संतसंगके प्रभावका वर्णन bhaktamal katha
भक्ति तरु पौधा ताहि विघ्न डर छेरीहू कौ, वारिदै बिचारि वारि सींच्यो सत्संग सों।
लाग्योई बढ़न, गोंदा चहुँदिशि कढ़न सो चढ़न अकाश, यश फैल्यो बहुरंग सों॥
संत उर आल बाल शोभित विशाल छाया, जिये जीव जाल, ताप गये यों प्रसंग सों।
देखौ बढ़वारि जाहि अजाहू की शंका हुती, ताहि पेड़ बाँधे झूमें हाथी जीते जंग सों॥६॥
भक्तिका वृक्ष जब साधकके हृदयमें छोटे-से पौधेके रूपमें होता है, तब उसे हानिका भय मायारूपी बकरीसे भी होता है, अतः पौधेकी रक्षाके लिये उसके चारों ओर विचाररूपी घेरा (थाला) लगाकर सत्संगरूपी जलसे सींचा जाता है, तब उसमें चारों ओरसे शाखा-प्रशाखाएँ निकलने लगती हैं और वह आकाशकी ओर चढ़ने-बढ़ने लगता है।
सरल साधुहदयरूप थालेमें सुशोभित इस विशाल भक्ति-वृक्षकी छाया अर्थात् सत्संग पाकर त्रिविध तापोंसे तपे जीवसमूह सन्तापरहित होकर परमानन्द प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार सार-सम्भार करनेपर इस भक्तिका विचित्ररूपसे बढ़ना तो देखो कि जिसको पहले कभी छोटी-सी बकरीका भी डर था, उसीमें आज महासंग्रामविजयी काम, क्रोध आदि बड़े-बड़े हाथी बँधे हुए झूम रहे हैं, परंतु उस वृक्षको किसी भी प्रकारकी हानि नहीं पहुँचा सकते हैं ॥ ६ ॥
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