पढ़ें कैसे एक ब्राम्हण को एक राजा के माध्यम से वास्तविक गीता का ज्ञान तत्व प्राप्त हुआ !
एक विद्वान ब्राह्मण ने एक बार राजा के पास जाकर कहा महाराज मैं ने धर्म ग्रंथों का अच्छा अध्ययन किया है, मैं आपको भगवत गीता पढ़ाना चाहता हूं |
राजा विद्वान से अधिक चतुर था उसके मन में विचार आया कि जिस मनुष्य ने भगवद गीता का अध्ययन किया होगा वह और भी अधिक आत्म चिंतन करेगा राजाओं के दरबार की प्रतिष्ठा और धन के पीछे थोड़े ही पड़ा रहेगा |
ऐसा विचार कर राजा ने ब्राम्हण से कहा कि महाराज आपने स्वयं गीता का पूर्ण अध्ययन नहीं किया है मैं आप को शिक्षक बनाने का वचन देता हूं , लेकिन आप अभी जाकर गीता का अध्ययन करें और अच्छी तरह से उसका स्वाध्याय करें |
ब्राह्मण चला गया लेकिन वह बराबर यही सोचता रहा कि देखो तो राजा कितना बड़ा मूर्ख है, वह कहता है कि तुमने गीता का पूर्ण अध्ययन नहीं किया और मैं कई वर्षों से उसी का बराबर अध्ययन कर रहा हूं |
उसने जाकर एक बार गीता को फिर पढ़ा और राजा के सामने उपस्थित हुआ राजा ने पुनः वही बात दोहराई और उसे विदा कर दिया , ब्राह्मण को इससे दुख तो बहुत हुआ लेकिन उसके मन में विचार आया कि राजा के इस प्रकार कहने का कुछ ना कुछ मतलब अवश्य है |
वह चुपके से घर चला गया और अपने को कोठरी में बंद करके गीता का ध्यान पूर्वक अध्ययन करने लगा धीरे-धीरे गीता के गूढ़ अर्थ का प्रकाश उसकी बुद्धि पर पड़ने लगा और उसको स्पष्ट मालूम होने लगा की संपत्ति ,मान,द्रव्य,कीर्ति के लिए दरबार में या किसी दूसरी जगह दौडना व्यर्थ है | उस दिन से वह दिन रात एक चित्त से ईश्वर की आराधना करने लगा और राजा के पास नहीं गया |
कुछ वर्षों के बाद राजा को ब्राह्मण का स्मरण आया और उसकी खोज करता हुआ वह स्वयं उसके घर आ गया ब्राह्मण के दिव्य तेज और प्रेम को देखकर राजा उसके चरणों में गिर पड़ा और बोला महाराज अब आपने गीता के असली तत्व को समझा है , यदि मुझे अब अपना चेला बनाना चाहें तो प्रसन्नता से बना सकते हैं |
ईश्वर की कृपा की हवा बराबर बहा करती है | इस समुद्र रूपी जीवन के मल्लाह उससे कभी नहीं लाभ उठाते , किंतु तेज और सबल मनुष्य सुंदर हवा से लाभ उठाने के लिए अपने मन का पर्दा हमेशा खोले रखते हैं और यही कारण है कि वे अतिशीघ्र निश्चित स्थान पर पहुंच जाते हैं |
फूले हुए कमल की सुगंध वायु के द्वारा पाकर भंवरा अपने आप उसके पास पहुंच जाता है | जहां मिठाईयां रखी रहती हैं वहां चींटी अपने आप चली जाती हैं, भंवरों को या चीटियों को कोई बुलाने नहीं आता | इसी प्रकार मनुष्य जब शुद्ध अंतःकरण और पूर्ण ज्ञानी हो जाता है तब उसके चरित्र की सुगंध अपने आप चारों ओर फैल जाती है और सत्य की खोज करने वाले अपने आप उसके पास चले जाते हैं | वह स्वयं उनको बुलाने नहीं जाता कि मेरे पास आओ और मेरी बातें सुनो |
धन का क्या उपयोग है ? उसकी सहायता से अन्य वस्त्र और निवास स्थान प्राप्त किए जा सकते हैं बस उनके उपयोग की मर्यादा इतनी ही है ! आगे नहीं है ! निसंदेह धन के बराबर ईश्वर तुझे नहीं दिखाई दे सकता अथवा धन से कुछ जीवन की सार्थकता नहीं है यही विवेक की दिशा है क्या तु इसे समझ गया |
बिल्ली का बच्चा सिर्फ इतना ही जानता है कि म्यावँ,म्यावँ करके अपनी माता को किस प्रकार पुकारना चाहिए | फिर आगे क्या करना है सो सब बिल्ली को मालूम रहता है, वह अपने बच्चे को जहां उसे अच्छा लगता है ले जाकर रखती है, घड़ी भर में रसोई घर में , घड़ी ही भर में मालिक के गुदगुदे बिछौनेपर हां पर बिल्ली के बच्चे को सिर्फ इतना ज्ञान अवश्य होता है कि अपनी मां को कैसे पुकारूं | इसी न्याय से मनुष्य जब अनन्य भाव से अपनी परम दयालु माता परमात्मा की पुकार करता है तो वह तुरंत ही दौड़ता हुआ आकर उसका योग क्षेम संभालता है | सिर्फ पुकार करना ही उसका काम है | हाँ |
दान और दया आदि गुणों का आचरण यदि निष्काम बुद्धि से होता है, तो फिर उसकी उत्तमता के लिए कहना ही क्या है | इस आचरण में यदि कहीं भक्तों की पुष्टि मिल गई, तब तो फिर ईश्वर प्राप्ति के लिए और क्या चाहिए | जहां दया क्षमा शांती आदि सद्गुण है वहां ईश्वर का वास है |
जब हम कढ़ाई में मक्खन डालकर उसे आँच पर रखते हैं, तब उसमें कब तक आवाज होती है जब तक उसमें इतनी ऊष्णता नहीं आती कि उसका जलांस जल जाए या उसमें पानी का कुछ भी अंस ना रहे | मक्खन जबतक अच्छी तरह पूर्णतया नहीं पक जाता, तभी तक वह ऊपर के उबलता है और कल कल का आवाज करता है |
जो मक्खन की तरह अच्छी तरह पक कर निः शब्द हो गया है, घी बन गया है , वहीं ब्रह्म साक्षात्कार किया हुआ सच्चा ज्ञानी पुरुष है | मक्खन को जिज्ञासु कह सकते हैं , उसमें जो पानी का अंस है उसे अग्नि के संस्कार से निकाल डालना चाहिए | यह पानी का अंस अहंकार है | जब तक यह अहंकार नहीं निकलता तब तक कैसा नृत्य करता है | पर जहां एक बार वह अहंकार बिल्कुल नष्ट हो गया कि बस पक्का घी बन गया | फिर इसमें गड़बड़ सडबण कुछ नहीं|
Jay shri Krishna