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साप्ताहिक श्रीमद् भागवत कथा
आगे शौनकजी ने सूतजी से प्रश्न किया कि उसके बाद व्यासजी ने और क्या कार्य किया ? तब फिर सूत जी ने बताया कि उसके बाद व्यासजी सरस्वती नदी के तट पर बैठे वृक्षों से घिरे आश्रम में एकाग्र होकर ध्यान करने लगे तो उन्हें माया और पुरुष के दर्शन हुए तो इसके बाद व्यास जी की अशान्ति स्वतः नष्ट हो गयी और प्रभु श्रीमन् नारायण के दर्शन किये।
माया सभी अनर्थों का मूल है। अनर्थों की निवृति भगवत भजन अर्थात् भक्ति से होती है। माया स्त्रीलिंग हैं भक्ति भी स्त्री है। माया भगवान् की दासी है। भक्ति भगवान् की पत्नी है।
भक्ति के अराधक को माया रूपी सेविका कुछ बिगाड़ नहीं पाती। माया रूपी दासी ईश्वर की पत्नी भक्ति को देखकर आसक्त नहीं होती। ‘मोह न नारि नारि के रूपा’। श्री व्यासजी द्वारा ग्रन्थ रचना के बारे में अन्य शास्त्र में कथा आती है कि जब श्रीव्यासजी ने भागवत को लिपिवध करने हेतु गणेशजी को प्रार्थना की तो श्रीगणेश जी ने शर्त के आधार पर लिखना शुरु किया।
शर्त था कि लेखनी बीच में बन्द नहीं होनी चाहिए। इधर व्यास जी ने गणेश जी को कूटश्लोक को बीच-बीच में बोलते हुए अठारह हजार श्लोक वाली श्रीमद् भागवत कथा की रचना करके सबसे पहले श्रीशुकदेव जी को पढ़ाया।
अतः इस कथा से उपदेश मिलता है कि खेती व्यापार करते हुए भगवान् का भजन करते रहें एवं दास भाव ग्रहण करें एवं भक्ति को प्राप्त करें तो वह अनर्थ करने वाली माया आप पर प्रभावी नहीं होगी क्योंकि प्रभु चरण में प्रेम से ही भक्ति आती है और उस भक्ति की दासी माया है।
यह जब शरीर अपना नहीं है, तो धन, सम्पत्ति अन्य भौतिक तत्व अपने कैसे हो सकते हैं ? अतः केवल परमात्मा को ही अपना मानकर जीवन बिताना चाहिए।
इस नश्वर शरीर से भगवत् भजन करना चाहिए तो कभी-कभी प्रभु घुणाक्षर न्याय से भी कृपा करते हैं। घुणाक्षर न्याय का मतलब होता है कि कीड़ा कभी-कभी लकड़ी काटते-काटते ओम् या राम अक्षर बना देता है। भगवान् उस कीड़े को भी कृपा कर अपना लेते हैं।
कीड़ा भक्ति नहीं जानता। उसने लकड़ी में ओम् या राम भक्ति से नहीं बनाया। लेकिन भगवान् तो दयालु हैं। कीड़े को भी अपनाकर मुक्ति देते हैं। भागवत कथा सुनकर भक्त बनें, भक्ति करें तो मुक्ति की प्राप्ति निश्चित रूप से होती है। इसलिए भगवान् का भजन करें।
साप्ताहिक श्रीमद् भागवत कथा
श्रीशुकदेवजी ने भी भागवत पुराण का अध्ययन अपने पिता श्री व्यासजी से किया और इसे राजा परीक्षित् को सुनाया। श्रीसूतजी ने शौनक जी से कहा कि हे शौनकजी! अब आगे वह राजा परीक्षित् के जन्म, कर्म और उनकी मुक्ति तथा पाण्डवों के महाप्रस्थान की कथा सुनें, जिससे आपके प्रश्नों का समाधान हो जायेगा।
उस महाभारत में भगवान् स्वयं अर्जुन का रथ हाँकने वाले बने थे क्योंकि रथ हाँकने वाला समझदार होगा तभी महारथी का कल्याण होगा।
महाभारत युद्ध में बड़े बड़े वीर मारे गये और भीम ने गदा से दुर्योधन का उरुदण्ड तोड़ दिया तो शोक सन्तप्त दुर्योधन के संतोष के लिए अश्वत्थामा ने रात्रि में कृतवर्मा एवं कृपाचार्य के सहयोग से पाण्डवों के पाँचो बच्चों के सिर सुसुप्तावस्था में काट डाला। यह देख द्रौपदी विलाप करने लगी।
अर्जुन ने द्रौपदी को’शोक न करो, हम अभी अश्वत्थामा का सिर काटकर ले आते हैं। अर्जुन के द्वारा पीछा किये जाने पर बचने हेतु अश्वत्थामा रथ पर सवार होकर भागा। अन्ततः अश्वत्थामा के घोड़े थक गये। ऐसी स्थिति में उसने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। दोनों ब्रह्मास्त्र टकरा गये।
प्रलय-सा दृश्य हो गया। चारों ओर हाहाकार मच गया। भगवान् के आदेश से अर्जुन ने अपने ब्रह्मास्त्र को खींचकर शान्त किया और अश्वत्थामा को पकडकर रस्सी में बाँधकर अर्जुन अपने डेरे में ले आये।
अर्जुन ने गुरुपुत्र जानकर उस समय उस अश्वत्थामा की हत्या नहीं की। वह अश्वत्थामा को बँधी अवस्था में देखकर द्रौपदी को दया आ गयी। उसने कहा कि इसे छोड़ दें, छोड़ दें। आखिर यह गुरु पुत्र है। द्रौपदी ने अश्वत्थामा द्वारा इस तरह का जघन्य बाल वध करने पर भी उसे प्रणाम किया।
द्रौपदी ने अर्जुन से कहा कि पूज्य गुरु ने ही आपको धनुर्विद्या सिखायी, सम्पूर्ण शस्त्रों का ज्ञान दिया। अश्वत्थामा साक्षात् द्रोणाचार्य के रूप में विद्यमान हैं मैं तो स्वयं पुत्र शोक में रो रही हूँ। अब इसकी माता को पुत्र शोक न दें। द्रौपदी अपने पुत्रों की हत्या करनेवाले पर भी दया कर क्षमा की याचना कर रही है। यह उसकी महानता का उत्कर्ष है।
द्रौपदी का चरत्रि जाज्वल्यमान नक्षत्र की भाँति मानव इतिहास में प्रदीप्त है। युधिष्ठिर आदि लोगों ने भी द्रौपदी के विचारों की पुष्टि की। लेकिन, भीम इसे सहन नहीं कर पाये। वे बोले कि इस दुष्ट की हत्या करना ही श्रेयस्कर है।
भीम अश्वत्थामा को मारने चले। द्रौपदी उसे बचाने चली। उस समय कृष्ण भगवान् ने चार भुजा धारण करके दो भुजाओं से भीम को तथा दो भुजाओं से द्रौपदी को रोका। अश्वत्थामा बीच में हैं अर्जुन ने कहा कि पहले तो आपने इसे मारने को कहा और अब इसे बचा रहे हैं। भगवान् कृष्ण ने कहा गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण वध के योग्य नहीं होते। लेकिन शस्त्रधारी एवं आततायी वध के योग्य होते हैं।
ये दोनों बातें मैंने ही कही है। इसका यथा योग्य पालन करो। प्राण दण्ड कई प्रकार के होते हैं। तुम्हें द्रौपदी से किये वादे का भी ख्याल रखना है तथा द्रौपदी के भी वचनों को याद रखना है। यदि द्रौपदी कह रही है कि “मुच्यताम् मुच्यतामेष ब्राहणो नितरां गुरुः ।
” अर्थात् इसे छोड़ दो क्योंकि यह गुरुपुत्र है। इधर भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन! “ब्रह्म-बन्धुर्न हन्तव्य आततायी वधार्हणः मयैवोभयमाम्नातं परिपाह्यनुशासनम् ।’ अर्थात् ब्राह्मण एवं बन्धु की हत्या नहीं करनी चाहिए परन्तु शस्त्रधारी आततायी का वध अवश्य करना चाहिए। शास्त्र में यह भी है कि-
“वपनं द्रविणादानं स्थानान्निर्यापणम् तथा
एषहि ब्रह्मबन्धूनां वधो नान्योऽस्ति दैहिकः ।”
ब्राह्मण एवं बन्धु के प्राणवध का मतलब उसका सिर के बाल मूंड़ देना, पद छीन लेना, स्थान से या घर आदि से बाहर कर देना यही वध है। यानी शरीर द्वारा वध नहीं करना चाहिए, परन्तु हे अर्जुन! तुमने अश्वत्थामा का सिर लाकर द्रौपदी को देने को कहा था।
कुछ ऐसा करो कि तुम्हारी और भीम दोनों की बात रह जाय। अर्जुन सरल स्वभाव के थे। वे भगवान् की बात समझ गये। उन्होंने केश सहित अश्वत्थामा की मणि को उसके सिर से निकाल लिया और द्रौपदी के पास रख दिया एवं उस अश्वत्थामा को उस शिविर से बाहर कर दिया।
साप्ताहिक श्रीमद् भागवत कथा
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