श्रीमद् भागवत कथा हिंदी में बुक-27 bhagwat katha in hindi

श्रीमद् भागवत कथा हिंदी में बुक bhagwat katha in hindi

भाग-27

[ अथ पञ्चदशोऽध्यायः ]

भिन्न-भिन्न सिद्धियों के नाम और लक्षण-भगवान बोले उद्धव जब भक्त मेरा ध्यान करता है तब उसके सामने अनेक सिद्धियां आती हैं इनमें तीन सिद्धियां तो शरीर की है अणिमा महिमा लघिमा इन्द्रियों की सिद्धि है प्राप्ति लोकिक व पारलोकिक पदार्थों का इच्छानुसार अनुभव कराने वली है प्राकाम्य माया और उसके कायों को इच्छानुसार संचालित करना है इशिता विषयों में रहकर भी उसमे आसक्त न होना है वशिता जिसकी भी कामना करें उसे प्राप्त करना है कामावसायिता ये आठ सिद्धियां स्वभाव से मुझ में रहती हैं और जिसे मैं देता हूं उसे अंशत: प्राप्त होती है मैं इन्हे अपने भक्तों को देता हूँ किंतु मेरा परम भक्त इन्हे भक्ति में वाधक समझ स्वीकार नही करता है।

इति पञ्चदशोऽध्याय:

[ अथ षोड्षोऽध्यायः ]

भगवान की विभूतियों का वर्णन-उद्धव बोले-प्रभो कृपा कर आप अपनी विभूतियाँ बतावें भगवान बोले उद्धव महाभारत के युद्ध काल में यही प्रश्न अर्जुन ने किया था वही ज्ञान में तुम्हे देता हूँ मैं समस्त प्राणियों की आत्मा हूं श्रृष्टि की उत्पत्ति पालन संहारकर्ता मैं हं मैं ही काल हूं मैं ही ब्रह्म ऋषियों में भृगु देवताओं मे इन्द्र अष्टवसुओं में अग्नि द्वादश अदित्यों में विष्णु राजर्षियों में मनु देवर्षियों में नारद गायों में कामधेनु सिद्धों मे कपिल पक्षियों में गरुड़ रुद्रों में शिव वर्गों में ब्राह्मण हूँ।

इति षोड्षोऽध्यायः

[ अथ सप्तदशोऽध्यायः ]

वर्णाश्रम धर्म निरुपण-भगवान बोले उद्धव अब तुम्हे वर्णाश्रम धर्म बताता हूँ। जिस समय इस कल्प का प्रारम्भ हुआ था पहला सतयुग चल रहा था उस समय हंस नामक एक ही वर्ण था उस समय केवल प्रणव ही वेद था धर्म चारो तपस्या शौच दया सत्य चरणों से युक्त था त्रेता के प्रारंभ होते ही मेरे हृदय से ऋगु यजु साम तीनो वेद प्रकट हुए विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण भुजाओं से क्षत्रिय जंघा से वैश्य तथा चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। उरुस्थल से गृहस्थाश्रम ह्रदय से ब्रह्मचर्य आश्रम वक्षःस्थल से वानप्रस्थ आश्रम मस्तक से सन्यास आश्रम की उत्पत्ति हई।

इति सप्तदशोऽध्यायः

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[ अथ अष्टादशोऽध्यायः ]

वानप्रस्थ और सन्यासी के धर्म-भगवान बोले प्रिय उद्धव मानव की आयु सौ वर्ष मानकर उसके पच्चीस-पच्चीस वर्ष के चार हिस्से किए गए है प्रथम पच्चीस वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम, पच्चीस से पचास गृहस्थाश्रम, पचास से पिचेतर, वानप्रस्थ आश्रम पचेतर के बाद संन्यास आश्रम वानप्रस्थ आश्रम में पत्नि को यातो पुत्र के पास छोड़ दें अन्यथा ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए साथ रख ले वन में रहकर फलफूल खाकर रहे व भजन करे यह वान प्रस्थ आश्रम है सन्यास आश्रम में पत्नि का भी परित्याग कर वन में भजन करें।

इति अष्टादशोऽध्यायः

[ अथ एकोनविंशोऽध्यायः ]

भक्ति ज्ञान और यम नियमादि साधनों का वर्णन-भगवान बोले उद्धवजी पन्च महाभूत पन्च तन्मात्रााऐं दसइन्द्रिय मन बुद्धि चित्त और अहंकार इन समस्त तत्वों को ब्रह्मा से त्रण पर्यन्त देखा जाता है इन सबमे भी एक मात्र परमात्मा कोही देखे यही ज्ञान है भक्ति के विषय मे मै पहिलेही तुम्हे बता चुकाहूं अब तुम्हे यम नियमादि बताता हूं यम बारह है अहिंसा सत्य अस्तेय असंगता लज्जा असन्चय आस्तिकता ब्रह्मचर्य मोन स्थिरता क्षमा अभय नियम भी बारह ही है शौच जप तप हवन श्रद्वा अतिथिसेवा भगवान की पूजा तीर्थयात्रा परोपकारी चेष्टा सन्तोष और गुरु सेवा इस प्रकार भक्ति ज्ञान यम नियम मैने तुम्हे बता दिए।

इति एकोनविंशोऽध्यायः

[ अथ विंशोऽध्यायः ]

कर्मयोग ज्ञानयोग भक्तियोग-भगवान बोले उद्धव! संसार की वस्तुओं की कामना स्वर्गादिक लोकों की कामना रखने वाले लोग कर्मयोग के अधिकारी हैं शास्त्र विहित कर्म पुण्य कर्मो से संसार के भोग्य पदार्थो की प्राप्ति करता है। संसार की वस्तुओं की कामना एवं स्वर्गादिक लोको की कामना ओं से जब व्यक्ति उब कर उनका त्याग करना चाहता है वह ज्ञानयोग का अधिकारी है भगवान को तत्व से समझना ही ज्ञानयोग है किन्तु कर्मयोग ज्ञानयोग दोनोही व्यक्ति को करना होता है जिनमे अनेक कठिनाइयां है अत: सब कुछ परमात्मा पर छोड जो उन्ही के विश्वास पर रहता है यहि भक्तियोग है भक्त परमात्मा के अलावा किसी भी अन्य की कामना नही करता वही सच्चा भक्त है।

इति विंशोऽध्यायः

[ अथ एकविंशोऽध्यायः ]

गुण दोषव्यवस्था का स्वरूप और रहस्य-भगवान बोले उद्धव । मुझे प्राप्त करने के तीन मार्ग मैंने बताए है धर्म मे दृढ निश्चयही गण के अविश्वास ही दोष है अत: दोषो का त्याग कर दृढ विश्वास के साथ भक्ति करना चाहिए।

इति एकोविंशोऽध्यायः

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[ अथ द्वाविंशोऽध्यायः ]

तत्वों की संख्या और पुरुष प्रकृति विवेक-भगवान बोले उद्धव यह प्रकृति चोबीस तत्वों से बनी है येतत्व हैं आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी येपांच तत्व शब्द स्पर्श रूप रस बन्ध ये पांच तन्मात्राऐं दस इन्द्रिय इस प्रकार कुल बीस मन बुद्धि चित्त अहंकार इस प्रकार कुल चोबीस तत्व है इन्हीसे यह समस्त ब्रह्माण्ड बना है इसी से प्राणी मात्र के शरीर बने है। इसके भीतर आत्मा रूप से स्वयं भगवान ही इसके अन्दर बैठे है यह आत्मा ही पुरुष रूप से जानी जाती हैआत्मा का संबंध जब देह से होजाता है वही वन्धन का कारण बन जाती है और आत्मा का संबंध जब परमात्मा से हो जाता है वही मुक्ति का कारण है।

इति द्वाविंशोऽध्यायः

[ अथ त्रयोविंशोऽध्यायः ]

एक तितिक्षु ब्राह्मण का इतिहास-भगवान बोले उद्धवजी उज्जैन नगरी मे एक ब्राह्मण रहता था वह बड़ा कामी क्रोधी और कृपण था वह दिन भर धन कमाने के चक्कर में लगा रहता था एक कोडी भी खर्च नहीं करता था न खाता न पहनता नकोइ धर्म कर्म करता था धन का उसने न दान किया न भोग किया अन्त मे उसके देखते देखते ही उसके धन को चोर ले गए 39 भाइ बन्धुओ ने छीन लिया वह दीन हीन होगया वह दर दर घूमने लगा उसे ज्ञान हो गया वह शान्त हो गया मोन रहने लगा भिक्षा से जीवन यापन करने लगा किसी को भी अपने दुख के लिए बुरा नही कहता बल्कि स्वयं को ही इसका जिम्मेदार मानता था उसकी आंखे खुल गई उसने गीत गाया मैं धन संपत्ति के मोह में परमात्मा को भूल गया।

इति त्रयोविंशोऽध्यायः

[ अथ चतुर्विंशोअध्यायः ]

सांख्य योग-भगवान बोले उद्धव प्रकृति और पुरुष के ज्ञान को ही सांख्य के नाम से कहा जाता है संसार में दो ही तत्व है एक जड़ दूसरा चैतन्य समस्त जड़ जगत जो दृश्य है वही प्रकृति तत्व है आत्मा रूप से शरीर के भीतर जो बैठा है वही पुरुष है जो पुरुष देह में आसक्त हो जाता है वही बद्ध पुरुष कहलाता है जो पुरुष देह के स्वरूप को समझ लेता है वह मुक्त हो जाता है यही सांख्य योग है।

इति चतुर्विंशोऽध्यायः

[ अथ पञ्चविंशोऽध्यायः ]

तीनों गुणों की वृत्तियों का निरूपण-भगवान बोले उद्धव प्रकृति के तीन गुण है सतोगुण रजोगुण और तमोगुण जब पुरुष का संबंध प्रकृति से होजाता है वे प्रकृति के गुण पुरुष में आ जाते है या यह कहें कि आत्मा का संबंध देह से हो जाने पर उपरोक्त गुण मनुष्य में आ जाते है उनके संयोग से उसका स्वभाव बन जाता है जब हम सतोगुण के प्रभाव में होते है तो मन सहित इन्द्रियाँ वश में रहती हैं सत्य दया सन्तोष श्रद्धा लज्जा आदि गुण प्रकट होते हैं। रजोगुण की वृत्तियाँ हैं इच्छा प्रयत्न घमंड तृष्णा देवताओं से धन की इच्छा विषय भोग आदि तमोगुण की वृत्तियाँ है काम क्रोध लोभ मोह शोक विवाद आदि प्रत्येक व्यक्ति मे न्यूनाधिक मात्राा मे ये बृत्तियां होती है गुणो के मिश्रण से वत्तियाँ भी मिश्रित हो जाती हैं तमोगुण को रजोगुण से जीते रजोगुण को सतोगुण से जीतें सतोगुण से भगवान का भजन कर सतोगुण को भी छोड जीव परमात्मा का बन जाता है।

इति पञ्चविंशोऽध्यायः

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[ अथ षडविंशोऽध्यायः ]

पुरुरवा की वैराग्योक्ति-भगवान बोले उद्धव इलानन्दन पुरुरवा उर्वशी के मोहजाल मे ऐसा फसा कि वह जब उसे छोड कर चली गई तो वह नग्न उसके पीछे हाय उर्वशी हाय उर्वशी करता फिरा अन्त में होश आया तो कहने लगा हाय हाय मेरी मूढता तो देखो काम वासना ने मेरे मन को कितना कलुषित कर दिया हायहाय उसने मुझे लूट लिया कइ वर्ष बीत गए मुझे मालुम ही नही हुआ। इस प्रकार पुरुरवा के हृदय मे ज्ञान हो गया उसे मेरी याद आइ और उसने मेरे मे मन लगा कर मुझे प्राप्त कर लिया।

इति षडविंशोऽध्यायः

[ अथ सप्तविंशोऽध्यायः ]

क्रिया योग का वर्णन-भगवान बोले उद्धव मेरी पूजा की तीन विधियां हैं वैदिक तान्त्रिक और मिश्रित इनमें जो भी भक्त को अनुकूल लगे उससे मेरी पूजा करे मूर्ति में वेदी में अग्नि मे सूर्य में जल में ब्राह्मण में मेरी पूजा करे पहले स्नान करे संध्यादि कर्म कर मेरी पूजा करे मेरीमूर्ति पाषाण धातु लकडी मिट्टी मणिमयी होती है इनकी षोडषोपचार आह्वाहन आसन अर्घ्य पाद्य आचमन स्नान वस्त्र गंध पुष्प धूप दीप नैवेद्य आदिसे पूजा करे अन्त में भगवान के चरण पकड़कर प्रार्थना करे प्रभो आप प्रसन्न होकर मेरा उद्धार करें।

इति सप्तविंशोऽध्यायः

[ अथ अष्टाविंशोऽध्यायः ]

परमार्थ निरुपण-भगवान बोले उद्धव यह दृश्य जगत मिथ्या है कहीं भी कोई वस्तु परमात्मा से अलग नही है जो दिख रहा है वह भी परमात्मा ही है जो भाषित हो रहा किन्तु दिखता नही वह भी परमात्मा ही है अत: दृश्य अदृश्य सब परमात्मा का ही रूप है।

इति अष्टाविंशोऽध्यायः

[ अथ एकोनत्रिंशोऽध्यायः ]

भागवत धर्मो का निरूपण और उद्धवजी का बदरिकाश्रम गमन-भगवान बोले उद्धव अब मै तुम्हे भागवत धर्म कहता हूँ। मेरे भक्तों को चाहिए कि वे जो कुछ करे मेरे लिए ही करे और अन्त में उसे मुझे ही समर्पित कर दे तीर्थों में निवास करे मेरे भक्तों का अनुसरण करे सर्वत्र मेरे ही दर्शन करे मेरे चरणों की दृढ नोका बनाकर संसार सागर से पार हो जावे। श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि परीक्षित! अब उद्ववजी योग मार्ग का पूरा-पूरा उपदेश प्राप्त कर चुके थे भगवान से बोले प्रभो आपने मेरे सारे संशय नष्ट कर दिए मैं कृत कृत्य हो गया अब मुझे क्या आज्ञा है। भगवान बोले उद्धव अब तुम बदरिकाश्रम चले जावो और वहां रह कर मेरा भजन करो भगवान की आज्ञा पाकर उद्धवजी बदरिकाश्रम चले गए।

इति एकोनत्रिशोऽध्यायः

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[ अथ त्रिंशोऽध्यायः ]

यदुकुल का संहार-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण ने जब देखा कि आकाश और पृथ्वी पर बड़े उत्पात होने लगे है तब सब यदुवंशियों से कहा अहो अब हमें यहां एक क्षण भी नही ठहरना चाहिए तुरन्त शंखो द्धार क्षेत्र में चले जाना चाहिए सब यदुवंशी भगवान की आज्ञा से प्रभास क्षेत्र पहँच गए काल ने उनकी बुद्धि का हरण कर लिया वे वारुणी मदिरा का पान कर आपस में ही भिड़ गए लोहे के मूसल का वह चूर्ण घास बन गया था। उखाड-उखाड कर लडने लगे घास हाथ में आते ही तलवार बन जाती ऐसे सभी यदुवंशियों को समाप्त कर स्वयं एक पीपल के वृक्षतले जा बैठे बलरामजी भगवान का ध्यान कर अपने लोक को चले गए भगवान के चरण में एक हीरा चमक रहा था जराव्याध ने अपना बाण भगवान पर चला दिया नजदीक आने पर पता चला तो वह भगवान के चरणों मे गिर गया भगवान बोले यह तो मेरी इच्छा से हुआ हैं जा तू मेरे धामजा दारूक सारथी ने भगवान को रथ मे बैठाया ओर भगवान ने अर्जन के साथ शेष लोगो को इन्द्र प्रस्थ भेज दिया।

इति त्रिंशोऽध्यायः

[ अथ एकत्रिंशोऽध्यायः ]

भगवान का स्वधाम गमन-भगवान का स्वधाम गमन देखने के लिए ब्रह्मादिक देवता आएथे पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे भगवान रथ सहित अपने धामको पधार गए।

इति एकत्रिंशोऽध्यायः

इति एकादश स्कन्ध समाप्त

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अथ द्वादश स्कन्धः प्रारम्भ

[ अथ प्रथमोऽध्यायः ]

कलियुग के राजाओं का वर्णन-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि जरासंध के पिता बृहद्रथ के वंश में अन्तिम राजा होगा परन्जय उसके मंत्री होगें शुनक वह राजा को मार अपने पुत्र प्रद्योत को राजा बनायेगा उसके वंश मे पांच राजा होगें। शिशुनाग वंश में दस राजा होगें मौर्य वंश के राजा भी राज्य करेगें कण्व वंशी राजा भी होगें दस गर्दभी आभीर कन्क आदि राजा होगें इसके बाद आठ यवन चौदह तुर्कराज्य करेगें दस गुरण्ड ग्यारह मौन तीन सौ वर्ष राज्य करेगें वर्तमान मे मौनो का राज्य चल रहा है।

इति प्रथमोऽध्याय:

[ अथ द्वितीयोऽध्यायः ]

कलियुग के धर्म-कलियुग में जिसके पास धन होगा वही कुलीन धर्मात्मा समझा जावेगा जिसके हाथ में शक्ति होगी वही सब कुछ कर सकेगा वर्णाश्रम धर्म नष्ट हो जावेगा चालाक ही पण्डित होगा साधु पाखण्डी होंगे बाल रखनाही सौन्दर्य मानेगें रोग ग्रस्त लोग होगें कलियुग के अन्त में भगवान कल्कि अवतार लेगें और दुष्टों का संहार करेगें।

इति द्वितीयोऽध्यायः

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[ अथ तृतीयोऽध्यायः ]

राज्ययुग धर्म और कलियुगके दोषों से बचने का उपाय- नाम संकीर्तन-श्रीशुकदेवजी बोले राजा लोग अपने को पृथ्वी पति कहते है और पृथ्वी को जीतने का प्रयास करते है किन्तु इस पृथ्वी पर अनेक बीर राजा इसी में समा गए जैसे पृथु पुरुरवा ययाति शर्याति नहुष दैत्यो में हिरणाक्ष्य आदि का आज नामो निशान नही है अब कलियुग आ गया है उसमें अनेक दोष है यदि उनसे बचना है तो भगवान का नाम संकीर्तन ही एक मात्र उपाय है।

कलियुगकेवलनाम अधारा

सुमिरिसुमिरिनरउतरहिपारा

यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिनाम्
तत्फलं लभ्यते सम्यक कलौ केशव कीर्तनात्

इति तृतीयोऽध्यायः

[ अथ चतुर्थोऽध्यायः ]

चार प्रकार के प्रलय-श्रीशुकदेवजी बोले राजन् प्रलय चार प्रकार की होती है नित्य प्रलय नैमित्यिक प्रलय ब्राह्मी प्रलय प्राकृतिक प्रलय यानी महाप्रलय आज का बीता हुआ समय दुबारा नही आएगा समय जा रहा है यहि नित्य प्रलय है संसारकी हर वस्तु पहाड़ समुद्र तिलतिल क्षीण हो रहे है यह नैमित्यिक प्रलय है ब्रह्माके एक दिन को एक कल्प कहते है वह पूरा होते ही ब्रह्मा की रात्री में प्रलय होती है जिसे ब्राह्मी प्रलय कहते है।जब ब्रह्मा के भी सौवर्ष पूर्ण हो जाते है ब्रह्मा सहित प्रकृति परमात्मा में लीन हो जाती है यही महाप्रलय है।

इति चतुर्थोऽध्यायः

[ अथ पंचमोऽध्यायः ]

शुकदेवजी का अन्तिम उपदेश-शुकदेवजी बोले परीक्षित् इस श्रीमद् भागवत महापुराण में बार-बार और सर्वत्र विश्वात्मा श्रीहरि का ही संकीर्तन हुआ है अब तुम पशुओं की सी अविवेकमूलक धारणा छोड़ दो कि मैं मरुंगा तुम पहले भी थे अब भी हो आगे भी रहोगे शरीर बदलता रहता है तुम शरीर नही आत्मा हो |

इति पंचमोऽध्यायः

[ अथ षष्ठोऽध्यायः ]

परीक्षित की परम गति जन्मेजय का सर्पसत्र-सूतजी बोले ऋषियो! श्रीशुकदेवजी का अन्तिम उपदेश सुन परीक्षित ने शुकदेवजी की पूजा की और उन्हे विदा किया और आप स्वयं एक आसन पर बैठ आत्मा को परमात्मा में लीन कर दिया शरीर बैठा था तक्षक ने आकर शरीर को डस लिया विषज्वाला से शरीर जलकर भस्म हो गया जब इसका पता जन्मेजय को लगा कि मेरे पिता को तक्षक ने डस लिया उसने एक सर्प यज्ञ किया जिसमें आकर सर्प भस्म होने लगे किन्तु तक्षक नही आया वह इन्द्र की शरण में था जब इन्द्र सहित उसका आह्वाहन किया तो इन्द्र सहित तक्षक गिरने लगा तो ब्रह्माजी ने आकर यज्ञ बन्द करवा दिया।

इति षष्ठोऽध्यायः

[ अथ सप्तमोऽध्यायः ]

अथर्व वेद की शाखाएं पुराणों के लक्षण-सूतजी बोले व्यासजी ने वेट के चार भाग कर उन्हे अपने शिष्योको देदिए शिष्यों ने भी उनके कड भाग कर अपने शिष्यों को दे दिया अनेक भाग उनके हो गए। अब आपको पुराणों के लक्षण बताते है सर्ग विसर्ग वृत्ति रक्षा मनवन्तर वंशानुचरित संस्था-प्रलय हेतु-उति अपाश्रय प्रकृति से उनके तीन गुण महत्त्व तीन प्रकार के अहंकार ये सर्ग कहलाते है जीवों की उत्पत्ति विसर्ग है अचर पदार्थ वृत्ति है।

इति सप्तमोऽध्यायः

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[ अथ अष्टमोऽध्यायः ]

मारकण्डेयजी की तपस्या और वर प्राप्ति-सूतजी बोले सोनकजी! मृकण्ड ऋषि के पुत्र मारकण्डेय बृह्मचर्य व्रत लेकर तपस्या करने लगे इससे इन्द्र ने घबरा कर कामदेव के सहित अप्सराओं को भेजा किन्तु वे सब परास्त हो गए अन्त मे भगवान नारायण प्रकट हो गए मारकण्डेयजी ने भगवान की स्तुति की।

इति अष्टमोऽध्यायः

[ अथ नवमोऽध्यायः ]

मारकण्डेयजी का माया दर्शन-सूतजी बोले जब मारकण्डेयजी ने भगवान की स्तुति की तो भगवान ने मार्कण्डेयजी से वर मांगने को कहा मार्कण्डेय बोले प्रभो मैने आपके दर्शन कर लिए अब आपकी माया के दर्शन ओर करना चाहता हूँ भगवान एवमस्तु कह कर चले गए। एक दिन मारकण्डेयजी अपने आश्रम मे बैठे थे तभी मूसलाधार वर्षा होने लगी कुछ ही देर मे चारों ओर जल ही जल हो गया मारकण्डेयजी के अलावा कोई नही था मारकण्डेयजी जल में तैरते हए घूमने लगे कुछ देर बाद उन्हे एक बड़ का पेड दिखाई दिया औरउसके एक पत्ते पर एक छोटा सा बालक अपने पैर के अगूंठों को दोनो हाथों से पकड कर मुह मे चूस रहाथा मार कण्डेय सोचने लगे कैसी आश्चर्य की बात है कि इस प्रलय काल में भी यह बालक कैसे बच गया। इतने में बालक ने मुँह खोल कर सांस खेंचा मारकण्डेय उसके मुँह से उदर में पहुँच गए और वहाँ समस्त श्रृष्टि को देखा श्वास के वापिस आते ही वे पुन: समुद्र में आ गए वे समझ गए यह बालक कोई साधारण नही है स्वयं भगवान ही है मारकण्डेयजी ने उनका आलिंगन करना चाहा तभी भगवान अन्तर ध्यान हो गए वह जल भी समाप्त हो गया और मारकण्डेयजी अपने आश्रम में बैठे थे।

इति नवमोऽध्यायः

[ अथ दशमोऽध्यायः ]

मारकण्डेयजी को भगवान शंकर का वरदान-सूतजी बोले सोनकजी! भगवान की माया के दर्शन कर लेने के बाद ऋषि भगवान का ध्यान करने लगे तो शिव पार्वती आए मारकण्डेयजी को ध्यानस्थ देख उनके ध्यान मे प्रवेश कर गए जब उनका ध्यान खुला तो सामने शिवजी खड़े है मारकण्डेयजी ने उनकी स्तुति की शिवजी भगवान के चरणों में तुम्हारी भक्ति हो ऐसा वरदान देकर चले गए।

इति दशमोऽध्यायः

[ अथ एकादशोऽध्यायः ]

भगवान के अंग उपांग और आयुधों का रहस्य-सूतजी बोले सोनकजी! भगवान कौस्तुभमणि के रूप में समस्त जीवों को अपने वक्षस्थल में धारण करते है समस्त श्रृष्टि का तेज सुदर्शन के रूप में तथा समस्त ज्ञानतत्व शंख के रूप में धारण करते हैं अन्य अस्त्र शस्त्रादि सभी तत्व रूप हैं।

इति एकादशोऽध्यायः

[ अथ द्वादशोऽध्यायः ]

भागवत की संक्षिप्त विषय सूचिः-सूतजी बोले सोनकजी! इस भागवत के प्रथम स्कन्ध में भक्ति ज्ञान और वैराग्य का वर्णन हुआ है व्यास नारद संवाद से भागवत जी की रचना हुई है। द्वितीय स्कन्ध में योग धारणा ब्रह्मा नारद संवाद है। तीसरे स्कन्ध में उद्धव विदुर संवाद तथा विदुर मैत्रेय संवाद श्रृष्टि की रचना का वर्णन है और कर्दम जी के विवाह की कथा है। चोथे स्कन्ध में ध्रुव चरित्र पृथु चरित्र है। पांचवें स्कन्ध मे प्रियब्रत ऋषभ देव भरत चरित्र है।

द्वीप वर्ष भूगोल खगोल का वर्णन है छठे स्कन्ध मे प्रचेताओं का दक्ष का बृत्रासुर का वर्णन है। सातवें स्कन्ध में हिरण्यकशिप प्रहलादजी का चरित्र है। आठवें स्कन्ध में गजग्राह उद्धार समुद्र मंथन बलि की कथा है नवम स्कन्ध में राज्य वंशो का वर्णन है। सूर्य वंशी चन्द्रवंशी इक्ष्वाकु निमि आदि राजाओं का वर्णन है रामजी के चरित्रों का वर्णन है राजा ययाति से यदुवंश का वर्णन है। दशम स्कन्ध में भगवान कृष्ण का प्राकट्य उनकी बाललीला शकटासुर तुणावर्त बकासुर वत्सासुर अधासुर का वध कंस का वध अनेक लीलाएं हैं। एकादश स्कनध में वसुदेव नारद संवाद भगवान उद्धव संवाद दत्तात्रेय जी के चौबीस गुरु आदि संवाद है द्वादश स्कन्ध में कलियुग के राजाओं का वर्णन है।

इति द्वादशोऽध्यायः

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[ अथ त्रयोदशोऽध्यायः ]

विभिन्न पुराणों की श्लोक संख्या-ब्रह्म पुराण मे दस हजार श्लोक पद्म पुराण में पचपन हजार विष्णु पुराण में तेइस हजार शिवपुराण में चौबीस हजार श्रीमदभागवत में अठारह हजार नारद पुराण में पच्चीस हजार मार्कण्डेय पुराण में नौ हजार अग्नि पुराण में पन्द्रह हजार चार सौ भविष्य पुराण की चौदह हजार पांच सौ ब्रह्म वैवर्त पुराण की अठारह हजार लिंग पुराण में ग्यारह हजार वराह पुराण में चौबीस हजार स्कन्ध पुराण में इक्यासी हजार एक सौ वामन पुराण मे दस हजार कुर्मपुराण सत्रह हजार मत्स्य पुराण में चौदह हजार गरुड़ पुराण में उन्नीस हजार ब्रह्माण्ड पुराण में बारह हजार कुल पुराणों में मिलकर चार लाख श्लोक है।

नाम संकीर्तनं तस्य सर्वपाप प्रणाशनम्।

प्रणामो दुःख शमनस्तं नमामि हरिं परम्।।

जिस भगवान के नाम का संकीर्तन सारे पापों को सर्वथा नष्ट कर देता है जिन भगवान के चरणों में आत्म समर्पण उनके चरणों में प्रणति सर्वदा के लिए सब प्रकार के दुःखो को शान्त कर देती है उन्ही परमात्मा स्वरूप श्रीहरि को मैं नमस्कार करता हूँ

इति त्रयोदशोऽध्यायः

इति द्वादश स्कन्ध: समाप्त

त्वदीय वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये।

तेन त्वदन्ध्रि कमले रति मे यच्छ शाश्वतीम।।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

संपूर्णोऽयंग्रन्थः

श्री भागवत महापुराण की हिंदी सप्ताहिक कथा जोकि 335 अध्याय ओं का स्वरूप है अब पूर्ण रूप से तैयार हो चुका है और वह क्रमशः भागो के द्वारा आप पढ़ सकते हैं कुल 27 भागों में है सभी भागों का लिंक नीचे दिया गया है आप उस पर क्लिक करके क्रमशः संपूर्ण कथा को पढ़कर आनंद ले सकते हैं |

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भक्ति भाव के सर्वश्रेष्ठ भजनों का संग्रह

bhagwat katha all part 335 adhyay

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