततायी वध के योग्य होते हैं। ये दोनों बातें मैंने ही कही है। इसका यथा योग्य पालन करो। प्राण दण्ड कई प्रकार के होते हैं। तुम्हें द्रौपदी से किये वादे का भी ख्याल रखना है तथा द्रौपदी के भी वचनों को याद रखना है। यदि द्रौपदी कह रही है कि

“मुच्यताम् मुच्यतामेष ब्राह्मणो नितरां गुरुः ।”

इसे छोड़ दो क्योंकि यह गुरुपुत्र है। इधर भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन !

“ब्रह्म – बन्धुर्न हन्तव्य आततायी वधार्हणः मयैवोभयमाम्नातं परिपायनुशासनम् ।”

ब्राह्मण एवं बन्धु की हत्या नहीं करनी चाहिए परन्तु शस्त्रधारी आततायी का वध अवश्य करना चाहिए । शास्त्र में यह भी है –

“वपनं द्रविणादानं स्थानान्निर्यापणम् तथा एषहि ब्रह्मबन्धूनां वघो नान्योऽस्ति दैहिकः ।

ब्राह्मण एवं बन्धु के प्राणवध का मतलब उसका सिर के बाल मूँड़ देना पद छीन लेना, स्थान से या घर आदि से बाहर कर देना यही वध है। यानी शरीर द्वारा वध नहीं करना चाहिए, परन्तु हे अर्जुन! तुमने अश्वत्थामा का सिर लाकर द्रौपदी को देने को कहा था। कुछ ऐसा करो कि तुम्हारी और भीम दोनों की बात रह जाय ।

अर्जुन सरल स्वभाव के थे। वे भगवान् की बात समझ गये। उन्होंने केश सहित अश्वत्थामा की मणि को उसके सिर से निकाल लिया और द्रौपदी के पास रख दिया एवं उस अश्वत्थामा को उस शिविर से बाहर कर दिया।

अश्वत्थामा विक्षिप्तावस्था में वहाँ से भाग गया। जो ब्राह्मण का धर्म पालन नहीं करता, वह पूर्ण ब्राह्मण नहीं रह जाता। मात्र जाति का ब्राह्मण रहता है। ब्राह्मण का तेज ही उसका प्राण होता है। ब्राह्मण के सिर के बाल को मुंडन करा देना, धन छीन लेना, स्थान से निकाल देना ही दण्ड है। उसका अंग भंग नहीं करना चाहिए।

अर्जुन ने अश्वत्थामा का तेज हरण कर लिया और उसे शिविर से बाहर निकाल दिया। इधर अब युद्ध समाप्त हो चुका था। युद्ध में मारे गये पुत्र – परिजनों के शोक में पांडव परिवार शोक मग्न – समझाया हो गया।

उन्होंने दोनों पक्षों के मृतकों को जल दान दिया । भगवत् – स्मरण किया। गंगा-जल से स्नान किया। कृष्ण भगवान् ने सबको समझाया । जो होना है, वही होगा। शोक नहीं करना चाहिए। फिर बाद में युधिष्ठिर ने राजगद्दी को स्वीकार किया। वह श्रीकृष्ण भगवान् धर्मराज युधिष्ठिर को सिंहासन पर बैठाकर द्वारका जाने की तैयारी कर रहे थे।

इधर अश्वत्थामा ने पांडव वंश के बीज का नाश करने के लिये उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे के उपर पुनः ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया । उस गर्भ में पड़े बच्चे की रक्षा के लिए उत्तरा श्रीकृष्ण की गुहार करने लगी ।

पाहि पाहि महायोगिन्देवदेव जगत्पते । नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युःपरस्परम्।।

हे देवाधिदेव जगदीश्वर रक्षा कीजिए रक्षा कीजिए इस संसार में आपके अतिरिक्त अभय प्रदान करने वाला मुझे कोई और दिखाई नहीं दे उत्तरा रक्षा के लिए बार – बार भगवान् कृष्ण को पुकारने लगी।

उसका आर्त्तनाद सुनकर योगमाया से कृष्ण भगवान् उसके गर्भ में प्रविष्ट हो गये और ब्रह्मास्त्र से दग्ध बच्चे की रक्षा करने लगे। वह दग्ध बच्चा भगवान् द्वारा रक्षित होने के कारण ही अपने स्वरूप को प्राप्त कर सका।

भगवान् ने सुदर्शन चक्र के समान तेज गति से गदा को घुमाकर गर्भ में उस बालक की रक्षा की थी। अश्वत्थामा के निवारणार्थ सभी पाण्डवों ने अपने-अपने बाण छोड़े। अर्जुन को ब्रह्मास्त्र छोड़ने में विलम्ब हो गया।

अर्जुन को अपनी धनुर्विद्या पर अभिमान था । अहंकार ही भगवान् का आहार होता है। अन्ततोगत्वा भगवान् ने सुदर्शन चक्र चलाकर अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से पांडवों की रक्षा की। श्रीकृष्ण भगवान् ने भक्तवत्सलता में पांडवों की तथा उत्तरा के गर्भ में पड़े परीक्षित् की भी रक्षा की । शास्त्र में कहा गया है कि श्रीवैष्णवों के उपर चलाया गया कोई भी अस्त्र शस्त्र निष्फल हो जाता है।

 श्रीमद्भागवत महापुराण साप्ताहिक कथा के सभी भागों की लिस्ट

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