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इधर उत्तरायण का समय आया तो भीष्म पितामह ने श्रीकृष्ण भगवान् के चतुर्भुज स्वरूप में ध्यानमग्न होकर मौन हो गये। उनकी सारी वासनायें नष्ट हो गयीं। वे शरीर को छोड़नेवाले हैं अतः उनके अन्त समय में भगवान् उनके सामने साक्षात् खड़े हैं। वे स्तुति करते हैं कि हे भगवन् ! आप लीला करने के लिए प्रकृति का आश्रय लिये हुए हैं मेरे पास आपको देने के लिए कुछ नहीं है। अपनी मति को आपके चरणों में समर्पित करता हूँ ताकि मेरा अनुराग आपमें बना रहे। इस प्रकार भीष्माचार्य ने ग्यारह श्लोकों से स्तुति की।

“इति मतिरूप कल्पिता वितृष्णा भगवति सात्वत पूर्ण वे विभून्मि,

स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहतुं प्रकृति मुपेयुषि यद्भवप्रवाहः ।

श्रीमद्भा० १ / ६ / ३२

त्रिभुवनकमनं तमाल वर्णं रविकरगौरवराम्बरं दधाने ।

वपुरलककुलावृताननाब्जं विजयसखे रतिरस्तुमेनवद्या ।।

प्रभु त्रिलोकी में आपके सामान सुंदर कोई दूसरा नहीं है श्याम तमाल के समान सांवरे शरीर पर सूर्य की रश्मियों के समान श्रेष्ठ पीतांबर शोभायमान हो रहा है मुख पर घुंघराली अलकावलिया लटक रही हैं ऐसे श्रीकृष्ण से मैं अपनी पुत्री का विवाह करना चाहता हूं।

भगवान श्री कृष्ण ने कहा पितामह भीष्य क्या बोल रहे हो आप तो नैष्ठिक ब्रह्मचारी हो फिर आप की पुत्री कैसे हो सकती है पितामह भीष्म ने कहा प्रभो यह जो मेरी बुद्धि है यही मेरी पुत्री है इसी का विवाह मैं आपसे करना चाहता हूं।

भगवान श्री कृष्ण ने कहा पितामह आप की पुत्री की योग्यता क्या है पितामह भीष्म ने कहा प्रभु यह तृष्णा से कामना से रहित है इसकी अपनी कोई कामना नहीं है ऐसी अपनी बुद्धि को मैं आपके चरणों में समर्पित करता हूं और प्रभु युद्ध में जब आप सारथी बने थे उस समय अर्जुन की आज्ञा पाकर आपने अपना रथ दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा कर दिया।

तो प्रभु उस समय मैंने आपकी एक चोरी पकड़ी प्रभु बोले क्या भीष्म पितामह कहते हैं आप ने शपथ ले रखी थी मैं युद्ध में शस्त्र नहीं उठाऊंगा अरे आपको शस्त्र की भी क्या आवश्यकता है।

जब अर्जुन युद्ध करता तो आप बैठे-बैठे इतना सुंदर स्वरूप बना लेते कि शत्रु पक्ष का सैनिक आपको देखता तो देखता ही रह जाता इसी अवसर को पाकर अर्जुन उसका बध कर देता अरे आप बैठे बैठे ही शत्रु पक्ष के सैनिक की आयु का हरण कर रहे थे ।

स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञा मृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थः ।

धृतरथचरणोभ्ययाच्चलद्गु र्हरिरिव हन्तुमिभं गतोत्तरीयः ।।

जब युद्ध के प्रारंभ में के कुछ दिन व्यतीत हो गए और पांडवों का बाल भी बांका नहीं हुआ उस समय मामा शकुनी के बहकाने पर दुर्योधन ने पितामह भीष्म से कहा पितामह आप पक्षपाती हैं।

आपके हृदय में पांडवों के प्रति मोह है अन्यथा आप जैसा परशुराम के शिष्य के सामने त्रिलोकी मे युद्ध करने की सामर्थ्य  किस में है पितामह भीष्म ने कहा यदि ऐसी बात है तो कल पांडव जीवित रण भूमि से नहीं लौटेंगे..

जो पे वीर पारथ को रथ ना मिलाऊं धूरि तो पे कुरु वंशिन को अशं ही न जानिये ।

जो पे मेरे बांण पाण्डवन के ना भेदें प्राण तो पे कहि कायर प्रमाण ही बखानिये ।।

और दुर्योधन तुम्हें यदि मृत्यु का भय है तो कल ब्रह्म मुहूर्त में अपनी पत्नी भानुमति को आशीर्वाद के लिए मेरे पास भेज देना भीष्म पितामह की बात सुनकर दुर्योधन प्रसन्न हो गया उत्सव मनाने लगा यहां जब श्रीकृष्ण को यह बात पता चली उन्हें नींद नहीं आई।

दौड़े-दौड़े धर्मराज युधिष्ठिर के पास पहुंचे देखा तो युधिष्ठिर ध्यान लगाए बैठे हुए थे भगवान श्री कृष्ण ने कहा युधिष्ठिर तुम्हें मालूम है भीष्म पितामह ने प्रतिज्ञा की है कल मैं युद्ध में पांडवों का वध कर दूंगा । युधिष्ठिर बोले–

जिनके रक्षक हैं घनश्याम उन्हें कोई मार नहीं सकता । प्रभु दीनबंधु का दास कभी हार नहीं सकता ।।

भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर की इस निश्चिंतता को देखा तो भीम के पास गए देखा तो भीम मजे से भोजन कर रहे थे भगवान श्री कृष्ण ने कहा भैया भीम यहां आप भोजन कर रहे हो वहां पितामह भीष्म ने पांडवों को मारने की प्रतिज्ञा की है तब भीमसेन ने कहा—-

किसी की नाव पानी में यहां रहती में चलती है । प्रभु घनश्याम जब सर पर तसल्ली दिल पर रहती है ।।

भगवान श्री कृष्ण ने भैया भीम की इस मस्ती  को देखा तो सोचा द्रोपती चिंतित होगी जब द्रोपती के पास गए तो देखा द्रोपती निश्चिंत सो रही है भगवान श्री कृष्ण ने द्रोपती को जगाया कहा कृष्णा तुम यहां सो रही हो वहां कल के युद्ध में भीष्म पितामह तुम्हारे सौभाग्य को उजाड़ने के प्रतिज्ञा कि है।

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द्रोपती ने कहा प्रभु आपके होते हुए मुझे चिंता करने की क्या आवश्यकता है भगवान श्री कृष्ण ने द्रोपती का हाथ पकड़ा और भीष्म के शिविर की ओर चल पड़े द्रोपती की जूतियां बहुत आवाज कर रही थी भगवान ने सोचा कहीं भेद ना खुल जाए इसलिए उन जूतियों को उतारकर श्री कृष्ण अपने बगल में दबा लिया।

पितामह भीष्म के शिविर के पास पहुंच कर भगवान ने द्रोपती से कहा कृष्णा कुछ बोलना मत एक दम शांत रहना और पितामह भीष्म जब तक तीन बार आशीर्वाद ना दे दे तब तक सिर उठाना मत द्रोपती गई पितामह भीष्म संध्यावंदन से निर्वित्त तो हो रहे थे उसी समय द्रोपती ने अपना सिर पितामह भीष्म के चरणों में रख दिया शिविर में रोशनी कम थी।

पितामह भीष्म ने समझा भानुमति आई है दुर्योधन की पत्नी आशीर्वाद दिया सौभाग्यवती भव सौभाग्यवती भव इतने पर भी जब द्रोपती में सिर नहीं उठाया तो पितामह अपना कर कमल द्रोपती के सिर पर रखा और का अखंड सौभाग्यवती भव।

जैसे ही तीन बार आशीर्वाद मिल गया द्रोपती ने घूंघट उठाया और कहां पितामह कल की प्रतिज्ञा सत्य है या आज का आशीर्वाद पितामह ने कहा द्रोपती तुम यहां किसके साथ आई हो द्रोपती ने कहा अपनी दासी  के साथ आई हूं।

पितामह ने कहा दासी कहां है द्रोपती बोली बाहर खड़ी है । भीष्म ने जब बाहर आकर देखा तो  सर पर घूंघट बगल में जूतियां लिए   भगवान श्री कृष्ण बाहर खड़े हुए हैं भीष्म पितामह ने कहा  अरे भगवान कृष्ण जिनकी तरफ है उनका संसार क्या बिगाड़ सकता है। परंतु आज श्रीकृष्ण ने मेरी प्रतिज्ञा को भंग किया है इसलिए मैं प्रतिज्ञा करता हूं।

आज यदि हरिहिं न शस्त्र घहाऊं तो लाजौं गंगा जननी कौ शान्तनु सुत ना कहावौं ।।

आज यदि मैंने युद्ध में श्री कृष्ण को शस्त्र नहीं उठवा दिया तो मैं अपनी मां का पुत्र नहीं भगवान श्री कृष्ण ने कहा..

भाखत कहां हो ऐसी धारणा ना राखो चित्त प्रण के विरुद्ध पक्षपात ना बिचारिहौं ।

बनो हूं सारथी रथ हांकन मेरो काम न्याय के विरुद्ध युद्ध को नियम ना विसारिहौं ।

जो मैं एक बाप को सबल सपूत हैं हों मैं काहूं भांति अस्त्र कर ना धारिहों ।।

पितामह यदि मैं एक बाप का पुत्र हूं तो अस्त्र हाथ में धारण नहीं करूंगा आज महाभारत युद्ध प्रारंभ हुआ भीष्म पितामह ने सर्वप्रथम भगवान पर अस्त्र बरसाए परंतु जब भगवान मुस्कुराते रहे तो पितामह अर्जुन पर बाणों की वर्षा प्रारंभ कर दी।

ऐसे बाण छोड़े की दसों दिशाओं में अर्जुन को पितामह भीष्म ही दिखाई देने लगे और उनके बाण इस बाण वर्षा को देख अर्जुन विह्वल हो गए कहा प्रकरो हे कृष्ण हे माधव रक्षा करो रक्षा करो भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन की वेदना को देखा तो अपनी प्रतिज्ञा भूल गए।

रथ से कूद पड़े एक रथ का पहिया उठाया और भीष्म पितामह को मारने के लिए दौड़ पड़े पितामह भीष्म ने धनुष को छोड़ दिया भगवान श्री कृष्ण के चरणों में प्रणाम किया कहा कन्हैया पहले यह बताओ तुम्हारे कितने बाप हैं श्रीकृष्ण ने कहा…

भोले घनश्याम सुनो भीष्म भगतराज मोहे जन्म देने वाले जग में अपार हैं

सिंधु खम्भ धरणि पाषाण से प्रगट होत कहां लव बखानौं मेरे अमित अवतार हैं ।

कोऊ कहे वसुदेव देवकी को लाल हौं कोू कहे नंद यशुदा को कुमार हौं

जाको एक बाप बचावे निज लाज सोई मेरी कौन लाज मेरे बाप को हजार हैं ।।

पितामह भीष्म ने अंतिम समय भगवान के रास का स्मरण किया और अपने प्राणों को श्रीकृष्ण के चरणों में विलीन कर दिया ।

उस समय देवता जय जयकार करने लगे पुष्पों की वर्षा और ढोल नगाड़े बजाने लगे ।

    बोलिए भक्तवत्सल भगवान की जय

इस कथा श्रवण से श्री, यश की वृद्धि होती है तथा श्री प्रभु में प्रेम होता है।

धर्मराज युधिष्ठिर ने पितामह की अंत्येष्टि क्रिया की तत्पश्चात पांडवों से आज्ञा लेकर श्रीकृष्ण  द्वारिका को प्रस्थान किए द्वारिका पहुंच कर उन्होंने सर्वप्रथम अपने माता-पिता को प्रणाम किया और फिर महल में प्रवेश किया..

अश्वत्थाम्नोपसृष्टेन ब्रह्मशीर्ष्णोरुतेजसा । उत्तराया हतो गर्भ ईशेनाजीवितः पुनः ।।

तस्य जन्म महाबुद्धेः कर्माणि च महात्मनः । निधनं च यथैवासीत्स प्रेत्य गतवान यथा ।।

सौनक जी श्री सूतजी से पूछते हैं अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से उत्तरा का जो गर्भ नष्ट हो गया था और जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने पुनः जीवित कर दिया था उन महाराज परीक्षित के जन्म कर्म और किस प्रकार उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई है बताइए।

अभिमन्यु की पत्नी उतरा के गर्भ से प्रकट हुए परीक्षित् ने जन्म समय भगवान् को अंगूठे के बराबर स्वरूप में कुंडल पहने देखा था। भगवान् उस स्वरूप में रक्षा कर रहे थे।

चक्र के समान तेज गति से गदा को घुमाते हुए परीक्षित् की रक्षा कर रहे थे परन्तु परीक्षित् को चक्र ही मालूम पड़ा । फिर ब्रह्मास्त्र की शक्ति समाप्त होने पर भगवान् वहाँ से हटे थे।

परीक्षित् ने माँ के गर्भ से शुभ मुहूर्त में बाहर आये तो धौम्य ऋषि तथा कृपाचार्य के द्वारा मांगलिक कार्य किये गये एवम् जातकर्म संस्कार किया गया। इधर जब राजा परीक्षित की जन्म के सामाचार सुने तो पुनः हस्तीनापुर में भगवान श्रीकृष्ण पधारे और राजा परीक्षित को लाड-प्यार दिये। युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों को सुवर्ण, गौ, पृथ्वी तथा अन्न का दान किया।

श्री परीक्षित् परमात्मा द्वारा रक्षित जीव थे। इसलिए बालक का नामकरण परीक्षित किया गया । ऋषि मुनियों ने बताया कि यह बालक इक्ष्वाकु के समान प्रजापालक राम के समान सत्यपालक, शिवि के समान असह्य तेज वाला, सिंह के समान महापराक्रमी, पृथ्वी के समान क्षमावान्, रन्तिदेव के समान उदार, ययाति के समान धार्मिक, बलि के समान धैर्यवान और प्रह्लाद के समान भगवद् भक्त होगा।

यह पृथ्वीरूपी गौ और धर्मरूपी वृष के रक्षार्थ कलि का निग्रह करेगा। शमीक- पुत्र शृंगी द्वारा प्रेरित तक्षक से अपनी मृत्यु सुनकर राजपाट का परित्याग कर गंगातट का आश्रय लेगा और वहाँ परम भागवत शुकदेव जी से ज्ञान लाभ कर परम पद को प्राप्त होगा। ब्राह्मणों महाराज युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों को दान दक्षिणा से प्रसन्न किया।

इसके बाद धर्मराज ने अपनी जातियों तथा अन्य लोगों के वध के मार्जन के लिए अश्वमेघ यज्ञ करने का विचार किया परन्तु कर और प्रजादंड के सिवा अन्य मार्ग से धन मिलना संभव न देखकर धर्मराज को कुछ चिन्ता हुई।

भीम आदि ने आश्वस्त किया कि वे लोग धन, स्वर्णपात्र एवं सम्पत्ति लाएँगे। राजा मरु ने यज्ञ में ब्राह्मणों को बहुत सा दान दिया था। अतः वे ब्राह्मण इच्छानुसार दान लेकर शेष छोड़कर चले आये थे।

वह धन लावारिश पड़ा था। उस लावारिश धन को शुद्ध धन के रूप में लाकर धर्मराज को दिया गया। धर्मराज ने तीन अश्वमेघ यज्ञ किये । मृतक बन्धुओं के प्रायश्चित करने से तथा यज्ञ करने से धर्मराज के मन में शान्ति हो गयी और वे प्रसन्न हो गये ।

विदुरजी महाराज जो महाभारत संग्राम के समय तीर्थयात्रा में चले गये थे वे विदुरजी महाभारत संग्राम समापन के बाद हस्तिनापुर लौट आये । तीर्थयात्रा में विदुरजी ने मैत्रेय ऋषि से आत्मज्ञान भी प्राप्त किया था।

 

लेकिन द्वारका में यदुकुल के क्षय की कथा नहीं कही। वह विदुरजी शापवश धराधाम पर आये थे। महाभारत में एक कथा है कि मांडव्य ऋषि तपस्या कर रहे थे। वे तपस्या में लीन थे।

कुछ चोरों ने मांडव्य ऋषि को तपस्या में ध्यानमग्न पाकर चोरी का सामान उनकी कुटिया में छिपा दिया। सिपाहियों ने मांडव्य ऋषि के आश्रम में उक्त चोरी का सामान बरामद कर लिया और चोरों को भी पकड़ लिया।

चोरों के साथ मांडव्य ऋषि को भी पकड़कर लाया गया। राजा ने चोरों के साथ मांडव्य ऋषि को भी फाँसी की सजा दे दी। मांडव्य ऋषि को भी शूली पर चढ़ाया गया । चोर तो शूली पर चढ़ने पर मौत को प्राप्त हुए।

लेकिन मांडव्य ऋषि को फाँसी पर चढ़ाने में तीन बार रस्सा टूट गया । तब राजा ने उन्हें फाँसी के तख्ते से अलग हटाकर उनसे पूछा कि ऐसा क्यों हो रहा हे ? मांडव्य ऋषि ने कहा ‘मैं तो ध्यानमग्न था ।

मैं नहीं जानता कि मेरे आश्रम में बरामद सामान किसने रखा ? राजा तूने जो कुछ मेरे साथ किया है वह अनजान में किया है अतः उसके लिए मैं तुम्हें क्षमा कर दूँगा । लेकिन अंतिम कागज लिखनेवाले यमराज से पूछूंगा कि राजा के माध्यम से मुझे शूली पर क्यों चढ़ाया गया ? मांडव्य ऋषि राजा को छोड़कर यमराज के पास पहुँचे ।

कुशल समाचार होने पर यमराज ने मांडव्य ऋषि के आने का कारण पूछा। माण्डव्य ऋषि ने यमराज से पूछा किस अपराध के कारण मुझे शूली पर चढ़ाया गया ? यमराज ने चित्रगुप्त को बुलाया। चूँकि उन्हीं के लेखन के कारण ऐसा हुआ था ।

चित्रगुप्त ने कहा कि ऋषि द्वारा ५-६ वर्ष की उम्र में एक तितली को तीन बार कांटा चुभाया गया था, इसी अपराध के कारण इन्हें शूली पर लटकाया गया। मांडव्य ऋषि क्रोधित हो गये और बोले कि १० वर्ष की उम्र तक के बच्चों को उनके अपराध के लिए शारीरिक दण्ड नहीं दिया जाता है।

उन्हें स्वप्न में दण्ड दर्शाया जाता हैं तुमलोगों ने मेरे साथ कूप कर्म किया है। मांडव्य ऋषि ने यमराज को शूद रूप में जन्म लेने का शाप दिया। वही श्री व्यास जी के तेज से दासी पुत्र के रूप में यमराज विदुर बनकर घराधाम पर आये।

मांडव्य ऋषि के संशोधित विधान के अनुसार १४ वर्ष तक की उम्र के बालकों का अपराध दंडनीय नहीं माना जाता। ऐसे बालक को शरीर से दण्ड नहीं देकर बल्कि स्वप्न में दण्ड को दर्शाया जाएगा जो चौदह वर्ष तक के होंगे (जितने दिनों तक चिदुरजी राधाम पर रहे उतने समय तक अर्यमा नामक सूर्यपुत्र यमराज के कार्य प्रभार में थे ।)

विदुरजी जानते थे कि थोड़ा अपराध करने से उन्हें दासीपुत्र के रूप में जन्म लेना पड़ा है। वे कौरवों के अनाचार में किसी तरह शामिल होना नहीं चाहते थे तथा उन्हें नेक सलाह देते थे, जो दुर्योधन तथा कौरवों को अच्छा नहीं लगता था।

कौरव पांडवों के उपर आनाचार एवं अत्याचार कर रहे थे। अतः महाभारत युद्ध से पहले ही विदुरजी तीर्थयात्रा में चले गये थे तथा युद्ध समापन के बाद तीर्थ यात्रा से लौटकर आये।

एक दिन एकान्त में विदुरजी ने धृतराष्ट्र से कहा कि- हे भाई धृतराष्ट्र आपकी मृत्यु होने वाली है। मृत्यु को कोई रोकनेवाला नहीं। जिन पांडवों को आपने अग्नि में जलाकर मारने का षड्यंत्र किया, उन्हीं की सेवा स्वीकार कर रहे हैं।

आपलोगों ने भीम को विष दिलवाया, द्रौपदी को भरी सभा में वस्त्रहीन करने का प्रयास किया तथा उसे अपमानित किया। आज उन्हीं पांडवों के अन्न पर जी रहे हैं। इस जीवन से क्या लाभ ?

अतः आप वानप्रस्थ को स्वीकार करें क्योंकि “जो मनुष्य स्वयं अपने से या दूसरों के उपदेश से यदि वैराग्य को नहीं प्राप्त करता या वैरागी बनकर अपने हृदय में भगवान् को नहीं बैठाता, उससे निकृष्ट दूसरा नहीं।

ऐसी परिस्थित में जो व्यक्ति वैरागी बनकर वनगमन करता है, वह श्रेष्ठ है।” अतः आप वन में जायें और भगवान् का भजन करें। वे धृतराष्ट्र रात में ही गान्धारी को साथ लेकर हिमालय की तरफ चल पड़े।

 श्रीमद्भागवत महापुराण साप्ताहिक कथा के सभी भागों की लिस्ट

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