श्रीमद्भागवत महापुराण का संक्षिप्त हिंदी अनुवाद
द्वितीय स्कन्ध प्रारम्भ
‘‘वरीयानेष ते प्रश्नः कृतो लोकहितो नृप । आत्मवित्सम्मतः पुंसां श्रोतव्यादिषु यः परः ।।
श्रीमद्भा० ०२/१/१
शुकदेवजी महाराज राजा परीक्षित के प्रश्नों से प्रसन्न होकर भगवत भक्ति में इतना डूब गये कि कथा से पहले होने वाले मंगलाचरण को करना हीं भूल गये और प्रभु स्वरूप में निमग्न होते हुए राजा परीक्षित् से कहे कि हे राजन! आपके प्रश्न बहुत श्रेष्ठ हैं ये केवल आपके लिए नहीं हैं बल्कि लोकहित के लिए भी हैं।
ऐसे प्रश्नो का आत्मज्ञानी लोग हमेशा आदर करते हैं तथा उनके श्रवण से शान्ति मिलती है। प्रायः हर मनुष्य की आयु बहुत कम है। शतायु होने पर भी २० वर्ष बचपन में बीत जाते हैं, शेष वर्ष में ४० वर्ष निद्रा एवं पत्नी परिवार के संग रहने या भरण पोषण में बीत जाते हैं और शेष ४० वर्ष धन की चिन्ता में बीत जाते हैं ।
अर्थात मनुष्य की आयु का पचास वर्ष सोने में, पचीस वर्ष स्त्री परिवार के संग में, पचीस वर्ष का समय सांसारिक कार्य में बीत जाता है यानी दिन बीत जाता है हाय-हाय करते हुए धन कमाकर परिवार के पोषण में एवं रात बीत जाती है स्त्री-संग या सोने में।
इस तरह पूरे सौ वर्ष बीत जाते हैं , मनुष्य को अपनी मृत्यु को याद करते हुए बाल्यावस्था या यौवनावस्था या वृद्धावस्था में सतत् भगवान् का चिंतन-मनन एवं उनके गुणों का श्रवण करते रहना चाहिए। यही मानव के कल्याण का सहज और सरल उपाय है ।
परिनिष्ठितोपि नैर्गुण्य उत्तमश्लोकलीलया।गृहीतचेता राजर्षे आख्यानं यदधीतवान ।।
हे राजन! पहले तो मैं निर्गुण ब्रह्म को मानता था। यानी इस शरीर के हृदय में निवास करने वाले ही ब्रह्म को मानता था । निः + गुण यानी जिससे सारे गुण निकलते हैं या निःसृत होते हैं वही निर्गुण परमात्मा कहलाता है।
लेकिन, भगवान् की लीलाओं से आकृष्ट होकर मैंने अपने पिताजी से श्रीमद्भागवत का अध्ययन किया तबसे मुझे पुरुषोत्तम भगवान् ने अपनी ओर हठात् खींच लिया है परन्तु यह कार्य अन्तरात्मा में विराजमान प्रभु से ही सम्भव हुआ।
उसी लीला पुरूषोत्तम भगवान् की कथा को श्रीमद्भागवत कथा के माध्यम से आपको सुनाउँगा । इस श्रीमद्भागवत की कथा को श्रवण कर श्रीकृष्ण के प्रति मेरी निष्ठा जाग्रत हो गयी है और मैं सगुण कृष्ण का आराधक बन गया।
मैं उन्हीं कृष्ण की लीला का वर्णन करूँगा । हे परीक्षित् ! तुम परमात्मा के भक्त हो, इसलिए भागवत कथा सुनने के पात्र हो । भागवत कथा सुनने से भगवान् में तुम्हारा अनुराग हो जायेगा क्योंकि कामना करनेवाले, योग का आनन्द लेनेवाले, कर्मकाण्ड करनेवाले या मोक्षकामी को भी भागवत कथाश्रवण करनी चाहिए।
इसमें किसी प्रकार का भय नहीं है। सारे कार्य करते हुए भागवत कथा का श्रवण करें। जो समय बीत गया, उसकी चिन्ता छोड़ दें। जो सात दिन का समय बचा है, उसी में भगवत् स्मरण करें।
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श्री शुकदेवजी कहते हैं कि हे परीक्षित् । चिंता को त्याग कर प्रभु का स्मरण करें, क्योंकि ऐसा चिंतन करने से ही राजा खट्वांग ने अपनी एक मुहूर्त की आयु में यानी शेष बचे एक मुहूर्त में भगवत् स्मरण कर उन्होंने भागवत धाम को प्राप्त कर लिया था।
राजा खट्वांग ने देवासुर संग्राम में देवताओं की सहायता कर उन्हें विजयी बनाया था। जब देवों ने वरदान माँगने को कहा तो खट्वांग ने पूछा कि मेरी आयु कितनी बची है ? देवताओं ने कहा बस दो घड़ी।
यानी एक मुहूर्त ही आयु शेष हैं राजा खट्वांग ने उस एक मुहूर्त में भगवतधाम की ही माँग की और भगवत स्मरण करते हुए वे भगवत धाम चले गये ।
हे राजन्! आपके पास तो सात दिन शेष हैं। अतः साधक को मृत्यु निकट आने पर या संकट आने पर या अन्त आने पर घबराना नहीं चाहिए, बल्कि परिवार, स्त्री पुत्र से ममता त्यागकर पुण्य तीर्थस्थल में जाकर ओंकार (ऊँ) जप करते हुए शेष जीवन बिताये एवं भगवत् स्मरण करे।
प्रणायाम करे ऐसा करने से भगवत् धाम प्राप्त हो जाता है अपने हृदय में भगवान् के स्वरूप का स्मरण करें एवं विषयों से मन को हटाकर भगवान् में लगा दें। फिर भगवान् के अवयवों का ध्यान करें-
श्वास – श्वास पर कृष्ण भज वृथाश्वास जनि खोय।”
साधक शुद्ध आसन पर सिद्धासन बैठकर प्राणायाम करते हुए प्रभु के नाम का जप करके इस प्रकार ध्यान करे कि –
पातालमेतस्य हि पादमूलं पठन्ति पार्ष्णिप्रपदे रसातलम्।
महातलं विश्वसृजोऽथ गुल्फौ तलातलं वै पुरुषस्य जङ्घे ।।
श्रीमद्भा० ०२/०१/२६
भगवान् के पादतल या पैर के तलवे को पाताल, ऍड़ी तथा पाद के अग्रभाग को रसातल, दोनों गुल्फ या दोनों एड़ी की गाठें महातल, दोनों जाँघ वितल, दोनों पैर की पेंडली तलातल, दोनों घुटने सुतल, जघन्य अंग महीतल, नाभि को अकाश, वक्षः स्थल को स्वर्ग लोक, मुख को जनलोक, ललाट को तपोलोक और शिरोभाग को सत्यलोक कहा गया है।
अतः ध्यान करते समय प्रभु के अंगों में ही सभी लोक इत्यादि की भावना करें। इन्द्र आदि देवता भगवान् की भुजायें, दिशायें – कर्ण, शब्द – श्रोत्रेन्द्रिय, अश्विनीकुमार-नासापुट, गन्ध–घ्राणेन्द्रिय, अग्नि को भगवान् का मुख कहा गया है।
भगवान् के शरीर की नाड़ियाँ-नदियाँ हैं, रोम-वृक्ष, श्वास – वायु, गति या चाल या कर्म संसार एवं महायज्ञ है। ब्राह्मण भगवान् के मुख, क्षत्रिय बाहु, वैश्य उरु, शूद्र पैर कहे गये हैं अन्तरिक्ष नेत्र, देखने की शक्ति सूर्य, रात दिन पलकें, तालु जल वेद- कपाल, मनुष्य प्रभु का निवास स्थान है।
इस प्रकार चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारे, समुद्र, द्वीप, पर्वत, पशु-पक्षी, कीट-पतंग सभी भगवान् के अवयव कहे गये हैं। इन सभी उपरोक्त साधनों को करने के लिए इस चंचल मन को जीतना चाहिए। इस चंचल मन को जीतने के लिए सबसे पहले साधक को चाहिए कि-
“जितासनो जितश्वासो जितसंगो जितेन्द्रियः”
सबसे पहले आसन को जीतना फिर अपनी श्वास को जीते, अपने संग को जीते एवं अपनी इन्द्रियों को जीते यानी उन्हें गलत मार्ग पर जाने से रोके ।
तस्माद् भारत सर्वात्मा भगवानीश्वरो हरिः । श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेच्छताभयम् ।।
श्रीमद् भा० २ / १/५
एतावान् सांख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया । जन्मलाभः परः पुंसामन्ते नारायणस्मृतिः ।।
श्रीमद् भा० २ / १/६
जो भक्त अपने मन को प्रभु में लगाकर भगवान् का ध्यान करता है, वह भगवत धाम को जाता है। या परमात्मा को प्राप्त कर आवागमन से मुक्त हो जाता है।
अतः साधक को चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते, रोते-हँसते हर स्थिति में श्रीमन् नारायण प्रभु को याद करना चाहिए एवं उन प्रभु की कथा को बार-बार सुनना चाहिए। उन प्रभु की कथा को सुनने से भगवान् में पूर्ण पुरुष श्रीमन् नारायण प्रभु की लीलाओं का श्रवण, कीर्तन, स्मरण करना चाहिए।
यहां मनुष्य जीवन का लाभ है। अतः सांख्य (ज्ञान) के द्वारा या भक्ति के द्वारा या ध्यान के द्वारा या योग के द्वारा या उपासनादि के द्वारा हर परिस्थिति में अपने जीवन की भक्ति करते हुए प्रभु की कथा के श्रवण, कीर्तन, स्मरण करने में व्यतीत करना अतः म्रियमाण मनुष्यको भगवान् का ध्यान करते हुए पूजन भजन आदि करना चाहिए।
अथवा फिर अष्टांग योग करना चाहिए क्योंकि अष्टांग योग में निरत होकर जो व्यक्ति प्राण का त्याग करता है उसकी सद्यः मुक्ति हो जाती है। वह अष्टांग-योग जैसे- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार्, धारणा, ध्यान, समाधि अष्टांग योग कहे जाते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ये यम कहे जाते हैं।
अहिंसा यानी हिंसा नहीं करना, सत्य यानी सत्य बोलना, अस्तेय का अर्थ होता है दूसरे की वस्तु चुराकर नहीं लेना । अपरिग्रह का अर्थ होता है जो वस्तु या सम्पत्ति लेने योग्य नहीं है यानी धर्मादा आदि का है या अपनी नहीं है उसे नहीं लेना । ब्रह्मचर्य यानी ब्रह्मचर्य से रहना ही ब्रह्मचर्य है। धीरता, क्षमा, संतोष, अलोभ आदि नियम कहे जाते हैं। योग मार्ग में ८४ आसन हैं।
इनमें प्रधान हैं सिद्धासन, पद्मासन, सुखासन यानी जिसमें आराम मिले ऐसे आसन में बैठकर ही ध्यान करना चाहिए। पालथी मारकर बैठना सुखासन है। अतः उपरोक्त आसनो में अन्य असन या सुखासन में बैठकर नासिका के अग्रभाग को देखते हुए ध्यान करे।
प्राण वायु को आराम देना, विराम देना, प्राणायाम कहा जाता है। प्राणायाम में प्राण वायु को आराम देते हुए परमात्मा का ध्यान किया जाता है। प्राणायाम ही समाधि में जाने का मार्ग है।
बारह प्राणायाम से एक प्रत्याहार और बारह प्रत्याहार से एक धारणा होती है एवम् बारह धरणा से ध्यान होता है और ध्यान से ही समाधि लगती है। भाव समाधि तो नाम जपते- जपते या प्रभु का स्मरण करते-करते ही लग जाती है।
इसी धारणा, ध्यान एवं समाधि के बल पर नष्ट अपनी स्मृति को पुनः प्राप्त कर ब्रह्मा ने प्रलयकाल में पुनः विश्व की रचना की थी। इस संसार में ईश्वर के सिवा अन्य वस्तुओं का अस्तित्व आगमापायी है। आगमापायी का अर्थ है – आज तो है, आनेवाले समय में नहीं रहेगा।
श्री शुकदेवजी आगे कहते हैं कि -हे परीक्षित् ! शरीर निर्वाह के लिए जितना भोग अपेक्षित है उतना ही भोग करना चाहिए। पूर्व जन्म के प्रारब्ध से कुछ भोग, ऐश्वर्य प्राप्त हो भी जाय तो उसमें आसक्त नहीं होना चाहिए एवम् उसमें चेष्टा नहीं करनी चाहिए या संलिप्त नहीं होना चाहिए। जैसे कहा भी गया है कि-
सत्यां क्षितौ किं कशिपोः प्रयासै र्बाहौ स्वसिद्धे ह्युपबर्हणैः किम् ।
सत्यंजलौ किं पुरुधान्नपात्र्या, दिग्वल्कलादौ सति किं दुकूलैः ।।
२/२/०४
पृथ्वी पर सोने से काम चलता हे तो गद्देदार पलंग के लिए क्यों प्रयास करते हो या परेशान हो यानी जैसे पृथ्वी के रहते शय्या की, बाँह के रहते तकिया की, अंजलि के रहते भोज्य पात्रों की, वल्कलों के रहते वस्त्रों की क्या आवश्यकता है ?
‘चीराणि किं पथि न सन्ति दिशन्ति भिक्षा, नैवाङ्घ्रिपाः परभृतः सरितोऽप्यशुष्यन् ।
रुद्धा गुहाः किमजितोऽवति नोपसन्नान्, कस्माद् भजन्ति कवयो धनदुर्मदान्धान् ।।
श्रीमद्भा० २/२/५
क्या लंगोटी के लिए मार्ग में चिथड़े नहीं हैं ? खाने के लिए क्या वृक्ष फल नहीं देंगे ? पानी पीने के लिए क्या नदियाँ सूख गई हैं ? रहने के लिए क्या गुफाएँ बन्द हैं ? शरणागत भक्तों की क्या भगवान् रक्षा नहीं करते ?
यानी ये सभी चीजें साधु पुरुष, विद्वान पुरुष के लिए उपलब्ध हैं। इसलिए धन के मद में अन्धे धनवानों के पास साधुओं को नहीं जाना चाहिए । दुःख की बात है कि विद्वान लोग भी ऐसे धन के मद से मदान्धों के पास चले जाते हैं। उन्हें नहीं जाना चाहिए। संसार की सभी वस्तुएँ नश्वर हैं केवल भगवान् ही अविनाशी हैं। जो सबके हृदय में विराजमान हैं।
अतः साधक को मन और चित्त लगाकर भगवान् की धारणा एवम् ध्यान करते हुये यह भावना करे कि भगवान् श्रीमन्ननारायण की चार भुजायें हैं, जिनमें शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये रहते हैं। उनकी चितवन अपूर्व स्नेह भरी है। इसप्रकार चरण से लेकर मुख-मण्डल तक का ध्यान करते रहें । अन्त में केवल भगवान के मुखमंडल का ही ध्यान करें एवं अन्य किसी का चिन्तन नहीं करें। –
‘सुस्मितं भावयेन्मुखम् ।
म्रियमाण पुरुष को इसी तरह भीतर एवं बाहर प्रभु के स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। यदि म्रियमाण मनुष्य स्वयं शरीर त्याग करना चाहे तो पैर की दाहिनी एड़ी से गुदा मार्ग को दबाये तथा बायीं एड़ी से मूत्र मार्ग को दबाकर छः चक्रों का क्रम से भेदन कर प्राण को ब्रह्मरन्ध्र में ले जायें। फिर ब्रह्मरन्ध्र को भी भेदन कर मुक्त हो जाय ।
यही सद्यः मुक्ति कहलाती है। कममुक्ति वह है कि साधक यदि विहार करने की इच्छा से अपने इन्द्रिय तथा प्राण को सूक्ष्म शरीर के साथ स्वर्ग में ले जाय, फिर वहाँ से दिव्य भोगों का उपभोग कर महर्लोक और ब्रह्मलोक का अतिक्रमण करते हुए सत्यलोक में चला जाय तो वहाँ पहुँचकर आयुपर्यन्त ब्रह्मा के साथ ही मुक्त हो जाय ।
वहाँ पहुँचने पर मनुष्यों की तीन प्रकार की गति होती है। ऐसे साधक अपने पुण्य के प्रभाव से कल्प के प्रारम्भ में कुछ अधिकारी बना दिये जाते हैं या जो साधक हिरण्यगर्भ की उपासना करते हैं वे ब्रह्मा के साथ मुक्त हो जाते हैं। जो भगवान् की उपासना करते हैं, वे ब्रह्माण्ड भेदकर विष्णुलोक चले जाते हैं। यही क्रममुक्ति कही जाती है।
अर्थात् सद्यः मुक्ति का मतलब है कि जगत् के वैभवादि की कामना को त्याग कर ध्यान करते हुए प्रभु के धाम में सीधा पहुँचना एवं क्रममुक्ति का मतलब है कि साधक का योग के द्वारा अनेक लोकों में जाना, फिर प्रभु के धाम में जाना ।
जो मनुष्य इस भगवत् गति को प्राप्त कर लेता है, वह पुनः इस संसार में नहीं आता। इस संसार में आये मनुष्य के उद्धार के लिए भक्तियोग से बढ़कर कोई दूसरा सरल साधन नहीं हैं ब्रह्मा ने वेदों पर तीन बार विचार कर अन्तिम निर्णय किया –
रतिरात्मन् यतो भवेत्
यानी जिससे भगवान् श्रीकृष्ण में प्रेमलक्षणा भक्ति हो, वही म्रियमाण मनुष्य के लिए उत्तम साधन है। इसलिए मनुष्यों को सतत् भगवान् का ही स्मरण, चिन्तन, निदिध्यासन करना चाहिए। ऐसा करने से विषयों से दूषित अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और भगवान् के चरणों के निकट शीघ्र पहुँच बनती हैं फिर भगवान् का सामीप्य मिलता है।
भक्तिमार्ग से अपने साथ और लोगों को भी प्रवाहित किया जाता है भक्तिमार्गी स्वयं तो मुक्त होता ही है, अन्य लोगों को भी मुक्त करा देता है। कुछ मन्द बुद्धिवालों के कल्याण के लिए अलग-अलग उपास्य देव भी कहे गये हैं।
अतः कुछ व्यक्ति आसक्ति एवं भोग में लिप्त रहने के कारण जिन देवताओं की पूजा करते हैं वे देवता अपना भोग भी ले लेते हैं। ऐसे व्यक्तियों को प्रायः भगवान् की कृपा नहीं हो पाती है।
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