bhagwat katha in hindi
भागवत पुराण कथा भाग-14
अश्वत्थामा विक्षिप्तावस्था में वहाँ से भाग गया। जो ब्राह्मण का धर्म पालन नहीं करता, वह पूर्ण ब्राह्मण नहीं रह जाता। मात्र जाति का ब्राह्मण रहता है। ब्राह्मण का तेज ही उसका प्राण होता है। ब्राह्मण के सिर के बाल को मुंडन करा देना, धन छीन लेना, स्थान से निकाल देना ही दण्ड है।
उसका अंग भंग नहीं करना चाहिए। अर्जुन ने अश्वत्थामा का तेज हरण कर लिया और उसे शिविर से बाहर निकाल दिया। इधर अब युद्ध समाप्त हो चुका था। युद्ध में मारे गये पुत्र – परिजनों के शोक में पांडव परिवार शोक मग्न – समझाया हो गया। उन्होंने दोनों पक्षों के मृतकों को जल दान दिया ।
भगवत् – स्मरण किया। गंगा-जल से स्नान किया। कृष्ण भगवान् ने सबको समझाया । जो होना है, वही होगा। शोक नहीं करना चाहिए। फिर बाद में युधिष्ठिर ने राजगद्दी को स्वीकार किया। वह श्रीकृष्ण भगवान् धर्मराज युधिष्ठिर को सिंहासन पर बैठाकर द्वारका जाने की तैयारी कर रहे थे।
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इधर अश्वत्थामा ने पांडव वंश के बीज का नाश करने के लिये उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे के उपर पुनः ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया । उस गर्भ में पड़े बच्चे की रक्षा के लिए उत्तरा श्रीकृष्ण की गुहार करने लगी ।
पाहि पाहि महायोगिन्देवदेव जगत्पते । नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युःपरस्परम्।।
हे देवाधिदेव जगदीश्वर रक्षा कीजिए रक्षा कीजिए इस संसार में आपके अतिरिक्त अभय प्रदान करने वाला मुझे कोई और दिखाई नहीं दे उत्तरा रक्षा के लिए बार – बार भगवान् कृष्ण को पुकारने लगी। उसका आर्त्तनाद सुनकर योगमाया से कृष्ण भगवान् उसके गर्भ में प्रविष्ट हो गये और ब्रह्मास्त्र से दग्ध बच्चे की रक्षा करने लगे।
वह दग्ध बच्चा भगवान् द्वारा रक्षित होने के कारण ही अपने स्वरूप को प्राप्त कर सका। भगवान् ने सुदर्शन चक्र के समान तेज गति से गदा को घुमाकर गर्भ में उस बालक की रक्षा की थी। अश्वत्थामा के निवारणार्थ सभी पाण्डवों ने अपने-अपने बाण छोड़े। अर्जुन को ब्रह्मास्त्र छोड़ने में विलम्ब हो गया।
अर्जुन को अपनी धनुर्विद्या पर अभिमान था । अहंकार ही भगवान् का आहार होता है। अन्ततोगत्वा भगवान् ने सुदर्शन चक्र चलाकर अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से पांडवों की रक्षा की। श्रीकृष्ण भगवान् ने भक्तवत्सलता में पांडवों की तथा उत्तरा के गर्भ में पड़े परीक्षित् की भी रक्षा की । शास्त्र में कहा गया है कि श्रीवैष्णवों के उपर चलाया गया कोई भी अस्त्र शस्त्र निष्फल हो जाता है।
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अन्यत्र ग्रन्थो में एक कथा है कि प्राचीन काल में भक्तिसार नामक एक साधु थे। ( वे श्रीवैष्णव परम्परा के महात्मा थे।) वे भक्तिसार स्वामी जंगल में तपस्या कर रहे थे। एक दिन शंकर जी पार्वती जी के साथ विमान पर जा रहे थे तो पार्वती जी ने देखा कि भक्तिसार स्वामी सूई से अपनी गुदड़ी सी रहे थे।
आकाश मार्ग से जाते हुए श्री शंकरजी उनकी कुटिया के सामने से गुजर रहे थे तो अचानक शंकरजी का नन्दी रुक गया । शंकरजी ने पूछा रुके क्यों ? नन्दी ने बताया कि यहाँ एक संत हैं, जिनका प्रकाश चतुर्दिक फैला हुआ है। लेकिन वे गुदड़ी सी रहे हैं। पार्वती जी ने शंकरजी से उन संत को एक चादर देने को कहा जिससे जाड़ा, गर्मी, बरसात तीनों ऋतुओं में उनकी रक्षा हो सके ।
शंकरजी ने कहा कि कुछ देने पर महात्मा ने यदि इन्कार कर दिया तो दुःख होगा। शंकरजी संत महाराज को शाल देने के लिए जाने पर तैयार नहीं थे। लेकिन श्रीपार्वती जी के हठ पर वे भक्तिसार स्वामी के आश्रम पर आये ।
श्रीभक्तिसार स्वामी ने नियमानुसार शंकरजी का सत्कार किया। शंकर जी ने भक्तिसार स्वामीजी से पूछा क्यों गुदड़ी सी रहे हैं ? मैं एक चादर दे रहा हूँ, जो हर ऋतु में काम आयेगी । भक्तिसार स्वामी ने कहा मैं किसी से कुछ नहीं लेता शंकरजी ने पार्वतीजी से कहा देखो, वही हुआ जो मैं कह रहा था ।
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शंकर जी ने भक्तिसार से कहा ‘चादर नहीं लेंगे तो मैं तीसरे नेत्र से आपको जला डालूँगा। भक्तिसार ने कहा भले ही जला डालें, मैं चादर नहीं लूँगा।’ शंकर जी ने तीसरा नेत्र खोला। इधर श्री भक्तिसार स्वामी के चरणों से भी तेज निकलने लगा। दोनों के ताप से वातावरण जलने लगा।
अन्य संतों ने शंकरजी से आकर अनुरोध किया तो शंकरजी ने अपना तीसरा नेत्र बंद किया और वहाँ से चले गये। आखिर भक्तिसार स्वामीजी ने शंकरजी की चादर स्वीकार नहीं की। अतः श्री वैष्णवों के उपर अकारण चलाया गया कोई भी अस्त्र शस्त्र निष्फल हो जाता है। –
इस तरह अश्वत्थामा द्वारा चलाया गया ब्रह्मास्त्र शान्त हो गया और किसी ने जाना भी नहीं। भगवान् की लीला कोई नहीं जानता। भक्तों को खेती, व्यापार नौकरी में अलौकिक ढंग से लाभ हो जाता है। यही भगवान् की अलौकिक कृपा है।
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इधर एक दिन श्रीकृष्ण भगवान् अब पुनः द्वारका जाने की तैयारी करते ह तो कुन्ती आ जाती हैं और भगवान् की स्तुति करती हैं।
नमस्ये पुरुषं त्वाद्यमीश्वरं प्रकृतेः परम्। अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्बहिर वस्थितम् ।।
हे प्रभु मैं आपको प्रणाम करती हूं भगवान श्री कृष्ण ने कहा बुआ जी उल्टी गंगा क्यों बहा रही हो आप पूज्यनीय हो इसलिए प्रणाम मुझे करना चाहिए बुआ कुंती ने कहा प्रभु इसी संबंध के कारण ही आपने आजतक ठगा है आज मैं जान गई आप प्रकृति से परे साक्षात परब्रम्ह परमात्मा है जो समस्त प्राणियों के अंदर बाहर स्थित हैं भगवान श्रीकृष्ण ने कहा यदि सर्वत्र स्थित हूं तो दिखाई क्यों नहीं देता बुआ कुंती ने उत्तर दिया….
मायाजवनिकाच्छन्नमज्ञाधोक्षज मव्ययम् ।
प्रभु आपने माया का पर्दा डाल रखा है इसलिए सब के मध्य होते हुए भी आप दिखाई नहीं देते…
यथा ह्रषीकेश खलेन देवकी कंसेन रूध्दातिचिरं शुचार्पिताः ।
विमोचिताहं च सहात्मजा विभो त्वयैव नाथेन मुहुर्विपद् गणात ।।
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प्रभु जिस प्रकार आपने दुष्ट कंस ने देवकी की रक्षा की उसी प्रकार आपने मेरे पुत्रों के साथ मेरी अनेकों बार विपत्तियों से रक्षा की आप माता देवकी से अधिक मुझसे स्नेह करते हैं क्योंकि दुष्ट कंस से आपने मात्र देवकी की ही रक्षा की उनके पुत्रों की रक्षा नहीं कर सके परंतु मेरी तो आपने मेरे पुत्रों के साथ सदा रक्षा किए जब भीमसेन छोटा था उस समय दुष्ट कौरवों ने उसे विश दे दिया था उस समय आपकी कृपा से वह भी अमृत बन गया और भीम को 1000 हाथियों का बल प्राप्त हुआ जब हम वन में थे उस समय हिडिंब आदि असुरों से भी आपने ही रक्षा की आगे के प्रसंगों में दुर्योधन के षड्यंत्रों से जुड़ी एक पूर्व घटना बतायी गयी है कि सभी कुचक्रों के असफल होने पर उस दुर्योधन ने सोचा कि क्यों नहीं संत के शाप से ही पांडवों का नाश करा दिया जाय ?
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दुर्योधन ऐसा विचारा रखा ही था कि एक बार दुर्वासा ऋषि उसके राज्य के पास आये तो उसने उनसे अपने राज्य के पास में ही चातुर्मास्यव्रत करने का अनुरोध किया। दुर्वासा ऋषि ने अनुरोध स्वीकार कर लिया। चातुर्मास्यव्रत में दुर्योधन ने दुर्वासा ऋषि की खूब अच्छी तरह सेवा की। चातुर्मास्यव्रत समाप्ति पर दुर्वासा ने दुर्योधन से वर माँगने को कहा तो दुर्योधन ने कहा कि हे ऋषिवर ! एक वर माँगता हूँ कि आप पांडवों के पास उस समय पहुँचें, जब सभी पाण्डव लोग भोजन कर चुके हों।
आप द्वादशी को अपने हजारों शिष्यों को लेकर पारण करने के लिए पांडवों के भोजन करने के उपरान्त उनके पास पहुँचें। दुर्वासा ऋषि ने कहा ‘एवमस्तु’ । दुर्योधन ने यह सोचकर के वर माँगा था कि पांडवों के भोजन के बाद द्रौपदी अपना अक्षय पात्र धोकर रख देगी। उसके बाद दुर्वासा महाराज शिष्यों को लेकर आतिथ्य के लिए पांडव के पास जायेंगे तो पांडव भोजन नहीं करा पायेंगे और फलतः मुनि महाराज क्रोधित होकर पांडवों के नाश होने का शाप दे देंगे।
इस प्रकार से पाण्डवों को नष्ट करने का ऐसा कुचक्र दुर्योधन ने रच दिया था । दुर्वासा ऋषि दुर्योधन के ऐसा वर माँगने से क्षुब्ध भी हुए और उन्होंने कहा कि ऐसा वर माँगकर तूने अच्छा नहीं किया। वचनबद्ध होकर दुर्वासाजी पांडवों के निवास स्थान अपने हजारों शिष्यों को लेकर पहुँचे। उस वनवास के समय जब सभी पांडव भोजन कर चुके थे।
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भीम ने समझा कि अभी द्रौपदी ने भोजन नहीं किया है। भीम ने दुर्वासा ऋषि से आतिथ्य सत्कार स्वीकार करने की प्रार्थना की। दुर्वासा ऋषि ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया। इधर द्रौपदी भोजन कर चुकी थी तथा अक्षय पात्र उसने धो दिया था । अक्षय पात्र यदि धोया गया नहीं होता और अन्न का एक दाना भी अक्षय पात्र में होता तो द्रौपदी की इच्छा के अनुसार अतिथियों को प्रसाद उपलब्ध हो जाता। अब तो पांडव संकट में फँस गये ।
दुर्वासा ऋषि ने कहा कि भोजन के लिए प्रसाद तैयार करें, तब तक नदी से स्नान करके हम लोग द्वादशी का पारण करने आ रहे हैं। वह भगवान् श्रीकृष्ण ने दुर्योधन के कुचक्र को जान लिया । अतः द्रौपदी के स्मरण करते ही अचानक द्रौपदी के पास पहुँचकर द्रौपदी के अक्षय पात्र में सटे एक साग का पता ग्रहण कर ऋषियों को संतुष्ट किया ।
इधर जब दुर्वासाजी ने अपने शिष्यों के साथ स्नान करके आचमन किया तो उन लोगों को लगा कि पेट भरा हुआ है, भूख है ही नहीं। वे सोचने लगे कि ऐसे में अब पांडवों के यहाँ भोजन कैसे करेंगे ?
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दुर्वासा ऋषि समझ गये कि यह भगवान् श्रीकृष्ण की लीला है। वे हमलोगों को छोड़ेंगे नहीं दण्ड़ अवश्य देंगे इसलिए दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों को लेकर नदी से ही भाग खड़े हुए। उधर पांडव दुर्वासा जी एवं उनके शिष्यों को भोजन कराने के लिए तैयार थे तथा उधर वे दुर्वासा ऋषि भाग खड़े हुए थे।
इस प्रकार उन दुर्वाषा के शाप देने की स्थिति बनने से भगवान् श्रीकृष्ण ने पांडवों की रक्षा कर दी । कुन्ती इस पूर्व घटना को यादकर श्रीकृष्ण को बार–बार नमस्कार करती हैं। महाभारत युद्ध में जहां भीष्म पितामह आदि रथी विद्यमान थे उस समय आपने मेरे पुत्रों को खरोच तक नहीं आने दी और कहां तक सुनाऊं आपने अभी-अभी अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से उत्तरा के गर्भ की रक्षा की इसलिए प्रभु मैं तो आपसे यही वरदान मांगती हूं……