Tuesday, October 8, 2024
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संपूर्ण भागवत कथा इन हिंदी bhagwat katha in hindi

संपूर्ण भागवत कथा इन हिंदी bhagwat katha in hindi

माहात्म्य [ अथ प्रथमो अध्यायः ]

अनंत कोटी ब्रम्हांड नायक परम ब्रह्म परमेश्वर परमात्मा भगवान नारायण की असीम अनुकंपा से आज हमें श्रीमद् भागवत भगवान श्री गोविंद का वांग्मय स्वरूप के कथा सत्र में सम्मिलित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है | निश्चय ही आज हमारे कोई पूर्व जन्म के पुण्य उदय हुए हैं |

नैमिषारण्य नामक वन में श्री सूत जी महाराज हमेशा श्री सौनकादि अट्ठासी हजार ऋषियों को पुराणों की कथा सुनाते रहते हैं | आज की कथा में श्रीमद् भागवत की कथा सुनाने जा रहे हैं , ऋषि गण कथा सुनने के लिए उत्सुक हो रहे हैं | नियम के अनुसार सर्वप्रथम मंगलाचरण कर रहे हैं |

सूतोवाच- मा• 1.1

यह मंगलाचरण भी कोई साधारण नहीं है , इस श्लोक के चारों चरणों में भगवान के नाम रूप गुण और लीला का वर्णन है | जो समस्त भागवत का सार है | प्रथम चरण में भगवान के स्वरूप का वर्णन है भगवान का स्वरूप है सत यानी प्रकृति तत्व समस्त जड़ जगत भगवान का ही रूप है |

चिद् चैतन समस्त सृष्टि के जीव मात्र ये भी भगवान का ही रूप हैं

स्वयं भगवान आनंद स्वरूप हैं इस प्रकार भगवान श्रीमन्नारायण चैतन की अधिष्ठात्री श्री देवी तथा जड़त्व की अधिष्ठात्री भू देवी दोनों महा शक्तियों को धारण किए हुए हैं यह भगवान का स्वरूप है | दूसरे चरण में भगवान के गुणों का वर्णन है विश्वोत्पत्यादि हेतवे समस्त सृष्टि को बनाने वाले उसका पालन करने वाले तथा अंत में उसे समेट लेने वाले भगवान श्रीमन्नारायण है यह भगवान का गुण है |तीसरे चरण में तापत्रय विनाशाय आज सारा संसार दैहिक दैविक भौतिक इन तीनों तापों से त्रस्त है और कोई शारीरिक व्याधियों से घिरा है , कोई दैविक विपत्तियों में फंसा है तो कोई भौतिक सुख सुविधाओं के अभाव में जल रहा है |किंतु परमात्मा भगवान श्रीमन्नारायण अपने भक्तों के तापों को दूर करते हैं यही भगवान की लीला है | चौथे चरण में भगवान का नाम है श्री कृष्णाय वयं नुमः हम सब उस परमात्मा भगवान श्री कृष्ण को नमस्कार करते हैं | इस प्रकार श्री सूतजी ने कथा से पूर्व भगवान का स्मरण किया तो उन्हें याद आया कि बिना गुरु के तो भगवान भी कृपा नहीं करते तो उन्होंने अगले श्लोक में गुरु को स्मरण किया |

श्लोक- मा• 1.2

जिस समय श्री सुकदेव जी का यज्ञोपवीत संस्कार भी नहीं हुआ था तथा सांसारिक तथा वैदिक कर्म का भी समय नहीं था , तभी उन्हें अकेले घर से जाते देख उनके पिता व्यास जी कातर होकर पुकारने लगे हा बेटा हा पुत्र मत जाओ रुक जाओ, सुकदेव जी को तन्मय देख वृक्षों ने उत्तर दिया , ऐसे सर्वभूत ह्रदय श्री सुकदेव जी को मैं प्रणाम करता हूं |

सूत जी द्वारा इस प्रकार मंगलाचरण करने के बाद श्रोताओं में प्रमुख श्रीसौनक जी बोले–

हे सूत जी आपका ज्ञान अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए करोड़ों सूर्यो के समान है हमारे कानों को अमृत के तुल्य सारगर्भित कथा सुनाइए | इस घोर कलयुग में जीव सब राक्षस वृत्ति के हो जाएंगे उनका उद्धार कैसे होगा , ऐसा भक्ति ज्ञान बढ़ाने वाला कृष्ण प्राप्ति का साधन बताएं क्योंकि पारस मणि व कल्पवृक्ष तो केवल संसार व स्वर्ग ही दे सकते हैं किंतु गुरु तो बैकुंठ भी दे सकते हैं | इस प्रकार सौनक जी का प्रेम देखकर सूत जी बोले सबका सार संसार भय नाशक भक्ति बढ़ाने वाला भगवत प्राप्ति का साधन तुम्हें दूंगा जो भागवत कलयुग में श्री शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को दी थी, वही भागवत तुम्हें सुनाऊंगा |

उस समय देवताओं ने अमृत के बदले इसे लेने के लिए प्रयास किया था

किंतु सफल नहीं हुए भागवत कथा देवताओं को भी दुर्लभ है एक बार विधाता ने सत्य लोक में तराजू बांधकर तोला तो भागवत के सामने सारे ग्रंथ हल्के पड़ गए | यह कथा पहले शनकादि ऋषियों ने नारदजी को सुनाई थी, इस पर शौनक जी बोले संसार प्रपंचो से दूर कभी एक जगह नहीं ठहरने वाले नारद जी ने कैसे यह कथा सुनी | सो कृपा करके बताएं तब सूतजी बोले एक बार विशालापुरी में शनकादि ऋषियों को नारद जी मिले, नारदजी को देखकर बोले आपका मुख उदास है क्या कारण है ? इतनी जल्दी कहां जा रहे हैं इस पर नारद बोले– मैं पृथ्वी पर गया था वहां पुष्कर ,प्रयाग, काशी, गोदावरी, हरी क्षेत्र ,कुरुक्षेत्र, श्रीरंग ,रामेश्वर आदि स्थानों पर गया किंतु कहीं भी मन को समाधान नहीं हुआ | कलयुग ने सत्य , शौच,तप, दया, दान सब नष्ट कर दिए हैं , सब जीव अपने पेट भरने के अलावा कुछ नहीं जानते, संत महात्मा सब पाखंडी हो गए हैं |इन सब में घूमता हुआ मैं वृंदावन पहुंच गया वहां एक बड़ा ही आश्चर्य देखा- एक युवती वहां दुखी होकर रो रही थी उसके पास ही दो वृद्ध सो रहे थे मुझे देखकर वह बोली–

श्लोक- मा• 1.42

हे साधो थोड़ा ठहरिये मेरी चिंता दूर कीजिए | तब नारद बोले हे देवी आप कौन हैं आपको क्या कष्ट है बता दें , इस पर वह बाला बोली मैं भक्ति हूं, यह दोनों मेरे पुत्र ज्ञान बैराग हैं जो समय पाकर वृद्ध हो गए हैं | मेरा जन्म द्रविड़ देश में हुआ था , कर्नाटक में बड़ी हुई ,थोड़ी महाराष्ट्र में तथा गुजरात में वृद्ध हो गई और यहां वृंदावन में पुनः तरुणी हो गई और मेरे पुत्र ज्ञान और वैराग्य वृद्ध हो गए | नारद बोले हे देवी यह घोर कलयुग है यहां सब सदाचार लुप्त हो गए हैं |

श्लोक- मा• 1.61

इस बृंदावन को धन्य है जहां भक्ति नृत्य करती हैं | वृंदावन की महिमा महान है | भक्ति बोली अहो इस दुष्ट कलयुग को परिक्षित ने धरती पर क्यों स्थान दिया ? नारद बोले दिग्विजय के समय यह दीन होकर परीक्षित से बोला मुझे मारे नहीं मेरा एक गुण है उसे सुने—

श्लोक- मा• 1.68

जो फल ना तपस्या से मिल सकता तथा ना योग और ना समाधि से वह फल इस कलयुग में केवल नारायण कीर्तन से मिलता है | आज कुकर्म करने वाले चारों ओर हो गए हैं , ब्राम्हणो ने थोड़े लोभ के लिए घर-घर में भागवत बांचना शुरू कर दिया है | भक्ति बोली हे देव ऋषि आपको धन्य है आप मेरे भाग्य से आए हैं , मैं आपको नमस्कार करती हूँ |

इति प्रथमो अध्यायः

संपूर्ण भागवत कथा इन हिंदी bhagwat katha in hindi

[ अथ द्वितीयो अध्यायः ]

श्लोक- मा• 2.13

नारद जी बोले हे भक्ति कलयुग के समान कोई युग नहीं है, मैं तेरी घर-घर में स्थापना करूंगा भक्ती बोली हे नारद आपको धन्य है मेरे में आपकी इतनी प्रीति है | इसके बाद नारदजी ने ज्ञान बैराग को जगाने का प्रयास किया उनके कान कान के पास मुंह लगाकर बोले– हे ज्ञान जागो , हे वैराग्य जागो और उन्हें वेद और गीता का पाठ सुनाया, किंतु ज्ञान बैराग कुछ जमुहायी लेकर वापस सो गए तभी आकाशवाणी हुई |

हे मुनि सत्कर्म करो संत जन तुम्हें इसका उपाय बताएंगे ,

तभी से मैं तीर्थों में भ्रमण करता हुआ संतो से पूछता हुआ यहां आया हूं, यहां सौभाग्य से आपके दर्शन हुए अब आप कृपा करके बताएं ज्ञान बैराग व भक्ति का दुख कैसे दूर होगा ? कुमार बोले हे नारद आप चिंता ना करें उपाय तो सरल है उसे आप जानते भी हैं इस कलयुग में ही श्री शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को श्रीमद् भागवत कथा सुनाई थी वही ज्ञान बैराग के लिए उपाय है | इस पर नारद जी बोले सारे ग्रंथों का मूल तो वेद है , फिर श्रीमद्भागवत से उनके कष्ट की निवृत्ति कैसे होगी ? कुमार बोले–

मूल धूल में रहत है , शाखा में फल फूल

फल फूल तो शाखा में ही लगते हैं यह सुन नारद जी बोले—

श्लोक- मा• 2.13

अनेक जन्मों के पुण्य उदय होने पर सत्संग मिलता है तब उसके अज्ञान जनित मोह और मद रूप अहंकार का नाश होकर विवेक उदय होता है |

इति द्वितीयो अध्यायः

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( अथ तृतीयो अध्यायः )

नारद जी बोले मैं  !ज्ञान बैराग और भक्ति के कष्ट निवारण हेतु ज्ञान यज्ञ करूंगा , हे मुनि आप उसके लिए स्थान बताएं कुमार बोले गंगा के किनारे आनंद नामक तट है वहीं ज्ञान यज्ञ करें इस प्रकार कह कर सनकादि नारद जी के साथ गंगा तट पर आ गए, इस कथा का भूलोक में ही नहीं बल्कि स्वर्ग तथा ब्रह्म लोक तक हल्ला हो गया और बड़े-बड़े संत भ्रुगू वशिष्ठ च्यवन गौतम मेधातिथि देवल देवराज परशुराम विश्वामित्र साकल मार्कंडेय पिप्पलाद योगेश्वर व्यास पाराशर छायाशुक आदि उपस्थित हो गए | व्यास आसन पर श्री सनकादिक ऋषि विराजमान हुए तथा मुख्य श्रोता के आसन पर नारद जी विराजमान हुए, आगे महात्मा लोग ,

एक ओर देवता बैठे पूजा के बाद श्रीमद्भागवत का महात्म्य सुनाने लगे |

श्लोक- मा• 3.42

जिसने श्रीमद् भागवत कथा को थोड़ा भी नहीं सुना उसने अपना सारा जीवन चांडाल और गधे के समान खो दिया तथा जन्म लेकर अपनी मां को व्यर्थ मे कष्ट दिया , वह पृथ्वी पर भार स्वरूप है | जब भगवान पृथ्वी को छोड़कर गोलोकधाम जा रहे थे दुखी उद्धव के पूछने पर बताया था कि मैं अपने स्वरूप को भागवत में रखकर जा रहा हूं अतः यह भागवत कथा भगवान का वांग्मय स्वरूप है | श्री सूतजी कहते हैं —

श्लोक- मा• 3.66.67.68

इसी बीच में एक महान आश्चर्य हुआ , हे सोनक उसे तुम सुनो भक्ति महारानी अपने दोनों पुत्रों के सहित– श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव, गाती हुई सभा में आ गई और सनकादिक से बोली मैं इस कलयुग में नष्ट हो गई थी, आपने मुझे पुष्ट कर दिया अब आप बताएं मैं कहां रहूं ?  कुमार बोले तुम भक्तों के हृदय में निवास करो |

इति तृतीयो अध्यायः

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( अथ चतुर्थो अध्यायः )

गोकर्ण उपाख्यान— जो मानव सदा पाप में लीन रहते हैं दुराचार करते हैं क्रोध अग्नि में जलते रहते हैं ! इस भागवत के सुनने से पवित्र हो जाते हैं |

श्लोक- मा• 4.11

अब आपको एक प्राचीन इतिहास सुनाता हूं, एक आत्मदेव नामक ब्राह्मण एक नगरी में रहा करता था, उसके धुंधली नाम की पत्नी थी ब्राह्मण विद्वान एवं धनी था उसकी पत्नी झगड़ालू एवं दुष्टा थी, ब्राह्मण के कोई संतान न थी अतः दुखी रहता था कयी उपाय करने के बाद भी उसके संतान नहीं हुई तो अंत में दुखी होकर आत्महत्या करने के लिए जंगल में गया वहां वह एक महात्मा से मिला ब्राम्हण उसके चरणों में गिर गया और कहने लगा कि—

मुझे संतान दो नहीं तो आपके चरणों में ही आत्महत्या कर लूंगा

महात्मा ने उसे समझाया कि तुम्हारे भाग्य में संतान नहीं है किंतु उसने एक नहीं सुनी और आत्महत्या के लिए तैयार हो गया तब दया करके महात्मा ने उसे एक फल दिया और कहा इसे अपनी पत्नी को खिला देना तुम्हें संतान हो जाएगी |ब्राह्मण फल को लेकर प्रसन्नता पूर्वक अपने घर को आ गया और वह फल अपनी पत्नी को खाने के लिए दे दिया पत्नी ने वह फल बाद में खा लूंगी कह कर ले लिया और सोचने लगी अहो इस फल के भक्षण से तो मेरे गर्भ रह जाएगा उससे तो मेरा पेट भी बढ़ जाएगा |

उससे मैं ठीक से भोजन भी नहीं कर पाऊंगी

यदि कहीं गांव में आग लग गई तो सब लोग तो भाग जाएंगे मैं भाग भी नहीं पाऊंगी ऐसे कुतर्क कर उस फल को नहीं खाया , इतने में उसकी छोटी बहन आ गई धुंधली ने अपना सारा दुख छोटी बहन को सुनाया और कहा कि बता मैं क्या करूं छोटी बहन बोली इस फल को गाय को खिला दें वह भी बांझ है परीक्षा हो जाएगी और तुम अपने पति को बता देना कि फल मैंने खा लिया और मैं गर्भवती हो गई हूं ,और मुझे सेवा के लिए एक दासी की जरूरत है और मैं आपकी दासी बनकर आ जाऊंगी और आपकी सेवा करूंगी क्योंकि मैं गर्भवती हूं मेरा जो बच्चा होगा उसे आपका बता दूंगी इसके बदले आप मुझे थोड़ा धन दे देना जिससे मेरा भी काम चल जाएगा |

यह सब बातें धुंधली ने अपने पति को बता दी और फल गाय को खिला दिया ,

समय पाकर बहन को बालक हुआ उसे धुंधली ने मेरे बच्चा हुआ ऐसा कह दिया , धुंधली ने उसका नाम धुंधकारी रख दिया , कुछ समय बाद गाय के भी अद्भुत बालक हुआ जिसके कान गाय के जैसे तथा सारा शरीर मानव का था |आत्म देव ने उनका नाम गोकर्ण रखा—-

श्लोक- मा• 4.66

बड़े होकर गोकर्ण महान ज्ञानी हुए तथा धुंधकारी महा दुष्ट हुआ हिंसा, चोरी, व्यभिचाऱ मदिरापान करने वाला जिसे देखकर आत्म देव बड़े दुखी हुए कहने लगे कुपुत्रो दुखदायक इससे तो बिना पुत्र ही ठीक था | पिता को दुखी देखकर गोकर्ण बोले—-

श्लोक- मा• 4.79

गौकर्ण जी ने पिता को समझाया इस मांस मज्जा के शरीर के मोह को त्याग पुत्र घर से आसक्ति को छोड़ वन में जाकर भगवान का भजन करें | इतना सुनकर आत्मदेव वन में जाकर भजन करने लगे, गौकर्ण जी तीर्थाटन को चले गए |

इति चतुर्थो अध्यायः

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( अथ पंचमो अध्यायः )

पिता के वन चले जाने पर धुंधकारी अपनी मां को पीटने लगा और कहने लगा कि बता धन कहां रखा है और माता भी उसके दुख से दुखी होकर कुएं में गिरकर समाप्त हो गई अब तो धुंधकारी अकेला ही पांच वेश्याओं के साथ अपने घर में रहने लगा और चोरी करके उन्हें बहुत सा धन चोरी कर के लाकर देने लगा | एक दिन वैश्याओं ने मन में विचार किया कि यह चोरी करके धन लाता है यह तो मरेगा ही साथ में ही हम भी मारी जाएंगी अतः इसे अब समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि अब हमारे पास धन तो पर्याप्त हो ही गया है , रात्रि में उसे खूब शराब पिलाई जब वह बेसुध हो गया तब उसके गले में फंदा लगाकर उसे मारने के लिए खींचने लगी तब भी नहीं मरने पर उसके मुंह में जलते हुए अंगारे ठूस दिए और वह समाप्त हो गया |

उसे वही गड्ढा खोदकर गाड़ दिया और वेश्याएं धन लेकर चंपत हो गई

और धुंधकारी एक महान प्रेत बन गया कभी कोई ग्रामवासी के तीर्थ जाने पर उसे गोकर्ण जी मिले तो उन्हें धुंधकारी के मारे जाने की खबर ग्रामवासी ने सुनाई तो गोकर्ण जी ने उसका गया में जाकर श्राद्ध किया और अपने ग्राम में आ गये | अभी वे रात्रि को अपने घर में सो रहे थे कि धुंधकारी उन्हें कभी भैंसा कभी बकरा बन कर डराने लगा गोकर्ण जी ने देखा यह निश्चय कोई प्रेत है तो उन्होंने गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित कर उस पर जल छिड़का उस प्रेत में बोलने की शक्ति आ गई और कहने लगा– हे भाई मैं तुम्हारा भाई धुधंकारी हूं , मेरे पापों से मेरी यह दुर्गति हुई है | गौकर्ण जी बोले मैंने तुम्हारे लिए गया में श्राद्ध करा दिया था फिर भी तुम्हारी मुक्ति क्यों नहीं हुयी धुंधकारी बोला—-

श्लोक- मा• 5.33

हे भाई सौ गया श्राद्ध से भी मेरी मुक्ति संभव नहीं है कोई अन्य उपाय करें | गोकर्ण जी ने धुंधकारी को कहा मैं तुम्हारे लिए अन्य उपाय सोचता हूं और प्रातः काल  भगवान सूर्य से प्रार्थना की और मुक्ति का उपाय पूछा ? भगवान सूर्य बोले—

श्लोक- मा• 5.41

सूर्य ने कहा कि इन्हें श्रीमद् भागवत की कथा सुनावें, गोकर्ण जी ने कथा का आयोजन किया अनेक श्रोता आने लगे भागवत प्रारंभ हुई धुंधकारी भी एक बांस में बैठ गया, प्रथम दिन की कथा के बाद बांस की एक गांठ फट गई दूसरे दिन दूसरी इस प्रकार सात दिन में बांस की सातों गांठ फट गई और उसमें से एक दिव्य पुरुष निकला और हाथ जोड़कर गौकर्ण जी से कहने लगा |

श्लोक- मा• 5.53

हे भाई आपने मेरी प्रेत योनी छुड़ा दी इस प्रेत  पीडा छुडाने वाली भागवत कथा को धन्य है और इतना कहते ही एक विमान आया और उसमें सबके देखते-देखते धुंधकारी बैठ गया | गोकर्ण जी ने पार्षदों से पूछा कि कथा तो सबने सुनी है विमान केवल धुंधकारी के लिए ही क्यों आया ? पार्षदों ने बताया कि सुनने के भेद से ऐसा हुआ धुंधकारी ने कथा मन लगाकर सुना इसीलिए उसके लिए विमान आया |

दूसरी बार गोकर्ण जी ने पुनः कथा की और सबने मन लगाकर सुनी

तो सभी के लिए अनेक विमान आकाश में छा गए और जिस प्रकार भगवान राम सभी अयोध्या वासियों को लेकर बैकुंठ गए उसी प्रकार सभी श्रोता विमान में बैठकर जय-जय करते हुए वैकुंठ को चले गए |

इति पंचमो अध्यायः

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( अथ षष्ठो अध्यायः )

कुमार बोले अब भागवत श्रवण की विधि बताई जा रही है पहले किसी ज्योतिषी से शुभ मुहूर्त पूंछना चाहिए , एक विवाह में जितना खर्च हो उतने धन की व्यवस्था करनी चाहिए, भाद्रपद अश्विन कार्तिक मार्गशीर्ष आषाढ़ श्रावण यह महीनों में भागवत का वाचन मोक्ष को देने वाला कहा गया है | कथा की सूचना दूर-दूर तक देना चाहिए , अपने सगे संबंधियों मित्रों को भी आमंत्रित करना चाहिए |

भागवत जी के लिए ऊंचा सुंदर मंच बनाना चाहिए |

वक्ता पूर्वाभिमुख होकर श्रोता उत्तराभिमुख बैठे | व्यास आसन के समीप हि श्रोता का आसन हो | विद्वान संतोषी वैष्णव ब्राह्मण जो दृष्टांत देकर समझा सके उनसे कथा सुनना चाहिए | चार अन्य ब्राह्मणों को मूल पाठ , द्वादश अक्षर मंत्र जप आदि के लिए बैठाना चाहिए कथा में सीमित अहार करना चाहिए , धरती पर ही सोना चाहिए, सनकादि इस प्रकार कह ही रहे थे कि उस सभा में — प्रहलाद ,बलि, उद्धव ,अर्जुन सहित भगवान प्रकट हो गए | नारद जी ने उनकी पूजा की तथा भगवान को एक ऊंचे सिंहासन पर विराजमान किए और सब लोग कीर्तन करने लगे,  कीर्तन देखने के लिए शिव पार्वती और ब्रम्हा जी भी आये |

प्रहलाद जी करताल बजाने लगे, उद्धव जी मंजीरे बजाने लगे ,

नारद जी वीणा बजाने लगे, अर्जुन गाने लगे , इंद्र मृदंग बजाने लगे सनकादि बीच-बीच में जय-जय घोष करने लगे लगे ,  सुखदेव भाव दिखाने लगे ,भक्ति ज्ञान वैराग्य नृत्य करने लगे इस कीर्तन से भगवान बड़े प्रसन्न हुए और सब को कहा वरदान मांगो सब ने कहा जहां कहीं भगवान जी कथा हो आप वहां विद्यमान रहें , एव मस्तु कहकर भगवान अंतर्धान हो गए |

इति षष्ठो अध्यायः

इति माहात्म्य संपूर्ण

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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

प्रथम स्कन्ध ( अथ प्रथमो अध्यायः )

मंगलाचरण

श्लोक- 1,1,1-2-3

सृष्टि की रचना उसका पालन तथा संघार करने वाला परमात्मा जो कण-कण में विद्यमान है जो सबका स्वामी है जिसकी माया से बड़े-बड़े  ब्रह्मा आदि देवता भी मोहित हो जाते हैं | जैसे तेज के कारण मिट्टी में जल का आभास होता है उसी तरह परमात्मा के तेज से यह मृषा संसार सत्य प्रतीत हो रहा है | उस स्वयं प्रकाश परमात्मा का हम ध्यान करते हैं | सभी प्रकार की कामनाओं से रहित जिस परमार्थ धर्म का वर्णन इस भागवत महापुराण में हुआ है , जो सत पुरुषों के जानने योग्य है फिर अन्य शास्त्रों से क्या प्रयोजन

जो भी इसका श्रवण की इच्छा करते हैं भगवान उसके ह्रदय में आकर बैठ जाते हैं |

यह भागवत वेद रूपी वृक्षों का पका हुआ फल है तथा सुखदेव रूपी तोते की चोंच लग जाने से और भी मीठा हो गया है ,इस फल में छिलका गुठली कुछ भी नहीं है इस रस का पान आजीवन बार-बार करते  रहें | एक समय की बात है कि नैमिषारण्य नामक वन में सोनकादि अठ्ठासी हजार ऋषियों ने भगवत प्राप्ति के लिए एक महान अनुष्ठान किया और उसमें श्री सूत जी महाराज से प्रश्न किया कि हे ऋषिवर

आप सभी पुराणों के ज्ञाता हैं, उन शास्त्रों में कलयुग के जीवों के कल्याण के लिए सार रूप थोड़ी में क्या निश्चय किया है | उसे सुनाइए भगवान श्री कृष्ण बलराम ने देवकी के गर्भ से अवतरित होकर क्या लिलायें कि उनका वर्णन कीजिए |

इति प्रथमो अध्यायः

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( अथ दुतीयो अध्यायः )

सौनकादिक ऋषियों का यह प्रश्न सुनकर सूत जी श्री सुखदेव जी व्यास जी नरनारायण ऋषि एवं सरस्वती देवी को प्रणाम कर कहने लगे- हे ऋषियों आपने संसार के कल्याण के लिए यह  बहुत ही सुंदर प्रश्न किया है क्योंकि यह प्रश्न भगवान श्री कृष्ण के संबंध में है | आपकी मती भगवत भक्ति में लगी है | पवित्र तीर्थों का सेवन भगवान की कथाएं में रुचि भगवान का कीर्तन यह सभी आत्मा को शुद्ध करते हैं | उनके ह्रदय में स्वयं भगवान आकर विराजमान हो जाते हैं |

श्लोक- 1,2,23

प्रकृति के तीन गुण हैं सत रज तम इनको स्वीकार करके इस संसार की स्थिति उत्पत्ति और प्रलय के लिए परमात्मा ही विष्णु ब्रह्मा रुद्र यह तीन रूप धारण करते हैं | फिर भी मनुष्यों का परम कल्याण तो सत्व गुण धारी श्रीहरि ही करते हैं |

इति द्वितीयो अध्याय:

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( अथ तीसरा अध्याय )

भगवान के अवतारों का वर्णन—-

श्लोक- 1,3,4-5

योगी लोग दिव्य दृष्टि से भगवान के जिस रूप का दर्शन करते हैं , भगवान का वह रूप हजारों पैर जंघे, भुजाएं और मूखों के कारण अत्यंत विलक्षण है | उसमें हजारों सिर कान आंखें और नासिकाएं हैं, मुकुट वस्त्र कुंडल आदि आभूषणों   से सुसज्जित रहता है |

भगवान का यही पुरुष रूप जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारों का अक्षय कोष है इसी से सारे अवतार प्रगट होते हैं | इस रूप के छोटे से छोटे अंश से देवता मनुष्य पशु पक्षी आदि योनियों की सृष्टि होती है | उसी प्रभु ने क्रमशः सनकादिक ,  वाराह , नर नारायण, कपिल, दत्तात्रेय, यज्ञ ,ऋषि पृथु , मत्स्य , कच्छप , धनवंतरी , मोहिनी, नरसिंह, बामन ,परशुराम, व्यास, राम, बलराम ,कृष्ण,  बुद्ध इस प्रकार और भी अनेक अवतार भगवान धारण किए है |

इति: तृतीयो अध्याय:

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( अथ चतुर्थो अध्यायः )

महर्षि व्यास का असंतोष— सरस्वती नदी के किनारे विराजमान महर्षि व्यास के मन में आज बड़ा ही असंतोष है , अहो मैंने सहस्त्र पुराणों की रचना की एक ही वेद के चार भाग किए , महाभारत जैसे बडे ग्रंथ की रचना करके तो मैंने पांचवा वेद ही लिख दिया |यद्यपि मैं ब्रह्म तेज से संपन्न एवं समर्थ हूँ तथा फिर भी मेरे ह्रदय अपूर्ण काम सा जान पड़ता है | निश्चय ही मैंने भगवान को प्राप्त करने वाले धर्मों का निरूपण नहीं किया वे ही धर्म परमहंसो को तथा भगवान को प्रिय हैं | व्यास जी इस प्रकार खिन्न हो रहे थे तभी वहां नारद जी आए | व्यास जी खड़े हो गए और नारद जी की पूजा की |

इति चतुर्थो अध्यायः

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( अथ पंचमो अध्याय: )

भगवान के यश कीर्तन की महिमा |

देवऋषि नारद जी का पूर्व चरित्र ||

नारदजी ने व्यास जी से पूछा अनेक पुराणों के रचयिता भगवान के अंशावतार व्यास जी इतने ग्रंथों की रचना करने के बाद भी ऐसा लगता है कि आपके मन को समाधान नहीं है | व्यास जी बोले आप सत्य कह रहे हैं अनेकों रचना के बाद भी मेरे मन संतुष्ट नहीं है | कृपया आप बता दें मेरे प्रयास में कहां क्या कमी है | नारद जी बोले व्यास जी आपने भगवान नारायण के निर्मल यस का वर्णन जितना होना चाहिए नहीं किया पुराणों में भी आपने देवताओं के ही गुण गाए हैं—

श्लोक- 1,5,13

इसलिए हे महाभाग व्यास जी आपकी दृष्टि अमोघ है, आपकी कीर्ति पवित्र है , आप सत्य पारायण एवं द्रढवृत हैं | इसलिए आप संपूर्ण जीवो को बंधन से मुक्त करने के लिए समाधि के अचिंत्य शक्ति भगवान की लीलाओं का स्मरण कीजिए और उनका वर्णन कीजिए |

पिछले कल्प मै एक वेद वादी ब्राह्मणों  की दासी का पुत्र था |

वे योगी वर्षा ऋतु में चातुर्मास कर रहे थे मैं बचपन से ही उनकी सेवा में था उनका  उच्चिष्ट भोजन एक बार खा लेता था और उनसे भगवान श्री कृष्ण की कथाएं सुनता रहता  था जिससे मेरा ह्रदय शुद्ध हो गया भगवान में मेरी रुचि हो गई | चातुर्मास की समाप्ति पर  जाते समय वे संत मुझे नारायण मंत्र प्रदान कर गए मेरा जीवन बदल गया |

इति पंचमो अध्याय:

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( अथ षष्ठो अध्याय: )

नारद जी का शेष चरित्र– उनके चले जाने के बाद मैं भगवान का भजन करता रहा इसी अवधि में मेरी माता का स्वर्गवास हो गया |  मैं अकेला रह गया मैंने उसे भगवान की कृपा  समझा और उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया और हिमालय में जाकर भगवान का भजन करने लगा | भगवान ने मुझे दर्शन दिया और कहा अगले जन्म में तुम ब्रह्मा की गोद से जन्म लेकर मुझे पूर्ण रूप से प्राप्त  करोगे , वही नारद आपके सामने हैं अब आप अपने कार्य में जुट जाएं |

इति षष्ठो अध्यायः

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( अथ सप्तमो अध्याय: )

अश्वत्थामा द्वारा द्रोपदी के पांच पुत्रों का मारा जाना अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा का मान मर्दन– नारद जी के चले जाने के बाद व्यास जी ने सरस्वती नदी के किनारे पर बैठकर आचमन कर  अपने मन को समाहित किया और भगवान का ध्यान कर श्रीमद् भागवत महापुराण की रचना की  | सूत जी बोले हे सोनक सर्वप्रथम मैं भागवत के श्रोता श्री परीक्षित जी के जन्म की कथा कहता हूं |

श्लोक- 1,7,13

जिस समय धृतराष्ट्र के निन्यानवे पुत्रों के मारे जाने के बाद और दुर्योधन की जंघा टूट जाने के बाद अश्वत्थामा अपने मित्र दुर्योधन का प्रिय करने के लिए रात्रि में चोरी से पांडवों के शिविर में घुसकर पांडव समझ कर सोते हुए द्रोपती के पांच पुत्रों के सिर काट ले लाया | जब द्रोपती को पता चला वह बिलख उठी अर्जुन ने उसे सांत्वना दिलाई की अधम ब्राह्मण का सिर अभी लाता हूं कहकर भगवान् को सारथी बना अश्वत्थामा का पीछा किया अर्जुन को पीछे आते हुए देख अपने प्राणों को संकट में समझ अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ा |

उधर ब्रह्मास्त्र को आते देख अपनी रक्षा के लिए अर्जुन  ने भी ब्रह्मास्त्र चला दिया

दोनों ब्रह्मास्त्र आपस में टकराए जिनकी ज्वाला से त्रिलोकी भस्म होने लगी तो अर्जुन ने दोनों ब्रह्मास्त्रों को लौटा लिया और अश्वत्थामा को पकड़ लिया | अर्जुन की परीक्षा लेने के लिए भगवान बोले अर्जुन इसे छोड़ना नहीं मार डालो किंतु अर्जुन उसे मारना नहीं चाहता थे द्रोपती को ले जाकर सौंप दिया | द्रोपदी बोली इसके मारे जाने से मेरे पुत्र तो जीवित होंगे नहीं इसे छोड़ दो भीमसेन कहते हैं यह आतताई है इसको मारना उचित है |भगवान बोले—–

श्लोक- 1,7,53

पतित ब्राह्मण का भी वध नहीं करना चाहये और आततायी को मार ही डालना चाहिए | इसलिए मेरी दोनों आज्ञा का पालन करो ? अर्जुन समझ गए उन्होंने अश्वत्थामा के सिर की मणि तलवार से बालों सहित निकाल ली वह ब्रम्ह तेज से हीन हो गया और उसे वहां से निकाल दिया और अपने पुत्रों की  अंत्येष्टि की |

इति सप्तमो अध्याय

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( अथ अष्टमो अध्याय: )

अपमानित हुए अश्वत्थामा चले जाने के बाद भी शांत नहीं हुआ उन्होंने उत्तरा के गर्भ को लक्षित कर जिसमें कि पांडवों के पुत्र अभिमन्यु का अंश पल रहा था ब्रह्मास्त्र का संधान किया | भगवान द्वारका के लिए प्रस्थान कर रहे थे उत्तरा ब्रह्मास्त्र के भय से व्याकुल होकर दौड़ती हुई आई और कहने लगी |

श्लोक- 1,8,9

हे  देवाधि देव जगतपति भगवान मेरी रक्षा करें रक्षा करें | यह ब्रह्मास्त्र मेरे गर्भ को नष्ट ना करे इसी  समय  पांच बाण पांचों पांडवों की ओर भी  आ रहे थे भगवान ने सब को अपने सुदर्शन चक्र से शांत कर दिया | इस समय कुंती भगवान की स्तुति करने लगी |

श्लोक- 1,7,18

कुंती की ऐसी प्रार्थना सुनकर भगवान जब द्वारिका के लिए चलने लगे तो युधिष्ठिर ने उन्हें रोक लिया और  कहने लगे प्रभु महाभारत में मैंने अपने ही स्वजनों को मारकर प्राप्त किया हुआ राज्य मुझे अच्छा नहीं लगता इस खून से सने हुए राज्य को भोगने की मेरी इच्छा नहीं है | यद्यपि भगवान ने उन्हें समझाया किंतु युधिष्ठिर को उस से समाधान नहीं  हुआ ड

इति अष्टमो अध्याय:

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( अथ नवमो अध्याय: )

भगवान श्री कृष्ण ने देखा कि बहुत समझाने के  बाद भी युधिष्ठिर  का शोक दूर नहीं हो रहा है बे उन्हें लेकर पितामह भीष्म के पास गए, अन्य ऋषि गण भी वहां आए पितामह ने ऋषियों को तथा भगवान को प्रणाम किया | पांडवों को भगवान की महिमा बताई कि जिन्हें वे ममेरा भाई समझ रहे हैं, वह साक्षात परमात्मा है | महाभारत के नाम  पर जो कुछ हुआ वे सब उनकी लीला मात्र थी पितामह ने भगवान की स्तुति की—

श्लोक-1.9.33

जिनका शरीर त्रिभुवन सुंदर है   श्याम तमाल के समान सांवला है , जिन पर सूर्य के समान पीतांबर लहरा रहा है , मुख पर घुंघराले अलकें लटकी हैं, उन अर्जुन सखा श्री कृष्ण में मेरी निष्कपट प्रीति हो  इस प्रकार स्तुति करते हुए उनके  प्राण परमात्मा  मैं विलीन हो गये, वे शांत हो गए | आकाश में  बाजे बजने लगे फूलों की वर्षा होने लगी पांडव हस्तिनापुर लौट आए तथा युधिष्ठिर धर्म पूर्वक राज्य करने लगे |

इति नवमो अध्यायः

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अथ दसमो अध्यायः

द्वारिका गमन– पितामह भीष्म से ज्ञान प्राप्त कर युधिष्ठिर समस्त पृथ्वी का धर्म पूर्वक एक छत्र राज्य करने लगे  महाभारत का उद्देश्य पूर्ण कर भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से द्वारिका चलने की आज्ञा  ली, सबने अश्रु पूरित नेत्रों से भगवान को विदा किया | अर्जुन सारथी बन रथ में बैठा भगवान को पहुंचाने चले, रास्ते में स्थान स्थान पर उनका स्वागत  हुआ जहां  रात्रि  हो जाती वही स्नान संध्या कर विश्राम करते |

इति दशमो अध्यायः

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अथ एकादशो अध्यायः

द्वारका में श्री कृष्ण का राजोचित स्वागत–

द्वारका में प्रवेश करते समय भगवान ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया, शंख की ध्वनि सुनते ही  द्वारका बासी भगवान के दर्शनों के लिए दौड़ पढ़े और बाहर भगवान की अगवानी करने आए और अनेक भेंट रखकर भगवान का भव्य स्वागत किया | सर्वप्रथम भगवान अपने माता-पिता से मिले फिर अपने परिवार जनों से मिले |

इति एकादशो अध्यायः

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अथ द्वादशो अध्यायः

परीक्षित का जन्म– अश्वत्थामा के अस्त्र से अपनी मां के गर्भ में ही जब  परीक्षित जलने लगे तब गर्भ में ही रक्षा करते हुए भगवान के दर्शन उन्हें हो गए थे ! एक अगुंष्ट मात्र ज्योति उनके चारों ओर घूम रही शुभ समय पाकर वे गर्भ से बाहर आए | युधिष्ठिर बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने ब्राह्मणों को बुलवाकर स्वस्तिवाचन करवाया और बालक के भविष्य को पूछा ब्राह्मणों ने बताया बड़ा तेजस्वी होगा इसका नाम विष्णुरात होगा इसे परीक्षित के नाम से भी  जानेंगे |

श्लोक-1.12.30

ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर विदा किया |

इति द्वादशो अध्यायः

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अथ त्रयोदषो अध्यायः

विदुर जी के उपदेश से धृतराष्ट्र गांधारी का वन गमन– विदुर जी तीर्थ यात्रा कर हस्तिनापुर लौट आए उन्हे देख युधिष्ठिर बहुत प्रसन्न हुए पांचों भाई पांडव कुंती द्रोपती धृतराष्ट्र गांधारी भी उन्हें देखकर बड़ा प्रसन्न हुए | विदुर जी ने अपनी तीर्थ यात्रा के समाचार सुनाएं,  वे धृतराष्ट्र से बोले–

श्लोक-1.13,21-22

आपके पिता भ्राता पुत्र सगे संबंधी सभी मारे जा चुके हैं आप की अवस्था भी ढल चुकी पराए घर में पड़े हुए हैं , यह जीने की आशा कितनी प्रबल है  जिसके कारण भीम का दिया हुआ टुकड़ा खाकर कुत्ते के समान जीवन जी रहे हैं ,निकलो यहां से | वन में जा कर  भगवान का भजन करो | यह सुनते हि धृतराष्ट्र गांधारी विदुर के साथ रात्रि में वन में चले गए , आज जब युधिष्ठिर को पता चला तो वह बड़े दुखी हुए  वन में धृतराष्ट्र ने अपने  प्राण त्याग दिए गांधारी सती हो गई |

इति त्रयोदशो अध्यायः

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अथ चतुर्दशो अध्यायः

अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना अर्जुन का द्वारका से लौटना—  एक समय अर्जुन भगवान से मिलने द्वारका गए थे, बहुत समय बाद भी जब वे नहीं लौटे तो युधिष्ठिर को  अपशकुन होने लगे दिन में उल्लू बोल रहे हैं , उल्कापात हो रहे हैं, गाय दूध नहीं देती, इन्हें देख वे बड़े चिन्तित हुए लगता हैं, बहुत खराब समय आ गया है लगता है हमारे ऊपर कोई बड़ी विपत्ति आने वाली है |

इस प्रकार युधिष्ठिर चिंतित हो रहे थे  इतने में कांति हीन होकर नेत्रों से अश्रु पात्र गिराते हुए अर्जुन उनके चरणों में अ पड़े हैं, उसकी यह दशा देख युधिष्ठिर ने पूछा द्वारका में सब कुशल है से हैं ना, और तुम कुशल हो , तुम कोई  पाप करके  तो नहीं आये  हो श्री हीन कैसे हो गए हो |

इति चतुर्दशो अध्यायः

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अथ पंचदशो अध्यायः

कृष्ण विरह व्यथित पाण्डवों का परिक्षित को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना–  इस प्रकार युधिष्ठिर के पूछने पर अर्जुन बोले– हे भाई भगवान श्री कृष्ण हमें छोड़ कर चले गए इसलिए मैं तेज हीन हो गया, अब हमारा कोई नहीं रहा | भगवान के गोलोक धाम जाने की बात सुनकर पांडवों ने  स्वर्गारोहण का निश्चय किया उन्होंने परिक्षित को राज्य सिहांसन पर बिठालकर रिमालय की ओर प्रस्थान किया- केदारनाथ, बद्रीनाथ होते हुए सतोपथ पहुंचे वहीं से क्रमशः   द्रौपदी, सहदेव, नकुल ,अर्जुन, भीम गिरते गए पर किसी ने भी मुडकर नहीं देखा |

युधिष्ठिर सदेह स्वर्ग को चले गये, विदुर ने भी प्रभास क्षेत्र में अपना शरीर छोड़ दिया, पांडवों की यह महाप्रयाण कथा बडी पुण्य दायी है |

इति पंचदशो अध्यायः

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(अथ षोडषो अध्याय: )

परीक्षित की दिग्विजय तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद—  पांडवों के महाप्रयाण के पश्चात परीक्षित धर्म पूर्वक राज्य करने लगे उन्होंने कई   अश्वमेघयज्ञ किए | जब दिग्विजय कर रहेथे तब उनके शिविर के पास  एक अद्भुत घटना घटी वहां धर्म एक बैल के रूप में एक पैर से घूम रहा था वहां उसे गाय के रूप में पृथ्वी मिली जो दुखी होकर रो रही थी | धर्म ने पृथ्वी से पूछा कल्याणी तुम क्यों रो रही हो तुम्हारा स्वामी कहीं दूर चला गया है अथवा तुम मेरे लिए दुखी हो रही हो कि  मेरा पुत्र एक पैर से है | पृथ्वी बोली धर्म तुम जानते हो कि जब से भगवान गोलोक धाम गए हैं  तुम्हारे एक ही चरण रह गया संसार कलियुग की कुदृष्टि का शिकार हो गया है बस इसी का मुझे दुख है |

इति षोडशो अध्यायः

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( अथ सप्तदशो अध्यायः )

महराजा परीक्षित द्वारा कलियुग का दमन-  दिग्विजय करते हुए परीक्षित जब पूर्व वाहिनी सरस्वती के तट पर पहुंचे तो देखा कि एक राजवेश धारी  शूद्र  गाय बैल के एक जोड़े को मार रहा है ! उसे परीक्षित ने   ललकारा और कहा ठहर दुष्ट तुझे मैं अभी देखता हूं , हाथ में तलवार ली राजा को आते देख कलियुग बोला – हे राजन्  मैं जहां जहां जाता हूं  आप सामने दिखते  हैं कृपया मुझे  रहने को स्थान बताइए |

राजा ने कहा—–

श्लोक-1.17.38-39

मदिरा पान, जुआ, स्त्री संग,हिंसा इन चार स्थानों के बाद और मागने पर स्वर्ण में भी स्थान दे दिया |

इति सप्तदशो अध्याय:

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( अथ अष्टादशो अध्याय: )

राजा परीक्षित को श्रृंगी ऋषि का श्राप–एक दिन राजा परीक्षित वन में शिकार के लिए गए   वहां हिरणों के   पीछे  दौड़ते दौड़ते वे बहुत थक गए  उन्हें भूख और प्यास लगी इधर-उधर जलाशय देखने पर भी नहीं मिला वह पास ही एक ऋषि के आश्रम में घुस गए, वहां एक मुनि ध्यान में बैठे थे  उनसे राजा ने जल मांगा जब मुनि ने कोई जवाब नहीं दिया तो उन्होंने अपने को  अपमानित समझ क्रोध से मुनि के गले में एक मरा हुआ सांप डाल दिया और अपनी राजधानी को लौट आए |

उन  शमीक मुनि का पुत्र श्रृंगी तेजस्वी बालक ने जब देखा कि राजा परीक्षित ने मेरे पिता के गले में सांप डाल दिया है वे क्रोधित होकर बोले—-

श्लोक-1,18,37

कौशिकी नदी का जल शाप दे दिया इस मर्यादा उल्लंघन करने वाले कुलांगार को आज से सातवें दिन तक्षक सर्प डसेगा वह पिता के पास आकर जोर जोर से रोने लगा इससे मुनि की  समाधि खुल गई पिता को श्राप सहित सारी बात बता दी जिसे सुनकर ऋषि को बड़ा दुख हुआ बे बोले परीक्षित श्राप योग्य नहीं थे, वह बड़े धर्मात्मा राजा हैं |

इति अष्टादशो अध्यायः

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( अथैकोनविंशो अध्यायः )

परीक्षित का अनशन ब्रत और शुकदेव जी का आगमन—- राजधानी में पहुंचने पर राजा परीक्षित को अपने उस निंदनीय कर्म का बड़ा पश्चाताप हुआ और सोचने लगा मुझे इसका बड़ा दंड मिलना चाहिए इतने में उसे ज्ञात हुआ कि ऋषि कुमार ने उन्हें तक्षक द्वारा  डसे जाने का श्राप दे दिया है | सुनकर वे बड़े प्रसन्न हुए कि मेरे पाप का प्रायश्चित हो गया उन्होंने अपने पुत्र जन्मेजय को राज्य का भार देकर स्वयं  अनशन व्रत लेकर गंगा तट पर जाकर बैठ गए वहां अन्य ऋषि मुनि लोग भी आने लगे—–

श्लोक-1,19,9-10

यह सब ऋषि भी गंगा तट पर आ गए राजा ने सब को प्रणाम किया और सब का आशीर्वाद प्राप्त किया और पूछा  अल्पायु व्यक्ति के लिए  क्या करना योग्य है ?

प्रश्न का उत्तर देने के अधिकारी तो अभी  आने की तैयारी में है , जब श्रोता परीक्षित के जन्म की कथा भागवत में है | वक्ता श्री सुकदेव जी के जन्म की कथा नहीं है , फिर भी विद्वान जन अन्य    संहिताओं के आधार पर सुनाते हैं जो यहां दी जा रही है | गोलोक धाम में राधा जी का पालतू सुक, जब जब भगवान के साथ माता जी अवतार लेती हैं उनका प्रिय सुक भी अवतार लेकर धरती पर आता है | एक समय कैलाश पर नारद जी पधारे शिवजी तो कहीं   भ्रमण पर गए थे अकेली पार्वती मिली  नारद बोले माता जी आपका भी क्या जीवन है केवल शिवजी के लिए सारा संसार छोड़कर जंगल में रहती हैं,

वह भी आपको अकेली छोड़कर ना जाने कहां चले जाते हैं,

लगता है आपके प्रति उनका सच्चा प्रेम नहीं है | पार्वती बोली यह बात मैंने उन से पूछी थी उन्होंने बताया कि वे मुझे इतना चाहते हैं कि मेरे एक सौ आठ जन्मों के  सिरों की माला  बनाकर अपने गले में धारण करते हैं |

नारद बोले यह तो सत्य है किंतु क्या आपने यह रहस्य पूछा कि क्यों आपके तो एक सौ आठ जन्म हो गए और उनका एक भी जन्म नहीं हुआ ?

बोली यह बात तो कभी मेरे ध्यान में ही नहीं आई अब मैं इस रहस्य को जानकर रहूंगी नारद जी तो चले गए | शिव जी के आने पर यह रहस्य शिव जी से पूछा  पहले तो   शिव जी ने बताने मैं  आना कानी की किंतु जब पार्वती ने हट किया तो उन्होंने अमर कथा सुनाने का निश्चय किया और पार्वती को लेकर अमरनाथ क्षेत्र में आ गए , उन्होंने तीन ताली बजाकर पशु ,पक्षी को वहां से भगा दिया और पार्वती वहां अमर कथा सुनने लगी शिव जी ने समाधि लगाकर  ज्यों ही कथा कहना प्रारंभ किया पार्वती को नींद आ गई पेड़ में तोते का अंडा था जिसमें  से बच्चा निकल कर सुनने लगा और बीच-बीच मे हूंकार भी भरने लगा | कथा पूर्ण हुई शिव जी की समाधि  खुली  देखा पार्वती तो सो रही हैं,

फिर कथा किसने सुनी इतने में तोते का बच्चा पंख फड़फड़ कर उड़  गया  |

यही श्री सुकदेव जी थे , शिवजी ने देखा पार्वती कथा की अधिकरिणी  नहीं थी  अतः उसे कथा नहीं मिली , अधिकारी उसे सुनकर चला गया | श्री सुकदेव जी कथा सुनकर  सीधे वृंदावन भगवान के दर्शन के लिए गए जहां एक कदम के नीचे भगवान बैठे थे ,पेड़ पर तोता कृष्ण कृष्ण करने लगा भगवान बोले मुझे प्राप्त करने के लिए पहले राधा जी की कृपा प्राप्त करनी होगी , वहां से उड़कर राधा जी की शरण मैं गया माता अपने बिछड़े हुए पुत्र को पहचान गई अपने  हस्त कमल पर बैठाया  और कृपा कर कृष्ण मंत्र दिया सुकदेव सनाथ हो गए वे वहां से उड़कर व्यास आश्रम में जहां व्यास पत्नी चतुर्थ दिन का स्नान कर बैठी थी | उन्हें जम्हाई  आई और सुकदेव  मुख  मार्ग से  उनके गर्भ मैं प्रवेश कर गए और बारह वर्ष तक गर्भ से बाहर नहीं आए |

जब भगवान  की आज्ञा हुई सुकदेव गर्भ से बाहर आए और जन्म लेते ही  वन की ओर चल  दिए, व्यास जी हे पुत्र पुत्र कहते हुए पीछे पीछे दौड़े किंतु सुकदेव नहीं रुके निर्गुण  ब्रह्म की उपासना करने लगे | उनको लाने के लिए व्यास जी ने अपने कुछ शिष्यों को आज्ञा दी वे शिष्य सुकदेव जी के समीप गए और सगुण भक्ति का गान करने लगे और भगवान के गुणों का वर्णन करने लगे |

श्लोक- (सौन्दर्य)-वर्हा पीडं• (माधुर्य)-नौमिड्यते• (शौर्य)-कदा वृन्दा• (दयालुता)-अहो वकीयं• !

भगवान  के इन गुणों को सुनकर श्री सुकदेव उठकर उनके पास आ गए और बोले और सुनायें, शिष्यों ने कहा और सुनना  है तो हमारे साथ  चलें ऐसे अठारह हजार श्लोक की भागवत आपकी प्रतीक्षा कर रही है | इस प्रकार श्री सुकदेव जी को लेकर शिष्य आश्रम आ गये, पिताजी को प्रणाम कर भागवत का अध्ययन किया अध्ययन के पश्चात परीक्षा के लिए उन्हें  जनक जी के पास भेजा गया  वे जनक जी के  यहां गए द्वारपाल ने जनक जी को खबर दी  की सुकदेव जी पधारे हैं | जनक बोले खड़े रहें जब समय होगा  बुला लेंगे सात दिन तक वे द्वार पर खड़े रहे जरा भी विचलित नहीं हुए , अंत में जनक आकर उनके चरणों में गिर गए आप परमहंस आपकी कोई क्या परीक्षा ले सकता है | इस प्रकार परीक्षा में सफल होकर पिता के पास आ गए |

गंगा तट पर  जहां मुनियों के साथ परीक्षित बैठे हैं वहां के लिए प्रस्थान किया वहां पहुंचने पर सब खड़े हो गए श्री सुकदेव जी को ऊंचे आसन पर बैठाकर उनकी पूजा की सब लोग गाने लगे |  सबने सुकदेव जी की इस प्रकार स्तुति की हाथ जोड़कर परीक्षित बोले—

श्लोक-1,19,37

मैं आपसे परम सिद्धि के स्वरूप और  के संबंध में प्रश्न कर रहा हूं , जो पुरुष सर्वथा मरणासन्न है  उसे क्या करना चाहिए ? साथ ही यह भी बतावे मनुष्य मात्र को क्या करना चाहिए ? किसका श्रवण ,जप, स्मरण और किस का भजन करें ?किस का त्याग करें ?

इति एकोनविंशो अध्यायः

✳ इति प्रथम स्कन्ध सम्पूर्णम् ✳

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( अथ द्वितीयो स्कन्ध प्रारम्भ )

अथ प्रथम अध्याय:

भागवत,श्लोक-2.1.1

हे राजा परीक्षित लोकहित में किया हुआ प्रश्न बहुत उत्तम है , मनुष्य के लिए  जितनी भी बातें सुनने  स्मरण करने कीर्तन करने की है   उन सब में यहीश्रेष्ठ है | आत्म ज्ञानी महापुरुष ऐसे प्रश्न  का बड़ा आदर करते हैं |

भागवत,श्लोक-2.1.2

राजन जो गृहस्थ घर के काम धंधे में उलझे रहते हैं अपने स्वरूप को नहीं जानते उनके लिए हजारों बातें कहने सुनने सोचने करने की रहती है |

भागवत,श्लोक-2.1.3

उनकी सारी उम्र यूं ही बीत जाती है उनकी रात नींद या स्त्री प्रसंग में कटती है तथा दिन धन की हाय हाय या कुटुंब के भरण-पोषण में  बीतता है|

भागवत,श्लोक-2.1.4

संसार में जिन्हें अपना अत्यंत  घनिष्ठ संबंधी कहा जाता है वह शरीर पुत्र स्त्री आदि कुछ नहीं है, असत्य है ! परन्तु जीव  उनके मोह  में ऐसा पागल  सा हो जाता है कि रात दिन उसकी मृत्यु का भास हो जाने पर भी चेतना नहीं–

भागवत,श्लोक-2.1.5

इसलिए परीक्षित जो अभय पद को प्राप्त करना चाहता है  उसे तो सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का श्रवण कीर्तन और स्मरण करना चाहिए !

भागवत,श्लोक-2.1.6

मनुष्य जन्म का यही   लाभ  है कि चाहे जैसे भी ज्ञान से भक्ति से अपने धर्म की निष्ठा से जीवन को ऐसा बना  लिया  जाए कि मृत्यु के समय भगवान की स्मृति बनी रहे , भगवान के स्थूल स्वरूप का ध्यान करें—

भागवत,श्लोक-2.1.26

पाताल  हि जिन के तलवे हैं   एड़ियाँ  और पंजे रसातल हैं, एडी के ऊपर की गांठें महातल, पिंडली तलातल है, दोनों घुटने सुतल हैं, जंघे  अतल वितल  हैं,  पेडू भूतल नाभि आकाश है | आदि पुरुष  परमात्मा की छाती स्वर्ग,  गला महर्लोक मुख जनलोक, ललाट तप लोक, उनका मस्तक सत्य लोक है | सभी देवी देवता उनके अंग  है यही भगवान का स्थूल  स्वरूप हैं |

इति प्रथमो अध्यायः

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( अथ द्वितीयो अध्यायः )

भगवान के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रम और सद्योमुक्ति का वर्णन—

भागवत,श्लोक-2.2.1

सुकदेव जी कहते हैं सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा जी ने इसी धारणा के द्वारा प्रसन्न हुए भगवान से यह सृष्टि विषयक स्मृति प्राप्त की थी जो    पहले प्रलय काल मैं विलुप्त हो गई थी | इससे उनकी दृष्टि अमोघ और बुद्धि  निश्चयात्मिका हो गई   तब उन्होंने इस जगत को उसी  प्रकार रचा जैसे कि वह   प्रलय  के पहले था |

कुछ भक्त अपने हृदय में परमात्मा के अंगूठे मात्र स्वरूप का ध्यान करते हैं, कुछ अपनी वासनाओं का त्याग करके  अपने शरीर को छोड़  आत्मा को परमात्मा में लीन  कर देते हैं ,कुछ पहले स्वर्ग लोग को ब्रह्म  लोक  होते हुए बैकुंठ जाते हैं , यह क्रम मुक्ति है | कुछ सीधे ही परमात्मा का ध्यान कर उन्हें प्राप्त हो जाते हैं यह सद्योमुक्ति है |

इति द्वितीयो अध्यायः

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( अथ तृतीयो अध्यायः )

कामनाओं के अनुसार विभिन्न देवताओं की उपासना तथा भगवत भक्ति के प्राधान्य का निरूपण—

भागवत,श्लोक-2.3.3-10-12

सांसारिक कामना रखtने वाले ब्रह्म तेज के लिए बृहस्पति की उपासना  करें , इंद्रियों की शक्ति के लिए  इंद्र  की , संतान के लिए प्रजापतियों की, लक्ष्मी के लिए शिव जी की करें, मोक्ष चाहने वाले तीव्र भक्ति योग द्वारा भगवान नारायण की उपासना करें |

इति तृतीयो अध्यायः

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( अथ चतुर्थो अध्यायः )

राजा का श्रष्टि विषयक प्रश्न शुकदेव जी का कथारंभ—–

भागवत,श्लोक-2.4.12

परीक्षित ने पूछा परमात्मा इस संसार की रचना कैसे करते हैं ! सुकदेव जी ने मंगलाचरण पूर्वक कथा प्रारंभ कि |उन पुरुषोत्तम भगवान को मैं कोटी कोटि प्रणाम करता हूं जो संसार की रचना पालन और संहार के लिए रजोगुण सतोगुण और तमोगुण   को धारण कर ब्रह्मा विष्णु शंकर अपने तीन रूप बनाते हैं | हे परीक्षित नारद जी के प्रश्न करने पर वेद गर्भ ब्रह्मा ने जो बात कही थी जिसका स्वयं नारायण ने उन्हें उपदेश किया था और वही  मैं तुम से कह रहा हूं |

इति चतुर्थो अध्यायः

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( अथ पंचमो अध्यायः )

सृष्टि वर्णन—–

भागवत,श्लोक-2.5.22-23-24-25

( पद )

निर्गुण निराकार निरलेप ब्रम्ह ही बने सगुणसाकार

एकबार उस परब्रह्मने मनमे कियो विचार

एकहुं मै बहु बनू करूम निज माया का विस्तार

तब माया के उदर मे दिया बीज निज डार

महत्तत्व उपजाया सारी श्रृष्टि का आधार

महत्तत्व विक्षिप्त हुआ तब प्रकटाया अहंकार

तामस राजस सात्विक देखो इसके तीन प्रकार

सात्विक अहंकार से सृष्टि देवन उपजाइ

राजस अहंकार से इन्द्रिय एकादशप्रकटाइ

तन्मात्रा के साथ बनाकर सबको दिया मिलाइ

विराट पुरुष प्रकटे तबहि पर खडेहुए वेनाही

खडे हुए जब प्रविशे प्रभुजी उस विराट केमाही

माया मण्डल की रचना कर हर्षित हुये प्रभु भारी

दास भागवत गाय सुनाइ सृष्टि रचना सारी

इति पंचमो अध्यायः

भागवत कथा हिंदी में लिखी हुई

( अथ षष्ठो अध्यायः )

विराट स्वरूप की विभूतियों का वर्णन—-

भागवत,श्लोक-2.6.1

ब्रह्मा जी कहते हैं  उन्ही विराट पुरुष के मुख से वाणी और उसके अधिष्ठाता देवता अग्नि उत्पन्न हुई हैं | सातों छंद उनकी सात धातुओं से निकले हैं | मनुष्यों पितरों और देवताओं के भोजन करने योग्य अमृत मय छंद सब प्रकार के  रस रसनेन्द्रिय और उसके अधिष्ठाता देवता वरुण उनकी जिह्वा से उत्पन्न हुए हैं | उनके नासा  छिद्रों से पान अपान व्यान उदान समान यह पांचों प्राण और वायु तथा घ्राणेन्द्रिय से अश्वनी कुमार समस्त औषधियां साधारण तथा विशेष गंध उत्पन्न हुए हैं |

भागवत,श्लोक-2.6.31

उन्हीं की प्रेरणा से मैं इस संसार की रचना करता हूं , उन्हीं के अधीन होकर रुद्र उसका संहार करते हैं  और वे स्वयं ही विष्णु रूप से इसका पालन करते हैं | क्योंकि उन्होंने  सत रज तम तीन शक्तियां स्वीकार कर रखी हैं | बेटा नारद जो कुछ तुमने पूछा था उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया भाव या  आभाव, कार्य या कारण के रूप में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो भगवान से  भिन्न  हो |

इति षष्ठो अध्यायः

भागवत कथा हिंदी में लिखी हुई

( अथ सप्तमो अध्यायः )

भगवान के लीला वतारों की कथा—-

भागवत,श्लोक-2.7.1

ब्रह्माजी बोले , अनंत भगवान ने प्रलय काल  में जल में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार करने के लिए यज्ञमय   वाराह रूप धारण किया था,  आदि   दैत्य हिरण्याक्ष जल के अंदर ही  उनसे लड़ने आया जैसा इंद्र ने पर्वतों के पंख काट डाले थे वैसे ही वाराह भगवान ने अपनी डाढों  से उसके टुकड़े  टुकड़े कर दिए और भी भगवान के अनेक अवतार हुए हैं  रुचि प्रजापति से यज्ञावतार, कर्दम प्रजापति के यहां कपिल अवतार ,अत्री के यहां दत्तात्रेय अवतार लिया  तथा वामन हंस धनवंतरी परशुराम राम कृष्ण आदि अनेक अवतार भगवान के हैं |

इति सप्तमो अध्याय:

भागवत कथा हिंदी में लिखी हुई

( अथ अष्टमो अध्यायः )

राजा परीक्षित के विविध प्रश्न—

भागवत,श्लोक-2.8.1-2

राजा परीक्षित ने पूछा – भगवन आप वेद वेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं | मैं आपसे यह जानना चाहता हूं कि जब ब्रह्माजी ने निर्गुण भगवान के गुणों का वर्णन करने को कहा तब उन्होंने किन किन को किस रूप में कहा | एक तो अचिंत्य शक्तियों के आश्रय भगवान की कथाएं ही लोगों का मंगल करने वाली हैं, दूसरे देवर्षि नारद का सबको भगवत दर्शन कराने का स्वभाव है अवश्य ही उनकी बात मुझे सुनाइए |

सूत जी कहते हैं- हे ऋषियों जब संतों की सभा में राजा परीक्षित ने भगवान की लीला कथा सुनाने के लिए प्रार्थना की सुकदेव जी को बड़ी प्रसन्नता हुई उन्होंने वही वेद तुल्य श्रीमद् भागवत कथा सुनाई जो स्वयं भगवान ने ब्रह्मा को सुनाया था|

इति अष्टमो अध्यायः

भागवत कथा हिंदी में लिखी हुई

( अथ नवमो अध्यायः )

ब्रह्मा जी का भगवत धाम दर्शन और भगवान के द्वारा उन्हें चतुश्लोकी भागवत का उपदेश—

भगवान की नाभि से निकले कमल से प्रगट ब्रह्मा जी ने जब अपने आपको सृष्टि करने में असमर्थ पाया तो भगवान ने उन्हें तप करने को कहा ब्रह्मा की तप से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें अपने धाम का दर्शन कराया और उन्हें चतुश्लोकी भागवत प्रदान की—

भागवत,श्लोक-2.9.32-33-34-35

( पद्य के माध्यम से )

सृष्टि से पहले केवल मुझको ही जान , नहीं स्थूल नहीं सूक्ष्म जगत या ना ही था अज्ञान | जहां सृष्टि नहीं वहां मैं ही हूं सृष्टि के रूप में भी मैं ही हूं,  जो बचा रहेगा वह मैं हूं सर्वत्र सर्वदा मैं ही हूं | मेरे सिवा जो दीख रहा है मिथ्या सकल जहान सृ,  जैसे नक्षत्र मंडल में राहु की प्रतीत नहीं होती | वैसे इस माया के बीच मेरी भी प्रतीति नहीं होती , मेरे ही इस दृश्य जगत को मेरी माया पहचान सृ | जैसे जीवो की देही में पंचभूत तत्व है विद्यमान , वैसे ही मुझको आत्म रूप बाहर भीतर सर्वत्र जान | मैं ही मैं हूं और ना कोई मुझको मुझ में जान , ब्रह्मा जी को चार श्लोक में दान किया श्री नारायण , ब्रह्मा नारद से ब्यास किया वेदव्यास ने पारायण | दास भागवत तत्व यही है ये ही सच्चा ज्ञान ||

इति नवमो अध्यायः

भागवत कथा हिंदी में लिखी हुई

( अथ दशमो अध्यायः )

भागवत के दस लक्षण–

भागवत,श्लोक-2.10.1-2

सुकदेव जी कहते हैं परीक्षित इस भागवत पुराण में सर्ग , विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वंतर, इषानु कथा, निरोध, मुक्ति, आश्रय इन दस विषयों का वर्णन है | इसमें जो दशवां आश्रय तत्व है उसी का ठीक-ठीक निश्चय करने के लिए कहीं श्रुति कहीं तात्पर्य से कहीं दोनों के अनुकूल अनुभव से, महात्माओं ने अन्य नो विषयों का बड़ी सुगम रीति से वर्णन किया है |

इति दशमो अध्यायः

✳ इति द्वितीय स्कन्ध समाप्त ✳

भागवत कथा हिंदी में लिखी हुई

✳ अथ तृतीय स्कन्ध प्रारम्भ ✳

( अथ प्रथमो अध्यायः )

उद्धव और विदुर की भेंट– महाभारत के युद्ध के समय हस्तिनापुर छोड़ निकले विदुर जी सब तीर्थों में भ्रमण करते हुए जब प्रभास क्षेत्र में पहुंचे तब तक समस्त यादव कुल समाप्त हो चुका था ! यह जानकर उन्हें कुछ दुख हुआ किंतु उन्होंने इसे भगवान की इच्छा ही समझा उसके बाद उन्हें यह भी ज्ञात हो गया कि महाभारत में धृतराष्ट्र को छोड़ सभी कौरव समाप्त हो गए और युधिष्ठिर एकछत्र राजा हो गए हैं | इस होनी को भी भगवान की इच्छा समझ वृंदावन आ गए परमात्मा के परम भक्त बृहस्पति जी के शिष्य उद्धव जी से वहां विदुर जी मिले दोनों भक्त परस्पर आलिंगन कर मिले , विदुर जी पूछने लगे उद्धव जी बताएं द्वारका में भगवान श्री कृष्ण बलराम समस्त यादवों के सहित कुशल से हैं ना , धर्मराज युधिष्ठिर धर्मपूर्वक राज्य कर रहे हैं न , आदि बातें पूछी |

इति प्रथमो अध्यायः

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( अथ द्वितीयो अध्यायः )

उद्धव जी द्वारा भगवान की बाल लीलाओं का वर्णन—-

भागवत,श्लोक-3.2.7

उद्धव उद्धव जी बोले- विदुर जी श्री कृष्ण रूप सूर्य के छिप जाने से हमारे घरों को काल रूप अजगर ने खा डाला है | वे श्री हीन हो गए हैं अब मैं उनकी क्या कुशल सुनाऊं—

भागवत,श्लोक-3.2.8

अहो यह मनुष्य लोग बड़ा ही अभागा है, जिसमें यादव तो नितांत ही भाग्य हीन हैं जिन्होंने निरंतर श्री कृष्ण के साथ रहते हुए भी उन्हें नहीं पहचाना | जैसे समुद्र में अमृतमय चंद्रमा के साथ रहती हुई मछलियां उसे नहीं पहचानी | विदुर जी भगवान का मथुरा में वसुदेव जी के यहां जन्म लेना, गोकुल में नंद के यहां रहकर अनेक लीलाएं करना , माखन चोरी , ग्वाल बालों के साथ वन में गाय चराना, पूतना को माता की गति प्रदान करना ,सकटासुर, तृणावर्त, बकासुर, व्योमासुर, कंस आदि राक्षसों का संहार याद आता है | काली मर्दन गोवर्धन पूजा रासबिहारी सब याद आते हैं|

इति द्वितीयो अध्यायः

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( अथ तृतीयो अध्यायः )

भगवान के अन्य लीला चरित्रों का वर्णन– ब्रज में बाल लीला कर मथुरा में कंस का संहार करता कर तथा जरासंध की सेनाओं का संघार कर द्वारिका में भगवान ने कई विवाह किए रुक्मणी सत्यभामादिक सोलह हजार एक सौ रानियों के साथ भगवान ने विवाह किए और प्रत्येक महारानी से दस दस पुत्र उत्पन्न हुये, जरासंध शिशुपाल का संघार किया महाभारत के नाम पर दुष्टों का संहार किया और ब्राह्मणों के श्राप के बहाने अपने यदुवंस को भी समेट लिया |

इति तृतीयो अध्यायः

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( अथ चतुर्थो अध्यायः )

उद्धव जी से विदा होकर विदुर जी का मैत्रेय जी के पास जाना–  उद्धव जी कहते हैं प्यारे विदुर समस्त यदुवंश का संघार के बाद भगवान ने स्वयं अपने लोक पधारने की इच्छा की वह सरस्वती के तट पर एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गए, मैं भी पीछे पीछे उनके पास पहुंच गया और मैत्रेय ऋषि भी वहां आ गए | उन्होंने स्वधाम गमन के बारे में मुझे बताया मैंने उनसे प्रार्थना की—

भागवत,श्लोक-3.4.18

स्वामिन अपने स्वरूप का गूढ़ रहस्य प्रकट करने वाला जो श्रेष्ठ एवं समग्र ज्ञान आपने ब्रह्मा जी को बताया था वहीं यदि मेरे समझने योग्य हो तो मुझे भी सुनाइए जिससे मैं संसार दुख को सुगमता से पार कर जाऊं | मेरे इस प्रकार प्रार्थना करने पर भगवान ने वह तत्वज्ञान मुझे दिया जिसे सुनकर मैं यहां आया हूं और अब भगवान की आज्ञा से मैं बद्रिकाश्रम जा रहा हूं | विदुर जी बोले उद्धव जी परमज्ञान जो आप भगवान से सुनकर आए हैं हमें भी सुनाएं | उद्धव जी बोले विदुर जी आपको वह ज्ञान मैत्रेय जी सुनायेंगे ऐसी भगवान की आज्ञा है |  ऐसा कहकर उद्धव जी बद्रिकाश्रम चल दिए और विदुर जी भी गंगा तट पर मैत्रेय जी के आश्रम पर जा पहुंचे |

इति चतुर्थो अध्यायः

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( अथ पंचमो अध्यायः )

विदुर जी का प्रश्न और मैत्रेय जी का सृष्टि क्रम वर्णन—

भागवत,श्लोक-3.5.2

संसार में सब लोग सुख के लिए ही कर्म करते हैं किंतु ना उन्हें सुख ही मिलता है और ना दुख ही दूर होता है, बल्कि उससे भी उनके दुख की वृद्धि हि होती है ! अतः इसके विषय में क्या करना उचित है यह आप मुझे बताइए ? उन सर्वेश्वर ने संसार की उत्पत्ति स्थिति और संहार करने के लिए अपनी माया शक्ति को स्वीकार कर रामकृष्ण अवतारों द्वारा जो अनेक अलौकिक लीलाएं की है वह मुझे सुनाइए ! मैत्रेय मुनि कहते हैं—-

भागवत,श्लोक-3.5.23

सृष्टि रचना के पूर्व समस्त आत्माओं की आत्मा एवं एक पूर्ण परमात्मा ही थे ना दृष्टा ना दृश्य सृष्टि काल में अनेक व्यक्तियों के भेद से जो अनेकता दिखाई पड़ती है वह भी नहीं थी क्योंकि उनकी इच्छा अकेले रहने की थी !

इसके पश्चात भगवान की एक से अनेक होने की इच्छा हुई तो सामने माया देवी प्रकट हुई भगवान ने माया के गर्भ में अपना अंश स्थापित किया उससे महतत्व उत्पन्न हुआ महतत्ऩ के विच्छिप्त होने पर सात्विक, राजस, तामस तीन प्रकार के अहंकार प्रगट हुए , भगवान ने सात्विक अहंकार से देवताओं की सृष्टि की, राजसी अहंकार से इंद्रियों की दस इंद्रियों को प्रकट किया, तामस अहंकार से क्रमसः शब्द, आकाश, स्पर्श, वायु ,रूप, अग्नि, रस, जल, गंध, पृथ्वी, पांच तन्मात्रा सहित पंच भूतों को उत्पन्न किया, किंतु वे सब मिलकर भी जब सृष्टि रचना में असमर्थ रहे तो भगवान से प्रार्थना की , प्रभु हम सृष्टि रचना करने में असमर्थ हैं |

इति पंचमो अध्यायः

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( अथ षष्ठो अध्यायः )

विराट शरीर की उत्पत्ति– मैत्रेय जी बोले भगवान ने जब देखा कि मेरी महतत्व आदि शक्तियां असंगठित होने के कारण विश्व रचना के कार्य में असमर्थ हैं, तब उन्होंने उन सब को मिलाकर एक कर दिया जिससे विराट पुरुष की उत्पत्ति हुई | जिसमें चराचर जगत विद्यमान है सब जीवो को साथ लेकर विराट पुरुष एक हजार दिव्य वर्षों तक जल में पड़ा रहा फिर भगवान के जगाने पर उसके प्रथम मुख प्रकट हुआ जिसमें अग्नि ने प्रवेश किया, जिससे वाक इंद्री प्रगट हुई | फिर विराट पुरुष के तालू उत्पन्न हुआ जिसमें वरुण ने प्रवेश किया जिससे रसना पैदा हुई | उसके बाद नथुने पैदा हुए जिसमें दोनों अश्विनी कुमारों ने प्रवेश किया जिससे घ्राणेन्द्रिय पैदा हुई | उसके बाद आंखें पैदा हुई जिसमें सूर्य ने प्रवेश किया जिससे नेत्रेद्रिंय प्रगट हुई | फिर त्वचा पैदा हुई जिसमें वायु ने प्रवेश लिया जिससे स्पर्श शक्ति पैदा हुई | फिर कान पैदा हुये है जिसमें दिशाओं ने प्रवेश किया, जिससे शब्द प्रगट हुआ | फिर हाथ पैर लिंग गुदा आदि पैदा हुए फिर बुद्धि, हृदय आदि पैदा हुए |

इति षष्ठो अध्यायः

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( अथ सप्तमो अध्यायः )

विदुर जी के प्रश्न– विदुर जी बोले भगवन भगवान तो अवाप्त काम हैं, माया के साथ उनका संबंध कैसे संभव है , वे सृष्टि को रचते हैं पालन करते हैं और अंत में संघार भी करते हैं | ऐसा खेल वे क्यों खेलते हैं , आप अपनी ब्रह्मादिक विभूतियों का वर्णन भी सुनाइए |

इति सप्तमो अध्यायः

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( अथ अष्टमो अध्यायः )

ब्रह्मा जी की उत्पत्ति—  सृष्टि से पूर्व में जब भगवान समस्त सृष्टि को अपने उदर में लेकर योगनिद्रा में शेष शैया पर शयन कर रहे थे भगवान की काल शक्ति ने उन्हें जगाया तो उनकी नाभि से रजोगुण रूपी कमल निकला उस कमल नाल से स्वयं भगवान ही ब्रह्मा के रूप में प्रगट हुए, जब ब्रह्माजी ने चारों ओर दृष्टि डाली तो उनके चार मुख हो गए , जब ब्रह्मा जी को चारों और कोई नहीं दिखा तो सोचने लगे मैं कौन हूं कहां से आया हूं यह सोच वह कमल नाल से अपने आधार को खोजते हुए नीचे गए किंतु बहुत काल तक भी वे उसे खोज नहीं पाए तब वह वापस स्थान पर आ गए और अपने आधार का ध्यान करने लगे , तो शेषशायी नारायण के दर्शन हुए ब्रह्माजी उनकी स्तुति करने लगे |

इति अष्टमो अध्यायः

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( अथ नवमो अध्यायः )

ब्रह्मा जी द्वारा भगवान की स्तुति समस्त जगत के रचयिता पालक और संघार करता भगवान मैं आपको पहचान नहीं सका मैं ही क्या बड़े-बड़े मुनि जी आप के मर्म को नहीं जान पाते मैं आपको नमस्कार करता हूं |

इति नवमो अध्याय:

( अथ दसमो अध्यायः )

दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन– विदुर जी के पूछने पर मैत्रेय जी ने दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन किया | पहली सृष्टि महतत्व की, दूसरी अहंकार की , तीसरी भूत वर्ग ,चौथी इंद्रियों की, पांचवी देवताओं की ,छठी अविद्या कि यह प्राकृतिक हैं |  अब चार विकृत सृष्टियां हैं उनमें पहली वृक्षों की , दूसरी पशु पक्षियों की, नवी सृष्टि मनुष्यों की , दसवीं सृष्टि देवताओं की है |

इति दसमो अध्यायः

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( अथ एकादशो अध्यायः )

मन्वंतरादि काल विभाग का वर्णन—  मैत्रेय जी बोले सृष्टि का सबसे सूक्ष्म अंश परमाणु होता है , दो परमाणु को एक अणु, तीन अणु का एक त्रसरेणु होता है , जाली के छिद्र में से आने वाले सूर्य के प्रकाश में उड़ते हुए जो कड़ दिखाई पड़ते हैं वे त्रसरेणु हैं,एक त्रसरेणु को पार करने में सूर्य को जो समय लगता है उसे त्रुटि कहते हैं , सौ त्रुटि का एक वेध है , तीन वेध का एक लव, तीन लव का एक निमेश , तीन निमेश का एक क्षण, पांच क्षण की एक काष्ठा, पन्द्रह काष्ठा का एक लघु, पन्द्रह लघु का एक दंड , दो दंड का एक मुहूर्त होता है,  छः या सात नाडी का एक प्रहर होता है, रात दिन में आठ पहर होते हैं, पन्द्रह दिन का एक पक्ष होता है, दो पक्ष का एक मास , दो मास का एक ऋतु, छः मास का एक अयन , दो अयन का एक वर्ष , पितरों का एक दिन एक मास का , देवताओं का एक दिन एक वर्ष का, एक सौ वर्ष की आयु मनुष्य की मानी गई है , एक वर्ष में सूर्य इस भूमंडल की परिक्रमा करता है |

हे विदुर– कलियुग का प्रमाण चार लाख बत्तीस हजार वर्ष का है, द्वापर का प्रमाण आठ लाख चौंसढ हजार वर्ष का है , त्रेता का प्रमाण बारह लाख छ्यान्नवे हजार वर्ष का है और सतयुग का प्रमाण सत्रह लाख अठ्ठाइस हजार वर्ष का है |

यह चतुर्युगी लगभग इकहत्तर बार घूम जाती है वह एक मनु का कार्यकाल है | ऐसे चौदह मनु के कार्यकाल का ब्रह्मा का एक दिन होता है, उतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात होती है जो प्रलय काल है | ब्रह्मा जी की आधी आयु को परार्ध कहते हैं अभी तक पहला परार्ध बीत चुका है दूसरा चल रहा है |

इति एकादशो अध्यायः

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( अथ द्वादशो अध्यायः )

सृष्टि का विस्तार– सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने सनक , सनंदन सनातन, सनतकुमार चार ऋषि प्रगट हुए | ब्रह्मा जी ने इन्हें सृष्टि करने की आज्ञा दी किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया अतः ब्रह्मा जी को क्रोध आ गया वह रूद्र रूप में प्रगट हो गया , ब्रह्मा जी ने उन्हें भी सृष्टि की आज्ञा दी उन्होंने अपने अनुरूप भूत प्रेतों की सृष्टि करदी जो स्वयं ब्रह्मा जी को ही खाने को उद्यत हो गई , तब ब्रह्मा बोले देव तुम्हारी सृष्टि इतनी ही बहुत है , फिर ब्रह्मा जी ने दस पुत्र मरीचि, अत्रि ,अंगिरा, पुलह, पुलस्त्य, कृतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष, नारद पैदा किए, उनके हृदय से धर्म, पीठ से अधर्म प्रकट हुआ |

छाया से कर्दम पैदा हुए , इसके पश्चात स्त्री पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ | जिसका नाम स्वयंभू मनु शतरूपा रानी था | स्वयंभू मनु के तीन कन्या दो पुत्र पैदा हुए,  देवहूति, आकूति ,प्रसूति तीन कन्या उत्तानपाद, प्रियव्रत दो पुत्रों से सारा संसार भर गया |

इति द्वादशो अध्यायः

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अथ त्रयोदशोअध्यायः

वराह अवतार की कथा

ब्रह्माजी की आज्ञा पाकर मनु बोले प्रभु मैंश्रृष्टि तो रचूंगा पर उसे रखूंगा कहां क्योंकि पृथ्वी तो जल से डूबी है , इतने में ब्रह्मा जी की नाक से अंगूठे के आकार का एक वराह  शिशु निकला वह  क्षणभर में  हाथी के बराबर हो गया। ऋषियों ने उनकी प्रार्थना की वे सबके देखते देखते समुद्र में घुस गया वहां उन्होंने पृथ्वी को देखा जिसे लीला पूर्वक अपनी दाढ़ पर रख लिया और उसे लेकर ऊपर आए रास्ते में उन्हें हिरण्याक्ष दैत्य मिला जिसे मार कर पृथ्वी को जल के ऊपर स्थापित किया | ऋषियों ने उनकी प्रार्थना की

इति त्रयोदशो अध्यायः

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(अथ चतुर्दशो अध्यायः)

दिति का गर्भ धारण- एक समय की बात है संध्या के समय जब कश्यप जी अपनी सायं कालीन संध्या कर रहे थे उनकी पत्नी दिती उनसे पुत्र प्राप्ति की कामना करने लगी कश्यप जी बोले देवी यह संध्या का समय है ! भूतनाथ भगवान शिवजी अपने गणों के साथ विचरण कर रहे हैं यह समय पुत्र प्राप्ति के लिए अनुकूल नहीं है ! दिती नहीं मानी वह निर्लज्जता पूर्वक उनसे आग्रह करने लगी | भगवान की ऐसी ही इच्छा है ऐसा समझ कश्यप जी ने गर्भाधान किया और कहा तेरे दो महान राक्षस पुत्र पैदा होंगे जिन्हें मारने के लिए स्वयं भगवान आएंगे, यह सुन दिति बहुत घबराई और अपने किए पर पश्चाताप भी करने लगी,तब कश्यप जी ने कहा घबराओ नहीं तुम्हारा एक पुत्र का पुत्र भगवत भक्त होगा जिसकी कीर्ति संसार में होगी यह जान दिती को संतोष हुआ।

इति चतुर्दशो अध्यायः

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( अथ पंचदशोअध्यायः )

जय विजय को सनकादिक का श्राप-  एक समय की बात है  चारों उर्धरेता  ऋषि भ्रमण करते हुए  भगवान के बैकुंठ धाम में भगवान के दर्शन की अभिलाषा से गए वहां उन्होंने छः द्वार पार कर जब वे  सातवें द्वार पर  पहुंचे तो जय विजय ने उन्हें रोक दिया  इससे कुपित होकर ऋषियों ने  उन्हें श्राप दिया  जाओ तुम दोनों राक्षस हो जाओ | जय  विजय उनके चरणों में गिर गए और श्राप  निवारण की प्रार्थना की तब ऋषि बोले तीन जन्मों तक तुम राक्षस रहोगे प्रत्येक जन्म में स्वयं भगवान के हाथों तुम मारे जाओगे | तीन जन्मों के बाद तुम भगवान के पार्षद बन जाओगे, इतने में स्वयं भगवान ने आकर उन्हें दर्शन दिए और ऋषियों ने बैकुंठ धाम के दर्शन किए भगवान बोले ऋषियों यह सब मेरी इच्छा से हुआ है। ऋषियों ने भगवान को प्रणाम किया और प्रस्थान किया |

इति पंचदशोअध्यायः

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( अथ षोडषोअध्यायः )

जय विजय का बैकुंठ से पतन अपने पार्षदों को भगवान ने समझाया और कहा यह ब्राह्मणों का श्राप है ब्राह्मण सदा ही मुझे प्रिय हैं इनके श्राप को मैं भी नहीं मिटा सकता | ब्राह्मणों के क्रोध से कोई बच नहीं सकता फिर भी आप चिंता ना करें मैं शीघ्र ही तुम्हारा उद्धार करूंगा। ऐसा कहकर भगवान अपने अन्तःपुर में चले गए और जय विजय का बैकुंठ से पतन हो गया वे वहां से गिरकर सीधे

दिति के गर्भ में प्रवेश कर गए उनके गर्भ में आते ही सर्वत्र अंधकार छा गया जिससे सब भयभीत हो गए | ब्रह्मा जी ने सबको समझाया दिति के गर्भ में कश्यप जी का तेज है इसी के कारण ऐसा है आप निश्चिंत रहें सब ठीक हो जाएगा दिती ने सौ वर्ष पर्यंत पुत्रों को जन्म नहीं दिया

इति षोडषोअध्यायः

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( अथ सप्तदशोअध्यायः )

हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म  समय पाकर दिती ने दो पुत्रों को जन्म दिया उनके जन्म लेते ही सर्वत्र उत्पात होने लगे सनकादिक के सिवा सारा संसार भयभीत होने लगा मानो प्रलय होने

वाली है जन्म की तत्काल बाद ही उनका शरीर बड़ा विशाल हो गया। कश्यप जी ने उनका नाम हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु रखा एक बार हिरण्याक्ष हाथ में गदा लेकर युद्ध के लिए निकला पर उसके सामने कोई नहीं आया तो वे स्वर्ग में पहुंच गए उसे देख कर सब देवता भाग

गए हिरण्याक्ष कहने लगा अरे ये महा पराक्रमी

देवता भी मेरे सामने नहीं आते तब वह महा विशाल समुद्र में कूद गया और वरुण की राजधानी विभावरी पुरी में पहुंच गया और वरुण से युद्ध की भिक्षा मांगी इस पर वरुण बोले वीर आप से युद्ध करने योग केवल एक ही हैं अभी वे समुद्र से पृथ्वी को निकाल कर ले जा रहे हैं आप उनसे युद्ध करें |

इति सप्तदशोअध्यायः

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(अथ अष्टादशोअध्यायः )

हिरण्याक्ष के साथ वराह भगवान का युद्ध-  वरुण के कथनानुसार वह दैत्य हाथ में गदा लेकर भगवान को ढूंढने लगा और ढूंढते ढूंढते वह वहां पहुंच गया जहां वराह भगवान पृथ्वी को लेकर जा रहे थे | हिरण्याक्ष ने भगवान को ललकारा और कहा अरे जंगली शूकर यह ब्रह्मा द्वारा हमें दी गई पृथ्वी को लेकर तुम कहां जा रहे हो इस प्रकार चुरा कर ले जाते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती | भगवान ने उसकी इस बात की कोई परवाह नहीं की और वे पृथ्वी को लेकर चलते रहे दैत्य ने उनका पीछा किया और कहा अरे निर्लज्ज कायरों की भांति क्यों भागा जा रहा है इतने में धरती को जल के ऊपर स्थापित कर दिया ब्रह्मा ने दैत्य के सामने ही भगवान की प्रार्थना की भगवान दैत्य से बोले हम जैसे जंगली पशु तुम जैसे ग्रामसिंह ( कुत्ता) को ही ढूंढते फिरते हैं। दैत्य ने गदा से भगवान पर प्रहार किया और इस प्रकार दोनों में घोर युद्ध होने लगा।

इति अष्टादशोअध्यायः

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( अथ एकोनविंशोअध्यायः )

हिरण्याक्ष वध दैत्यराज हिरण्याक्ष और भगवान वराह का घोर युद्ध होने लगा हिरण्याक्ष की छाती में भगवान

ने गदा का प्रहार किया गदा , जैसे कोई लोहे के खंभे से टकराई हो हाथ झन्ना कर भगवान के हाथ से छूट कर गदा नीचे गिर गई | यह बताने के लिए कि मेरे हाथ गदा से कम नहीं छाती में एक घूंसा मारा जिससे राक्षस वमन  करता हुआ गिर गया और समाप्त हो गया।

इति एकोनविंशोअध्यायः

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( अथ विंशोअध्यायः )

ब्रह्मा जी की रची हुई अनेक प्रकार की सृष्टि का वर्णन ब्रह्मा जी ने अविद्या आदि की श्रृष्टि की उससे उन्हें ग्लानि पैदा हुई उस शरीर को त्याग दिया जिससे संध्या बन गई जिससे राक्षस मोहित हो गए | इसके अलावा

पितृगण, गंधर्व, किन्नर आदि पैदा किए। सिद्ध विद्याधर सर्प मनुओं की रचना की |

इति विंशोअध्यायः

[अथ एकविंशो अध्यायः]

कर्दम जी की तपस्या और भगवान का वरदान ब्रह्मा जी ने जब कर्दम ऋषि को श्रृष्टि करने की आज्ञा दी तो वे श्रृष्टि के लिए भगवान की तपस्या करने लगे भगवान ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए कर्दम जी ने उनकी स्तुति की और कहा प्रभु में ब्रह्मा जी की आज्ञा से श्रृष्टि करना चाहता हूं मेरी यह कामना पूर्ण करें तब भगवान बोले स्वायंभुवमनु अपनी कन्या देवहूति के साथ चल कर आपके यहां आ रहे हैं आप देवहूति से विवाह करें | उससे आपके नव कन्या होंगी जिन्हें आप मरिच्यादी ऋषियों को ब्याह दें उनसे श्रृष्टि का विस्तार होगा। मैं स्वयं आपके यहां कपिल अवतार धारण करूंगा और सांख्य शास्त्र को कहूंगा, ऐसा वरदान देकर भगवान तो अंतर्ध्यान हो गए और कर्दम जी उस काल की प्रतीक्षा करने लगे और जो समय भगवान ने बताया था उसके अनुसार मनु महाराज अपनी कन्या के साथ आये कर्दम जी ने उनका स्वागत किया और बोले नर श्रेष्ठ आप अपनी प्रजा की रक्षा के लिए ही सेना सहित विचरण करते हैं मुझे क्या आज्ञा है उसे बताएं।

इति एकविंशो अध्यायः

द्वितीय दिवस की कथा

( अथ द्वाविंशो अध्यायः )

देवहूति के साथ कर्दम प्रजापति का विवाह- मनु जी बोले- हे मुनि ब्राह्मणों को ब्रह्मा ने अपने मुख से प्रगट किया है फिर आपकी रक्षा के लिए अपनी भुजाओं से हम क्षत्रियों को उतपन्न किया है, इसलिए ब्राम्हण उनका हृदय और छत्रिय शरीर हैं | मैं अपनी सर्वगुण संपन्न यह कन्या आपको देना चाहता हूं आप इसे स्वीकार करें , कर्दम जी के स्वीकार कर लेने पर मनु जी अपनी कन्या का दान कर्दम जी को कर दिया और मनु जी अपने घर आ गये |

इति द्वाविंशोध्यायः

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( अथ त्रयोविंशो अध्यायः )

कर्दम और देवहूति का विहार- अपने पिता के चले जाने के बाद देवहुति ने कर्दम जी की खूब सेवा कि, वह रात और दिन उनकी सेवा में ही लगी रहती अपने खाने पीने की चिंता भी नहीं करती, इससे इनका शरीर क्षीण हो गया | यह देखकर कर्दम जी देवहूती पर बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने देव हूती को आज्ञा दी कि हे मनु पुत्री आप इस बिंदु सरोवर में स्नान करें | देवहूति ने ज्यों ही सरोवर में गोता लगाया एक सुंदर महल में पहुंच गई वहां 1000 कन्याएं थी वह सब देवहूति को देखते ही खड़ी हो गई और बोली हम सब आपकी दासी हैं हमें आज्ञा करें हम आपकी क्या सेवा करें ? दासियों ने देवहूति को सुगंधित उबटनों से स्नान कराया और सुगंधित तेल लगाकर उन्हें सुन्दर वस्त्र धारण कराए , आभूषणों से सजाया | देवहूति ने जब अपने पति का स्मरण किया वह सखियों सहित उनके पास पहुंच गई, उनकी सुंदरता महान थी उसे देख कर्दम जी ने एक दिव्य विमान मन की गति से चलने वाले विमान की रचना की और उसमें बैठाया और अनेकों लोकों में भ्रमण किया और विमान में ही नव कन्याओं को जन्म दिया | देवहूति अपने पति से बोली देव हमारा कितना समय संसार सुख में बीत गया और हम भगवान को भूल गए अब आप इन कन्याओं के लिए योग्य वर देखकर इनका पाणिग्रहण संस्कार करके कर्तव्य मुक्त हों |

इति त्रयविंशो अध्यायः

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( अथ चतुर्दशो अध्यायः )

श्री कपिल जी का जन्म- देवहूति के ऐसे विरक्ति पूर्ण वचन सुनकर कर्दम जी ने कहा देवी जी आप के गर्भ में स्वयं भगवान आने वाले हैं | अतः आप उनका ध्यान करें, देवहूति भगवान का ध्यान करने लगी और भगवान कपिल के रूप में उनके यहां प्रकट प्रगट हुए, देवता पुष्पों की वर्षा करने लगे | इसी समय ब्रह्माजी मरीच आदि ऋषियों को साथ ले उनके आश्रम पर आए और कर्दम जी से कहा अपनी नव कन्याएं मरीच आदि ऋषियों को दे दें | तो कर्दम जी ने- कला मरीचि को, अनुसुइया अत्रि को , श्रद्धा अंगिरा को, हविर्भू पुलस्त्य को,  गति पूलह को, किया क्रतु को, ख्याति भ्रुगू को, अरुंधति वशिष्ठ को, शांती अथर्वा को दे दी | तथा पूर्ण दहेज के साथ सब को विदा किया और कर्दम जी भगवान के पास आए और उनकी स्तुति की प्रभो मैं आपकी शरण में हूं, भगवान बोले वन में जाकर मेरा भजन करें , भगवान की आज्ञा पाकर कर्दम जी वन में चले गए |

इति चतुर्विशों अध्यायः

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( अथ पंचविंशो अध्यायः )

देवहुति का प्रश्न तथा भगवान कपिल द्वारा भक्ति योग की महिमा का वर्णन- पति के वन चले जाने पर देवहूति भगवान कपिल के सामने जाकर बोली- प्रभु इंद्रिय सुखों से अब मेरा मन ऊब गया है, अब आप मेरे मोहअन्धकार को दूर कीजिए| भगवान बोले माताजी सारे बंधनों का कारण यह मैं ही है | मैं और मेरा ही बंधन है | सबको छोड़ परमात्मा के भजन में लग जाना ही इसके मोक्ष का कारण है | योगियों के लिए भगवान की भक्ति ही श्रेयस्कर है, जो व्यक्ति मेरी कथाओं का श्रवण, मेरे नाम का संकीर्तन करते हैं परम कल्याणकारी हैं | माता जी इस लोक परलोक के सांसारिक दुखों से मन को हटा कर परमात्मा में मन को लगा देता है वह मुझे प्राप्त कर लेता है |

इति पंचविंशो अध्यायः

( अथ षडविंशो अध्यायः )

महदादि भिन्न-भिन्न तत्वों की उत्पत्ति का वर्णन-  देवहूति बोली प्रभु प्रकृति पुरुष के लक्षण मुझे समझावें भगवान बोले माता जो त्रिगुणात्मक अव्यक्त नित्य और कार्य कारण रूप है स्वयं निर्विशेष होकर भी संपूर्ण विशेष धर्मों का आश्रय है | उस प्रधान नामक तत्व को ही प्रकृति कहते हैं , पंचमहाभूत, पांच उनकी तनमात्राएं, दस इन्द्रिय, चार अंतःकरण इन चौबीस तत्वों को ही प्रकृति का कार्य मानते हैं | प्रकृति को गति देने वाले हैं वो ही पुरुष कहे जाते हैं | प्रकृति के चौबीस तत्वों को मिलाकर एक पिंड बनाया और उनमें इंद्रियों के अधिष्ठाता देवताओं ने भी उस पिण्ड में प्रवेश किया फिर भी वह विराट पुरुष नहीं उठा |तब परमात्मा ने क्षेत्रज्ञ के रूप में उस विराट में प्रवेश किया, तब वह विराट उठ कर खड़ा हो गया | हे माता जी उसी का चिंतन करना चाहिए |

इति षड्विंशो अध्यायः

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( अथ सप्तविंशो अध्यायः )

प्रकृति पुरुष के विवेक से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन- भगवान बोले हे माताजी प्रकृति के चौबीस तत्वों से बना हुआ यह शरीर ही क्षेत्र है तथा इसके भीतर बैठा परमात्मा का अंश आत्मा ही क्षेत्रज्ञ है यद्यपि आत्मा अकर्ता निर्लेप है, तो भी वह शरीर के साथ संबंध कर लेने पर- मैं कर्ता हूं ! इस अभिमान के कारण देह के बंधन में पड़ जाता है और जिसने आत्मा के स्वरूप को जान लिया वही मोक्ष का अधिकारी है |

इति सप्तविंशो अध्यायः

( अथ अष्टाविंशो अध्यायः )

अष्टांग योग की विधि- भगवान बोले माताजी योग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि आदि | योग साधना के लिए प्रथम आसन को जीतें कुशा मृगचर्म आदि के आसन पर सीधा पद्मासन लगाकर जितना अधिक देर बैठ सकें उसका अभ्यास करें | फिर पूरक, कुंभक, रेचक प्राणायाम करें, उसके बाद विपरीत प्राणायाम करें | पश्चात भगवान के सगुण रूप अंग प्रत्यगों का तथा उनके गुणों का ध्यान करें | जिस स्वरुप का ध्यान किया था उसे अपने हृदय में दृढ़ता पूर्वक धारण कर लें | भगवान के नाम, रूप, गुण, लीलाओं का गान करते हुए समाधिस्थ हो जावें |

इति अष्टाविंशो अध्यायः

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( अथ एकोनत्रिशो अध्यायः )

भक्ति का मर्म और काल की महिमा- भगवान बोले माताजी गुण और स्वभाव के कारण भक्ति का स्वरूप भी बदल जाता है | क्रोधी पुरुष ह्रदय में हिंसा दम्भ, मात्सर्य का भाव रहकर मेरी भक्ति करता है वह मेरा तामस भक्त है | विषय, यश और ऐश्वर्य की कामना से भक्ति करने वाला मेरा राजस भक्त है, कामना रहित होकर प्रेम पूर्वक जो मेरी भक्ति करता है वह मेरा सात्विक भक्त है | काल भगवान की ही शक्ति का नाम है- ऋषि, मुनि, देवता सभी काल के अधीन हैं काल के आधीन ही सृष्टि और प्रलय होती है | ब्रह्मा, शिवादि देवता भी काल के अधीन हैं |

इति एकोनत्रिशों अध्यायः

( अथ त्रिंशो अध्यायः )

देह-गेह में आशक्त पुरुषों की अधोगति का वर्णन- भगवान बोले माताजी अनेक योनियों में भटकता हुआ यह जीव भगवान की कृपा से यह मानव जीवन प्राप्त करता है | मानव शरीर पाकर भी जो परमात्मा को भूलकर अपने शरीर के पालन पोषण तथा परिवार के निर्माण में ही लगा रहता है और परमात्मा को नहीं जानता, केवल इंद्रियों के भोग में ही आसक्त रहता है , अवांछित तरीके से धन संग्रह करता है, दूसरों के धन की इच्छा करता है , जब वृद्ध हो जाता है तब उसके पुत्रादि ही उसका तिरस्कार करते हैं तो उसे बड़ा दुख होता है | और जब शरीर छोड़ता है तब वह घोर नरक में जाता है , वहां यम यातना भोगता है |

इति त्रिंशो अध्यायः

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( अथ एकोत्रिंशो अध्यायः )

मनुष्य योनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन- भगवान बोले हे माता जी यह जीव पिता के अंश से जब माता के गर्भ में प्रवेश होता है, एकरूप कलल बन जाता है, पांच रात्रि में बुद बुद रूप हो जाता है , दस रात्रि में बेर के समान कठोर हो जाता है, उसके बाद मांस पेशी एक महीने में उसके सिर निकल आते हैं, दो माह में हाथ पैर निकल आते हैं, तीन माह में नख, रोम, अस्थि, स्त्री पुरुष के चिन्ह बन जाते हैं | चार मास में मांस आदि सप्तधातुएं बन जाती हैं, पांच मास में भूख प्यास लगने लगती है , छठे माह में झिल्ली में लिपटकर माता की कुक्षि में घूमने लगता है, ( कोख में घूमने लगता है ) उस समय माता के खाए हुए अन्न से उसकी धातु पुष्ट होने लगती हैं , वहां मल मूत्र के गड्ढे में पड़ा वह जीव कृमियों के काटने से बड़ा कष्ट पाता है | तब वह भगवान से बाहर आने की प्रार्थना करता है, कि प्रभु मुझे बाहर निकालें, मैं आपका भजन करूंगा दशम मास में जब वह गर्भ से बाहर आता है, बाहर की हवा लगते ही वह सब कुछ भूल जाता है | और रोने लगता है, जब कुछ बड़ा होता है बालकपन खेलकूद में खो देता है, जवानी में स्त्री संग तथा  दूसरों से बैर बांधने में खो देता है और अंत में जैसा आया था वैसे ही चला जाता है |

इति एकोत्रिंशो अध्यायः

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[ अथ द्वात्रिंशो अध्यायः ]

धूम मार्ग और अर्चरादि मार्ग से जाने वालों की गति का वर्णन, भक्ति योग की उत्कृष्टता का वर्णन– भगवान बोले- हे माताजी जीव संसार में जिसकी उपासना करता है , उसी को प्राप्त होता है | पितरों की पूजा करने वाला पितृ लोक, देवताओं की पूजा करने वाला देव लोक में जाता है , भूत प्रेतों का उपासक भूत प्रेत बनता है, पाप कर्मों में रत पापी धूम मार्ग से यमराज के लोक को जाकर नर्क आदि भोगता है और वह पाप पुण्य क्षीण होने पर इसी लोक में वापस आ जाता है | किंतु माताजी जो निष्काम भाव से परमात्मा की अनन्य भक्ति करता है, वह महापुरुष अर्चरादिमार्ग से देव आदि लोकों को पार करता हुआ, देवताओं का सम्मान प्राप्त करता हुआ बैकुंठ को जाता है | जहां से वह कभी लौटता नहीं | इसीलिए माताजी प्राणी मात्र का कर्तव्य है कि वह परमात्मा की अनन्य भक्ति करें,

इति द्वात्रिंशो अध्यायः

( अथ त्रयस्त्रिंशो अध्यायः)

देवहुति को तत्वज्ञान एवं मोक्ष पद की प्राप्ति– मैत्रेय उवाच–

एवं निशम्य कपिलस्य वचो जनित्री

सा कर्दमस्य दयिता किल देवहूतिः |

विस्रस्त मोहपटला तवभि प्रणम्य

तुष्टाव तत्वविषयान्कित सिद्धिभूमिम् ||

मैत्रेय जी कहते हैं- कि हे विदुर जी, कपिल भगवान के वचन सुनकर कर्दम जी की प्रिय पत्नी माता देवहूती के मोंह का पर्दा फट गया और वे तत्व प्रतिपादक सांख शास्त्र ज्ञान की आधार भूमि भगवान श्री कपिल जी को प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगी |

देवहूति उवाच–

अथाप्यजोनन्तः सलिले शयानं

भूतेन्द्रियार्थात्ममयं वपुस्ते |

गुणप्रवाहं सद शेष बीजं

दध्यौ स्वयं यज्जठराब्जः ||

देवहुति ने कहा– कपिल जी ब्रह्मा जी आपके ही नाभि कमल से प्रकट हुए थे, उन्होंने प्रलय कालीन जल में शयन करने वाले आपके पंचभूत इंद्रिय, शब्दादि विषय और मनोमय विग्रह का जो सत्वादि गुणों के प्रभाव से युक्त, सत्य स्वरूप और कार्य एवं कारण दोनों का बीज है का ही ध्यान किया था | आप निष्क्रिय सत्य संकल्प संपूर्ण जीवो के प्रभु तथा सहस्त्रों अचिंत्य शक्तियों से संपन्न हैं, अपनी शक्ति को गुण प्रवाह रूप से ब्रह्मादिक अनंत विभूतियों में विभक्त करके उनके द्वारा आप स्वयं ही विश्व की रचना करते हैं |

माता जी की ऐसी स्तुति सुनकर भगवान बोले- माताजी मैंने तुम्हें जो ज्ञान दिया है इससे तुम शीघ्र ही परम पद को प्राप्त करोगी, ऐसा कह कर माता जी से आज्ञा लेकर वहां से चल दिए और समुद्र में आकर तपस्या करने लगे | देवहूति ने भी तीव्र भक्ति योग से परम पद को प्राप्त कर लिया |

इति त्रयोस्त्रिंशो अध्यायः

इति तृतीय स्कन्ध सम्पूर्णम्

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अथ चतुर्थ स्कंध प्रारंभ

( अथ प्रथमो अध्यायः )

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन–  स्वायंभू मनु के दो पुत्र उत्तानपाद और प्रियव्रत के अलावा तीन पुत्रियां भी थी देवहूति, आकूति और प्रसूति | आकूति रुचि प्रजापति को पुत्रिका धर्म के अनुसार ब्याह दी जिससे यज्ञ नारायण भगवान का जन्म हुआ दक्षिणा देवी से इनको बारह पुत्र हुये | तीसरी कन्या प्रसूति दक्ष प्रजापति को ब्याह दी जिससे शोलह पुत्रियां हुई, जिनमें तेरह धर्म को, एक अग्नि को, एक पितृ गणों को और एक शिव जी को ब्याह दी | धर्म की पत्नी मूर्ति से नर नारायण का अवतार हुआ, अग्नि के पर्व, पवमान आदि अग्नि पैदा हुए, पितृगण से धारण और यमुना दो पुत्रियां हुई |

इति प्रथमो अध्यायः

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( अथ द्वितीयो अध्यायः )

भगवान शिव और दक्ष प्रजापति का मनोमालिन्य-  एक बार प्रजापतियों के यज्ञ में बड़े-बड़े देवता ऋषि देवता आदि आए, उसी समय प्रजापति दक्ष ने सभा में प्रवेश किया उन्हें आया देख ब्रह्मा जी और शिव जी के अलावा सब ने उठकर उनका सम्मान किया | दक्ष ने ब्रह्मा जी को प्रणाम कर आसन ग्रहण किया , किंतु शिवजी को बैठा देख वह क्रोधित हो उठा और कहने लगा देवता महर्षियों मेरी बात सुनो मैं कोई ईर्ष्या वश नहीं कह रहा हूं , यह निर्लज्ज महादेव समस्त लोकपालों की कीर्ति को धूमिल कर रहा है | इस बंदर जैसे मुंह वाले को मैंने ब्रह्मा जी के कहने पर मेरी कन्या दे दी थी, इस तरह यह मेरे पुत्र के समान है इसने मेरा कोई सम्मान नहीं किया , अस्थि चर्म धारण करने वाला , श्मशान वासी को मैं श्राप देता हूं आज से इसका यज्ञ में भाग बंद हो जाए | यह सुन शिवजी के जो गण थे , नंदी ने भी दक्ष को श्राप दे दिया इसका मुंह बकरे का हो जाए, साथ ही उन ब्राह्मणों को भी श्राप दिया जिन्होंने दक्ष का समर्थन किया था , कि वे पेट पालने के लिए ही वेद आदि पड़े | इस प्रकार जब भृगु जी ने सुना तो उन्होंने भी श्राप दे दिया कि शिव के अनुयाई शास्त्र विरुद्ध पाखंडी हों यह सुन शिवजी उठकर चल दिए |

इति द्वितीयो अध्यायः

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( अथ तृतीयो अध्यायः )

सती का पिता के यहां यज्ञोउत्सव में जाने के लिए आग्रह करना– ब्रह्मा जी ने दक्ष को प्रजापतियों का अधिपति बना दिया, तब तो दक्ष और गर्व से भर गए और उन्होंने शिव जी का यज्ञ भाग बंद करने के लिए एक यज्ञ का आयोजन किया,  बड़े-बड़े ऋषि देवता उसमें आने लगे, किंतु शिव जी को निमंत्रण नहीं था अतः वे नहीं गए |

जब सती ने देखा कि उसके पिता के यहां यज्ञ है जिसमें सब जा रहे हैं, तो शिवजी से उन्होंने भी जाने का आग्रह किया | सती जानती थी कि उनके यहां निमंत्रण नहीं है फिर भी पिता के यहां बिना बुलाए भी जाने का दोष नहीं है, ऐसा कह कर आग्रह करने लगी , शिव जी ने सती को समझाया कि आपस में द्वेष होने की स्थिति में ऐसा जाना उचित नहीं है, क्योंकि तुम्हारा वहां अपमान होगा उसे तुम सहन नहीं कर सकोगी |

इति तृतीयो अध्यायः

भागवत कथा हिंदी

( अथ चतुर्थो अध्यायः )

सती का अग्नि में प्रवेश– शिवजी के इस प्रकार मना कर देने के बाद भी वह कभी बाहर कभी भीतर आने जाने लगी,  और अंत में शिव जी की आज्ञा ना मान पिता के यज्ञ की ओर प्रस्थान किया | जब शिवजी ने देखा कि सती उनकी आज्ञा की अनदेखी करके जा रही हैं, होनी समझ नंदी के सहित कुछ गण उनके साथ कर दिए, सती नंदी पर सवार होकर गणों के साथ दक्ष के यहां पहुंची | वहां उससे माता तो प्रेम से मिली किंतु पिता ने कोई सम्मान नहीं किया, फिर यज्ञ मंडप में जाकर देखा कि यहां शिवजी का कोई स्थान नहीं है, सती ने योगाग्नि से अपने शरीर को जलाकर भस्म कर दिया | शिव के गण यज्ञ विध्वंस करने लगे तो भृगु जी ने यज्ञ की रक्षा की और शिव गणों को भगा दिया |

इति चतुर्थो अध्यायः

भागवत कथा हिंदी

( अथ पंचमो अध्यायः )

वीरभद्र कृत दक्ष यज्ञ विध्वंस और दक्ष वध– जब शिवजी को ज्ञात हुआ कि सती ने अपने प्राण त्याग दिए और उनके भेजे हुए गणों को भी मार कर भगा दिएं, तब उन्होंने क्रोधित होकर वीरभद्र को भेजा | लंबी चौड़ी आकृति वाला वीरभद्र क्रोधित होकर अन्य गणों के साथ दक्ष यज्ञ में पहुंचकर यज्ञ विध्वंस करने लगे | मणिमान ने भृगु जी को बांध लिया, वीरभद्र ने दक्ष को कैद कर लिया, चंडीश ने पूषा को पकड़ लिया , नंदी ने भग देवता को पकड़ लिया | दक्ष का सिर काट दिया और उसे यज्ञ कुंड में हवन कर दिया , भृगु की दाढ़ी मूछ उखाड़ ली, पूषा के दात तोड़ दिए यज्ञ में हाहाकार मच गया सब देवता यज्ञ छोड़कर भाग गए वीरभद्र कैलाश को लौट आए  |

इति पंचमो अध्यायः

भागवत कथा हिंदी

( अथ षष्ठो अध्यायः )

ब्रह्मादिक देवताओं का कैलाश जाकर श्री महादेव को मनाना– जब देवताओं ने देखा कि शिवजी के गणों ने सारे यज्ञ को विध्वंस कर दिया वह ब्रह्मा जी के पास गए और जाकर सारा समाचार सुनाया , ब्रह्मा जी और विष्णु भगवान यह सब जानते थे इसलिए वे यज्ञ में नहीं आए थे | ब्रह्माजी बोले देवताओं शिव जी का यज्ञ भाग बंद कर तुमने ठीक नहीं किया अब यदि तुम यज्ञ पूर्ण करना चाहते हो तो शिवजी से क्षमा मांग कर उन्हें मनावे , ऐसा कहकर ब्रह्माजी सब देवताओं को साथ लेकर कैलाश पर पहुंचे, जहां शिवजी शांत मुद्रा में बैठे थे | ब्रह्मा जी को देखकर वे उठकर खड़े हो गए और ब्रह्मा जी को प्रणाम किया ब्रह्मा जी ने शिव जी से कहा देव बड़े लोग छोटों की गलती पर ध्यान नहीं देते , अतः चलकर दक्ष के यज्ञ को पूर्ण करें , दक्ष को जीवनदान दें, भृगु जी की दाढ़ी मूंछ, भग को नेत्र, पूषा को दांत प्रदान करें , यज्ञ के बाद जो शेष रहे आपका भाग हो |

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[ अथ सप्तमो अध्यायः ]

दक्ष यज्ञ की पूर्ति- ब्रह्मा जी के कहने पर शिवजी दक्ष यज्ञ में पहुंचे और बोले भग देवता मित्र देवता के नेत्रों से अपना यज्ञ भाग देखें, पूषा देवता यजमान के दातों से खाएं, दक्ष का सिर जल गया है अतः उसे बकरे का सिर लगा दिया जाए | ऐसा करते ही दक्ष उठ कर खड़ा हो गया, उसे सती के मरण से बड़ा दुख हुआ उसने शिवजी की स्तुति की , यज्ञ प्रारंभ हुआ जो ही भगवान नारायण के नाम से आहुति दी वहां भगवान नारायण प्रगट हो गए | जिन्हें देख सब देवता खड़े हो गए और सब ने भगवान की अलग-अलग स्तुति की |

मैत्रेय जी बोले विदुर जी शिव जी का यह चरित्र बड़ा ही पावन है |

इति सप्तमो अध्यायः

( अथ अष्टमो अध्यायः )

ध्रुव का वन गमन- स्वयंभू मनु की तीन पुत्रियों की कथा आप सुन चुके हैं , उनके दो पुत्र हैं उत्तानपाद और प्रियव्रत ! उत्तानपाद के दो रानियां हैं सुरुचि और सुनीति , राजा को सुरुचि अधिक प्रिय है जिनका पुत्र है उत्तम | सुनीति के पुत्र का नाम ध्रुव है , एक समय राजा सुरुचि के पुत्र उत्तम को गोद में लेकर राज सिंहासन पर बैठे थे कि ध्रुव खेलते खेलते कहीं से आ गए राजा ने उन्हें भी उठाकर राज सिंहासन पर बैठा लिया, यह देख सुरुचि ने उसे सिंहासन से खींच कर नीचे डाल दिया और कहा तुम राज सिंहासन के अधिकारी नहीं हो , यदि तुम राज सिंहासन पर बैठना चाहते हो तो वन में जाकर नारायण की उपासना करो और मेरे गर्भ में आकर जन्म लो, तब तुम सिंहासन पर बैठ सकते हो |

चोट खाए हुए सांप की तरह बालक ,वह रोता हुआ बालक ध्रुव अपनी माता के पास आया रोते-रोते सारी बात माता को बता दी, माता ने बालक को कहा बेटा विमाता ने जो कुछ कहा वह सत्य है, एकमात्र नारायण ही सब की मनोकामना पूर्ण करते हैं | माता के ऐसे वचन सुनकर वह वन को चल दिए,  रास्ते में नारद जी मिले ,

नारद जी ध्रुव से बोले बेटा अभी तो तेरे खेलने के दिन हैं,

भजन तो चौथे पन में किया जाता है फिर वन में हिंसक पशु रहते हैं वह तुम्हें खा जाएंगे | ध्रुव बोले चौथापन नहीं आया तो भजन कब करेंगे और जब भगवान रक्षक हैं तो हिंसक पशु कैसे खा जाएंगे | ध्रुव का अटल विश्वास देख नारद जी ने ध्रुव को द्वादशाक्षर मंत्र दिया और कहा यमुना तट पर मधुबन में जाकर इसका जाप करें , वह मधुवन में पहुंचकर उपासना में लीन हो गए |

तीन-तीन दिन में केवल कैथ और बैल खाकर भजन करने लगे , दूसरे महीने में छः छः दिन में केवल सूखे पत्ते खाकर भजन किया, तीसरे महीने में नव नव दिन में केवल जल पीकर भजन किया, चौथे महीने में बारह बारह दिन में वायु पीकर भजन किया, पांचवे महीने में ध्रुव ने स्वास को जीतकर भगवान की आराधना शुरू की, जिससे संसार की प्राणवायु रुक गई , सब लोग संकट में पड़ गए तो भगवान की शरण में गए और भगवान से बोले हमारा श्वास रुक गया है हमारी रक्षा करें | भगवान बोले देवताओं यह उत्तानपाद पुत्र ध्रुव की तपस्या का प्रभाव है, मैं अभी जाकर उसे तपस्या से निवृत्त करता हूं |

इति अष्टमो अध्यायः

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( अथ नवमो अध्यायः )

ध्रुव का वर पाकर घर लौटना- मैत्रेय जी बोले विदुर जी जिस समय ध्रुव जी भगवान का हृदय में ध्यान कर रहे थे भगवान उनके सामने आकर खड़े हो गए किंतु ध्रुव जी की समाधि नहीं खुली तो भगवान ने अपना स्वरूप हृदय से खींच लिया, व्याकुल होकर उनकी समाधि खुल गई सामने भगवान को देख वे दंड की तरह भगवान के चरणों में गिर गए | भगवान ने उन्हें उठाकर अपने हृदय से लगा लिया ध्रुव जी कुछ स्तुति करना चाहते थे , पर वे जानते नहीं कि कैसे करें तभी भगवान ने अपना शंख ध्रुव जी के कपोल से छू दिया वे स्तुति करने लगे—-

योन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तां

संजीव यत्यखिल शक्ति धरः स्वधाम्ना |

अन्यांश्च हस्त चरण श्रवणत्वगादीन्

प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ||

ध्रुव बोले हे प्रभो आपने मेरे हृदय में प्रवेश कर मेरे सोती हुई वाणी को जगा दिया , आप हाथ पैर कान और त्वचा आदि इंद्रियों एवं प्राणों को चेतना देते हैं | मैं आपको प्रणाम करता हूं |ध्रुव के इस प्रकार स्तुति सुनी तो भगवान बोले भद्र तेजो मय अविनाशी लोक जिसे अब तक किसी ने प्राप्त नहीं किया, जिसके ग्रह नक्षत्र और तारागण, रूप ज्योति चक्र उसी प्रकार चक्कर काटता रहता है | जिस प्रकार मेंढी के चारों और देवरी के बैल घूमते रहते हैं , एक कल्प तक रहने वाले लोकों का नाश हो जाने पर भी स्थिर रहता है, तथा तारा गणों के शहीद धर्म अग्नि कश्यप और शुक्र आदि नक्षत्र एवं सप्त ऋषि गण जिसकी प्रदक्षिणा करते हैं |

वह ध्रुव लोक तुम्हें देता हूं,

किंतु अभी तुम अपने पिता के सिंहासन पर बैठ कर 36000 वर्ष तक राज्य करो उसके पश्चात तुम मेरे लोक को आओगे जहां से कोई लौटता नहीं ,यह कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए | ध्रुव सोचने लगे अरे मैं कैसा अभागा हूं परमात्मा के दर्शन के बाद भी मैंने राज्य की ही कामना की | ध्रुव जी ने अपने नगर की ओर प्रस्थान किया राजा उत्तानपाद को नारद जी के द्वारा जब यह मालूम हुआ कि उनका पुत्र ध्रुव लौटकर आ रहा है | आश्चर्य और प्रसन्नता हुई और एक पालकी लेकर स्वयं रथ में बैठकर ध्रुव जी अगवानी के लिए चले रास्ते में आते हुए राजा को ध्रुव जी मिले, राजा ने उन्हें अपने अंक में भर लिया ध्रुव जी ने दोनों माताओं को प्रणाम किया और पालकी में बैठकर नगर में प्रवेश किया राजा ने उन्हें राज्य सिंहासन पर अभिषिक्त कर स्वयं भजन करने चल दिए |

इति नवमो अध्यायः

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( अथ दशमो अध्यायः )

उत्तम का मारा जाना और ध्रुव का यक्षों के साथ युद्ध– ध्रुव जी ने शिशुमार की पुत्री भ्रमी से विवाह किया जिससे उनके कल्प और वत्सर नाम के दो पुत्र हुए | दूसरी स्त्री वायुमती से उत्कल नामक पुत्र हुआ, छोटे भाई का अभी विवाह भी नहीं हुआ था कि एक यक्ष द्वारा मारा गया, भाई के मारे जाने की खबर सुनकर ध्रुव ने यक्षों पर चढ़ाई कर दी और यक्षों का संघार करने लगे |

इति दशमो अध्यायः

( अथ एकादशो अध्यायः )

स्वायंभू मनु का ध्रुव को युद्ध बंद करने के लिए समझाना- अत्यंत निर्दयता पूर्वक यक्षों का संहार करते देख ध्रुव जी के दादा, स्वयंभू मनु उनके पास आए और उन्हें समझाया कि बेटा तुम्हारे भाई को किसी एक यक्ष ने मारा फिर बदले में यह हजारों यक्षों का संघार क्यों कर रहे हो ? तुम अभी अभी भगवान की तपस्या करके आए हो तुम्हारे लिए यह बात उचित नहीं है | अतः शीघ्र ही यह युद्ध बंद कर दो ध्रुव जी ने दादा की बात मानकर युद्ध बंद कर दिया |

इति एकादशो अध्यायः

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( अथ द्वादशो अध्यायः )

ध्रुव जी को कुबेर का वरदान और विष्णु लोक की प्राप्ति- मैत्रेय जी बोले ही विदुर जी ध्रुव जी का क्रोध शांत हो जाने पर कुबेर जी वहां आए कुबेर बोले अपने दादा की बात मानकर आपने युद्ध बंद कर दिया इसलिए मैं बहुत प्रसन्न हूं, आप वरदान मांगे , ध्रुव जी बोले भगवान के चरणों में मेरी मति बनी रहे यही वरदान दीजिए | कुबेर जी ने एवमस्तु कहा, वर पाकर ध्रुव घर आ गए और भगवान को ह्रदय में रखकर 36000 बरस तक राज किया और अंत में अपने पुत्र उत्कल को राज्य देकर वन में भगवान का भजन करने के लिए चले गए | वहां उन्होंने भगवान की उत्कट भक्ति की , नेत्रों में अश्रुपात ढर रहे हैं , भगवान से मिलने की तीव्र उत्कंठा में छटपटा रहे हैं तभी आकाश मार्ग से एक सुंदर विमान धरती पर उतरा उसमें से चार भुजा वाले दो पार्षद निकले , ध्रुव जी ने उन्हें प्रणाम किया |

सुदुर्जयं विष्णुपदं जितंत्वया यत्सूरयो अप्राप्य विचक्षते परम् |

आतिष्ठ तच्चंद्र दिवाकरादयो ग्रहर्क्ष ताराः परियन्ति दक्षिणम् ||

नंद सुनंद बोले हे ध्रुव आपने अपनी भक्ति के प्रभाव से विष्णु लोक का अधिकार प्राप्त कर लिया है जो औरों के लिए बड़ा दुर्लभ है , सप्त ऋषि, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र जिसकी परिक्रमा किया करते हैं ,

आप उसी विष्णु लोक में निवास करें ,

पार्षदों की बात सुन ध्रुव जी उस विमान पर चढ़ने लगे तो काल देवता मूर्तिमान होकर हाथ जोड़कर उनके सामने खड़े हो गए, तब ध्रुव जी मृत्यु के सिर पर पैर रखकर विमान में जा बैठे | तभी उन्हें अपनी माता की याद आई , पार्षदों ने बताया कि देखो आपकी माता आपसे आगे विमान में बैठकर जा रही हैं, ध्रुव जी परमात्मा के लोक को चले गए |

इति द्वादशो अध्यायः

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( अथ त्रयोदशो अध्यायः )

ध्रुव वंश का वर्णन- यद्यपि ध्रुव जी अपने बड़े पुत्र उत्कल को राज्य देकर गए थे फिर भी परमात्मा की भक्ति में लीन होने के कारण वह राज्य नहीं लिया और अपने छोटे भाई वत्सर को राजा बना दिया | इसी के वंश में राजा अंग हुए अंग के कोई पुत्र नहीं था, तब उन्होंने पुत्र कामेष्टि यज्ञ किया जिससे उनके यहां बेन नाम का पुत्र हुआ | वह मृत्यु की पुत्री सुनीथा का पुत्र था वह पुत्र बड़ा दुष्ट स्वभाव का था , क्योंकि नाना के गुण उसमें आ गए थे , वह खेलते हुए बालकों को मार देता था पुत्र दुख से दुखी होकर अंग वन में भजन करने चला गये |

इति त्रयोदशो अध्यायः

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( अथ चतुर्दशो अध्यायः )

राजा बेन की कथा- पिता के वन चले जाने पर मुनियों ने बेन को राजा बना दिया तो वह और उन्मत्त हो गया, प्रजा को कष्ट देने लगा धर्म-कर्म यज्ञ आदि बंद करवा दिया, इस पर ऋषियों नें उसे समझाया तो कहने लगा–

बालिशावत यूयं वा अधर्मे धर्म मानिनः |

ये वृत्तिदं पतिं हित्वा जारं पति मुपासते ||

बेन बोला तुम बड़े मूर्ख हो अधर्म को ही धर्म मानते हो, तभी तो जीविका देने वाले पति को छोड़कर जारपति की उपासना करते हो सारे देवता राजा के शरीर में निवास करते हैं | ऋषियों का इस प्रकार अपमान करने पर उन्होंने उसे हुंकार से समाप्त कर दिया | किंतु दूसरा कोई राजा ना होने पर उसके शरीर का मंथन किया उससे निषाद की उत्पत्ति हुई |

इति चतुर्दशो अध्यायः

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( अथ पंचदशो अध्यायः )

महाराज पृथु का आविर्भाव और राज्याभिषेक- मैत्रेय जी बोले विदुर जी निषाद की उत्पत्ति के बाद बेन की भुजाओं का मंथन किया गया जिनमें से एक स्त्री पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ | ऋषियों ने कहा यह साक्षात लक्ष्मी नारायण हैं, अतः उनका राज्याभिषेक कर दिया गया बंदी जनों ने उनकी स्तुति कि इस पर पृथु जी बोले

, हे सूत मागध अभी तो हमारे कोई गुण प्रकट भी नहीं हुए हैं, फिर यह गुण किसके गाए जा रहे हो, गुण केवल भगवान के गाए जाते हैं अतः उन्हें के गुण गाओ |

इति पंचदशो अध्यायः

श्रीमद् भागवत महापुराण संस्कृत हिंदी

( अथ षोडषो अध्यायः )

बन्दी जन द्वारा महाराज पृथु की स्तुति–  मैत्रेय जी बोले हे विदुर जी ऋषियों की प्रेरणा से बदींजन फिर इस प्रकार स्तुति करने लगे- हे प्रभु आपने कहा कि स्तुति तो भगवान की करनी चाहिए | आप साक्षात नारायण ही तो हैं हम तो आपकी स्तुति करने से असमर्थ हैं, इस सृष्टि के रचयिता पालन करता और संहार करता आप ही हैं , हम आपको नमस्कार करते हैं |

इति षोडशो अध्यायः

( अथ सप्तदशो अध्यायः )

महाराजा पृथु का पृथ्वी पर कुपित होना और पृथ्वी के द्वारा उनकी स्तुति करना- मैत्रेय जी बोले हे विदुर जब ब्राह्मणों ने पृथु जी को राजा बनाया था तब उस समय पृथ्वी अन्नहीन हो गई थी | अतः प्रजाजन भूख से व्याकुल थे वे प्रभु जी से बोले प्रभु हम प्रजा जन भूख से व्याकुल आप की शरण में आए हैं आप हमारी रक्षा करें , प्रथु जी ने विचार किया कि इस पृथ्वी ने सारे अन्न को छुपा लिया है | अतः उसे मारने के लिए धनुष पर बांण चढ़ा लिया पृथ्वी उनकी शरण में आ गई और बोली–

नम। परस्मै पुरुषाय मायया विन्यस्त नानातनवे गुणात्मने |

नमः स्वरूपानुभवेन निर्धुत द्रव्य क्रियाकारक विभ्रमोर्मये ||

आप साक्षात परम पुरुष एवं आप अपनी माया से अनेक रूप धारण करते हैं, आप अध्यात्म अद्भुत आदिदेव हैं मैं आपको बार-बार नमस्कार करती हूं |

इति सप्तदशो अध्यायः

( अथ अष्टादशो अध्यायः )

पृथ्वी दोहन- पृथ्वी बोली ब्रह्मा जी के द्वारा बनाए अन्मादि को दुष्ट लोग नष्ट कर रहे थे अतः मैंने उनको अपने उदर में रखा है, अब आप योग्य बछड़ा और दोहन पात्र बनाकर उन्हें दुह लें, पृथ्वी के वचन सुनकर प्रभु जी ने मनु को बछड़ा बनाकर सारे धान्य को दुह लिया अन्य लोगों ने भी योग्य बछड़ा और दोहन पात्र लेकर अभिष्ट वस्तु दुह ली और उसके पश्चात पृथु जी ने अपने धनुष नोक से उसे समतल बना दिया |

इति अष्टादशो अध्यायः

( अथ एकोनविंशो अध्यायः )

महाराज पृथु के सौ अश्वमेघ यज्ञ- मैत्रेय जी बोले विदुर जी , सरस्वती नदी के किनारे पर पृथु ने सौ अश्वमेध यज्ञ किए इससे इंद्र को बड़ी ईर्ष्या हुई, अतः यज्ञ के घोड़े का हरण कर लिया प्रथु जी के पुत्र ने इंद्र का पीछा किया, बचने के लिए इंद्र ने साधु का भेष बना लिया | कुमार उस पर शस्त्र नहीं चलाया इस पर पृथु को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने इंद्र को मारने के लिए धनुष पर बांण उठा लिया, किंतु ऋत्यजों ने उन्हें ऐसा करने को मना कर दिया | तब ऋत्विजों ने इंद्र को भस्म करने के लिए आवाहन किया तब ब्रह्माजी ने उन्हें रोक दिया |

इति एकोनविंशो अध्यायः

( अथ विंशो अध्यायः )

महाराज पृथु की यज्ञशाला में भगवान विष्णु का प्रादुर्भाव- ब्रह्मा जी के कहने पर पृथु की यज्ञशाला में इंद्र को लेकर भगवान विष्णु प्रकट हो गए , महाराज पृथु ने उन्हें प्रणाम किया | भगवान ने इंद्र के अपराध क्षमा करवाए पृथु ने भगवान की प्रार्थना की और उनसे वरदान में हजार कान मागे, और कहा प्रभु आप की महिमा सुनने के लिए दो कान कम पड़ते हैं |भगवान उन्हें आशीर्वाद देकर अपने लोग चले गए |

इति विंशो अध्यायः

( अथ एकविशों अध्यायः )

महाराजा पृथु का अपनी प्रजा को उपदेश- महाराज पृथु ने अपनी प्रजा को उपदेश दिया कि चारों वर्णों को अपने अपने कर्तव्यों का पालन यथोचित करना चाहिए परमात्मा को कभी ना भूलें, साधु संतों का सम्मान करना चाहिए अपने राजा के उपदेश से प्रजाजन बड़े प्रसन्न हुए और उनके उपदेशों को शिरोधार्य किया |

इति एकविंशो अध्यायः

( अथ द्वाविशों अध्यायः )

महाराजा पृथु को सनकादिक का उपदेश- अपनी प्रजा को उपदेस देने के बाद महाराज पृथु के यहां सनकादि ऋषि पधारे राजा ने उनका बड़ा सम्मान किया उनकी पूजा की सनकादि ऋषियों ने राजा को परमात्मा को तत्व का ज्ञान दिया | महाराज पृथु के पांच पुत्र हुए- विजिताश्व धूम्र केश हर्यक्ष द्रविण और बृक ये सभी पराक्रमी हुए |

इति द्वाविंशो अध्यायः

श्रीमद् भागवत महापुराण संस्कृत हिंदी

( अथ त्रयोविंशो अध्यायः )

राजा पृथु की तपस्या और परलोक गमन-  चौथेपन में राजा पृथु ने समस्त पृथ्वी का भार अपने पुत्रों को सौंपकर वन के लिए प्रस्थान किया और वहां परमात्मा का भजन करते हुए अपने धाम को पधार गए |

इति त्रयोविंशो अध्यायः

( अथ चतुर्विंशो अध्यायः )

पृथु की वंश परंपरा और प्रचेताओं को भगवान रुद्र का उपदेश- मैत्रेय जी कहते हैं कि हे विदुर जी पृथु जी के पुत्र विजितास्व तथा उनके पुत्र हविर्धान के बर्हिषद नामक पुत्र हुआ, जिसका दूसरा नाम प्राचीनबर्हि था उनके प्रचेता नाम के 10 पुत्र हुए | पिता की आज्ञा से सृष्टि रचना हेतु तपस्या करने के लिए समुद्र में गए रास्ते में उन्हें शिवजी मिले उन्हें प्रणाम किया शिव जी ने प्रसन्न होकर उन्हें नारायण उपासना का ज्ञान दिया उसका भी अनुसंधान करने लगे |

इति चतुर्विंशो अध्यायः

sampurna bhagwat katha in hindi

[ चतुर्थ स्कंध ]

( अथ पंचविंशति अध्यायः)

पुरंजन उपाख्यान का प्रारंभ- शिवजी से नारायण स्तोत्र प्राप्त कर प्रचेता समुद्र में उसका जप करने लगे ! उन्हीं दिनों राजा प्राचीनबर्हि कर्मकांड में रम गए थे नारद जी ने उन्हें उपदेश दिया, नारदजी बोले राजा इन यज्ञो में जो निर्दयता पूर्वक जिन पशुओं की कि तुमने बलि दी है उन्हें आकाश में देखो यह सब तुम्हें खाने को तैयार हैं |

अब तुम एक उपाख्यान सुनो प्राचीन काल में एक पुरंजन नाम का एक राजा था उसके अभिज्ञात नाम का एक मित्र था, हिमालय के दक्षिण भारत वर्ष में नव द्वार का नगर देखा उसने उस में प्रवेश किया वहां उसने एक सुंदरी को आते हुए देखा उसके साथ दस सेवक हैं, जो सौ सौ नायिकाओं के पति थे , एक पांच फन वाला सांप उनका द्वारपाल था, पुरंजन ने उस सुंदरी से पूछा देवी आप कौन हैं ? उसने बताया कि मेरा नाम पुरंजनी  है तब तो पुरंजन बड़ा प्रसन्न हुआ और बोला देवी मेरा नाम भी पुरंजन है आप भी अविवाहिता हैं और मैं भी , क्यों ना हम एक हो लें विवाह करके दोनों विवाह सूत्र बंंध गए और सौ वर्ष तक रहकर उस पूरी में उन्होंने भोग भोगा नव द्वार कि उस पूरी से राजा पुरंजन अलग-अलग द्वारों से अलग-अलग देशों के लिए भ्रमण करता था और पुरंजनी के कहने के अनुसार चलता था | वह कहती थी बैठ जाओ तो बैठ जाता था, कहती थी उठ जाओ तो उठ जाता था इस प्रकार पुरंजन पुरंजनी के द्वारा ठगा गया |

इति पंचविंशोअध्यायः

( अथ षड्विंशो अध्यायः )

राजा पुरंजन का शिकार खेलने वन में जाना और रानी का कुपित होना- एक दिन राजा पुरंजन के मन में शिकार खेलने की इच्छा हुई, यद्यपि वह अपनी पत्नी को एक पल भी नहीं छोड़ता था पर आज वह बिना पत्नी को पूंछे शिकार के लिए चला गया | वहां वन में निर्दयता पूर्वक जंगली जीवो का शिकार किया अंत में जब थक कर भूख प्यास लगी तो वह घर को लौट आया वहां उसने स्नान भोजन कर विश्राम करना चाहा उसे अपने पत्नी की याद आई वह उसे ढूंढने लगा नहीं मिलने पर उसने दासियों से पूछा , दासियों बताओ तुम्हारी स्वामिनी कहां हैं, दासिया बोली स्वामी आज ना जाने क्यों वह बिना बिछौने कोप भवन पर धरती पर पड़ी है |

पुरंजन समझ गया कि आज मैं बिना पूछे शिकार को चला गया यही कारण है , वह उसके पास गया क्षमा याचना की खुशामद की हाथ जोड़े पैर छुए और अंत में अपनी प्रिया को मना लिया |

इति षड्विंशो अध्यायः

( अथ सप्तविंशों अध्यायः )

पुरंजन पुरी पर चंडवेग की चढ़ाई तथा काल कन्या का चरित्र- अपनी प्रिया को इस तरह मना कर वह उसके मोंह फांस में ऐसा बंध गया कि उसे समय का कुछ भान ही नहीं रहा उसके ग्यारह सौ पुत्र एक सौ दस कन्याएं हुई | इन सब का विवाह कर दिया और उनके भी प्रत्येक के सौ सौ पुत्र हुए उसका वंश खूब फैल गया , अंत में वृद्ध हो गया चण्डवेग नाम के गंधर्व राज ने तीन सौ साठ गंधर्व और इतनी ही गंधर्वियां के साथ पुरंजन पुर पर चढ़ाई कर दी वह पांच फन का सर्प अकेले ही उन शत्रुओं का सामना करते रहा | अंत में उसे बल हीन देख पुरंजन को बड़ी चिंता हुई | नारद जी बोले हे प्राचीनबर्हि राजा, एक समय काल की कन्या जरा घूमते घूमते हुए मुझे मिली वह मुझसे विवाह करना चाहती थी कि मेरे मना करने पर मेरी प्रेरणा से वह यवनराज भय के पास गई, यवन राज भय ने उससे एक बात कही मेरी सेना को साथ लेकर तुम बल पूर्वक लोगों को भोगो |

इति सप्तविंशो अध्यायः

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( अथ अष्टाविंशो अध्यायः )

पुरंजन को स्त्री योनि की प्राप्ति और अविज्ञात के उपदेश से उसका मुक्त होना- काल कन्या जरा ने यमराज की सेना के साथ पुरंजन पूरी को घेर लिया, चंडवेग पहले से ही उसे लूट रहा था अंत में पुरंजन घबराया और अपनी पत्नी से लिपट कर रोने लगा और अंत में स्त्री के वियोग में अपना शरीर छोड़ दिया उसे दूसरे जन्म में स्त्री योनि में जन्म लेना पड़ा, वहां उसका एक राजा के साथ विवाह हो गया काल बस कुछ समय पश्चात उसका पति शांत हो गया वे नितांत अकेली रह गई , शरीर कृष हो गया वह पति के लिए रोती रहती थी कि एक बार एक ब्राह्मण उसे समझाने लगे देवी तुम कौन हो किसके लिए रो रही हो मुझे पहचानती हो मैं वही पुराना तुम्हारा अभिज्ञात सखा हूं , नारद जी बोले हे प्राचीनबर्हि इस उपाख्यान से पता चलता है, एक मात्र परमात्मा का भजन ही सार है |

इति अष्टाविंशो अध्यायः

( अथ एकोनत्रिंशो अध्यायः )

पुरंजनोपाख्यान का तात्पर्य- नारद जी बोले हे प्राचीनबर्हि अब इस पुरंजन उपाख्यान का तात्पर्य सुनो यह जीव ही पुरंजन है, नौ द्वार वाला यह शरीर ही पुरंजन की पूरी है, बुद्धि ही पुरंजनी है,  दस इंद्रियां ही दस सेवक हैं, एक एक के सौ सौ सेविकाएं इंद्रियों की वृत्तियां है, पंञ्च प्राण हि पांच फन का सांप है , ईश्वर ही अभिज्ञात सखा है | इस शरीर पूरी को तीन सौ साठ दिन उतनी ही रात्रियां लूट रहे हैं , काल कन्या जरा बुढ़ापा है जो बलपूर्वक आता है | अंत में पुरी नष्ट होना ही मर जाना है | जिसकी याद में मरता है वहीं योनि दूसरे जन्म मे मिलती है, ईश्वर ही अंत में मुक्ति देता है |

इति एकोनत्रिंशो अध्यायः

( अथ त्रिंशो अध्यायः )

प्रचेताओं को भगवान विष्णु का वरदान- अपने पिता की आज्ञा से प्रचेताओं ने समुद्र में दस हजार वर्ष तक शिवजी के दिए हुए स्तोत्र से भगवान नारायण की उपासना की, भगवान नारायण ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए और कहा राजपुत्रो तुम्हारा कल्याण हो, तुमने पिता की आज्ञा से सृष्टि रचना करने के लिए तपस्या की है | अतः तुम कण्व ऋषि  के तप को नष्ट करने के लिए भेजी  प्रम्लोचा अप्सरा से उत्पन्न कन्या, जिसे छोड़कर स्वर्ग चली गई और जिसका पालन पोषण वृक्षों ने किया तुम उससे विवाह करो, तुम्हारे एक बड़ा विख्यात पुत्र होगा जिसकी संतान से सारा विश्व भर जाएगा, अब तुम अपनी इच्छा का वरदान मांग लो |

प्रचेताओं नें भगवान की स्तुति की और कहा प्रभु जब हम एक संसार में रहें आपको नहीं भूले यही वरदान आप दीजिए, भगवान एवमस्तु कहकर अपने धाम को चले गए और प्रचेताओं ने वृक्षों की कन्या मारीषा से विवाह किया जिससे उनके दक्ष नामक एक तेजस्वी पुत्र हुआ जिन्हें ब्रह्मा जी ने प्रजापतियों का अधिपति नियुक्त किया |

इति त्रिशों अध्यायः

( अथ एकत्रिंशो अध्यायः )

प्रचेताओं को नारद जी का उपदेश और उनका परम पद लाभ- एक लाख वर्ष बीत जाने पर प्रचेताओं को भगवान के भजन का ध्यान आया और वह ग्रहस्थी छोड़ वन में भगवान के भजन को चल दिए वहां उन्हें नारद जी मिले जिन्होंने प्रचेताओं को परमात्म तत्व का उपदेश दिया जिसका भजन कर प्रचेता परमधाम को चले गए और मैत्रेय जी ने भी विदुर जी को विदा कर दिया |

इति एकत्रिशों अध्यायः

इति चतुर्थ स्कन्ध समाप्त

अथ पंचमः स्कन्ध प्रारम्भ

( अथ प्रथमो अध्यायः )

प्रियव्रत चरित्र- स्वायंभू मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत परमात्मा के परम भक्त थे, मनु जी ने जब उन्हें राज्य देना चाहा तो उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया , इस पर उन्हें समझाने के लिए स्वयं ब्रह्मा नारद आदि आए और उन्हें समझाया कि सीधे-सीधे सन्यास लेने की अपेक्षा ग्रहस्थ धर्म के बाद जो सन्यास लिया जाता है वह अधिक उत्तम है |इसलिए पहले राज्य कर लें, फिर सन्यास लें पितामह ब्रह्माजी की बात प्रियव्रत ने शिरोधार्य की और उन्होंने प्रजापति विश्वकर्मा की पुत्री बर्हिष्मति से विवाह किया उनके दस पुत्र हुए जो उन्हीं के समान प्रतापी थे | उनके एक छोटी कन्या भी हुई जिनका नाम उर्जस्वती था पुत्रों में सबसे बड़े आग्नीध्र थे | एक बार उन्होंने देखा कि सूर्य का प्रकाश आधे पृथ्वी पर ही रहता है आधे में अंधेरा रहता है तो उन्होंने संकल्प पूर्वक एक प्रकाशमान रथ बनाया जिसमें बैठकर सूर्य के पीछे पीछे सात परिक्रमा लगा दी, उनके रथ के पहिओं से जो गढ्ढे हुए वे सात समुद्र बन गए जो भाग बीच में रहा वहाँ सात द्वीप बन गए ब्रह्मा जी के कहने से प्रियव्रत की यह रथ यात्रा सात दिन बाद पूर्ण हो गई | इस प्रकार कई वर्षों तक राज्य किया अन्त में उसका मन भगवान की ओर गया और अपने पुत्र को राज्य दे और वे वन गए भगवान का भजन करने के लिए वहां भगवान को प्राप्त कर लिया |

इति प्रथमो अध्यायः

( अथ द्वितीयो अध्यायः )

आग्नीध्र चरित्र- अपने पिता प्रियव्रत के वन चले जाने के बाद उनके पुत्र आग्नीध्र ने अपने पिता के सतांन नही हुई तो पित्रेश्वरों की उपासना की, ब्रह्मा जी ने उनके आशय को समझ अपनी पूर्वचित्ती अप्सरा को भेजा वह वहां पहुंची जहां अग्नीन्ध्र उपासना कर रहे थे , अप्सरा ने उनके चित्त को मोहित कर लिया, उससे उनके नौ पुत्र हुए | पूर्वचित्ति उन्हें वहीं छोड़कर ब्रह्मलोक चली गई , आग्नीध्र ने समस्त पृथ्वी के नौ भाग कर उन्हें अपने पुत्रों को सौंपा आप भी अपने पिता की तरह बन में भजन करने चले गए |

इति द्वितीयो अध्यायः

( अथ तृतीयो अध्यायः )

राजा नाभि का चरित्र- अपने पिता के वन गमन के बाद उनके पुत्र नाभि ने राज्य संभाला उनके भी कोई संतान न होने पर भगवान नारायण का यजन किया , यज्ञ में भगवान नारायण प्रकट हुए और राजा को वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने भगवान के सामान पुत्र मांगा, भगवान बोले मेरे समान कोई दूसरा नहीं है, मैं स्वयं तुम्हारे यहां आऊंगा ऐसा कर भगवान अंतर्धान हो गए | समय पाकर राजा नाभि के यहां अवतरित हुए |जिनका नाम ऋषभदेव रखा गया |

इति तृतीयो अध्यायः

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( अथ चतुर्थो अध्यायः )

ऋषभदेव जी का राज्य शासन- साक्षात भगवान को पुत्र रूप में पाकर नाभि बड़े प्रसन्न हुए कुछ समय के लिए ऋषभदेव जी ने गुरुकुल में निवास किया जहां अल्पकाल में सभी विद्याओं का अध्ययन कर लिया ! उनके गुणों की चारों ओर चर्चा होने लगी तो इंद्र ने परीक्षा के लिए उनके राज्य में वर्षा नहीं की तो ऋषभदेव जी ने अपने योग बल से वर्षा करा ली , इससे इंद्र बड़ा लज्जित हुआ और उसने अपनी जयंती नाम की पुत्री उन्हें ब्याह दी | राजा नाभि ने अपने पुत्र को सब तरह योग्य समझ उन्हें राजा बना , आप वन में चले गए भजन करने के लिए | ऋषभदेव ने जयंती से सौ पुत्र उत्पन्न किए जिनमें सबसे बड़े भरत हुए जिनके नाम पर अजनाभखंड का नाम भारतवर्ष हुआ, इनसे छोटे नौ भी भरत के समान ही महान हुए, उनसे छोटे नो योगी जन हुए जिनका वर्णन एकादश स्कंध में होगा , शेष इक्यासी कर्मकांडी हुए जो अंत में ब्राम्हण बन गए उन्होंने कयी यज्ञ किए |

इति चतुर्थो अध्यायः

( अथ पंचमो अध्यायः )

ऋषभ जी का अपने पुत्रों को उपदेश तथा स्वयं अवधूत वृत्ति धारण करना- ऋषभदेव जी ने अपने पुत्रों को उपदेश दिया कि मनुष्य का कर्तव्य केवल विषय वासनाओं की पूर्ति नहीं है, बल्कि उनसे दूर रहकर भगवान का भजन करने में उनकी सार्थकता है | विषय भोग तो कूकर सूकर भी भोंगते हैं, वहां बैठे हुए ब्राह्मणों को संबोधित करते हुए बोले- मुझे ब्राह्मणों से बढ़कर कोई प्रिय नहीं है, जो उनके मुख में अन्न डालता है उससे मेरी तृप्ती होती है | इस प्रकार उपदेश देकर भरत को राज्य दे स्वयं वन में चले गए , वहां उन्होंने अवधूत वृत्ति धारण कर ली, पागलों की तरह रहते, वस्त्र नहीं पहनते, अपने ही मल में लोट जाते पर उसमें दुर्गंध नहीं सुगंध आती थी | उनके पास कई रिद्धि-सिद्धि आई उन्होंने स्वीकार नहीं किया |

इति पंचमो अध्यायः

संपूर्ण भागवत कथा इन हिंदी bhagwat katha in hindi

( अथ षष्ठो अध्यायः )

ऋषभदेव जी का देह त्याग- अवधूत वृत्ति में घूमते घूमते ऋषभदेव जी ने अपनी आत्मा को परमात्मा में लीन कर देह को दावाग्नि में जलाकर भस्म कर दिया | जिस समय कलयुग में अधर्म की बुद्धि होगी उस समय कोंक वेंक और कुटक देश का मंदमति राजा अर्हत वहां के लोगों से ऋषभदेव जी के आश्रमातीत आचरण का वृत्तांत सुनकर तथा स्वयं उसे ग्रहण कर लोगों के पूर्व संचित पाप फल रूप होनहार के वशीभूत होकर भय रहित स्वधर्म पथ का परित्याग करके अपनी बुद्धि से अनुचित और पाखंड पूर्ण कुमार्ग का प्रचार करेगा | उसे कलयुग में देवमाया से मोहित अनेकों अधम मनुष्य अपने शास्त्र विहित शौच आचार को छोड़ बैठेंगे | अधर्म बाहुल्य कलयुग के प्रभाव से बुद्धि हीन हो जाने के कारण वे स्नान न करना, आचमन न करना, अशुद्ध रहना, केश नुचवाना आदि ईश्वर का तिरस्कार करने वाले पाखंड धर्मों को मनमाने ढंग से स्वीकार करेंगे और प्रायः वेद, ब्राम्हण और भगवान यज्ञ पुरुष की निंदा करने लगेंगे |

इति षष्ठो अध्यायः

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( अथ सप्तमो अध्यायः )

भरत चरित्र- अपने पिता के चले जाने के बाद भरत जी राज्य सिंहासन पर बैठे, विश्वरूप भ

की कन्या पंचजनी से विवाह किया, जिससे पांच पुत्र हुए, वे उन्हीं के समान थे | धर्म पूर्वक राज्य करने के बाद वे वन में भजन करने को गण्डकी के तीर पर पुलह आश्रम पर चले गए और भगवान का भजन करने लगे |

इति सप्तमो अध्यायः

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( अथ अष्टमो अध्यायः )

भरत जी का मृग मोह में फंसकर मृग योनि में जन्म लेना- एक दिन भरत जी गंडकी नदी के किनारे भजन कर रहे थे, सहसा एक सिंह की दहाड़ हुई उससे घबराकर एक हिरनी ने नदी को पार करने के लिए छलांग लगाई , जिससे उसका गर्भ का बच्चा नदी में गिर गया और हिरणी दूसरी तरफ जाकर मर गई , भरत जी ने देखा कि हरनी का बालक पानी में बह रहा है, दया बस दौड़कर उसे उठा लिया और उसका पालन-पोषण करने लगे | धीरे-धीरे उनका भजन छूटता गया और मृग में मोह बढ़ता गया, एक दिन मृग समाप्त हो गया और उसके बिरह में भरत जी ने भी शरीर त्याग मृग योनि में जन्म लिया, किंतु उन्हें पूर्व जन्म की स्मृति थी वे पुनः आसक्ती ना हो जाए मृगों से भी दूर ही रहने लगे और अंत में गंडकी में अपने शरीर को छोड़ दिया |

इति अष्टमो अध्यायः

( अथ नवमो अध्यायः )

भरत जी का ब्राह्मण कुल में जन्म- आंगीरस गोत्र के एक ब्राम्हण परिवार में आपका दूसरा जन्म हुआ , वहां भी आप की पूर्व जन्म की स्मृति बनी रही, उनकी बड़ी माता से उनके पांच भाई थे और कहीं पुनः आसक्ती ना हो जाए इस भय से वे पागलों की तरह रहते थे , पिता ने उनका यगोपवित संस्कार कर दिया बचपन में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो गया | विमाता कुछ दे देती उसे ही खाकर वे संतुष्ट रहते , चारों ओर भ्रमण करते रहते थे | एक बार डाकू ने ने पकड़ लिया और भद्रकाली की भेंट चढ़ाने को इन्हें ले गए अपनी पद्धति के अनुसार उन्हें पहले स्नान करवाया फिर मधुर भोजन करवाया और फिर भद्रकाली के सामने बलि देने के लिए ले गए वे हर परिस्थिति में प्रसन्न थे, तलवार निकालकर जब उन्हें मारने को उद्यत हुए फिर भी वह प्रसन्न थे, किंतु परमात्मा के भक्तों का अपने सामने वध देवी को स्वीकार नहीं हुआ, देवी ने चोरों के हाथ से तलवार छीन ली और उन्हें मौत के घाट उतार कर भगवान के भक्तों की रक्षा की |

इति नवमो अध्यायः

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( अथ दशमो अध्यायः )

जड़ भरत और राजा रहूगण की भेंट- एक समय सिंधुसौवीर्य देश का राजा रहूगण अपनी पालकी में बैठकर कहीं जा रहा था, रास्ते में उसकी पालकी का एक कहार बीमार हो गया तो उसे उसने पास ही खड़े भरत जी को पालकी में जोत लिया | उसका भी उन्होंने कोई विरोध नहीं किया किंतु वे रास्ते के जीवो को बचाते हुए टेढ़ी-मेढ़ी चाल चलने लगे तो पालकी डोलने लगी रहूगण ने कहारों को डांटते हुए कहा यह कौन मूर्ख है जो पालकी को ठीक से नहीं ढोता | कहार बोले यह नया कहार ठीक से नहीं चलता, राजा ने भरत जी को डांटते हुए कहा अरे तू मेरे राज्य का अन्न खाकर मोटा हो रहा है और काम नहीं करता, डंडे से तेरी इतनी मार लगाऊंगा कि ठीक हो जाएगा | भरत जी ने मौन तोड़ा और बोले मोटा ताजा शरीर है आत्मा सबकी समान है फिर मार भी यह शरीर खाएगा , मैं तो सुख दुख से परे हूँ, यह सुन कर रहूगण ने देखाकि अरे यह तो कोई संत है , पालकी से नीचे उतर भरत जी के चरणों में गिर गया |

इति दशमो अध्यायः

( अथ एकादशो अध्यायः )

राजा रहूगण को भरत जी का उपदेश- भरत जी बोले राजा आत्मा और शरीर दोनों अलग-अलग हैं जिन्होंने इस शरीर को ही आत्मा समझा है वह ठीक नहीं है शरीर तो जड़ है जो मरता रहता है किंतु आत्मा कभी नहीं मरती , आत्मा परमात्मा का ही अंश अविनाशी तत्व है |

इति एकादशो अध्यायः

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( अथ द्वादशो अध्यायः )

रहूगण का प्रश्न और भरत जी का समाधान- राजा रहूगण बोले प्रभु आप साक्षात परमात्मा रुप हैं |आपने जो उपदेश मुझे किया उसे और ठीक से समझाएं , भरत जी बोले राजन तुम जो यह समझते हो कि मैं पृथ्वी का स्वामी हूं तो ना जाने कितनी राजा इस धरती पर आए और चले गए किंतु यह धरती किसी की भी नहीं हुई , संसार में जीव आता है और प्रभु को भूल मैं मेरेपन के चक्कर में पड़ जाता है , अतः एकमात्र परमात्मा ही सत्य है |

इति द्वादशो अध्यायः

( अथ त्रयोदशो अध्यायः )

भवाटवी का वर्णन और रहूगण का संशय नाश-  भरत जी बोले हे राजा संसार के समस्त जीव एक व्यापारियों का मंडल जैसा है, यह व्यापारी व्यापार के लिए घूमते घूमते संसार रूपी जंगल में आ गए, उस जंगल में छह डाकू हैं, इन व्यापारियों को लूट लेते हैं, इस जंगल में रहने वाले हिंसक पशु भी उन्हें नोचते हैं, इस जंगल मे बड़े झाड़ झंकाड है जिसमें यह भटकते रहते हैं, कभी प्यास से व्याकुल हो जाते हैं | आपस में द्वेष भी करते हैं , विवाह संबंध भी करते हैं, वे इस जगंल में ना जाने कबसे घूम रहे हैं पर अपने लक्ष्य पर अब तक नहीं पहुंचे | राजा बोले अहो यह मनुष्य जन्म ही सर्वश्रेष्ठ है, जहां आप जैसे योगी पुरुषों का संग तो कल्याणकारी है |

इति त्रयोदशो अध्यायः

संपूर्ण भागवत कथा इन हिंदी bhagwat katha in hindi

( अथ चतुर्दशो अध्यायः )

भवाटवी का स्पष्टीकरण- श्री शुकदेव जी कहते हैं कि यह संसार ही जंगल है, मन सहित छः इंद्रियां ही छः डाकू हैं, सगे संबंधी ही सब जंगली जीव हैं, स्त्री पुत्र आदि का मोह ही झाड़ झंकाड है | इस प्रकार संसार को ही जंगल कहा गया है |

इति चतुर्दशो अध्यायः

( अथ पंचदशो अध्यायः )

भरत के वंश का वर्णन- भरत जी का पुत्र सुमति था, उसने ऋषभदेव जी के मार्ग का अनुसरण किया इसलिए कलयुग में बहुत से पाखंडी अनार्य  वेद विरुद्ध कल्पना करके उसे देवता मानेंगे इनके वंश में एक गय नाम के प्रतापी राजा हुए, उन्होंने कई यज्ञ किए थे |

इति पंचदशो अध्यायः

( अथ षोडशो अध्यायः )

भुवन कोश का वर्णन- श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित, जहां तक सूर्य का प्रकाश जहां तक तारागण दिखते हैं वहां तक भूमंडल का विस्तार है , हम जहां निवास करते हैं उसे जंबूद्वीप कहते हैं | भागवत जी में जो नाम दिए हैं, वर्तमान में जो नाम उनसे भिन्न हैं, अतः समझने में कठिनाई है , एशिया महाद्वीप जंबूद्वीप है, इसी तरह छः अन्य द्वीपों के नाम आजकल जो प्रचलन में है वे यूरोप, दक्षिणी अमेरिका, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, उत्तरी अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया है इन महाद्वीपों के भीतर जो देश स्थित हैं, उन्हें ही वर्ष कहा गया है | भारतवर्ष का नाम यथावत है अन्य किं पुरुष ही चीन है हरि वंश तिब्बत आदि देशों का वर्णन है |

इति षोडशो अध्यायः

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( अथ सप्तदशो अध्यायः )

गंगा जी का वर्णन शंकर कृत संकर्षण देव की स्तुति- श्री शुकदेव जी बोले परीक्षित, जब वामन अवतार के समय भगवान ने तीन पैर में पृथ्वी नापने के लिए अपना पैर बढ़ाया तो उनके पैर के अंगूठे से ब्रह्मांड का ऊपरी भाग फट गया तो उस छिद्र से जो जल आया ब्रह्मा जी ने उस जल से भगवान के चरण को धोया, वही चरण धोबन भगवान विष्णुपदी गंगा है | राजा भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न हो ब्रह्मा जी ने धरती पर भेजा जो तीन धारा में विभक्त हो गई भागीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी तीनों मिलकर भारत को सींचती हुयी समुद्र में जा गिरी |

इति सप्तदशो अध्यायः

( अथ अष्टादशो अध्यायः )

भिन्न-भिन्न वर्षों का वर्णन- जैसे जंबूद्वीप में नववर्ष हैं उसी तरह अन्य द्वीपों में भी अनेक वर्ष हैं, सभी वर्षों में भगवान के अनेक स्वरूपों की अलग-अलग पूजा होती है |

इति अष्टादशो अध्यायः

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( अथ एकोनविंशो अध्यायः )

किंपुरुष और भारतवर्ष का वर्णन- किं पुरुष वर्ष में लक्ष्मण जी के बड़े भाई आदि पुरुष सीता हृदयाभि राम भगवान श्री राम के चरणों की सन्निधि के रसिक परम भागवत श्री हनुमान जी अन्न किन्नरों के सहित अविचल भक्ति भाव से उनकी उपासना करते हैं | भारतवर्ष में भी भगवान दयावश नर नारायण का रूप धारण करके, संयम शील पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिए अव्यक्त रूप से कल्प के अंत तक तप करते रहते हैं, वहां नारद जी सावर्णि मनु को पांच रात्रगम का उपदेश कराने के लिए भारत की प्रजा के साथ भगवान नर नारायण की उपासना करते हैं |

इति एकोनविंशो अध्यायः

( अथ विंशो अध्यायः )

अन्य छः द्वीप तथा लोकालोक पर्वत का वर्णन- जैसे जंबूद्वीप एशिया महाद्वीप है ऐसे ही अन्य

छः दीपों के नाम भी आज के नामों से भागवत में भिन्न हैं, उनको समझने के लिए प्रचलित नाम ही उपयुक्त रहेंगे यह नाम हैं- यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिणी अमेरिका, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, उत्तरी अफ़्रीका इस तरह समस्त पृथ्वी सातद्वीपों में विभक्त है |

इति विंशो अध्यायः

( अथ एकविंशो अध्यायः )

सूर्य के रथ और उसकी गति का वर्णन- श्री शुकदेव जी कहते हैं कि भूलोक के समान ही द्युः लोक हैं दोनों के बीच में अंतरिक्ष लोक है | अंतरिक्ष लोक में भगवान सूर्य तीनों लोकों को प्रकाशित करते रहते हैं | ये उत्तरायण व दक्षिणायन गतियों से चलते हुए दिन रात को छोटा बड़ा करते हैं | जब सूर्य मेष या तुला राशियों पर होते हैं दिन रात बराबर होते हैं , वृष आदि पांच राशियों पर दिन एक एक घड़ी बढ़ता रहता है और रात्रि छोटी होती रहती है, वृश्चिक आदि पांच राशियों पर रात्रि बढ़ती रहती है और दिन छोटे होते रहते हैं |

इति एकविंशो अध्यायः

( अथ द्वाविशों अध्यायः )

भिंन्न भिंन्न ग्रहों की स्थिति और गति का वर्णन-  समस्त आकाश को बारह भागों में बांट कर उन्हें राशि नाम दिया गया है, तथा सत्ताइस उप भागों में बांट कर उसे नक्षत्र नाम दिया गया है, पृथ्वी के सबसे नजदीक चंद्रमा है यह एक नक्षत्र को एक दिन में तथा एक राशि को सवा दो दिनों में बारह राशियों को एक माह में पार कर लेता है, इससे आगे मंगल यह एक राशि पर डेढ़ माह रहता है, गुरु एक राशि को तेरह माह में पार करता है, शुक्र बुध और सूर्य लगभग थोड़ा आगे पीछे साथ ही रहते हैं एक माह में एक राशि पार करते हैं और बारह राशियों को एक वर्ष में पूरा करते हैं | सबसे मंद गति शनि की है यह ढाई वर्ष में एक राशि पार करता है |

इति द्वाविंशो अध्यायः

( अथ त्रयोविंशो अध्यायः )

शिशुमार चक्र का वर्णन- श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित ! ध्रुव लोक के सप्त ऋषि सहित सभी नवग्रह, नक्षत्र परिक्रमा करते हैं , परिक्रमा मार्ग में जो तारों का समूह है आकाश में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है इसे आकाशगंगा भी कहते हैं, यही शिशुमार चक्र है |

इति त्रयोविंशो अध्यायः

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( अथ चतुर्विंशो अध्यायः )

राहु आदि की स्थिति अतलादि नीचे के लोकों का वर्णन- सूर्यलोक और चंद्रलोक के बीच में राहु का लोक है यह यद्यपि राक्षस है, भगवान की कृपा से इसे देवत्व प्राप्त हुआ है अमृत वितरण के समय सूर्य और चंद्रमा के बीच बैठ गया था उन्होंने इसका भेद खोल दिया तभी से राहु इनसे शत्रुता रखता है इसलिए अमावस्या पूर्णिमा को राहु इन्हें ग्रसता है इसे ग्रहण कहते हैं | पृथ्वी के नीचे अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, महातल और पाताल ये सात लोक हैं |

इति चतुर्विशों अध्यायः

( अथ पंचविशो अध्यायः )

श्री संकर्षणदेव का विवरण और स्तुति- श्री शुकदेव जी कहते हैं राजन ! पाताल के नीचे तीस हजार योजन की दूरी पर अनंत नाम से विख्यात भगवान की तामसी नित्य कला है | यह अहंकार रूपा होने से दुष्टा और दृश्य को खेंचकर एक कर देती है , इसलिए पांच रात्र आगम के अनुयाई इसे संकर्षण कहते हैं | इनके हजार मस्तक हैं जिनमें से एक पर रखा हुआ यह भूमंडल सरसों के दाने के बराबर है | प्रलय काल में इनसे असंख्य रूद्र गण उत्पन्न होकर सृष्टि का संहार करते हैं | ऐसे अनंत भगवान को हम प्रणाम करते हैं |

इति पंचविंशों अध्यायः

( अथ षडविंशो अध्यायः )

नरकों की विभिन्न गतियों का वर्णन- शुकदेव बोले दक्षिण में नरक लोक में पितृराज सूर्यपुत्र यम राज्य करते हैं उनके समीप ही एक और पितृ लोक दूसरी ओर अनेक प्रकार के नर्क हैं | जिनमें मरने के बाद पापियों को अपने पापों की सजा दी जाती है | ये पापों के अनुसार कई प्रकार के हैं |

इति षडविंशो अध्यायः

इति पंचम स्कन्ध समाप्त

अथ षष्ठः स्कन्ध प्रारम्भ

( अथ प्रथमो अध्यायः )

अजामिल उपाख्यान- श्री सुखदेव जी बोले राजन बड़े-बड़े पापों का प्रायश्चित एकमात्र भगवान की भक्ति है इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं ! कान्यकुब्ज नगर में एक दासी पति ब्राह्मण रहता था उसका नाम अजामिल था वह ब्राह्मण कर्म से भ्रष्ट अखाद्य वस्तुओं का सेवन करने वाला पराए धन को छल कर लूटने वाला बड़ा अधर्मी था | एक बार कुछ महात्मा उस पर कृपा करने को आए उसकी पत्नी गर्भवती थी महात्माओं ने ब्राह्मण से कहा अब जो पुत्र हो उसका नाम नारायण रख देना | अजामिल ने अपने छोटे पुत्र का नाम नारायण रख दिया वह नारायण को बहुत प्यार करता था उसे बार-बार नारायण नाम लेकर बुलाता था , एक दिन उसे लेने के लिए यमदूत आ गए वे बडे भयंकर थे उन्हें देख घबराकर अजामिल ने नारायण को पुकारा भगवान के पार्षदों ने देखा यह अन्त समय में हमारे स्वामी भगवान का नाम ले रहा है वे भी वहां पहुंचे और यमदूतों को मार कर हटा दिया | और उनसे पूंछा तुम कौन हो इस पर यमराज के दूत बोले हम धर्मराज के दूत हैं, नारायण पार्षद बोले क्या तुम धर्म को जानते हो ? यमराज के दूत बोले जो वेदों में वर्णित है वही धर्म है , उससे जो विपरीत है वह अधर्म है | हे देवताओं आप तो जानते हैं यह कितना पापी है, अपनी विवाहिता पत्नी को छोड़कर वैश्या के साथ रहता है, यह ब्राह्मण धर्म को छोड़ अखाद्य वस्तुओं का सेवन करता है, इसे हम धर्मराज के पास ले जाएंगे इसे दंड मिलेगा तब यह शुद्ध होगा |

इति प्रथमो अध्यायः

( अथ द्वितीयो अध्यायः )

विष्णु दूतों द्वारा भागवत धर्म निरूपण और अजामिल का परमधाम गमन- विष्णु दूत बोले यमदूतो तुम नहीं जानते हो कि शास्त्रों में पापों के कई चंद्रायण व्रत आदि प्रायश्चित बताए हैं, फिर अंत समय में जो भगवान नारायण का नाम ले लेता है उससे बड़ा तो कोई प्रायश्चित है ही नहीं | इसलिए तुम अजामिल को छोड़ जाओ और जाकर अपने स्वामी से पूछो, इतना सुनकर यमदूत वहां से चले गए और भगवान के पार्षद भी अंतर्ध्यान हो गए तब अब अजामिल को ज्ञान हुआ यह क्या सपना था वह यमदूत कहां चले गए और भगवान के पार्षद भी कहां चले गए , उसे ज्ञान हो गया और वह घर छोड़कर हरिद्वार चला गया और भगवान का भजन करके भगवान को प्राप्त कर लिया |

इति द्वितीयो अध्यायः

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( अथ तृतीयो अध्यायः )

यम और यमदूतों का संवाद- यमदूतों ने जाकर यमराज से पूछा स्वामी क्या आप से भी बड़ा कोई दंडाधिकारी है ? धर्मराज बोले हां भगवान नारायण सबके स्वामी हैं, उनके भक्तों के पास नहीं जाना चाहिए वह कितने भी पापी हो मेरे जैसे कई दंडाधिकारी उनके चरणों में नतमस्तक हैं |

इति तृतीयो अध्यायः

( अथ चतुर्थो अध्यायः )

दक्ष के द्वारा भगवान की स्तुति और भगवान का प्रादुर्भाव- श्री शुकदेव जी बोले परीक्षित जब प्रचेताओं ने वृक्षों की कन्या मारीषा से विवाह किया उससे उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम हुआ दक्ष था, प्रजा के सृष्टि के लिए उसने अघमर्षण तीर्थ में जाकर तपस्या की, हंसगुह्य नामक स्तोत्र से भगवान की स्तुति की जिससे प्रसन्न होकर भगवान उसके सामने प्रकट हो गए और बोले दक्ष मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ, यह पंचजन्य प्रजापति की कन्या अस्क्नि है तुम इसे पत्नी के रूप में स्वीकार करो जिससे तुम बहुत सी प्रजा उत्पन्न कर सकोगे , इतना कह भगवान अंतर्धान हो गए |

इति चतुर्थो अध्यायः

( अथ पंचमो अध्यायः )

नारद जी के द्वारा दक्ष पुत्रों की विभक्ति तथा नारदजी को दक्ष का श्राप- श्री शुकदेव जी बोले दक्ष ने असिक्नि के गर्भ से दस हजार पुत्र पैदा किए, यह सब हर्यश्व कहलाए ये सब नारायणसर नामक तीर्थ में जाकर तपस्या करने लगे तो नारद जी आए और बोले हर्यश्वो तुम सृष्टि रचना के लिए तप कर रहे हो, क्या तुमने पृथ्वी का अंत देखा है, क्या तुम जानते हो एक ऐसा देश है जिसमें एक ही पुरुष है, एक ऐसा बिल है जिससे निकलने का रास्ता नहीं है, एक ऐसी स्त्री है जो बहूरूपड़ी है, एक ऐसा पुरुष है जो व्यभिचारिणी का पति है, एक ऐसी नदी है जो दोनों ओर बहती है , ऐसा घर है जो पच्चीस चीजों से बना है, एक ऐसा हंस है जिसकी कहानी बड़ी विचित्र है, एक ऐसा चक्र है जो छूरे और वज्र से बना है जो घूमता रहता है इन सब को जब तक देख ना लोगे कैसे सृष्टि करोगे ? हर्यश्व नारद जी की पहेली को समझ गए कि उपासना के योग्य तो केवल एक नारायण ही है वह उस परमात्मा की उपासना कर परम पद को प्राप्त हो गए | दक्ष को मालूम हुआ तो उसे बड़ा दुख हुआ उसने एक हजार पुत्रों को जन्म दिया और वह भी तपस्या करने गए नारद जी के उपदेश से उन्होंने भी बड़े भाइयों का अनुसरण किया, तब दक्ष को बड़ा क्रोध आया उसने नारद जी को श्राप दे दिया तुम कहीं भी एक जगह पर नहीं टिक सकोगे, संसार में घूमते रहोगे | इससे नारद जी बड़े प्रसन्न हुए |

इति पंचमो अध्यायः

( अथ षष्ठो अध्यायः )

दक्ष की साठ कन्याओं का वंश वर्णन- अपने ग्यारह हजार पुत्रों के विरक्त हो जाने पर दक्ष ने अपनी भार्या से साठ कन्याएं पैदा की इनको उन्होंने दस धर्म को, तेरह कश्यप को, सत्ताइस चंद्रमा को, दो भूतों को, दो अंगिरा को, दो कृश्वास को, शेष तार्कक्ष्य नाम धारी कश्यप को ही ब्याह दी इनकी संतानों से सृष्टि का बहुत विस्तार हुआ |

इति षष्ठो अध्यायः

( अथ सप्तमो अध्यायः )

बृहस्पति जी के द्वारा देवताओं का त्याग और विश्वरूप को देवगुरु के रूप में वरण- श्री शुकदेव जी बोले परीक्षित त्रिलोकी का ऐश्वर्य पाकर देवराज इंद्र को घमंड हो गया था, इसलिए वे मर्यादाओं का उल्लंघन करने लगे | एक समय की बात है जब देवराज इंद्र अपनी सभा में ऊंचे सिंहासन पर अपनी पत्नी सची देवी के साथ बैठे थे तभी गुरु बृहस्पति वहां आ गए उन्हें देख इन्द्र ना तो खड़ा हुआ ना ही उनका कोई सम्मान किया,  यह देख बृहस्पति जी वहां से चुपचाप चल दिए कुछ देर बाद इंद्र को चेत हुआ, उन्होंने बृहस्पति को ढुड़ावाया पर वह कहीं नहीं मिले, इस पर इंद्र को बड़ा दुख हुआ इस बात का पता राक्षसों को लग गया उन्होंने देवताओं पर चढ़ाई कर दी और उन्हें भगा दिया | सब देवता ब्रह्मा जी की शरण में गए ब्रह्मा जी ने पहले तो उनसे बहुत बुरा भला कहा और फिर कहा जाओ शीघ्र ही त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप को अपना गुरु बनाओ, सभी देवता विश्वरूप के पास पहुंचे और उन्हें अपना पुरोहित बना लिया, विश्वरूप ने ब्रम्हविद्या के द्वारा देवताओं का स्वर्ग उन्हें दिला दिया |

इति सप्तमो अध्यायः

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( अथ अष्टमो अध्यायः )

नारायण कवच का उपदेश- विष्णु गायत्री में भगवान के तीन नाम प्रधान हैं-

नारायण विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णु प्रचोदयात ||

नारायण वासुदेव और विष्णु इन तीनों के तीन मंत्र ओम नमो नारायणाय अष्टाक्षक मंत्र, ओम नमो भगवते वासुदेवाय द्वादश अक्षर मंत्र , तीसरा ॐ विष्णवे नमः षडाक्षर मंत्र इन तीनों मंत्रों के एक-एक अक्षर का अपने अंगों में न्यास करें फिर अन्य नाम जो कवच में है उन नामों को अपने अंगों में रक्षा के लिए प्रतिष्ठित करें यह भगवान के नामों का बड़ा उत्तम कवच है |

इति अष्टमो अध्यायः

( अथ नवमों अध्यायः )

विश्वरूप का वध वृत्रासुर द्वारा देवताओं की हार भगवान की प्रेरणा से देवताओं का दधीचि ऋषि के पास जाना- श्री शुकदेव जी बोले विश्वरूप के तीन सिर थे एक से देवताओं का सोम रसपान करते, दूसरे से सुरा पान करते, तीसरे से अन्न खाते थे | वे यज्ञ के समय उच्च स्वर से देवताओं को आहूति देते और चुपके से राक्षसों को भी आहुति देते क्योंकि उनकी माता राक्षस कुल की थी |.जब इंद्र को इस बात का पता चला उन्होंने वज्र से विश्वरूप के तीनों सिर काट दिए जिससे उन्हें ब्रहम हत्या का दोष लगा | उसे उन्होंने चार हिस्सों में एक जल को दूसरा पृथ्वी को तीसरा वृक्षों को चौथा स्त्रियों को बांट दिया | जब  विश्वरूप के पिता को मालूम हुआ तो उन्होंने एक तामसिक यज्ञ किया है, इंद्र शत्रु तुम्हारी अभिवृद्धि हो और शीघ्र ही तुम अपने शत्रु को मार डालो यज्ञ के बाद अग्नि से एक भयंकर दैत्य पैदा हुआ उसका नाम था वृत्तासुर उसने त्रिलोकी को अपने वश में कर लिया, उससे घबराकर सब देवता भगवान की शरण में गए , भगवान बताये तुम दधीचि के पास जाओ और उनसे उनकी हड्डियों की याचना करो उसी से वज्र बनाकर वृत्त्तासुर से युद्ध करो, तब वह राक्षस मारा जाएगा |

इति नवमो अध्यायः

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[ षष्ठम स्कन्ध ]

( अथ दशमो अध्यायः )

देवताओं द्वारा दधीचि ऋषि की अस्थियों से वज्र निर्माण और वृत्तासुर की सेना पर आक्रमण- भगवान की ऐसी आज्ञा सुन देवता दधीचि ऋषि के पास पहुंचे और उनसे उनकी अस्थियों की याचना की, ऋषि ने भगवान की आज्ञा जान योगाग्नि से अपना शरीर दग्ध कर अपनी अस्थियां देवताओं को दे दी | देवताओं ने उससे अनेक शस्त्रों का निर्माण किया और वृत्रासुर पर टूट पड़े | शत्रुओं ने भी खूब बांण बरसाए पर वे देवताओं को छू भी नहीं सके तो राक्षस सेना तितर-बितर होने लगी तो वृत्रासुर अपने सैनिकों को कहने लगा सैनिकों जिसने संसार में जन्म लिया है अवश्यंभावी है कि वह मरेगा फिर ऐसा मौका क्यों खोते हो वीरगति को प्राप्त होकर स्वर्ग प्राप्त करोगे |

इति दशमो अध्यायः

( अथ एकादशो अध्यायः )

वृत्रासुर की वीर वाणी और भगवत प्राप्ति- बृत्रासुर ने देखा कि उसकी सेना रोकने पर भी नहीं रुक रही है, उसने अकेले ही देवसेना का मुकाबला किया एक हुंकार ऐसी लगाई जिससे सारी देवसेना भयभीत होकर गिर गई और उसे रौदनें लगा, इंद्र ने उसे रोका तो एरावत को गिरा दिया और स्वयं भगवान की प्रार्थना करने लगा-

अहं हरेतव पादेक मूल दासानुदासो भवितास्मि भूयः |

मनः स्मरेतासुपते र्गुणास्ते गृणीत वाक् कर्म करोतु कायः ||

हे प्रभु आप मुझ पर ऐसी कृपा करें अनन्य भाव से आपके चरण कमलों के आश्रित सेवकों की सेवा करने का मुझे मौका अगले जन्म में प्राप्त हो , मेरा मन आपके मंगलमय गुणों का स्मरण करता रहे और मेरी वाणी उन्हीं का गान करे | शरीर आपकी सेवा में लग जाए |

इति एकादशो अध्यायः

( अथ द्वादशो अध्यायः )

वृत्रासुर का वध- वृत्रासुर बड़ा वीर है और भगवान का भक्त भी वह भगवान की प्रार्थना कर युद्ध में वीरगति को प्राप्त होना चाहता था ताकि वह भगवान को प्राप्त हो सके , युद्ध में उसने इंद्र को निशस्त्र कर दिया पर उसे मारा नहीं इंद्र वज्र उठाकर अपने शत्रु को मार डालो इन्द्र ने गदा उठाकर बृत्रासुर पर प्रहार किया और बृत्रासुर का वध कर दिया |

इति द्वादशो अध्यायः

( अथ त्रयोदशो अध्यायः )

इंद्र पर ब्रहम हत्या का आक्रमण- ब्रह्महत्या के भय से इंद्र वृत्रासुर को मारना नहीं चाहता था किंतु ऋषियों ने जब कहा कि इंद्र ब्रहम हत्या से मत डरो हम अश्वमेघ यज्ञ कराकर तुम्हें उससे मुक्त करा देंगे तब इंद्र ने वृत्रासुर को मारा था, जब ब्रह्महत्या इंद्र के सामने आई तो ऋषियों ने उसे अश्वमेघ यज्ञ के द्वारा मुक्त कराया |

इति त्रयोदशो अध्यायः

( अथ चतुर्दशो अध्यायः )

वृत्रासुर का पूर्व चरित्र- राजा परीक्षित बोले- भगवन बृत्रासुर तो बड़ा तामसिक था उसकी भगवान के चरणों में ऐसी बुद्धि कैसे हुई ? शुकदेव जी बोले मैं तुम्हें एक प्राचीन इतिहास सुनाता हूं सूरसेन देश में एक चक्रवर्ती सम्राट चित्रकेतु राज्य करते थे उनके एक करोड़ पत्नियां थी परंतु किसी के भी संतान नहीं थी एक बार अंगिरा ऋषि उनके यहां आए राजा ने उनकी पूजा की ऋषि ने राजा की कुशल पूछी तो चित्रकेतु ने कहा प्रभु आप त्रिकालग्य हैं सब जानते हैं, कि सब कुछ होते हुए भी मेरे कोई संतान नहीं है , कृपया आप मुझे संतान प्रदान करें | इस पर ऋषि त्वष्टा ने देवता का यजन करवाया जिससे उसकी छोटी रानी कृतद्युति को एक पुत्र की प्राप्ति हुई , जिसे सुनकर प्रजा में खुशी की लहर दौड़ गई | रानियों को इससे ईर्ष्या हो गई और उन्होंने समय पाकर बालक को जहर दे दिया पालने में सोते हुए बालक को जब दासी ने देखा वह जोर-जोर रोने लगी उसने उसके रोने की आवाज सुनी कृतद्युति वहां आई और जब देखा कि पुत्र मर गया तो रोने लगी, जब राजा को मालूम हुआ वह भी रोने लगा | तब अंगिरा ऋषि नारद जी के साथ वहां आए |

इति चतुर्दशो अध्यायः

( अथ पंचदशो अध्यायः )

चित्रकेतु को अंगिरा और नारद जी का उपदेश- राजा चित्रकेतु को यों विलाप करते देख दोनों ऋषि उन्हें समझाने लगे राजन इस संसार में जो आता है वह जाता भी अवश्य है, फिर किसी जीव के साथ हमारा कोई संबंध नहीं है, किसी जन्म में कोई बाप बन जाता है कोई बेटा, दूसरे जन्म में वही बेटा बाप और बाप बेटा बन जाता है |इसीलिए शोक छोड़ कर मैं जो मंत्र देता हूं उसे सुनो इससे सात रात में तुम्हें संकर्षण देव के दर्शन होंगे उनके दर्शन से तुम्हें परम पद प्राप्त होगा |

इति पंचदशो अध्यायः

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( अथ शोडषो अध्यायः )

चित्रकेतु को वैराग्य और संकर्षण देव के दर्शन- शुकदेव बोले राजन ! तदन्तर नारद जी ने मृत शरीर में उस जीव को बुलाया और कहा जीवात्मन देखो तुम्हारे लिए यह तुम्हारे माता-पिता दुखी हो रहे हैं, तुम इस शरीर में रहो और उन्हें सुख पहुंचाओ और तुम भी राजा बनकर सुख भोगो | इस पर जीव बोलने लगा–

कस्मिन् जन्मन्यमी मह्यम पितरं मातरोभवन् |

कर्मभि भ्राम्यमाणस्य देवतिर्यन्नृयोनिषु ||

जीव बोला देवर्षि मैं अपने कर्मों के अनुसार देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियों में भटकता रहा हूं यह मेरे किस जन्म के माता-पिता है प्रत्येक जन्मों में रिश्ते बदलते रहते हैं  | ऐसा कह कर चला गया चित्रकेतु को ज्ञान हो गया वह नारद जी के दिए हुए मंत्र का जप करने लगा उसे संकर्षण देव के दर्शन हुए राजा ने उनकी स्तुति की | भगवान बोले– राजन् नारद जी के इस ज्ञान को हमेशा धारण करें कल्याण होगा |

इति शोडषो अध्यायः

( अथ सप्तदशो अध्यायः )

चित्रकेतु को पार्वती का श्राप- भगवान संकर्षण से अमित शक्ति प्राप्त कर चित्रकेतु आकाश मार्ग में स्वच्छंद विचरण करने लगा , एक दिन वह कैलाश पर्वत पर गया जहां बड़े-बड़े सिद्ध चारणों की सभा में शिवजी पार्वती को गोद में लेकर बैठे थे उन्हें देख चित्रकेतु जोर जोर से हंसने लगा और बोला अहो यह सारे जगत के धर्म शिक्षक भरी सभा में पत्नी को गोद में लेकर बैठे हैं | यह सुन शिवजी तो हंस दिए किंतु पार्वती से यह सहन नहीं हुआ और क्रोध कर बोली रे दुष्ट जा असुर हो जा , चित्रकेतु नें दोनों से क्षमा याचना की और आकाश मार्ग से चला गया |

इति सप्तदशो अध्यायः

( अथ अष्टादशो अध्यायः )

अदिति और दिति की संतानों की तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति का वर्णन– श्री शुकदेव जी बोले राजन दिति के दोनों पुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु को भगवान की सहायता से इंद्र ने मरवा दिए तो अतिदि को इंद्र पर बड़ा क्रोध आया और उसे मरवाने की सोचने लगी, उसने सेवा कर कश्यप जी को प्रसन्न किया और उनसे इंद्र को मारने वाला पुत्र मांगा इस पर कश्यप जी ने उन्हें एक व्रत बताया जिसका नाम है पुंसवन व्रत उसके कुछ कठिन नियमों के साथ संध्या के समय जूठे मुंह बिना आचमन किए बिना पैर धोए ना सोना आदि नियम बताए | दिति उसको करने लगी इंद्र को इसका आभास हो गया था वेश बदलकर ब्रह्मचारी का रूप बना दिति की सेवा करने लगा और यह मौका देखने लगा कि कब उसका नियम खंडित हो | एक दिन उसको यह मौका मिल गया दिति संध्या के समय बिना आचमन किये बिना पैरों को धुले सो गई | यह देख इन्द्र उसके अंदर गर्भ मे प्रवेश किया और दिति के गर्भ के सात टुकड़े कर दिए तो अलग-अलग जीवित होकर रोने लगे, इस पर इन्द्र सात के सात-सात टुकड़े कर दिए, वह उनच्चास जीवित होकर इंद्र से बोले इंद्र हमें मत मारो हम देवता हैं, इंद्र बड़ा प्रसन्न हुआ अपने भाइयों को साथ ले दिति के गर्भ से बाहर आ गया, दिति ने देखा इंद्र के साथ उनच्चास पुत्र खड़े हैं और पेट में कोई बालक नहीं है | उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और इंद्र से बोली बेटा सच सच बताओ यह क्या रहस्य है ? इन्द्र ने सब कुछ सही सही बता दिया और कहा माता अब ये सब देवता हो गए , दिति ने भगवान की इच्छा समझ उनको विदा कर दिया |

इति अष्टादशो अध्यायः

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( अथ एकोनविंशो अध्यायः )

पुंसवन ब्रत की विधि- श्री शुकदेव जी बोले हे राजन पुंसवन व्रत मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा से प्रारंभ होता है , पहले पति की आज्ञा ले मरुद्गणों की कथा सुने फिर ब्राह्मणों की आज्ञा ले व्रत प्रारंभ करें स्नानादि कर लक्ष्मी नारायण की पूजा करें और निम्न मंत्र का जप करें–

ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महानुभावाय महाविभूति पतये सहमहाविभूतिभिर्बलि मुपहराणि ||

संध्या के समय इस मंत्र से हवन करे इससे सब प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है |

इति एकोनविंशो अध्यायः

इति षष्ठः स्कन्धः समाप्त

अथ सप्तमः स्कन्ध प्रारम्भ

( अथ प्रथमो अध्यायः )

नारद युधिष्ठिर संवाद और जय विजय की कथा– परीक्षित बोले- भगवन भगवान की दृष्टि में तो सारा संसार एक है, फिर भी लगता है कि वे देवताओं का पक्ष लेते हैं और राक्षसों को दबाते हैं ऐसा क्यों ? शुकदेव जी बोले राजन यही प्रश्न युधिष्ठिर ने नारदजी से किया था शिशुपाल राक्षस भगवान को गाली देने वाला अंत में भगवान में कैसे लीन हो गया | इस पर नारद जी ने कहा जो उसे तुम ध्यान से सुनो नारद जी बोले भगवान को चाहे कोई भक्ति से याद करें या फिर बैर से भगवान तो सबका उद्धार ही करते हैं |  फिर शिशुपाल तो भगवान के पार्षद थे, सनकादिक के श्राप से ये राक्षस हुए थे इस पर परीक्षित ने इस कथा को विस्तार से सुनाने की प्रार्थना की तो शुकदेवजी सुनाने लगे | एक समय सनकादि ऋषि बैकुंठ गए उन्हें जय विजय ने रोक दिया जिससे नाराज होकर उन्हें श्राप दिया कि जाओ तुम असुर हो जाओ | जय विजय पहले जन्म में हिरण्याक्ष,हिरण्यकशिपु दूसरे में रावण कुंभकर्ण और तीसरे जन्म में दन्त्रवक्र और शिशुपाल हुए |

इति प्रथमो अध्यायः

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( अथ द्वितीयो अध्यायः )

हिरण्याक्ष के बध पर हिरण्यकश्यपु का अपनी माता को समझाना– श्री शुकदेव जी बोले परीक्षित ! हिरण्याक्ष को जब भगवान ने मार दिया तब उसकी माता दिति रोने लगी तो उसे सांत्वना देते हुए हिरण्यकशिपु बोला माता मैं मेरे भाई के शत्रु को अवश्य मारूंगा, आप शोक ना करें क्योंकि संसार में जो आता है वह अवश्य जाता है | अनेक उदाहरण देकर उन सब को शांत किया |

इति द्वितीयो अध्यायः

( अथ तृतीयो अध्यायः )

हिरण्यकशिपु की तपस्या और वर प्राप्ति- अपने  भाई के शत्रु पर विजय पाने के लिए हिरण्यकशिपु ने वन में जाकर ब्रह्मा जी की घोर तपस्या की उसके शरीर के मांस को चीटियां चाट गई मात्र हड्डियों के ढांचे में प्राण थे उसकी तपस्या से त्रिलोकी जलने लगी, इंद्रादि देवता भयभीत हो ब्रह्मा जी की शरण में गए और कहा प्रभु हिरण्यकशिपु की तपस्या से हम जल रहे हैं | ब्रह्मा जी ने हंस पर सवार होकर हिरण्यकशिपु को दर्शन दिए और उसके शरीर पर जल छिड़क कर उसे हष्ट पुष्ट कर दिया और उससे वर मांगने को कहा हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी की स्तुति की और कहा प्रभु यदि आप वरदान देना चाहते हैं तो आप की सृष्टि का कोई जीव मुझे ना मारे, भीतर बाहर, दिन में रात्रि में किसी अस्त्र-शस्त्र से पृथ्वी आकाश में मेरी मृत्यु ना हो |

इति तृतीयो अध्यायः

( अथ चतुर्थो अध्यायः )

हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रहलाद के गुणों का वर्णन- ब्रह्माजी बोले पुत्र हिरण्यकशिपु यद्यपि तुम्हारे वरदान बहुत दुर्लभ है तो भी तुम्हें दिए देता हूं | वरदान देकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए और हिरण्यकशिपु अपने घर आ गया और अपनी शक्ति से समस्त देवता और दिगपालों को जीत लिया, यज्ञो में देवताओं को दी जाने वाली आहुतियां छीन लेता था , शास्त्रीय मर्यादाओं का उल्लंघन करता था, उससे घबराकर सब देवताओं ने भगवान से प्रार्थना की भगवान ने आकाशवाणी की देवताओं निर्भय हो जाओ मैं इसे मिटा दूंगा समय की प्रतीक्षा करो | हिरण्यकशिपु के चार पुत्र थे उनमें प्रहलाद जी सबसे छोटे ब्राह्मणों और संतों के बड़े भक्त थे अतः हिरण्यकशिपु शत्रुता रखने लगा |

इति चतुर्थो अध्यायः

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( अथ पंचमो अध्यायः )

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रहलाद जी के वध का प्रयत्न– प्रहलाद जी दैत्य गुरु शुक्राचार्य के आश्रम में पढ़ते थे एक बार हिरण्यकशिपु अपने पुत्र प्रह्लाद को गोद में लेकर पूछने लगा तुम्हें कौन सी बात अच्छी लगती है |

तत्साधु मन्येसुरवर्य देहिनां सदासमुद्विग्न धियामसद्ग्रहात् |

हित्वात्मपातं गृहमन्धकूपं वनं गतो यद्धरि माश्रयेत ||

प्रहलाद जी बोले- पिता जी संसार के प्राणी मैं और मेरे मन के झूठे आग्रह में पडकर सदा ही अत्यंत उद्विग्न रहते हैं , ऐसे प्राणी के लिए मैं यही ठीक समझता हूं कि वे अपने अद्यः पतन के मूल कारण घास से ढके हुए अधेंरे कुएं के समान इस घर गृहस्ती को छोड़कर वन में चला जाए और भगवान श्री हरि की शरण ग्रहण करे |

प्रहलाद जी की ऐसी बातें सुनकर हिरण्यकशिपु जोर से हंसा और कहा गुरुकुल में कोई मेरे शत्रु का पक्षपाती रहता दिखता है | शुक्राचार्य जी से कहा इसका पूरा ध्यान रखा जाए गुरुकुल में प्रहलाद जी को समझाया जाबे और कुछ दिन बाद हिरण्यकशिपु ने फिर प्रहलाद जी से पूछा तो प्रह्लाद जी ने कहा–

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् |

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ||

पिताजी भगवान की कथाओं को श्रवण करना, उनके नाम का कीर्तन करना, हृदय में उनका स्मरण करना, उनके चरणों की सेवा करना, उनकी अर्चना, उनकी वंदना, दास्य और सखा भाव से पूजा करना और अंत में पूर्ण रूप रूप समर्पण हो जाना यह नव प्रकार की भक्ति की  जाए, यह सुन हिरण्यकशिपु क्रोध से आग बबूला हो गया और प्रहलाद को गोद से उठाकर जमीन पर पटक दिया और कहा ले जाओ इसे मार डालो | शण्डामर्क उसे पुनः आश्रम ले गए और शक्ति के साथ उसे समझाने लगे|

इति पंचमो अध्यायः

( अथ षष्ठो अध्यायः )

प्रहलाद जी का असुर बालकों को उपदेश- प्रहलाद जी को आश्रम में लाकर संडा मर्क उन्हें पढ़ाने लगे , एक दिन शण्डामर्क के कहीं चले जाने पर प्रहलाद जी दैत्य बालकों को पढ़ाने लगे |

पढ़ो रे भाई राम मुकुंद मुरारी

चरण कमल मुख सम्मुख राखो कबहु ना आवे हारी

कहे प्रहलाद सुनो रे बालक लीजिए जन्म सुधारी

को है हिरण्यकशिपु अभिमानी तुमहिं सके जो मारी

जनि डरपो जडमति काहू सो भक्ति करो इस सारी

राखनहार तो है कोई और श्याम धरे भुजचारी

सूरदास प्रभु सब में व्यापक ज्यों धरणि में वारी |

प्रहलाद जी की शिक्षा सुन दैत्य बालक उनसे बोले प्रहलाद जी हम लोगों ने गुरु पुत्रों के अलावा किसी दूसरे गुरु को नहीं देखा फिर यह सब बातें आप कहां पढे हैं ? हमने तो आपको अन्यत्र कहीं जाते हुए भी नहीं देखा, ना कहीं पढ़ते ! कृपया हमारा संदेह दूर करें |

इति षष्ठो अध्यायः

( अथ सप्तमो अध्यायः )

प्रहलाद जी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन- शुकदेव बोले राजन दैत्य बालकों  के इस प्रकार पूंछने पर पहलाद जी बोले- मेरे पिताजी जिस समय तपस्या करने गए थे तब मौका देख इंद्र ने दैत्यों पर चढ़ाई कर दी और सब राक्षसों को मार कर भगा दिया साथ ही मेरी माता को बंदी बना लिया |

जब इंद्र उसे पकड़ कर ले जा रहा था वह विलाप कर रही थी, रास्ते में नारद जी उसे मिले इंद्र से बोले महाभाग इसे कहां ले जा रहे हो यह निरपराध है इसे छोड़ दो , इंद्र बोला इसके गर्भ में देवताओं का शत्रु है इसके जन्म के बाद बालक को मार देंगे और इसे छोड़ देंगे , इस पर नारद जी बोले इसके गर्भ में परमात्मा का भक्त है इसे श्री तत्काल छोड़ दो इस पर इंद्र ने उसे छोड़ दिया नारद जी उसे अपने आश्रम मे ले गए और जब तक वहां रही जब तक मेरे पिता तपस्या कर नहीं आ गए ,नारद जी ने उन्हें भागवत धर्म की शिक्षा दी जिसे मैंने गर्भ में ही सुना , वही ज्ञान मैंने तुम्हें सुनाया है |

इति सप्तमो अध्यायः

Bhagwat katha in hindi

( पंचम स्कन्ध )

( अथ अष्टमो अध्यायः )

नरसिंह भगवान का प्रादुर्भाव हिरण्यकश्यप का वध ब्रह्मादिक देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति-  प्रहलाद जी की बात सुन सब दैत्य बालक भगवान के भक्त बन गए और गुरु जी की शिक्षा का सब ने बहिष्कार कर दिया तब तो गुरु पुत्र घबराए और जाकर हिरण्यकशिपु को सब कुछ बता दिया , हिरण्य कश्यप ने प्रहलाद जी को मरवाने के अनेक उपाय किए हाथी के पैरों से कुचल वाया पहाड़ से गिराया काले सांपों से डसवाया अग्नि में जलाया किंतु प्रहलादजी को कुछ भी नहीं हुआ अन्त में हाथ में तलवार ले कहने लगा मूर्ख अब बता तेरा राम कहाँ है प्रह्लादजी बोले मेरा राम आप में मेरे में आपकी तलवार में सर्वत्र है। हिरण्य कशिपु बोले क्या इस खंभे मे तेरा राम है तो प्रह्लादजी ने कहा अवश्य है इस पर दैत्य ने खंभे पर जोर से प्रहार किया तो एक भयंकर शब्द हुआ खंभे को फाड़कर नृसिंह भगवान प्रकट हो गए आधा शरीर सिंह का आधा मानव का हिरण्य कशिपु को पकड़ लिया महल के द्वार पर बैठकर उसे अपने पैरों पर लिटा लिया और कहने लगे बोल मैं श्रृष्टि का जीव हूँ मेरे पास कोई अस्त्र-शस्त्र है दिन है अथवा रात तुम आकाश में हो या धरती पर हिरण्य कशिपु ने भगवान को आत्म समर्पण कर दिया उसके पेट को फाड़कर उसे समाप्त कर दिया किन्तु भगवान का क्रोध शान्त नहीं हुआ क्रोध शान्त करने के लिए उनके सामने जाने की किसी की हिम्मत नही हो रही थी ब्रह्मादिक देवताओं ने उनकी दूर से ही प्रार्थना की।

इति अष्टमोऽध्यायः

[ अथ नवमोऽध्यायः ]

ब्रह्मादिक देवता ओं ने देखाकि भगवान का क्रोध शान्त करने के लिए उनके पास जाने की कोई हिम्मत नहीं कर रहा है तब उन्होंने प्रह्लादजी को भगवान के पास भेजा वे सहज गति से गये और जाकर भगवान की गोद में बैठ गये भगवान अपनी जीभ से चाट ने लगे और बोले

वासनी से बांधि के अगाध नीर बोरि राखे

तीर तरवारनसों मारि मारि हारे है।

गिरि ते गिराय दीनो डरपे न नेक आप

मद मतवारे भारे हाथी लार डारे हैं।

फेरे सिर आरे और अग्नि माहि डारे

पीछे मीड गातन लगाये नाग कारे हैं।

भावते के प्रेम मेमगन कछु जाने नाहि

ऐसे प्रहलाद पूरे प्रेम मतवारे है।

(2) बोले प्रभु प्यारे प्रिय कोमल तिहारे अंग

असुरनने मार्योमम नाम एक गाने में।

गिरि ते गिरायो पुनि जलमे डुबायो हाय

अग्नि में जलायो कमी राखि ना सताने में।

उरसे लगाय लिपटाय कहे बार बार

करुणा स्वरुप लगे करुणा दिखाने में।

मंजुल मुखारविन्द चूमि चूमि कहे प्रभो

क्षमा करो पुत्र मोहि देर भइ आने में।

भगवान देर से आने के लिए अपने भक्त से क्षमा मांग रहे हैं। प्रहलादजी भगवान की स्तुति करते हैं

प्रतद् यच्छ मन्युमसुरश्च हतस्त्वयाद्य

मोदेत साधुरपि वृश्चिक सर्प हत्या।।

लोकाश्च निर्वृतिमिताः प्रतियन्ति सर्वे

रूपं नृसिंह विभयाय जनाः स्मरन्ति।।

जिस दैत्य को मारने के लिए आपने क्रोध किया था वह मर चुका है। अब भक्त जन आपके शान्त स्वरुप का दर्शन करना चाहते है अत: क्रोध का शान्त करें भक्तजन भय नाश के लिये आपके इस स्वरुप का स्मर्ण करेग भगवान बोले प्रहलाद तुम्हारा कल्याण हो मैं तुम्हारे उपर बहत प्रसन्न हू अतः तुम जो चाहो वरदान माँग लो।

इति नवमोऽध्यायः

[ अथ दशमोऽध्यायः ]

प्रहलादजी के राज्याभिषेक और त्रिपुरदहन की कथा-

यदि रासीश मे कामान् वरांस्त्वं वरदर्षभ।

कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम् ।।

प्रहलादजी बोले यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो यह दीजिए कि मेरे हृदय में कामना का कोई बीज न रहे। भगवान बोले भक्त प्रहलाद तुम्हारा कल्याण हो तुम मेरे प्रिय भक्त हो अभी संसार के ऐश्वर्य भोग कर तुम मेरे लोक को आवोगे। प्रहलादजी बोले मुझे एक वरदान और दीजिए

वरं वरय एतत् ते वरदेषान्महेश्वर

यदनिन्दत् पितामे त्वामविद्वां स्तेज ऐश्वरं।।

विद्धामर्षाशय: साक्षात् सर्वलोक गुरुं प्रभुम्

भ्रातृ हेति मृषादृष्टिस्त्वद्भक्ते मयिचाघवान्।।

तस्मात् पिता मे पूयेत दुरन्ताद् दुस्तरादधात्

पूतस्तेषांगसंदृष्टस्तदा कृपण वत्सल।।।

मेरे पिता ने आपकी बड़ी निन्दा की है उसे क्षमा कर दें एवमस्तु कह कर भगवान ने प्रहलादजी को अपने पिता की अंतेष्ठि की आज्ञा दी ओर प्रहलादजी ने पिता का अंतिम संस्कार किया प्रहलादजी को सुतल लोक का राज्य देकर भगवान अंतर ध्यान हो गए। नारदजी से युधिष्ठिरजी ने प्रश्न किया प्रभो भगवान शिव ने कैसे त्रिपुर दहन किया बतावें इस पर नारदजी बोले राजन् एक समय सब राक्षस स्वर्ग की कामना से मय दानव की शरण में गए मय ने उन्हें तीन विमान बनाकर दिए विमान क्या तीन पुर ही थे सब राक्षस उन में बैठ आकाश से अस्त्र शस्त्रों की वर्षा करने लगे घबरा कर देवता भगवान शिव की शरण गए शिवजी ने तान बाण छोड़कर तीनो पुरों का संहार कर दिया मयदानव ने सब राक्षसों को अमृत कुंड में लाकर डाल दिए और सबको जीवित कर दिया शिवजी उदास हए और भगवान नारायण को याद किया भगवान गाय का रूप धारा कर सब अमृत को पी गए और सारे राक्षस मारे गए।

इति दशमोऽध्यायः

Bhagwat katha in hindi

[ अथ एकादशोऽध्यायः ]

मानवधर्म वर्णधर्म और स्त्रीधर्म का निरूपण-युधिष्ठिरजी बोले भगवन् ! मैं मानव धर्म वर्ण धर्म स्त्रियों के धर्म जानना चाहता हैं। नारदजी बोले राजन् धर्म के तीस लक्षण बताये गए हैं सत्य दया तपस्या शौच तितिक्षा उचित विचार संयम अहिंसा ब्रह्मचर्य त्याग स्वाध्याय सरलता संतोष संत सेवा इत्यादि ये सब मानव धर्म हैं। पढ़ना-पढ़ाना यज्ञ करना कराना दान लेना दान देना ये छ: कर्म ब्राह्मण के हैं क्षत्रिय का धर्म है रक्षा करना कृषि गो रक्षा व्यवसाय ये वैश्य का धर्म है सब की सेवा करना शूद्र का धर्म हैं। पति की सेवा करना उसके अनुकूल रहना यह स्त्री धर्म है।

इति एकादशोऽध्यायः

[ अथ द्वादशोऽध्यायः ]

ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमों के नियम-ब्रह्मचारी गुरु कुल में निवास कर इन्द्रियों का संयम करे गुरु की आज्ञा में रहे त्रिकाल संध्या करें भिक्षा से जीवन यापन करें। गृहस्थ धर्म के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त होने पर वानप्रस्थ लेना चाहिए घर से दूर किसी पवित्र स्थान में रहकर सलोन वृत्ति से जीवन यापन करते हुए भगवान का भजन करें।

इति द्वादशोऽध्यायः

[ अथ त्रयोदशोऽध्यायः ]

यतिधर्म का निरुपण और अवधूत प्रहलाद संवाद-वानप्रस्थ के बाद अथवा सीधे भी शरीर के अलावा व्यक्ति वस्तु स्थान और समय का अपेक्षा न रखकर पृथ्वी पर विचरण करे एक कोपीन लगावे दण्ड आदि धर्म चिह्नों के अलावा कोई वस्तु न रखें यही सन्यास धर्म है इस संदर्भ में एक दत्तात्रेय और प्रह्लादजी का आख्यान है। एक समय प्रहलादजी कही भ्रमण कर रहे थे रास्ते में उन्हें धरती पर पड़ा एक अवधूत मिला जिसके शरीर पर केवल एक कोपीन थी न बिस्तर न तकिया प्रहलादजी ने उन्हें प्रणाम किया और उनसे उनका परिचय जानना चाहा दत्तात्रेय बोले जब भूमि सोने के लिए है हाथ का सिराना है कोई दे देता है तो खा लेता हूँ। वर्ना आनंद से भजन करता हूँ यहि संन्यास धर्म है।

इति त्रयोदशोऽध्यायः

[ अथ चतुर्दशोऽध्यायः ]

ग्रहस्थ धर्म संबंधी सदाचार-गृहस्थ के चार देवता हैं मातृ देवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव गृहस्थ में रहते हुए माता-पिता की सेवा करे अपने गुरु के प्रति समर्पित रहे कोई अतिथि द्वार से निराश न लौटे जो शुभ कर्म भगवान को समर्पित कर दे सब में सम भाव रखे श्रद्धा करे संतों की सेवा करें।

इति चतुर्दशोऽध्यायः

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[ अथ पंचदशोऽध्यायः ]

गृहस्थों के लिए मोक्ष धर्म का वर्णन-गृहस्थ में रहते हुए देवताओं का यज्ञ तथा पित्रेश्वरों का श्राद्ध अवश्य करे सबकी सेवा भगवान की सेवा समझ कर करे सबको परमात्मा का ही समझे परमात्मा में पूर्ण विश्वास रखते हुए परमात्मा के प्रति समर्पित रहे अंत में परमात्मा को याद करते हुए शरीर को छोड़ परमात्मा को प्राप्त हो जाय।

इति पंचदशोऽध्यायः

इति सप्तम स्कन्ध समाप्त

अथ अष्टम स्कन्धः प्रारम्भ

[ अथ प्रथमोऽध्यायः ]

मनवन्तरों का वर्णन-श्रीशुकदेवजी बोले ब्रह्माजी के एक दिन को एक कल्प कहते हैं। एक कल्प मे चोदह मनुराज्य करते हैं अभी छ: मनवन्तर बीत चुके सातवें मनु का राज्य चल रहा है। अब तक आप केवल एक स्वायम्भुव मनु का वंश सुने हैं दूसरे मनु हुए हैं स्वारोचिष उसके पुत्र हुए हैं। धुमत् सुषेण आदि इन्द्र हुए हैं रोचन देवता हुए तुषित आदि सप्तऋषि हुए उर्जस्तम्भ आदि तीसरे मनु हुए प्रियव्रत पुत्र उत्तम उनके पुत्र पवन आदि सप्तऋषि वशिष्ठजी के सात पुत्र चौथे मनु उत्तम के भाई तामस हुए पृथु आदि उनके पुत्र हुए सप्तऋषि ज्योतिधाम आदि इन्द्र का नाम त्रिशिख इस मनवन्तर मे भगवान ने हरि अवतार लेकर गज का उद्धार किया था इस पर राजा परीक्षित कहने लगे गज ग्राह की कथा मैं सुनना चाहता हूँ।

इति प्रथमोऽध्यायः

[ अथ द्वितीयोऽध्यायः ]

ग्राह के द्वारा गजेन्द्र का पकडा जाना-शुकदेवजी बोले क्षीरसमुद्र में त्रिकूट पर्वत पर सुन्दर उपवन मे अनेक वन्य पशुओं के साथ एक विशाल हाथी रहता था वह बड़ा बलवान था बड़े-बड़े शेर व्याघ्र भी उससे घबराते थे वहीं एक बडा जलाशय भी था एक दिन वह अपने परिवार के साथ उस जलाशय में जल पीने गया जल पीकर वह हथिनियों के साथ जलक्रीडा करने लगा जब बहुत देर तक क्रीडा करता रहा तब एक ग्राह ने उसका पैर पकड़ लिया वह पैर छुडाने के लिए बहुत छट पटाया किंतु पैर नही छुडा पाया विवश होकर गजेन्द्र ने भगवान को याद किया।

इति द्वितीयोऽध्यायः

[ अथ तृतीयोऽध्यायः ]

गजेन्द्र द्वारा भगवान की स्तुति और उसका संकट से मुक्ति

नमो भगवते तस्मै यत एत चिदात्मकम्।

पुरुषयादि बीजाय परेशायाभि धीमहि।।

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं।

योअस्मात परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयंभुवं ।।

गजेन्द्र बोले जो प्रकृति के मूल कारण हैं और सबके हृदय मे पुरुष रूप में विराजमान हैं एवं समस्त जगत के एक मात्र स्वामी हैं जिनके कारण इस संसार मे चेतना का विस्तार होता है मैं उन भगवान को नमस्कार करता हूँ और उनका ध्यान करता हूँ यह संसार उन्हीं में स्थित है उन्ही की सत्ता से प्रकाशित हो रहा हैं वे ही उसमें व्याप्त हो रहे हैं और स्वयं हि उसके रूप में प्रकट हो रहे है ये सब होने पर भी वे संसार ओर उसका मूल प्रकृति से परे हैं उन स्वयं प्रकाश स्वयं सिद्ध सत्तात्मक भगवान की मै शरण ग्रहण करता गजेन्द्र की स्तुति सुन और उसे संकट में देख भगवान गरुड़ पर सवार होकर वहां चल दिए जब गजेन्द्र ने देखा आकाश से भगवान आ रहे है उसने एक पुष्प लिया और सूंड से उसे भगवान को अर्पित किया यह देख भगवान गरुड को छोड दौड़ पड़े सुदर्शन चक्र से ग्राह का मस्तक अलग कर दिया और गज को पकड़ बाहर खेंच लिया।

इति तृतीयोऽध्यायः

[ अथ चतुर्थोऽध्यायः ]

गज और ग्राह का पूर्व चरित्र तथा उनका उद्धार-शुकदेवजी वर्णन करते हैं कि गज और ग्राह चतुरभुज रूप में भगवान के सामने खडे हैं ग्राह पिछले जन्म में ह ह गंधर्व था देवल ऋषि के शाप से ग्राह बना था और गज भी राजा इन्द्र द्म्न  थे अगस्त्य ऋषि को देख खड़े नही हुए अत: उनके शाप से हाथी बनगएथे दोनो भगवान को प्रणाम कर अपने लोक को चले गए

इति चतुर्थोऽध्यायः

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[ अथ पंचमोऽध्यायः ]

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और ब्रह्मा कृत भगवान की स्तुति- श्रीशुकदेवजी बोले-परीक्षित पांचवें रेवत नाम के मनु हुए इन्द्र का नाम था विभु हिरण्यरोमा आदि सप्त ऋषि हुए छठे मनु हुए चाक्षुष उनके पुरु आदि कइ पुत्र थे इन्द्र का नाम मन्त्रद्रम हविष्यमान आदि सप्तऋषि थे उस समय भगवान ने अजित नाम से अवतार लिया और समुद्र मंथन कराया। परीक्षित बोले प्रभो देवताओं ने समुद्र मंथन कैसे किया यह सुनावें।श्रीशुकदेवजी बोले एक समय इन्द्र एरावत पर बैठ कर कही जा रहे थे रास्ते मे दुर्वासा जी का आश्रम था उधर से इन्द्र को जाते देख ऋषि ने उन्हें एक माला पहना दी इन्द्र ने माला का सम्मान न करते हुए उसे ऐरावत को पहना दी उसने उतार कर पैरों से कुचल दी यह देख दुर्वासा ने इन्द्र को शाप दिया तू श्री हीन हो जा यह देख राक्षससों ने इन्द्र पर चढाई कर दी और स्वर्ग छीन लिया देवता इधर उधर घूमने लगे सब मिल ब्रह्माजी के पास गए ब्रह्माजी उनके साथ भगवान की प्रार्थना की।

इति पंचमोऽध्यायः

[ अथ षष्ठोऽध्यायः ]

देवताओं और देत्यों का समुद्र मंथन का उद्योग-शुकदेवजी बोले राजन् ब्रह्माजी की प्रार्थना सुन भगवान वही प्रकट होगए और बोले

अरयोअपि हि सन्धेया: सति कार्यार्थ गौरवे।

अहिमूषक वद् देवा ह्यर्थस्य पदवीं गतेः।।

देवताओं अभी काल तुम्हारे अनुकूल नहीं है। समय की प्रतिक्षा करो जैसे-चूहा और सर्प ने संधी की थी एसे असुरों से संधी कर लो और मिल कर समुद्र मंथन कर अमृत प्राप्त करो भगवान ऐसा कह कर अंतर्ध्यान हो गए ओर इन्द्र स्वर्ग में बलि के पास गए और संधी का प्रस्ताव रखा और समुद्र मंथन की बात कहीं जिसे बलि ने स्वीकार कर लिया समुद्र मंथन की तैयारी होने लगी दैत्य देवता मिलकर पहले मदराचल पर्वत उठाने गए तो वह इतना भारी था कि उनमें से कई अंग भंग हो गए किंतु उसे उठा नही पाए तब भगवान ने लीला पूर्वक उठा कर उसे गरुड़ पर रख लिया और समुद्र के पास लाकर उतार दिया।

इति षष्ठोऽध्यायः

[ अथ सप्तमोऽध्यायः ]

समुद्र मंथन का आरंभ और भगवान शंकर का विषपानश्रीशुकदेवजी बोले-मदराचल पर्वत को लेकर जब उसे समुद्र में छोड़ा वह डूबने लगा भगवान ने कच्छप अवतार लेकर उसे धारण किया वासुकी नाग का नेता बनाया गया समुद्र मंथन प्रारंभ हुआ।

निर्मथ्य मानादु दधेर भूद्विषं।

महोल्वणंहाल हलाहलमग्रतः।।

सम्भ्रान्त मीनोन्मकराहिकच्छपात्।

तिमिद्विपग्राह तिमिगिला कुलात्।।

सर्व प्रथम उससे हलाहल जहर निकला जो संसार को जलाने लगा प्रजा पतियों ने भगवान शिव की स्तुति की शिवजी ने भगवान को स्मर्ण कर समस्त जहर के तीन आचमन कर गए सब की पीडा मिट गई।

इति सप्तमोऽध्याय:

[ अथ अष्टमोऽध्यायः ]

समुद्र से अमृत प्रकट होना और भगवान का मोहिनि अवतार ग्रहण करना-शिवजी के विषपान के बाद सर्व प्रथम कामधेनु गाय निकली जो यज्ञ करने वाले ऋषियों को दे दी इसके पश्चात् उच्चश्रवा नामक घोड़ा निकला जो बलि को दे दिया इसके बाद ऐरावत हाथी निकला जिसे इन्द्र को दे दिया पश्चात कौस्तुभ मणि निकली जो स्वयं भगवान धारण करली फिर कल्प वृक्ष निकला जो स्वर्ग भेज दिया गया पश्चात् अप्सराएं निकली वे भी स्वर्ग भेज दी गई।

ततश्चाविरभूत साक्षाच्छ्री रमा भगवत्परा।

रंजयंती दिश: कान्त्या विद्युत् सौदामनी यथा।।

पश्चात् साक्षात् श्री महालक्ष्मी प्रकट हुई दिशायें बिजली की तरह चमक उठी इन्द्र ने उन्हे स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान किया स्वर्ण कलशों से उनका अभिषेक किया उन्होने एक माला ली और चारों ओर देखकर भगवान के गले मे डाल दी पश्चात् वारुणी देवी निकली जिसे देख राक्षस मोहित होगए वह उन्हे देदी गइ उसके पश्चात श्रीधन्वन्तरि अमृत कलश लेकर निकले जिसे देख कर राक्षस उनके हाथ से अमृत कलश छीन कर ले भगे।

इति अष्टमोऽध्यायः

[ अथ नवमोऽध्यायः ]

मोहनी रूप से भगवान के द्वारा अमृत बाँटना-शुकदेवजी बोले राजन् दैत्य लोग जब आपस मे अमृत कलश की छीना झपटी कर रहे थे भगवान मोहिनि रूप धारन कर प्रकट हो गए जिसे देखकर सब राक्षस मोहित हो गए भगवान ने सबको बुलाकर कहा कौन हो और क्यों लड़ रहे हो सबने मोहिनि भगवान से कहा हम कश्यपजी के पुत्र हैं देवता और दानव हमने मिलकर यह अमृत निकाला है आप इसे सब में बराबर बांट दें हमें आप पर पूर्ण विश्वास है इस पर मोहिनि भगवान ने अमृत कलश अपने हाथ में ले लिया दैत्य और देवता अलग-अलग दो लाइनों मे बैठ गए प्रथम देवताओं  से पिलाना प्रारंभ किया देवताओं की लाइन में छुपकर राहु बैठ गया और अमृत पी लिया, सूर्य चंद्रमा के बताने पर उसका सिर काट दिया किंतु अमृत पी लेने से वह मरा नहीं बल्कि दो हो गए देवताओं को अमृत पिला कर भगवान अंतर्ध्यान हो गए |

इति नवमो अध्यायः

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[ अथ दशमोऽध्यायः ]

देवासुर संग्राम-श्रीशुकदेवजी बोले-परीक्षित्! सांपों को दूध पिलाने से कोई लाभ नही ऐसा विचार भगवान ने राक्षसों को अमृत नहीं दिया भगवान से विमुख कोई अलभ्य वस्तु प्राप्त कर भी कैसे सकता हैं। देवताओं को अमृत पिलाकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गए। जब राक्षसों ने देखा कि उनके साथ धोखा हुआ है उन्होने अपने शस्त्र उठा लिए और देवताओं पर टूट पडे भयंकर देवासुर संग्राम होने लगा देवताओं ने एक तो अमृत पी लिया था दूसरे भगवान की कृपा प्राप्त थी राक्षसों का संहार करने लगे भगवान स्वयं इस युद्ध में राक्षसों को मारने लगे।

इति दशमोऽध्यायः

[ अथ एकादशोऽध्यायः ]

देवासुर संग्राम की समाप्ति-देवासुर संगाम मे कभी देवता विजयी होते थे तो कभी राक्षस दोनों और से ही माया का सहारा ले रहे थे जब राक्षसों का अत्याधिक संहार होने लगा तो वहां नारदजी आए और बोले भगवान द्वारा रक्षित देवताओं अब इन राक्षसों को मत मारो और युद्ध बन्द कर दो नारदजी के कहने से दोनों और से युद्व बन्द हो गया।

इति एकादशोऽध्यायः

Bhagwat katha in hindi

[ अथ द्वादशोऽध्यायः ]

मोहिनी रूप को देख कर महादेवजी का मोहित होना-एक समय महादेवजी ने जब यह सुना कि भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर देवताओं को अमृत पिला दिया तो उस रूप के दर्शन करने की इच्छा सेले क्षीर सागर पहंचे भगवान ने उनका स्वागत किया और अंत मे महादेवजी ने अपना अभिप्राय भगवान के सामने प्रकट किया भगवान बोले वह रूप तो कामी पुरुषों के लिए है फिर भी कभी दिखाउगाँ कह उन्हें विदा किया जब वे वहां से लौट रहे थे रास्ते मे एक सुन्दर उपवन दिखाई पड़ा वह अत्यन्त रमणीय था वहां एक सुन्दर स्त्री अपने हाथ की गेंद उछाल कर खेल रही थी उसके झीने वस्त्र हवा के झोकों से उड़-उड़ जा रहे थे। महादेवजी उसके पीछे दौड़ पडे वे भूल गए कि मेरे साथ मेरा परिवार भी है आगे आगे वह स्त्री पीछे-पीछे महादेवजी कभी दूर तो कभी दो अंगुल की दूरी पर रह जाय पर उसे पकड नही पाए काफी प्रयत्न के बाद आखिर उसे पकड लिया इतने में भगवान अपने असली रूप में आ गए शिवजी बहत लज्जित हए और भगवान के चरण पकड लिए भगवान ने उठाकर हृदय से लगा लिया।

इति द्वादशोऽध्यायः

[ अथ त्रयोदशोऽध्यायः ]

आगामी सात मन्वन्तरों का वर्णन श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! अब तक हम छ: मनुओं का वर्णन कर चुके हैं अब सातवें मनु का सुनो इनका नाम है श्राद्वदेव ये विवश्वान-सूर्य-के पुत्र थे श्राद्धदेव के दस पुत्र इक्ष्वाकु आदि थे इन्द्र हुए पुरन्दर सप्तऋषि हुए विश्वामित्र जमदग्नि भारद्वाज गौतम अत्रिी वशिष्ठ और कश्यप इस मनवन्तर मे कश्यपजी की पत्नि अदिति से भगवान वामन का अवतार हुआ वर्तमान मे इनका कार्य काल चल रहा है। अब आगे आने वाले सात मनुओं के बारे मे सुनो आठवें मनु होगें सावर्णि उनके पुत्र होगें निर्भोक आदि इन्द्र बनेगें वैरोचन पुत्र बलि वामन भगवान ने इनसे तीन पैर पृथ्वी मागी थी इस मन्वन्तर के सप्त ऋषि होगे गालव दीप्तिमान आदि। नवें मनु होगें दक्षसावर्णि अद्भुत नामके इन्द्र होगें। दसवें मनु होगें ब्रह्मसावर्णि हविश्मान आदि सप्तऋषि होगें इन्द्र का नाम होगा शम्भु ग्यारहवें मनु होगें धर्मसावर्णि इनके पुत्र होगें सत्य धर्म आदि अरुणादि सप्तऋषि होगें वैधृत नामके इन्द्र होगें। बरहवें मनु होगें रुंद्र सावर्णि ऋतधामा इन्द्र होगें। तेरहवें मनु होगें देव सावर्णि इन्द्र होगा दिवस्पति। चोदहवें मनु होगें इन्द्र सावर्णि इन्द्र होगा शुचि। ये चोदह मनु भूत वर्तमान और भविष्य तीनो काल मे चलते रहते हैं।

इति त्रयोदशोऽध्यायः

[ अथ चतुर्दशोऽध्यायः ]

मनु आदि के प्रथक प्रथक कर्मों का निरुपण-1. मनु, 2. मनुपुत्र, 3. इन्द्र, 4. देवता, 5. सप्तऋषि मंडल। ये पांचों भगवान के संरक्षण मे त्रिलोकी के शासन का संचालन करते हैं मनु सर्वोपरि शासनाध्यक्ष है उनके पुत्र उनके कार्य में सहयोगी हैं इन्द्र कार्यवाहक शासनाध्यक्ष हैं जो मनु की देख रेख मे कार्य करते है।

देवता इन्द्र के मंत्री मण्डल के सदस्य है जिन्हे अलग अलग विभागों की जिम्मेदारी इन्द्र ने बांट रखी है।

सप्तऋषिमंडल न्यायाधीश मंडल है-सुपीरियम कोर्ट

यदि इन्द्रादि देवता अपने कार्य मे विफल रहते हैं तो सप्त ऋषि मडल उसमे हस्तक्षेप करता है।

इति चतुर्दशोऽध्यायः

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[ अथ पंचदशोऽध्यायः ]

राजा बलि की स्वर्ग पर विजय-

बले: पदत्रयं भूमेः कस्माद्धरि याचत।

भूत्वेश्वरः कृपण व्रल्लब्धार्थोअपि बबन्धतम्।।

राजापरीक्षित बोले-प्रभो भगवान हरि ने बलि से तीन पैर पृथ्वी कैसे मागी और फिर उसे बांधा क्यों कृपाकर इसे समझावें। श्रीशुकदेवजीबोले-परीक्षित! जब देवासुर संग्राम मे बलि मारे गए तो शुक्राचार्यजी ने उन्हे अपनी संजीवनी विद्या से जीवित कर लिया और उससे एक विश्वजित नामक यज्ञ कर वाया जिससे दिव्य रथ प्रकट हुआ जिसमें कवच अस्त्र शस्त्र रखे थे बलि ने कवच पहना रथ में सवार हुआ शुक्राचार्यजी ने उन्हे एक शंख दिया सेना लेकर अमरावति को चारों ओर से घेर लिया बलि ने शंख बजाया देवतागण भयभीत हो गुरु शरण मे गए बृहस्पतिजी बोले देवताओं अभी समय आपके पक्षमे नही है भृगुवंशी ब्राह्मणों की पूर्णकृपा उन पर है तुम सामना नही कर सकते अत: कहीं जाकर छुपजावो और समय की प्रतिक्षा करो देवता स्वर्ग छोड़कर चले गए बलि स्वर्ग का राज्य करने लगा उस समय बलि से सौ अश्वमेघ यज्ञ करवाये।

इति पंचदशोऽध्यायः

[ अथ षोडषोऽध्यायः ]

कश्यपजी के द्वारा अदिति को पयोब्रत का उपदेश-

एवं पुत्रेषु नष्टेषु देवमातादितिस्तदा

हृते त्रिविष्टपे दैत्यैः पर्यतप्यदनाथ वत।।

एकदा कश्यपस्तस्या आश्रमं भगवान गात

निरुत्सवं निराननदं समाधेर्विरतश्चिरात्।।

शुकदेवजी वर्णन करते हैं जब देव माता अदिति ने अपने पुत्रों को अनाथ होकर इधर-उधर भटकते देखा तो वह बडी दुखी हुई एक दिन उसके आश्रम में कश्यप पधारे वे अभी-अभी समाधि से उठे थे उनकी पत्नि अदिति दीनभाव से बोली प्रभो दिति के पुत्रों ने मेरे पुत्रों का स्वर्ग छीन लिया वे इधर उधर भटक रहे हैं। अत: कोई उपाय बतायें जिससे मेरे पुत्रों का स्वर्ग उन्हें मिल जावे कश्यपजी बोले तुम्हे एक व्रत बताता हूँ

फाल्गुनस्यामले पक्षे द्वादशाहं पयोव्रतः।

अर्चयेदरविन्दाक्षं भक्त्या परमयान्वितः।।

यह पयोव्रत नामक व्रत है फाल्गुन शुक्ल पक्षमे प्रतिपदासे द्वादशी पर्यन्त भगवान नारायण की उपासना करे केवल दूध पीकर रहे।

इति षोडषोऽध्यायः

[ अथ सप्तदशोऽध्यायः ]

भगवान का प्रकट होकर अदिति को वरदान- अदिति ने श्रद्धा पूर्वक उस व्रत को किया तो प्रसन्न होकर शंख चक्र गदा पद्म धारी भगवान प्रकट हो गए अदिति उनकी प्रार्थना करने लगी।

यज्ञेश यज्ञपुरुषाच्युत तीर्थपाद

तीर्थश्रवः श्रवण मंगल नामधेय।।

आपन्न लोक बृजिनो पशमोदयाद्य

शंन: कृधीश भगवन्नसि दीननाथः।।

आप यज्ञों के स्वामी हैं स्वयं यज्ञ भी आप ही हैं आपके चरणों का सहारा लेकर संसार से तर जाते है। आपका यश कीर्तन भी संसार से तारने वाला है आपके नामो का श्रवण मात्र से ही कल्याण हो जाता है आदि पुरुष जो आपकी शरण मे आ जाता है उसकी सारी विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं आप दीनों के स्वामी हैं हमारा कल्यण कीजिए। भगवान बोले मैं जानता हूं कि तुम अपने पुत्रों के लिए दु:खी हो मैं शीघ्र ही तुम्हारे गर्भ से अवतार लेकर देवताओं के कार्य को करुंगा तुम निश्चिन्त होकर मेरा ध्यान करो तभी अदिति भगवान के ध्यान में लीन हो गई।

इति सप्तदशोऽध्यायः

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[ अथ अष्टादशोऽध्यायः ]

वामन भगवान का प्रकट होकर राजा बलि की यज्ञशाला मे पधारना

श्रोणायां श्रवण द्वादश्यां मुहूर्तेभिजिति प्रभुः।

सर्वे नक्षत्र ताराद्या श्चक्रुस्तजन्म दक्षिण।।

शुकदेवजी बोले-ब्रह्माजी के प्रार्थना करने पर साक्षात भगवान अदिति के सामने प्रकट हो गए। चतुर्भुज रूप में शंख चक्र गदा पद्म धारण किए थे कश्यप अदिति के देखते-देखते उन्होंने ब्रह्मचारी का रूप धारण कर लिया। उनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ सविता ने गायत्री का उपदेश किया बृहस्पति ने यज्ञोपवीत कश्यपजी ने मेखला दी वामन भगवान वहां से बलि के यज्ञ में प्रस्थान कर गए। भगवान को आते देख ऋत्विज गण सोचने लगे क्या ये सूर्य भगवान यज्ञ देखने आ रहे है सहसा उन्होंने यज्ञ मंडप मे प्रवेश किया बलि ने आसन देकर चरण धोए और बोला आज मेरा घर पवित्र हो गया आपको क्या चाहिए हाथी घोड़े गांव या ब्राह्मण कन्या जो आप मांगोगे वही दूगां।

इति अष्टादशोऽध्यायः

[ अथ एकोनविंशोऽध्यायः ]

भगवान वामन का तीन पग पृथ्वी मागना बलि का वचन देना और शुक्राचार्यजी का उन्हें रोकना-श्रीशुकदेवजी बोले-परीक्षित्! बलि के ऐसे वचन सुन भगवान वामन बोले-बलि आपने जो कहा वह आपके कुल के अनुकूल है आपके कुल में ऐसा कोई नहीं हुआ जो दान के लिए मना कर दे प्रहलाद जी का सुयश संसार मे छा रहा है और आपके पिता विरोचन जानते हुए भी कि यह दान माँगने वाला इन्द्र है और छल कर रहा है अपनी आयु का दान उसे दे दिया इसलिए मैं जानता हूँ कि तुम मुझे दान अवश्य दोगे मुझे आप केवल मेरे अपने पैरों से तीन पग पृथ्वी दीजिए। बलि बोले ब्रह्मचारी! तुम बात तो वृद्धों जैसी करते हो और माँगने मे बिल्कुल बच्चे हो मैं त्रिलोकी पति तुम्हे एक द्वीप भी दे सकता हूं वामन बोले यह कामना तो तब भी पूरी नही होती मैं सन्तोषी ब्राह्मण हूं मुझे तीन पग भूमि से अधिक कुछ नही चाहिए। बलि बोले ठीक है जैसी आपकी इच्छा कह संकल्प के लिए तैयार होगए तभी शुक्राचार्यजी बोले बलि सावधान जिसे तुम दान देने जा रहे हो वह साक्षात् विष्णु हैं तुम्हारा सब कुछ छीन लेगे अपने वादे से मुकर जावों क्योंकि जहाँ वृत्ति छिनती हो वहां झूठ बोलने का कोई दोष नहीं होता।

इति एकोनविंशोऽध्यायः

[ अथ विंशोऽध्यायः ]

भगवान वामनजी का विराट रूप होकर दो ही पग मे पृथ्वी और स्वर्ग को नाप लेना-बलि बोले गुरुजी यह सत्य है कि वृत्ति नष्ट हो रही हो तो झूठ बोलने का कोई दोष नहीं पर जब वे भगवान ही हैं तो सब कुछ उन्हीं का तो है वे चाहे जैसे ले सकते हैं फिर दान के लिए क्यों मना करूं मैं अवश्य दूगा बलि बड़ा प्रसन्न है उसकी माता भी प्रसन्न है और कहती है। भली भई जो ना जली वेरोचन के साथ। मेरे सुत के सामने कृष्ण पसारे हाथ।। बलि की एक बेटी थी रत्न माला भगवान के स्वरुप पर मोहित हो कहने लगी मेरे भी ऐसा सुन्दर बालक हो जिसे मैं स्तन पान कराउं भगवान बोले द्वापर मे तू पूतना बनना तब तेरा स्तन पान करूंगा। बलि ने संकल्प हाथ में ले लिया और छोड दिया।

तद् वामनं रूपम वर्धताद्भुतं

हरेरनन्तस्य गुण त्रयात्मकम्।।

भूः खं दिशो द्यौर्विवरा:पयोधय

स्तिय॑न्नृदेवा ऋषयो यदासत।।

इसी बीच भगवान ने अपने स्वरुप को इतना बढाया कि समस्त त्रिलोकी में भगवान ही नजर आए उन्होंने एक पग मे भू लोक को नाप लिया दूसरे चरण ब्रह्म लोक में पहुंच गया।

इति विंशोऽध्यायः

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[ अथ एकोविंशोऽध्यायः ]

बलि का बांधा जाना-ब्रह्मलोक में भगवान के चरण को आया देख ब्रह्माजी ने भगवान के चरण को धोया और उस जल को अपने कमंडलु में रख लिया वही पतित पावनी गंगा पृथ्वी पर आकर सब को पवित्र कर रहीपूजा कर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए उसी बीच जामवंत ने भगवान की सात प्रदक्षिणा की भगवान ने बलि को नाग पाश में बांध लिया और कहा-

पदानि त्रीणि दत्तानि भूमेर्मह्यं त्वयासुर।

द्वाभ्यां क्रान्ता मही सर्वा तृतीयमुप कल्पय।।

राक्षसराज तुमने मुझे तीन पग भूमि देने का संकल्प किया था मैंने दो पग मे तेरे समस्त राज्य को नाप लिया अब बता तीसरा पैर कहा रखू अब तुझ नरक जाना पड़ेगा यह दृश्य रत्न माला देख रही थी पहले भगवान को पुत्र रूप में देख रही थी पिता को नाग पाश में बंधा देख बोली ऐसे पुत्र को जहर दे दे इस पर भगवान बोले तू स्तनों से जहर लगा के आएगी मैं उसे भी पी जाउंगा।

इति एकोविंशोऽध्यायः

[ अथ द्वाविंशोऽध्यायः ]

बलि केद्वारा भगवान की स्तुति और भगवान का उस पर प्रसन्न होना-

यद्युत्तमश्लोक भवान् ममेरितं

वचोव्यलीकं सुरवर्य मन्यते।

करोम्य॒तं तन्न भवेत् प्रलम्भनं

पदंतृतीयं कुरु शीर्ण मे निजम्।।

बलि बोले-प्रभो यह सही है कि आपने दो चरणों में ब्रह्म लोक पर्यन्त नाप लिया किंतु अभी नापने के लिए जगह शेष है तीसरा चरण मेरे मस्तक पर रख दें हम संसार के अज्ञानी जीव आपकी महिमा कैसे समझे बडे-बडे ऋषि भी आपकी माया से मोहित हो जाया करते है बलि इस प्रकार कह रहे थे कि वहां प्रह्लाद जी आ गए वे बोले प्रभो आपने अच्छा किया इसे बड़ा अभिमान हो गया था अभिमानी को दण्ड देना भी आप की कृपा ही है इतने में ब्रह्माजी कुछ कहना चाहते वहां बलि की पत्नि विंध्यावलि आ गई और कहने लगी प्रभो आप संसार के कर्ता-धर्ता और संहर्ता है मैं आपको प्रणाम करती हूं ब्रह्माजी बोले स्वामी आपने इस पर कृपा करी है जो इसे अपनाया है अब इसे आप छोड़ दे क्योंकि इसने आप को आत्म समर्पण कर दिया है भगवान बोले मै इस पर प्रसन्न हूं इसे सुतल लोक का राज्य देता हू बलि जावो आनंद पूर्वक सुतल लोक में रहो मैं हमेशा तुम्हारे पास रहूगा।

इति द्वाविंशोऽध्याय

[ अथ त्रयोविंशोऽध्यायः ]

बलि का बन्धन से छूट कर सुतल लोक को जाना-श्रीशुकदेवजी बोले राजन् भगवान ने बलि का बन्धन खोल दिया और वह सुतल लोक चला गया इस प्रकार भगवान ने स्वर्ग का राज्य बलि से लेकर इन्द्र को दे दिया प्रह्लादजी ने भगवान की प्रार्थना की तथा शुक्राचार्यजी ने भगवान की प्रार्थना की तब भगवान ने उन्हे बलि के यज्ञ को पूर्ण करने की आज्ञा दी यज्ञ पर्ण हआ ब्रह्मादि देवताओं ने भगवान का अभिषेक किया और उन्हे उपेन्द्र का पद दिया और भगवान अन्तर ध्यान हो गए।

इति त्रयोविंशोऽध्याय:

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[ अथ चतुविंशोऽध्यायः ]

भगवान के मत्स्यावतार की कथा-श्रीशुकदेवजी बोले-राजन! एक हजार दिव्य वर्षों का ब्रह्माजी का एक दिन होता है और उतनी ही बडी रात्रि-रात्री में जब बृह्मा शयन करते हैं तभी ब्राह्मी प्रलय होती है। एक समय की बात है जब द्रविड़ देश का राजा सत्यव्रत कृतमाला नदी में स्नान कर तर्पण कर रहा था। उसकी अंजली मे छोटी सी मछली का बच्चा आ गया दयावश उसे राजा ने अपने कमंडलु में डाल लिया जो घर आतेआते इतना बढ़ गया कि कमंउलु भर गया राजा ने उसे तालाब में डाल दिया जब तालाब भी भर गया तब उसे समुद्र में डालते हुए राजा बोले मत्स्य रूप में मोहित करने वाले आप कौन देव हैं। भगवान बोले आज के सातवें दिन ब्राह्मी प्रलय होगी उस समय तुम्हें समुद्र में एक नाव मिलेगी तुम समस्त जीवों के बीजों को लेकर नाव में बैठ जाना इतना कह भगवान अन्तर्ध्यान हो गए ब्राह्मी निषा आई ब्रह्माजी को नींद आने लगी तो चारों वेद उनके मुख से निकल बाहर आ गए जिन्हें हयग्रीव राक्षस चुरा कर ले गया उसे मारने के लिए ही भगवान ने मत्स्यावतार धारण किया निषा प्रलय हुइ एक नाव जिसका रस्सा मत्स्य के सींग में बंधा था आई जिसका प्रतिक्षा सत्य ब्रत कर रहे थे वे उसमें बैठ गए निषा पर्यन्त उसमे घूमत रही जब निषा समाप्त हई भगवान ने हयग्रीव को मार वेद ब्रह्माजा का ५ दिए सत्य ब्रत को सातवे वैवस्वत मनु घोषित कर दिए।

इति चतुविंशोऽध्यायः

इति अष्टम स्कन्ध समाप्त

अथ नवम स्कन्ध प्रारम्भ

[ अथ प्रथमोऽध्यायः ]

वैवस्वत मनु के पुत्र सुद्युम्न की कथा-श्रीशुकदेवजी बोलेपरीक्षित! अब तुम्हे सातवें वैवस्वत मनु का वंश सुनाते है सूर्य पुत्र श्राद्वदेव ही वैवस्वत मनु थे श्राद्धदेव की पत्नि श्रद्धा के जब कोई संतान नहीं हुई कुलगुरु वशिष्ठजी ने संतान के लिए मित्रवरुण नामक यज्ञ करवाया। श्रद्धा चाहती थी कि उसके कन्या हो अत: होता के पास जाकर प्रणाम पूर्वक बोली मुझे कन्या चाहिए होता ने वषट कार मंत्र की आहूति दी होता के इस विपरीत कर्म से यज्ञ के उपरान्त एक कन्या का जन्म हुआ इसका नाम इला हुआ राजा ने गुरुजी से कहा यह पुत्र के स्थान पुत्री कैसे हो गई। गुरुजी बोले हो सकता है रानी के मन मे ऐसा हो वशिष्ठ जी ने योग बल से कन्या को पुत्र बना दिया जिसका नाम सुद्युम्न हुआ। ___एक दिन सुद्युम्न घोड़े पर सवार होकर शिकार के लिए गया वह बहुत दूर निकल गया और एक ऐसी जगह पहुंच गया जहां जाते ही वह स्त्री बन गया उसके साथी भी स्त्री बन गए उधर से बुधजी की सवारी आ रही थी उन्होंने देखा कि एक सुन्दर स्त्री आ रही है। उससे विवाह कर लिया जिससे पुरुरवा नामक पुत्र हुआ जब राजा को मालुम हुआ कि उसका पुत्र फिर स्त्री बन गया वशिष्ठ जी ने शिवजी की प्राथना की तो शिवजी बोले यह एक माह स्त्री एक माह पुरुष रहेगा परीक्षित ने पूछा उस बन मे जाने पर वह स्त्री कैसे हो गया इस पर शुकदेवजी ने बताया कि एक समय शिव पार्वती वहां एकान्त विहार कर रहे थे वहाँ कोई आ गया जिससे उनकी क्रीडा में विघ्न हो गया अत: पार्वती ने शाप दिया जो यहां आएगा स्त्री हो जाएगा बहुत काल राज्य करके सुद्युम्न अपने पुत्र पुरुरवा को राज्य देकर आप वन में चले गए।

इति प्रथमोऽध्यायः

[ अथ द्वितीयोऽध्यायः ]

पृषध्र आदि मनु के पांच पुत्रों का वंश-श्रीशुकदेवजी बोले राजन सुद्युम्न के वन चले जाने पर श्राद्धदेव ने तपस्या करके दस पुत्र प्राप्त किए इनमें इक्ष्वाकु सबसे बडे थे इनके एक पुत्र थे पृषध्र वशिष्ठजी ने उन्हे गौ सेवा में नियुक्त किया था एक दिन वर्षा काल की अंधेरी रात में गौ रक्षा कर रहे थे अंधेरे में एक सिंह आ गया बिजली की चमक में पृषध्र ने सिंह पर वार किया निशाना चूक ने से वह एक गाय को लग गया और गाय समाप्त हो गई इससे गुरुजी ने उसे शूद्र होने का शाप दे दिया भगवान की भक्ति कर वह परमात्मा को प्राप्त हो गया मनु का सबसे छोटा पुत्र था कवि वह भी भगवान की भक्ति कर परम धाम चला गया।

इति द्वितीयोऽध्यायः

[ अथ तृतीयोऽध्यायः ]

च्यवनऋषि और सुकन्या का चरित्र-श्रीशुकदेवजी बोले राजन् मनु के एक पुत्र थे शर्याति उनके सुकन्या नामकी एक कन्या थी एक दिन राजा शर्याति सुकन्या के साथ च्यवन ऋषि के आश्रम पर पहुच गए पर वहाँ इधरउधर ढूंढने पर भी ऋषि नही मिले सुकन्या सखियों के साथ घूमती हुई वहा पहुची जहां एक मिट्टी का डूमला था जिसमें कोई दो चीजें चमक रही थी कौतुहल वश सुकन्या ने उन्हें एक कांटे से बांध दिया उससे रक्त की एक धारा बह निकली वह घबराई हुई पिता के पास पहुंची वहां सबके पेट फुल रहे थे न जाने किस देव का अपराध हुआ है सुकन्या ने आप बीती बताई सब लोग वहाँ गए मिट्टी के ढेर से च्यवन ऋषि को निकाला भयभीत हो शांति ने सुकन्या च्यवन ऋषि को ब्याह दी और अपने घर आ गए सुकन्या उनका सेवा करती रही इधर से अश्विनी कुमार आ निकले वे सुकन्या से बोल इन्द्र ने हमारा यज्ञ भाग बन्द कर दिया है यदि उसे आप दिला दें तो हम ऋषि का नेत्र प्रदान कर सकते हैं सुकन्या ने विश्वास दिलाया अश्विनी कुमारों ने ऋाप के नेत्र ठीक कर उन्हें युवा बना दिया एक दिन अपनी पुत्री को देखने शर्याति उधर आ निकले एक युवा पुरुष के साथ अपनी कन्या को देख वे बड़े नाराज दए जब ज्ञात हआ कि वे ही च्यवन ऋषि हैं वे बड़े प्रसन्न हुए सुकन्या ने अपने पिता यज्ञ करनेवाले थे को कह कर अश्विनी कुमारों को यज्ञ भाग दिला दिया।

इति तृतीयोऽध्यायः

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[ अथ चतुर्थोऽध्यायः ]

नाभाग और अम्बरीष की कथा-श्रीशुकदेवजी कहते है-परीक्षित! मनु के एक पुत्र थे नभग उनके पुत्र थे नाभाग वे जब ब्रह्मचर्य व्रत पूर्ण कर घर लौटे तो पिता की संपत्ति तो शेष भाई बाँट चुके थे भाईयों से जब अपने हिस्से के बारे मे पूछा तो भाईयों ने केवल पिताजी को ही उनके हिस्से में दिया। __ यह जान वह पिताजी के पास गया पिता ने कहा कोई बात नहीं तुम आगीरस गोत्र के ब्राह्मण जहाँ यज्ञ कर रहे है वहाँ जावो यज्ञ में उनका सहयोग करो वे यज्ञ पश्चात् बचा हुआ धन तुमको दे देगें उसने वैसा ही किया और यज्ञ में बचा हुआ धन उसे मिल गया वह उसे लेकर जब चलने लगा तो उत्तर दिशा से एक काला पुरुष आया और कहने लगा यज्ञ में बचा हुआ। ____धन मेरा होता है प्रमाण मे आप अपने पिता से पूछ लो वह पिता के पास गया और उस पुरुष की कही हुई बात उनसे पूछी पिता बोले सही है बचा हुआ भाग शिवजी का होता है वह शीघ्र यज्ञ स्थल पर पहुंचा और धन शिवजी के चरणों में रख दिया शिवजी ने प्रसन्न होकर वह धन नाभाग को दे दिया।

नाभाग के पुत्र थे अम्बरीष वे परमात्मा के बड़े भक्त थे एक समय ऋषि दुर्वासा उनके यहाँ आये राजा ने उनका स्वागत किया ऋषि ने स्नान के बाद भोजन के लिए कहा वे स्नान के लिए चले गए राजा के निर्जला एकादशी के पारणा खोलने का दिन था त्रयोदशी लगने वाली थी पारणा खोलने का समय निकले जा रहा था ऋषि लोग नही आए तो ब्राह्मणों की आज्ञा से तीन आचमनी भगवान का चरणा मृत लेकर पारणा खोल लिया दुर्वासा जान गए उन्होने क्रोधित हो एक कृत्या अम्बरीष पर छोड़ी जो राजा को खाने दौड़ी इतने में श्री सुदर्शनजी आ गए कृत्या के टुकड़े-टुकड़े कर दुर्वासा के पीछे हो गए दुर्वासा डरकर ब्रह्माजी की शरण में गए।

ब्रह्मोवाचस्थानं मदीयं सहविश्व मेतत्

_क्रीडावसाने द्विपरार्ध संज्ञे।

भ्रूभंग मात्रेण हि संदिधक्षो:

कालात्मनो यस्य तिरोभविष्यति।।

ब्रह्माजी बोले मेरी केवल दो परार्ध आयु उन भगवान के पलक झपकते. ही पूर्ण हो जाती है उनके भक्त द्रोह से बचाने की हमारी क्षमता नही है। दुर्वासा दौड कर शिवजी के पास गए

वयंन तात प्रभवाम भूम्नि

यस्मिन् परेंअन्ये अप्यज जीवकोशाः।

भवन्ति काले न भवन्ति हीदृशाः

सहस्रशो यत्र वयं भ्रमामः।।

शिवजी बोले जिनकी श्रृष्टि मे हम जैसे हजारों शिव ब्रह्मा घूम रहे है उनके भक्त का अपराध करने वाले की मैं रक्षा नहीं कर सकता। दुर्वासा हताश हो भगवान की शरण मे गए सुदर्शन उनका पीछा कर रहा था।

अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इवद्विज

सधुभिर्ग्रस्त ह्रदयो भक्तैर्भक्त जनप्रियः।।

भगवान बोले दुर्वासाजी मैं स्वतन्त्र नही हूं मैं तो भक्तों के अधीन है मेरा ह्रदय उन्होने जीत रखा है।

पद-

मैं तो हूं भक्तन को दास भक्त मेरे मुकुट मणी

मोकू भजे भजू मै वाकू हूं दासन को दास

सेवा करे करूं मै सेवा हो सच्चा विश्वास

यही तो मेरे मन मे ठनी झूठा खाउं गले लगाउं

नही जाति को ज्ञान चार विचार कछु नही देखू देखू

मैं प्रेम समान भगत हित नारी बनी पग चापूं

और सेज बिछाउ नोकर बनू हजाम हांकू

बैल बनू गड वारो बिन तनखा रथवान

अलख की लखता बनी अपनोपरण बिसार के

भगतन को परण निभाउं सधु जाचक बनू कहे तो

बेचे तो बिक जाउं और क्या कहुं मै घणी

गरुड छोड बैकुण्ठ त्याग के नंगे पैरों धाउं

जहां जहां भीड पडे भगतनपर तह तह दोडा जाउं

खबर नही करुं अपनी जो कोई भगती करे कपट से

उसको भी अपनाउ साम दाम अरु दण्ड भेद से

सीधे रस्ते लाउं नकल से असल बनी जो कुछ बने सो बन रही

कर्ता मुझे ठहरावे नरसी हरि चरननकोचेरो

ओर न शीश नवावे पतिव्रता एक धणी

इति चतुर्थोऽध्यायः

bhagwat katha in hindi

[ अथ पंचमोऽध्यायः ]

दुर्वासाजी की दुःख निवृति-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं कि परीक्षित इस प्रकार भगवान के भी मनाकर देने पर दुर्वासा भयभीत हो । अम्बरीष की शरण में गए और जाकर उनके चरणों में गिर गए अम्बरीष ने उठाकर हृदय से लगा लिए और सुदर्शनजी की स्तुति कर ने लगे।

सुदर्शन नमस्तुभ्यं सहस्राराच्युत प्रिय।

सर्वास्त्रघातिन् विप्राय स्वस्ति भूया इडस्पते।।

सुदर्शनजी शान्त हो गए और दुर्वासाजी के दुःख की निवृति हो गई और बोले धन्य हैं आज भगवान के भक्तों की महिमा देखी अम्बरीष दुर्वासा भगे थे तब से वही खड़े थे भोजन भी नही किया था पहले दुर्वासाजी की पूजा की उनके कारण से उन्हें जो पीड़ा हुई उसकी क्षमा याचना की फिर उन्हें भोजन करा कर विदा किया और स्वयं ने भोजन किया।

इति पंचमोऽध्यायः

[ अथ षष्ठोऽध्यायः ]

इक्ष्वाकु के वंश का वर्णन मान्धाता और सौभरी ऋषि की कथा-सप्तम वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के वंश में एक राजा युवनाश्व हुए उनके कोई सन्तान न होने पर उन्होंने बन मे जाकर ऋषियों से पुत्र प्राप्ति के लिए इन्द्र देवता का यज्ञ कर वाया एक दिन रात्रि में राजा को प्यास लगी इधर उधर कही जल नहीं मिला तो उन्होने यज्ञ मंडप मे एक घड़े में अभिमंत्रित जल रखा था उसे पी लिया प्रात: ऋषियों को घड़ें में जल नहीं मिला तो पूछने पर राजा ने बताया कि जल तो वह पी गया तब तो ऋषियों ने कहा राजा अब तो तुम्हे गर्भ धारण करना पडेगा राजा ने गर्भ धारण किया समय पर उसके पेट को चीर कर बालक को निकाल लिया किंतु उसे दूध कौन पिलावे इन्द्र ने उसके मुँह में अपनी अमृत मयी अगुंली दे दी और कहा मान्धाता मैं तुम्हारी धाय हूं उसका नाम मान्धाता हुआ वे बड़ें प्रतापी चक्रवर्ती राजा हुए। उनके पचास कन्याऐ थी। एक दिन सौभरी ऋषि के मन में गृहस्थ पालन की इच्छा हुई वे विवाह के लिए मान्धाता राजा के पास गए और जाकर उनसे एक कन्या की याचना की मान्धाता ने शाप के भय से मना तो नहीं किया किंतु कहा तुम्हे कोई कन्या पसंद कर ले उसे ले लो सौभरी ने योग बल से अपना शरीर दिव्य बना लिया और कन्याओं के महल मे प्रवेश किया उन पचासों ने ही ऋषि के गले में माला डाल दी सौभरी उन्हें लेकर अपने आश्रम चले गए।

इति षष्ठोऽध्यायः

[ अथ सप्तमोऽध्यायः ]

राजा त्रिशंकु और हरिश्चन्द्र की कथा-श्रीशुकदेवजी बोले राजन् मान्धाता के वंश में राजा सत्यव्रत हुए इन्हें ही त्रिशंकु भी कहते है एक बार राजा सत्यव्रत अपने गुरु वशिष्ठ से बोले मैं सशरीर स्वर्ग जाना चाहता हूं इस पर वशिष्ठजी ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया तब ये विश्वामित्र जी के पास गए उन्होंने उसे सशरीर अपने तप बल से स्वर्ग भेज दिया। देवताओं ने उसे वहां से धकेल दिया जब वह गिरने लगा विश्वामित्रजी ने अपने तप बल से बीच में ही रोक दिया वह आज भी बीच में उल्टा लटक रहा है। त्रिशंकु के पुत्र हरिश्चन्द्र हुए इनके कोई सन्तान नही थी अत: उन्होंने वरुण देवता से प्रार्थना की और कहा यदि मेरे पुत्र हुआ तो उसी से आपका यजन करुंगा हरिश्चन्द्र को पुत्र हो गया तब वरुण देवता आए और उनसे अपना बलिदान मागा हरिश्चन्द्र उसे पहले दस दिन बाद फिर दांत निकल ने पर ऐसे टालते रहे जब रोहित को यह मालूम हुआ वह जंगल में भग गया।

वरुण ने नाराज हो हरिश्चन्द्र को महोदर रोग से ग्रसित कर दिया जब रोहित को यह मालूम हुआ वे एक यज्ञ पशु शुन शेप को खरीद कर पिता को दे दिया हरिश्चन्द्र ने उसे वरुण को देकर रोग से छुटकारा पाया।

इति सप्तमोऽध्यायः

bhagwat katha in hindi

[ अथ अष्टमोऽध्यायः ]

सगर चरित्र-हरिश्चन्द्र के वंश मे एक राजा हुए बाहुक उनकी बृद्धापकाल से मृत्यु हो गई उसकी रानी जब सती होने लगी तब गर्भवती होने के कारण उसे रोक दिया जब उसकी सोतों को यह मालुम हुआ कि वह गर्भवती है उसे खाने में जहर दे दिया वह बालक जहर यानी गर के साथ पैदा हुआ अत. उसका नाम सगर हुआ।

सगर के एक रानी से साठ हजार पुत्र थे दूसरी रानी से एक ही पुत्र था असमंजस राजा सगर ने कई अश्वमेध यज्ञ किए इन्द्र उनके यज्ञ का घोड़ा चरा कर ले गया उसके साठ हजार पुत्र घोड़ा खोजते हुए कपिल मुनी के आश्रम मे पहुँचे जहां घोडा बंधा था। घोड़े को देख कर वे मुनी को भलाबुरा कहने लगे जब मुनी की आंखे खुली सबके सब जलकर भस्म हो गए जब वे नही लौटे तो सगर ने असमंजस के पुत्र अंशुमान को घोडा खोजने भेजा वह अपने चाचाओं के चरण चिह्न पर कपिल आश्रम पहुचे वहां घोड़ा बंधा था और साठ हजार राख की ढेरियां देखी वह समझ गया मेरे चाचा भस्म हो गए मुनी को प्रणाम किया और अपना परिचय दिया मुनी बोले घोड़े के बारे में हम कुछ नहीं जानते अपना घोड़ा लेजावो तुम्हारे चाचाओं का उद्धार गंगाजी से होगा

इति अष्टमोऽध्यायः

[ अथ नवमोऽध्यायः ]

भागीरथ चरित्र और गंगावतरण-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित अपने चाचाओं के उद्वार के लिए गंगाजी को पृथ्वी पर लाने के लिए अंशुमान ने तपस्या की किंतु वह अपने इस कार्य मे सफल नहीं हुए तब उनके पुत्र दिलाप ने भी अपने पिता का अनुसरण करते हुए तपस्या की किंतु वे भी सफल नही हुए तब उनके पुत्र भगीरथ ने भी घोर तपस्या की गंगा उन पर प्रसन्न हुइआर प्रकट होकर बोली मैं तुम पर प्रसन्न हँ वरदान माँगो इस पर भगीरथ ने उनसे अपने साथ पृथ्वी पर आने की प्रार्थना की गंगा बोली जब मैं पृथ्वी पर गिरुगी तो मेरे वेग को कौन धारण करेगा इस पर भगीरथ बोले भगवान शिव आपके वेग को धारण करेगें गंगा प्रसन्न हो शिवजी के मस्तक पर गिरी शिवजी ने उसे अपनी जटा में बाँध लिया और उसमें से तीन बूंद छोडी जो तीन धाराओं मे विभक्त हो गई एक अलका पुरी होती हुई आई अत: उसका नाम अलख नन्दा हुआ दूसरी मंदाकिनी दोनों रुद्र प्रयाग में आकर एक हो गई तीसरी भगीरथी जो देव प्रयाग में आकर अलख नन्दा से मिल गइ इस तरह पूर्ण गगा समस्त भारत का सिंचन करते हुए गंगा सागर मे जहां सागर पुत्रों की भस्मी पड़ी थी को सींचती हुइ समुद्र में मिल गई।

इति नवमोऽध्यायः

[ अथ दशमोऽध्यायः ]

भगवान श्रीराम की लीलाओं का वर्णन

खट्वांगाद् दीर्घबाहुश्च रघुस्तस्मात् पृथुश्रवाः।

अजस्ततो महाराजस्तस्माद् दशरथोअभवत्।।

शुकदेव बोले मनु पुत्र इक्ष्वाकु के वंश मे खटांग के दीर्घबाहु उनके रघु उनके पृथुश्रवा उनके अज और अज के महाराजा दशरथ हुए इनके तीन रानियां थी जिनके यहां साक्षात् भगवान अपने अंशों सहित राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुध्न के रुप में प्रकट हुए राम, लक्ष्मण ने ऋषि विश्वामित्र के साथ जाकर उनके यज्ञ की रक्षा की वारों भाईयों ने जनकपुर में जाकर जनक की पुत्रियों से विवाह किया। __राजा दशरथ ने सब प्रकार योग्य अपने जेष्ठ पुत्र राम को राजा बनाने का विचार किया किन्तु भरत की माता कैकेयी भरत को राजा बनाना चाहती थी उसने राजा दशरथ से अपने पुराने धरोहर दो वरदान मांग लिए जिसमें एक में भरत को राज्य दूसरे में राम को चौदह वर्ष का बन वास माँग लिया राम चौदह वर्ष के लिए लक्ष्मण और सीता के साथ बन में गए भरत शत्रुघ्न ननिहाल थे राम के बन गमन से दुखी दशरथ का स्वर्गवास हो गया भरत भी राज्य स्वीकार नहीं किया।

वे रामजी को मनाने वन में गए किन्तु राम नहीं लौटे बल्कि उन्हें चौदह वर्ष राज्य संभाल ने को कहा वन मे राम को शूर्पणखा मिली लक्ष्मण ने उसके नाककान काट लिए जिसके कारण रावण सीता का हरण कर ले गए राम रावण का हो संग्राम हुआ जिसमें राक्षसों सहित रावण मारा गया चौदह वर्ष पश्चात् राम सीता लक्ष्मण के साथ वापस अयोध्या आ गए। रामजी का राज्याभिषेक हुआ।

इति दशमोऽध्यायः

[ अथ एकादशोऽध्यायः ]

भगवान श्रीरामकी शेष लीलाओं का वर्णन-भगवान श्रीराम धर्मपूर्वक अयोध्या का राज्य करने लगे उन्होने कई यज्ञ किए एक बार जन आलोचना के कारण सीता को बन मे भेज दिया सीता गर्भवती थी उसने बालमीक आश्रम मे लव कुश को जन्म दिया एक बार रामजी ने अश्वमेध यज्ञ किया यज्ञ का घोड़ा छोडा गया रक्षा के लिए शत्रुध्न साथ थे घोड़ा घूमता हुआ बालमीक आश्रम के समीप पहुंचा वहां लव-कुश ने घोड़ा पकड़ लिया शत्रुध्न के साथ संग्राम हुआ शत्रुध्न बंदी बना लिए गए लक्ष्मण भरत एक-एक करके बंदी बना लिए गए तब रथ में सवार हो राम स्वयं युद्व में आए और लव-कुश से युद्ध करने लगे लव कुश का युद्ध कौशल देख राम चकित रह गए ओह! ये किस के बालक है इतने मे सीता वहाँ आ गई और उसने रामजी को देखा लव-कुश को युद्ध से रोक दिया बालमीकी जी भी आ गए उन्होंने दोनों ओर का परिचय कराया और साता सहित दोनों पुत्रों को रामजी को सौंप दिया किंतु सीता अयोध्या नहीं गई वह इस प्रतिक्षा में थी कि राम को उनकी अमानत दोनों पुत्र दे दे सो देकर वह सबक देखते-देखते पृथ्वी में समाहित हो गई रामजी बड़ें दुखी हुए और सरयू का चारों भाई भी विमानों में बैठ कर अपने लोक को पहुंच गए।

इति एकादशोऽध्यायः

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[ अथ द्वादशोऽध्यायः ]

इक्ष्वाकु वंश के शेष राजाओं का वर्णन-मनु पुत्र इक्ष्वाकु का वंश बड़ा ही पवित्र है इसमें बड़े-बड़े प्रतापी राजा हुए उनका वंश अब तक भी चल रहा है क्यों न हो जहाँ साक्षात् रामजी प्रकट हुए हों।

इति द्वादशोऽध्यायः

[ अथ त्रयोदशोऽध्यायः ]

राजा निमि के वंश का वर्णन-इक्ष्वाकु के पुत्र थे निमि एक बार वे वशिष्ठ ऋषि के पास यज्ञ करवाने के लिए आए वशिष्ठजी ने कहा राजन इस समय मैं इन्द्र का यज्ञ कराने जा रहा हूँ उसके बाद आकर आपका यज्ञ कराउगाँ और वे इन्द्र का यज्ञ कराने चले गए निमि ने विचार किया कि क्षण भंगुर संसार है कल रहें न रहें उन्होंने अन्य आचार्य से यज्ञ करवा लिया जब वशिष्ठजी इन्द्र का यज्ञ करा कर लौटे तो देखाकि निमि यज्ञ करा चुके तो उन्होने उसे शाप दिया कि तुम्हारा देहपात हो जाय निमि ने भी वशिष्ठजी को शाप दिया तुम्हारा भी देहपात हो जावे वशिष्ठजी ने अपना शरीर छोड़ दिया और मित्रवरुण के द्वारा उर्वशी के गर्भ से जन्म लिया निमि ने भी शरीर छोड़ दिया और ब्राह्मणों की आज्ञा से सब प्राणियों के नेत्रों में निवास किया उनके वंश में अनेक राजा हुए जो मिथिला में रहने के कारण मैथिल कहलाए।

इति त्रयोदशोऽध्यायः

[ अथ चतुर्दशोऽध्यायः ]

चन्द्र वंश का वर्णन-भगवान विष्णु की नाभी से कमल-कमल से ब्रह्मा उनसे अत्रि और अत्रि से चन्द्रमा का जन्म हुआ चन्द्रमा बड़े बलवान थे उन्होंने एक बार बृहस्पतिजी की पत्नि तारा का हरण कर अपने पास रख लिया बृहस्पति और चन्द्रमा के बीच घोर युद्ध हुआ चन्द्रमा की ओर से शुक्राचार्य ओर राक्षस भी लड़ने लगे उधर बृहस्पतिजी की ओर से देवताभी युद्ध करने लगे अन्त में ब्रह्माजी ने आकर युद्ध बंद करा दिया और तारा बहस्पतिजी को दिला दी वह गर्भवती थी उससे बुध का जन्म हुआ जो तारा के कहने से चन्द्रमा को दे दिया बुध से इला के गर्भ से पुरुरवा का जन्म हुआ पुरुरवा बड़े वीर थे उनके द्वारा उर्वशी के गर्भ से छः पुत्र हुए।

इति चतुर्दशोऽध्यायः

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[ अथ पंचदशोऽध्यायः ]

ऋचीक जमदग्नि ओर परशुरामजी का चरित्र-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि पुरुरवा के छ: पुत्र थे। आयु, श्रुतायु, सत्यायु, रथ, जय और विजय इनमें विजय के वंश में एक राजा हुए कुश इनके चार पुत्र थे उनमें से कुशाम्ब के गाधी हुए। गाधी के एक पुत्री थी सत्यवति जो ऋचीक ऋषि को ब्याही थी जब सत्यवती को कोई सन्तान न थी तब उसने पति से प्रार्थना की कि उसके तथा उसकी माता के लिए पुत्र प्राप्ति का कोई उपाय करे ऋषि ने दो चरु तैयार किए एक सत्यवति के लिए दूसरा उसकी माँ के लिए ओर स्नान करने चले गए पीछे से सत्यवति की माँ ने देखा कि ऋषि ने अपने लिए अच्छा बनाया होगा सत्यवति से उसका चरु लेकर अपना उसे दे दिया जब यह ऋषि को मालुम हुआ तो वे बोले यह तो बहुत गलत हो गया अब सत्यवति के क्षत्रिय पुत्र होगा और गाधी के ब्राह्मण सत्यवति बहुत गिड़ गिड़ाई तब ऋषि बोले पुत्र नहीं तो पोत्र अवश्य ही क्षत्रिय स्वभाव का होगा गाधी के यहाँ विश्वामित्रा ऋषि हुए सत्यवति के पुत्र तो जमदग्नि ऋषि हुए पौत्र क्षत्रिय स्वभाव के परशुरामजी हुए रेणुऋषि की पुत्री रेणुका से जमदग्नि का विवाह हुआ। उस समय सहस्रबाहु अर्जुन एक दिन जमदग्नि ऋषि के यहा पहुच गए ऋषि के यहाँ कामधेनु थी ऋषि ने राजा का खूब सत्कार किया राजा ने देखाकि यह सब काम धेनु का प्रभाव है वह कामधेनु को ही छीन कर लेगया जब कही से परशुरामजी आए और उन्हे जब ज्ञात हुआ तो वे जाकर सहस्रबाहु का भुजाओं का छेदन कर सिर घड से अलग कर दिया और कामधेनु को ल आए।

इति पंचदशोऽध्यायः

[ अथ षोडषोऽध्यायः ]

परशुरामजी का क्षत्रिीय संहार विश्वामित्र के वंश की कथाश्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि एकदिन जमदग्नि ऋषिकी पत्नि रेणुका ऋषिकी संध्या के लिए जल लेने गई थी वहाँ एक गंधर्व अप्सराओं के साथ जल क्रीड़ा कर रहा था उसे देखने लगी इसलिए कार्य में देर हो गई ऋषि उनके मानसिक व्यभिचार को जान गए आने पर ऋषि ने अपने पुत्रों को आज्ञा दी कि अपनी माता का सिर काट दो सब पुत्रों ने मना कर दिया तब परशुरामजी को आज्ञा दी माता और सब भाईयों के सिर काट दो परशुराम जी ने माता और सब भाइयों के सिर काट दिए प्रसन्न हो ऋषि बोले वरदान मागों तब परशुरामजी ने कहा मेरी माता और भाई जीवित हो जावे सब जीवित हो गए एक दिन परशुरामजी कही गए थे पीछे से सहस्रबाहु के पुत्रों ने जमदग्नि को मार दिया जिससे क्रोधित हो परशुराम जी ने चारों ओर क्षत्रियों का संहार कर दिया।

इति षोडषोऽध्यायः

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[ अथसप्तदशोऽध्यायः ]

क्षत्रवृद्ध रजि आदि राजाओं के वंश का वर्णन

इति सप्तदशोऽयाय:

[ अथ अष्टादशोऽध्यायः ]

ययाति चरित्र-श्रीशुकदेवजी कहते हैं कि हे राजा परीक्षित चन्द्र वंश में नहुष पुत्र ययाति राजा हुए है उसी समय दानव राज बृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा गुरु शुक्राचार्यजी की पुत्री देवयानी की सहेली थी दोनों सहेलियां अन्य सखियों के साथ स्नान को गई वहां उन्होने अपने वस्त्र उतार स्नान किया तभी उधर से शिवजी आ निकले सबने दौड़कर अपने-अपने वस्त्र पहिन लिए गलती से शर्मिष्ठा ने देवयानी के वस्त्र पहन लिए इस पर देवयानी बहुत नाराज हुई और शर्मिष्ठा को उल्टा सीधा कहने लगी शर्मिष्ठा ने भी क्रोध में आ देवयानी को निर्वस्त्र कुए में धकेल दिया और घर आ गई उधर से राजा ययाति निकल रहा था कुए में निर्वस्त्र कन्या को देखा उसने अपना डुपट्टा कुए में डाल दिया जिसे देवयानी ने पहन लिया राजा ने देवयानी का हाथ पकड़ कुएं से निकाल लिया और चलने लगा तो देवयानी राजा से बोली राजा स्त्री का हाथ जो पुरुष एक बार पकड़ लेता है उसे छोडता नहीं राजा ने कहा आप ब्राह्मण हैं मैं एक क्षत्रिय यह उल्टा विवाह संभव नही देवयानी बोली मुझे शाप हैं मेरा विवाह ब्राह्मण कुल में नही होगा राजा बोले क्या आपके पिता इसे स्वीकार करेगें देवयानी ने कहा अवश्य करेगें यह बात जब शुक्राचार्यजी को मालुम हुई वे राजा बृषपर्वा पर बहुत नाराज हुए और शर्मिष्ठा को दासी बनाकर देवयानी का विवाह ययाति से कर दिया देवयानी के दो पुत्र हुए यदु और तुर्वसु किन्तु शर्मिष्ठा के भी तीन पुत्र हो गए द्रय, अनु और पुरु यह बात जब शुक्राचार्यजी को मालुम हुई कि ययाति शर्मिष्ठा को भी पत्नि मानता है और उसके भी बच्चे हैं बहुत नाराज हुए और ययाति को शाप दिया तू वृद्ध हो जा ययाति ने जब क्षमा याचना की तो वे बोले कोई पुत्र तुम्हे अपनी जवानी दे दे तो ले लो इस पर ययाति ने सबसे बड़े पुत्र यदु को अपनी जवानी देने को कहा तो वे इन्कार हो गए तब छोटे पुत्र पुरु ने स्वीकार कर लिया ययाति युवा हो गए विषय भोगों मे लिप्त हो गए।

इति अष्टादशोऽध्यायः

[ अथ एकोनविंशोऽध्यायः ]

ययाति का गृहत्याग-श्रीशुकदेवजी बोले राजन् विषय भोगों में लिप्त राजा ययाति को एक दिन ज्ञान हुआ कि मैं कितना इन्द्रिय लोलुप हूं दूसरे की दी हुई जवानी से संसार के भोगों को भोग रहा हूं उसने देवयानी को बुलाकर कहा प्रिये तुम्हे एक कहानी सुनाता हूँ। एक जंगल में एक बड़ा हृष्ट पुष्ट बकरा था घूमते-घूमते वह एक कुए के पास गया वहा उसने कुएं में पड़ी एक बकरी को देखा वह बड़ा कामी था उसने उस बकरी को अपनी पत्नी बनाना चाहा वह कुऐं के बराबर एक गड्ढा खोदने लगा और बकरी को कुऐं से निकाल लिया और उसे अपनी पत्नी बना लिया और उसके साथ विषयों को भोगता रहा जंगल में उसे और भी बकरिया मिली वह उनके साथ भी भोग भोगने लगा किंतु उसकी तृप्ति नही हुई। प्रिये मेरी भी वही स्थिति है मैं संसार के भोगों में डूबा हुआ हूं अब मुझे इनसे वैराग्य हो गया है यह कह कर ययाति वन में भजन करने चला गया।

इति एकोनविंशोऽध्याय

[ अथ विंशोऽध्यायः ]

पुरु के वंश राजा दुष्यन्त और भरत के चरित्र का वर्णन श्री शुकदेव जी कहते है कि ययाति पुत्र पुरु के वंश में हुए थे दुष्यन्त एक बार वे वन भ्रमण के लिए गए थे एक ऋषि के आश्रम पर पहुंचे वहां एक सुन्दर स्त्री बैठी थी जिसे देख दुष्यन्त मोहित हो गए और उससे बोले देवी आप कौन हैं इस वन में अकेली क्या कर रही हैं। वह बोली मेरा नाम शकुन्तला है विश्वामित्र की पुत्री मेनका के गर्भ से जन्मी कण्वऋषि के, द्वारा पालित हूँ।

मैं यही आश्रम में रहती हूं आप मेरे अतिथि हैं भोजन करें विश्राम करे राजा ने भोजन कर वहीं रात्रि निवास किया रात्रि में शकुन्तला दुष्यन्त ने गंधर्व विवाह कर सहवास किया जिससे शकुन्तला गर्भवति हो गई समय पाकर उसके एक पुत्र हुआ कण्व ने उसका नाम भरत रखा भरत के कई पुत्र थे किन्तु योग्य न होने के कारण उन्होंने वृहस्पति और उतथ्य के पुत्र भारद्वाज को गोद ले लिया तथा भारद्वाज के पुत्र मन्यु को राजा बना भरत वन में भजन करने को चले गए।

इति विंशोऽध्यायः

[ अथ एकविंशोऽध्यायः ]

भरत वंश का वर्णन राजा रन्ति केव की कथा-श्रीशुकदेव जी बोले मन्यु के पांच पुत्र हुए बृहत्क्षत्र जय महावीर नर गर्ग नर के वंश में न्तिदेव हुए वे जो मिल जाय उसमें संतोष करने वाले थे एक बार वे अड़तालीस दिन तक भोजन नहीं मिला उनपचासवें दिन जब थोडा मिला और सब लोग बाँटकर उसे खाने लगे एक भिक्षुक आ गया उन्हें भोजन उसे दे दिया और जब जल पीने लगे तब एक प्यासा आ गया और जल भी उसको दे दिया और भूखे प्यासे रह गए। यह सब भगवान की माया थी भगवान उनके सामने प्रकट हो गए मन्यु पुत्र बृहक्षत्र का पुत्र हुआ हस्ति जिसने हस्तिनापुर बसाया।

इति एकोविंशोऽध्यायः

[ अथ द्वाविंशोऽध्यायः ]

पांचाल कोरव और मगध देशीय राजाओं का वंश वर्णन-मन्युवंश में दिवोदास के वंशसे पांचाल वंश में द्रुपद की पुत्री द्रोपदी हुई। सुधन्वा के वंश में जरासंध आदि मगध देशीय राजा हुए हस्ती के वंश में शान्तनु आदि कोरव वंशीय राजा हुए।

इति द्वाविंशोऽध्यायः

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[ अथ त्रयोविंशोऽध्यायः ]

अनु द्रयु तुर्वसु और यदुके वंश का वर्णन-ययाति पुत्र यदु का वंश बड़ा ही पवित्र हैं जहाँ साक्षात् परमात्मा श्री कृष्ण अवतरित हुए।

इति त्रयोविंशोऽध्याय

[ अथ चतुर्विशोऽध्यायः ]

यदुवंश में यात्वत पुत्र अंधक के वंश में देवक ओर उग्रसेन हुए देवक के देवकी नामक पुत्री ओर उग्रसेन के कंस का जन्म हुआ इसी वंश में विदुरथ के पुत्र शूरसेन के पुत्र हुए वसुदेव और एक कन्या पृथा कुंती भोज के गोद चले जाने से उसका नाम कुन्ती हो गया।

इति चतुर्विंशोऽध्यायः

इति नवम स्कन्ध संपूर्ण:

अथ दशम स्कन्ध प्रारम्भ

[ अथ प्रथमोऽध्यायः ]

भगवान के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन वसुदेव देवकी का विवाह और कंस के द्वारा देवकी के छः पुत्रों की हत्या-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित् उस समय लाखों दैत्यों के दल ने घमंडी राजाओं का रुप धारण कर अपने भारी भार से पृथ्वी को आक्रान्त कर रखा था। उससे त्राण पाने के लिए वह ब्रह्माजी की शरण में गई उस समय उसने गो रूप धारण कर रखा था उसने ब्रह्माजी को अपना कष्ट सुनाया ब्रह्माजी उसे ले शिवादि देवताओं के साथ क्षीर समुद्र पर पहुंचे और पुरुष सूक्त से भगवान की स्तुति की तो आकाशवाणी हुई वसुदेवजी के घर भगवान अवतार लेगे सब देवता ब्रज में अवतरित होकर उन्हें सहयोग करें स्वयं शेषजी बड़े भाई के रूप में तथा उनकी आद्य शक्ति भी अवतरित होगें। एक बार उग्रसेन पुत्र कंस ने अपनी चचेरी बहिन देवकी का विवाह वसुदेवजी के साथ किया जब वह उसे रथ में बैठा कर पहचाने जा रहा था तभी आकाश वाणी हुई अरे कंस जिसे तू पहुंचाने जा रहा है उसका आठवां पुत्र तेरा काल होगा। आकाश वाणी सुनते ही कंस ने तलवार खेचली केश पकड़ देवकी को नीचे खेंच लिया और मारने को उद्यत हो गया। वसुदेवजी ने कंस को समझाया ओर कहा देवकी के जितनी भी संताने होगी जन्मते ही तुम्हें दे दूगाँ कंस ने देवकी को छोड़ दिया और वसुदेव देवकी को जेल में डाल दिया जेल में ही उने छः पुत्र हुए जिन्हें कंस ने मार दिया।

इति प्रथमोऽध्यायः

[ अथ द्वितीयोऽध्यायः ]

भगवान का गर्भ प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ स्तुतिश्रीशुकदेवजी बोले सातवें गर्भ में स्वयं शेषजी थे जिन्हें योग माया ने रोहिणी के गर्भ में पहुंचा दिया। आठवें गर्भ मे स्वयं भगवान आए देवता लोग उनकी स्तुति करने लगे,

प्रार्थना

(1) आवोमन मोहना आवो नन्द नन्दना

गोपी जन प्राण धन राधा उर चन्दना।। कैसे तुम गणिकाके अवगुण विसारेनाथ

कैसे तुम भीलनी के झूठेवेर खावणा।। कैसे तुम द्वारका मे द्रोपदी की टेर सुनी

कैसे तुम गज काज नंगे पैर धावना।। कैसे तुम सुदामा के छिनमे दरिद्र हरे

वैसे उग्रसेन जी को बन्धन से छुडावोना।। जैसे तुम भारतमें भीष्म को प्रण रायो

वैसे वसुदेवजी के वनधन छुडावना।।

प्रार्थना

(2) यह विनय जग कार से अवतार लो अवतार लो

यह प्रार्थना सरकार से अवतार लो अवतार लो प्रभु सुनिए करुण पुकार को अवतारलो अवतार लो

आवो जगत उद्धार को अवतार लो अवतार लो सर्वत्र स्वार्थ अनीति है नही धर्म कर्म मे प्रीति है

भूले हैं प्राणाधारको अवतार लो अवतार लो बढ रहा अत्याचार है मचरहा हाहा कार है

अब हरन भूमि भारको अवतार लो अवतार लो गायें धरणी पर कट रही अरु धर्म संस्कृति मिटरही

करो घ्वंस पापा चार को अवतारलो अवतारलो सर्वत्र सद्व्यवहार हो हरि भक्ति का विस्तार हो

धरि सगुन वपु साकार को अवतार लो अवतार लो

सत्यव्रत सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनि विहितंच सत्यं

सत्यस्य सत्यमृत सत्य नेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्ना।

इति द्वितीयोऽध्यायः

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[ अथ तृतीयोऽध्यायः ]

भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य-श्रीशुकदेवजी बोले ब्रह्माजी द्वारा स्तुति करने के बाद भगवान प्रकट हो गए

तमद्भुतं बालक मम्बुजेक्षण चतुर्भुज शंख गदायुदायुधम्।

श्रीवत्स लक्ष्मं गलशोभि कोस्तुभं पीताम्बरं सान्द्रपयोद सोभग।।

महार्ह वैदूर्य किरीट कुण्डल त्विषा परिष्वक्त सहस्र कुन्तलं।

उददाम कान्च्यांगद कंकणादिभि विरोच मानं वसुदेव ऐक्षत।।

शंख चक्र गदा पद्म धारण कर चतुर्भज रूप में वसुदेव देवकी को दर्शन दिए। वसुदेव देवकी ने उनकी प्रार्थना की।

विदितोअसि भवान् साक्षात् पुरुषः प्रकृतेः परः।

केवलानुभवानन्द स्वरुप: सर्व बुद्धिदृक।।

वसुदेवजी बोले प्रभो मैं समझ गया आप प्रकृति से परे साक्षात् भगवान हैं आपका स्वरुप केवल आनंद और अनुभव है आप सब बुद्वियों के साक्षी हैं।

देवक्युवाचरूपं यत् तत् प्राहुरव्यक्त माद्यं ब्रह्म ज्योतिर्निगुणं निर्विकारं।

सत्तामात्रं निर्विशेषं निरीहं सत्वं साक्षाद् विष्णुरध्यात्म दीपः।।

देवकी बोली प्रभो वेदों ने आपके जिस रूप को अव्यक्त और सब का कारण बताया है। जो ब्रह्म ज्योति स्वरूप समस्त गुणों से रहित और विकार हीन हैं जिसे विशेषण रहित अनिर्वचनीय कहा गया है वही बुद्धि आदि के प्रकाशक विष्णु आप स्वयं हैं।

त्वमेव पूर्वसर्गेअभूः पृश्नि: स्वायम्भुवे सति।

तदाय सुतपा नाम प्रजापतिरकल्मषः।।

भगवान बोले देवी स्वायम्भुव मनवन्तर मे तुम पृश्नि और वसुदेवजी सुतपा थ तुमने मेरी घोर तपस्या की थी और मेरे प्रसन्न होने पर तुमने मेरे समान पुत्र मागा था इसलिए मैं आया हूं देवकी बोली हमने तो पुत्र मांगा था आप तो बाप दादा बनकर आए हो क्योंकि बालक तो छोटा सा दो हाथ वाला होता है। भगवान बोले मैं छोटा शिशु तो हो जाउंगा पर तुम्हें मुझे गोकुल पहुचाना पड़ेगा।

इत्युक्त्वाअसीद्धरिस्तूष्णीं भगवानात्म मायया।

पित्रोः सम्पश्यतोः सद्यो वभूव प्राकृतः शिशु।।

इतना कह भगवान चुप हो गए और छोटा सा प्राकृत शिशु बन गए वसुदेव देवकी के बेडी हथकडी खुल गए तथा जेल के कपाट भी खुल गए सब पहरे दार सो गए वसुदेव जी ने भगवान को एक टोकने मे रखकर सिर पर रख लिया और गोकुल को प्रस्थान किया। आकाश मे बादल छा गए हल्की-हल्की बूंदे गिरने लगी शेषजी ने अपने फन से भगवान के उपर छाया कर ली। यमुना में प्रवेश किया तो यमुना भगवान के चरण स्पर्श के लिए उपर उठने लगी वसुदेवजी घबराये भगवान ने अपना चरण नीचे बढ़ा दिया यमुना चरण स्पर्शकर शान्त हो गई वसुदेवजी गोकुल पहुचे वहां यशोदा सो रही थी पास ही एक छोटी सी बालिका सो रही थी। वसुदेवजी बालक को वहा सुला बालिका को ले मथुरा आगए बेडी हथकडी वापस लग गए। भगवान बन्धन खुलवाते है माया बन्धन करती है।

इति तृतीयोऽध्यायः

[ अथ चतुर्थोऽध्यायः ]

कंस के हाथ से छूट योग माया का आकाश में जाकर भविष्य वाणी करना-श्रीशुकदेवजी बोले राजन् जेल के कपाट ताले बन्द हो गए पहरे दार जग गए बालक के रोने की आवाज आई पहरे दार दौड़ पडे कंस को सूचना की लडखडाता कंस आया देवकी बोली भैया यह अंतिम एक बालिका है इसे छोड़ दो कंस पहले तो घबराया यह काल की जगह कालिका कहाँ से आ गई फिर देवकी के हाथ से छीन पत्थर पर पछाड ने लगा तो वह हाथ में से छूटकर आकाश में उड़ गई और बोली अरे कंस तू मुझे क्या मारेगा तुझे मार ने वाला वृज में पैदा हो गया है। कंस घबराया तत्काल आपत कालीन मंत्री मंडल की बैठक बुलाई कंस को निश्चिन्त करते हुए मंत्री मडल ने निर्णय लिया कि वज के कल प्रात: होते ही छ: माह तक के बालकों को समाप्त कर दिया जावे।

इतिचतुर्थोऽध्यायः

Bhagwat katha in hindi

[ अथ पंचमोऽध्यायः ]

गौकल मे भगवान का जन्म महोत्सव-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित् वसदेवजी जब बालक को सुला बालिका को लेकर चले गए तब भी यशोदा को पता नही चला कि उसके बालक हुआ है या बलिका प्रात: नन्दजी की बड़ी बहिन सनन्दाजी ने देखाकि यशोदा के पास एक सुन्दर बालक सो रहा है उन्होंने कहा अरी यशोदा देख तेरे एक बालक हुआ है और तुझे खबर भी नहीं क्षण भर में यह बात हवा की तरह सारे बृज में फैल गई नन्द बाबा ने ब्राह्मणों को बुला कर स्वस्ति वाचन करवाया और उन्हें खूब दान दिया बृजवासी दौड़ पड़े नाचते गाते नन्द के द्वार बधाई लेकर पहुंचने लगे नन्द के यहां बडा उत्सव हुआ।

बधाई

बजत बधाइ धुनि छाइ तिहुं लोकन मे

आनन्द नगर के बजत सुर तालकी सुत को जन्म सुनि मुनि देवन आनन्द भयो

दुन्दुभि बाजे पुष्प बरसत रसाल की फुले सब गोपी गोप आज आनन्द उमंग

गेपिन नवेली सुधि भूली आज काल की बृज मे बृजचन्द भयो

यशोदा फरचंद भयो नन्द के आनन्द भयो जय कन्हैया लाल की

बधाई

अनोखो जायो ललना मैं वेदन मे सुन आई

मथुरा में याने जन्म लियो है गोकुल में झूले पलना

लेवसुदेव चले गोकुल को याके चरण पखारे जमना

काहे को याको बन्यो पालनो काहे के लागे फुदना

अगर चन्दन को बन्यो पालनो रेशम के लागे

फुदना दधि माखन को कीच मच्यो है दास भागवत शरणा

इति पंचमोऽध्यायः

[ अथ षष्ठोऽध्यायः ]

श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं कि पहले दिन उत्सव मनाकर दूसरे दिन प्रात: नन्द तो कंस का कर देने तथा उसे पुत्र जन्म की खुश खबर देने मथुरा चले गए और पीछे से कंस की भेजी पूतना गोकुल पहुंची उसने एक सुन्दर गोपी रूप धारण कर नन्द भवन में प्रवेश किया और सीधे वहाँ पहुंची जहाँ लाला सो रहा था उसने झट लाला को गोद में उठाया और अपना जहर भरा स्तन उसके मुँह मे दे दिया भगवान ने स्तन को जोर से पकड़ लिया दूध के साथ उसके प्राण भी पी गए वह अपने असली रूप में आ गई और बाहर गलियारे में धडाम से जाकर गिर गई ओर समाप्त हो गई इसी बीच नन्द बाबा कंस को कर देकर वसुदेव जी के पास पहुंचे व समाचार जाने वसुदेव जी बोले शीघ्र जावो बृज मे उत्पात हो रहे हैं नन्द बाबा शीघ्र गोकुल पहुचे और देखाकि मीलों लम्बा चौड़ा पूतना का शरीर गलियारे में पड़ा है और लाला उसके वक्षस्थल पर खेल रहा है यशोदा ने दौड़कर लाला को गोद में उठा लिया और गो पुच्छ से झाडा लगाया पूतना के शरीर के टुकड़े-टुकडे कर उसे दूर ले जाकर जला दिया उसमें से सुगंध निकली भगवान ने उसका स्तन पान जो कर लिया था।

इति षष्ठोऽध्यायः

Bhagwat katha in hindi

[ अथ सप्तमोऽध्यायः ]

शकट भंजन और तृणावर्त उद्धार-श्रीशुकदेवजी बोले एक समय भगवान का नक्षत्रोत्सव मनाया जा रहा था भगवान का पलना एक छकडे के नीचे बांध रखा था नन्द यशोदा अतिथी सेवा में व्यस्त थे छकडे में एक शकटा सुर नाम का दैत्य छकड़े का रूप बनाकर बैठ गया वह भगवान को मारना चाहता था भगवान ने एक लात मार कर छकडा उलट दिया और शकटासुर समाप्त हो गया भगवान का पलना एक तरफ पड़ा है यशोदा ने लाला को उठा लिया सब सोचने लगे यह छकडा कैसे उलट गया और यह लिस कौन है यशोदा ने लाला को सुला दिया तभी तृणावर्त राक्षस बबंडर का रूप धारण कर लाला को उड़ाकर ले गया भगवान ने आकाश में ही उसे दबाकर समाप्त कर दिया उसका शरीर कई योजन लंबा चौडा धरती पर गिरा उसकी छाती पर लाला खेल रहा है सब ने आश्चर्य किया अरे देखो यह राक्षस हमारे लाला को उडाकर ले गया था। नारायण ने ही इसकी रक्षा की है यशोदा ने दौड़कर लाला को उठा लिया।

इतिसप्तमोऽध्यायः

[ अथ अष्टमोऽध्यायः ]

नामकरण संस्कार और बाललीला-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं एक समय वसुदेवजी के कुल पुरोहित गर्गाचार्यजी गोकुल में आए नन्द जी ने उनका स्वागत किया ओर कहा प्रभो भले पधारे अब आप कृपाकर दोनों लालाओं का नाम करण कर दें गर्गाचार्य बोले बहुत अच्छा और गो शाला में जाकर नाम करण करने लगे।

अयंहि रोहिणि पुत्रो रमयन सुहृदो गुणे

रामइति बलाधिक्या बलं विदुः

यदूनामपृथग्भावात् संकर्षण मुशनपुत

गर्गजी बोले यह जो रोहिणिजी का पुत्र है इसका नाम राम है बल में अधिक होने से इसे बलराम कहेगें।

दूसरा जो सांवला-सांवला है इसका नाम कृष्ण होगा कभी इसने वसुदेवजी के यहां जन्म लिया था अत: इसे वासुदेव भी कहेगे नाम करण संस्कार कराकर गर्गाचार्यजी को विदा किया। गर्गाचार्यजी को विदा करते ही भगवान के दर्शन करने के लिए शिवजी ने यशोदा के द्वार पर अलख जगाया यशोदाजी भिक्षा लेकर निकली मोती भरा थाल शिवजी बोले–

द्वार यशोदा के ठाडे भोले बाबा

दिखलादे मेया मोहे मुरली वाला भिक्षा लेके जावो बाबा लाल डर जायेगा

भेष तुम्हारा लख लाल घबरायेगा भेष तुम्हारो लागे सबसे निराला-दिखलादे

भिक्षा नही लूगां मैया दर्शन का प्यासा आया हूं दूर से मै लेकर के आशा

अंधेरे मे कहीं नही दिखता उजारा-दिखलादे

Bhagwat katha in hindi

शिवजी ने यशोदा से बहुत प्रार्थना की किंतु उन्हेंलाला के दर्शन नहीं कराये निराश हो शिवजी एक पेड के नीचे जाकर बैठ गए और परमात्मा का ध्यान करने लगे प्रभो क्या निराश लौटावोगें दर्शन नहीं दोगे इतने में भगवान जोर जोर से रोने लगे यशोदा कभी दूध पिलाती कभी खिलौना देती पर भगवान रोने से बन्द नही हुए तो यशोदा कहने लगी लाला पै कोई जादू टोना कर दियो है।

एक सखी बोली मैया अभी अभी जो बाबा आए थे मुझे तो यह उन्ही का चमत्कार लगता है यशोदा बोली सखी जल्दी जावो उस बाबा को लेकर आवो एक सखी दौड़कर गइ पास ही बैठे बाबा को लेकर आ गई।

भगवान ने शिवजी को दर्शन दिए और रोना बन्द कर दिया शिवजी के मन में इच्छा हुई कि दर्शन तो हो गए अब चरण स्पर्श और हो जाता तो अच्छा होता ज्योंहि शिवजी मुडे भगवान फिर रोने लगे यशोदा बोली बाबा लाला फिर रोने लगा मैया ऐसा कर इस लाला के चरण को मेरे सिर पर घुमादे फिर लाला कभी नहीं रोयेगा यशोदा ने भगवान के चरण को शिवजी के मस्तक पर रख दिया शिवजी धन्य हो गए। जब राम कृष्ण कुछ बड़े हो गए ओर घुटरन चलने लगे शोभित कर नवनीत लिए। घुटरन चलत रेणु तन मण्डित मुख दधिलेप किए। चारु कपोल लोल लोचन छवि मृगमद तिलक दिए। लट लटकन मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहि पिए कठुला कण्ठ बज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए धन्य सूर एको पल या सुख का शत कल्प जिए अब तो भगवान थोड़े और बड़े हो गए खड़े होकर ठुमक-ठुमक कर चलने लगे माता ने उनके पैरों में पैंजनी पहनादी और सखियां उन्हें नचाने लगी

बाजी बाजी ललाकी पैंजनियां

छूमूछम छननन छुमछुम छननन यशोदा लाल को चलना सिखावत

अगुंली पकड कर दो जनिया पीत झगुलिया तन पहिरावत

टोपी लगावत लटकनियां नन्द बाबा सों बाबा कहत है

तीन लोक के वे धनिया शिव ब्रह्मा जाको पार न पावे

ताहि नचावत ग्वालनियां

एक दिन भगवान रोने लगे यशोदा उन्हें गोद में लेकर मनाने लगी किसी भी तरह नही माने तो माता ने उन्हें चन्द्रमा दिखाकर बोली देख आकाश में कितना सुन्दर खिलौना है तू उसके साथ खेल तो भगवान ने तो जिद कर ली मुझे चन्द्र खिलोना लाकर दो।

इति अष्टमोऽध्यायः

Bhagwat katha in hindi

[ अथ नवमोऽध्यायः ]

श्रीकृष्ण का उखल से बांधा जाना-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है एकदिन यशोदाजी भगवान को गोद में लेकर स्तनपान करा रही थी कि भगवान बोले मैया अपको दूध प्यारो है या मैं मैयाबोली लाला तेरे उपर तो लाखों-लाखों गायों का दूध न्योछावर है इतने मे चूल्हे पर दूध उफनता नजर आया तो यशोदा ने झटसे लाला को नीचे उतार दूध संवार ने चली गई भगवान ने सोचा अभी-अभी तो मैया लाखों गायों का दूध मेरे पर न्योछावर कर रही थी और अभी मुझे नीचे डालकर दूध सवारने चली गई।

आज मैया को सबक सिखाना है वैसे भी माखन चोरी लीला तो करनी ही है क्यों नहीं घर से ही शुरु किया जावें भगवान ने एक पत्थर उठाया और बड़ी मथानी जो दही से भरी थी को तोड़ दिया पूरे आँगन में दही का कीच मच गया माखन की कमोरी लेकर बाहर आ गए।

स्वयं माखन खाने लगे और ग्वालों को बांटने लगे इतने में मैया ने आकर देखा कि पूरे आँगन में दही फैल रहा है और माखन की कमोरी भी नही है बाहर आकर देखा कन्हैया सबको माखन खिला रहा है मैया को देखते ही भगवान मारे डर के कमोरी छोड़कर भग गए पीछे-पीछे यशोदा पकड़ ने को भग रही है थोडी दूर जाकर भगवान को पकड़ लिया अब तुझे उखल से बांधूगी और बांधने लगी किंतु रस्सी दो अंगुल छोटी पड़ गई कई घरों से रस्सी मगाई लेकिन पूरी नहीं हुई अन्त में माता को परेशान देख भगवान बंध गए मैया ने भगवान को उखल से बांध दिया ओर अपने घर धंधे में लग गई बलरामजी आए और बोले करोड़ों बज्रों को तोड़ने वाले इस छोटीसी रस्सी को नही तोड़ सकते इसे तोड़कर मुक्त हो जावो भगवान बोले दादा यह प्रेम की डोरी है इसे मैं नहीं तोड़ सकता।

इति  नवमोऽध्यायः

भागवत कथा हिंदी में

दशम स्कंध का कथा

[ अथ दशमोध्यायः ]

यमलार्जुन उद्धार

श्रीशुकदेवजी बोले-परीक्षित् धीरे-धीरे भगवान उखल खेचते हुए बाहर वहां आ गए जहां यमलार्जुन के दो वृक्ष खड़े थे

दोनों वृक्षों के बीच में उखल को फंसाकर एक झटके में उन्हें उखाड़ दिया उनमें से दो दिव्य पुरुष निकले उन्होंने

भगवान को प्रणाम किया और उनकी परिक्रमा कर वे अपने लोक को चले गए।

माता ने दौड़कर भगवान को उठा लिया खोल कर ह्रदय से लगालिया लोग कहने लगे अरे देखो लाला बचगया

इस पर भगवान की बडी कृपा है। भगवान की अद्भुत लीलाएं देख वृज गोपियां धन्य हो रही हैं वे भगवान से प्रार्थना

करती है कभी हमारा माखन भी खाइये सखी के आह्वाहन पर भगवान उसके घर गए चारों ओर देखते हुए चोर की तरह उसके घर में घुस गए सखी बीच कमरे में माखन रख एक कोने मे छुप गई। भगवान माखन खाने लगे आनन्द से सखी दर्शन कर रही है और धन्य धन्य कह रही है सखी के मन मे एक विचार आया भगवान के दर्शन तो हो गए वे अभी चले जावेगें क्यों न उनका स्पर्श भी करलूं भगवान को।पकड लिया कहने लगी लाला अबतो तुम्हे यशोदाजी। केपास लेचलूगी और भगवान का स्पर्श सुख लेती हुई।। यशोदा के द्वार पर पहुँच गई और आवाज लगाई मैया देख आज तेरे लाला को माखन चुराते हुए पकड़ कर लाइ हूं मैया बोली अरी मेरो लाला तो सोय रयो हे ओर लाला को आवाज लगाई आंखें मसलते हुए भगवान आए गूजरी देख दंग रह गइ पल्ला हटाके देखा उसने अपने पति को पकड़ रखा है लज्जित होकर सखी आ गई। आज दूसरी सखी ने विचार कियो आजमै भी भगवान को बुलाउ ओर दर्शन करूं भगवान ने देखाकि आज दूसरी सखी बुला रही है वे बेखटके उसके यहाँ भी पहुंच गए इसने माखन अंधेरे में रखा था भगवान ने अपने मणिमय कंगनों के प्रकाश से उसे ढूंढ लिया ओर खाने लगे पहली सखी के अनुसार इसने भी भगवान को पकड़ लिया और कहने लगी लाला आज तुझे बांध कर सब सखियों को दिखाउगी भगवान को एक खंभे से बांध दिया और सखियन । को बुलाने चली गई सब सखियों को लेकर आई देखाकि लाला की जगह उसकी सास बंधी हुई है।

इति दशमोऽध्यायः

[ अथ एकादशोऽध्यायः ]

गोकुल से वृन्दावन जाना और वत्सासुर बकासुर का उद्धार-श्रीशुकदेवजी बोले-परीक्षित्! एक दिन नन्दादि बड़े गोपों ने विचार किया इस महाबन में तो रोज कोई न कोई उत्पात हो रहा है हम सब वृन्दावन में निवास करें और सब लोग अपने-अपने छकडों में सामान भरकर वृन्दावन के लिए प्रस्थान किया ओर वृन्दावन में जाकर निवास करने लगे वहां कृष्ण बलराम बछडे चराने लगे एक दिन वन में बछडे चराते समय एक दैत्य बछडे का रूप बना कर बछडों में आ घुसा भगवान उसे पहिचान गए और उसके पैर पकड़ उसे पछाड कर समाप्त कर दिया बछडों को पानी पिलाकर कुछ आगे बढे कि एक जीव पहाड जैसा शरीर वाला बैठा है सब ग्वालवाल उसे देख डर गए वह झट भगवान को निगल गया ग्वालबाल हाहाकार करने लगे इतने में भगवान उसके पेट में उसे जलाने लगे तब तो उसने भगवान को उगल दिया भगवान ने उसकी चोंच के निचले भाग पर पैर रख कर उपर के भाग को पकड़े कर चीर डाला यह बकासुर पूतना का भाई बगुले का रूप बना कर आया था सब ग्वालबाल हर्षित हो गए।

इति एकादशोऽध्यायः

[ अथ द्वादशोऽध्यायः ]

अघासुर का उद्धार-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित पूतना और बकासुर के छोटे भाई अघासुर को जब यह बात मालुम हुई कि मेरे बड़े भाई बहिन को कृष्ण बलराम ने मार दिया तो वह क्रोधित होकर बदला लेने चला और वन में जहां कृष्ण बलराम बछडे चरा रहे थे वहां आया और अजगर का रूप धारण कर उनके सामने बैठ गया विशाल काय होने से उसे कोई पहिचाना नही उस अजगर ने एक लम्बी सांस खेंची ओर बछडों सहित सब ग्वाल बाल उसके पेट में चले गए किंतु उसने मुँह बन्द नहीं किया वह भगवान को पकड़ने की प्रतिक्षा कर रहा था देवता हाहा कार करने लगे तब भगवान स्वयं ही उसके मुँह में चले गए अजगर ने मुँह बन्द कर लिया भगवान ने पेट में अपना शरीर इतना बढाया कि अजगर का पेट फट गया सब ग्वालबाल पेट से सुरक्षित निकल आए भगवान की यह पांचवें वर्षकी लीला छठे वर्ष में ग्वालबालों ने जाकर अपने घर सुनाई इस पर परीक्षित ने प्रश्न किया यह बात एक वर्ष बाद जाकर क्यों सुनाई।

इति द्वादशोऽध्यायः

[ अथत्रयोदशोऽध्यायः ]

ब्रह्माजी का मोह और उसका नाश-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं कि परीक्षित आपने यह बहत ही सुन्दर प्रश्न किया है कि अधासुर की मृत्यु की बात एक वर्ष बाद क्यों कही जिस समय अधासुर मारागया उसकेबाद भगवान ने ग्वाल बालों से कहा।अब हमें भोजन कर लेना चाहिए ओर सब बछडों को घास मे छोड भोजन करने बैठ गए भोजन करते समय बछडे चरते हुए दूर निकल गए भगवान बोले आप सब भोजन करते रहें मैं अभी बछडों को लेकर आता हूँ।भगवान एक हाथ में रोटी का कोर लेकर खाते जा रहे है और दौड लगाते जा रहे हैं जिसे देख ब्रह्माजी मोहित हो गए और बछडों को लेकर ब्रह्म लोक चले गए।भगवान समझ गए वापस लौट आए उधर ग्वालबालों को लेकर भी ब्रह्म लोक को चले गए भगवान ने जितने बछड़े ओर ग्वाल बाल थे वे स्वयं बन गए और घर आ गए आज गायें बड़ी प्रसन्न थी भगवान स्वयं बछडा बन उनका दूध पी रहे थे गोपियां भी प्रसन्न थी बालकों के रूप में स्वयं भगवान उनकी गोद में थे इस लीला को बलरामजी जान गए उधर ब्रह्माजी ने जब देखा कि वहां भी ग्वालबाल बछडे है वे चकित हो गए और आकर भगवान के चरणों में गिर गए और हाथ जोड़ भगवान की स्तुति करने लगे।

इति त्रयोदशोऽध्यायः

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[ अथ चतुर्दशोऽध्यायः ]

ब्रह्माजी द्वारा भगवान की स्तुति–

नोमीड्य तेअभ्रवपुषे तडितम्बराय

गुन्जा वतन्स परिपिच्छल सन्मुखाय

वन्यस्रजे कवलवेत्र विषाणवेणु

लक्ष्मश्रिये मृदुपदे पशुपांगजाय

ब्रह्माजी बोले प्रभो! एक मात्र आप ही स्तुति करने योग्य है। मैं आपके चरणों मे नमस्कार करता हूँ। आपका यह शरीर वर्षा कालीन मेघ के समान श्यामल है जिसमें बिजली के समान झिलमिल करता हुआ पीताम्बर शोभा पाता है आपने घुघची की माला पहन रखी है कानों में मकराकृति कुण्डल सिर पर मोर पंखों का मुकुट है इन सबकी कान्ति से आपके मुख पर अनोखी छटा छिटक रही है। वक्षस्थल पर लटकती हुइ बन माला और नन्ही सी हथेली पर दही भात का कोर बगल में वेत और सिंगी तथा कमर की फेंट में आपकी पहचान बताने वाली बांसुरी शोभा पा रही है। आपके कमल से सुकोमल परम सुकुमार चरण और यह गोपाल बालक का सुमधुर वेष मैं कुछ नही जानता बस मैं तो इन्ही चरणों पर न्योछावर हूँ। ब्रह्माजी ने इस प्रकार भगवान की स्तुति की तथा उनकी परिक्रमा कर ग्वालबालों को जहां से उठाया था वहीं जमुना किनारे बैठा दिए और बछडों को भगवान के आगे कर दिए और अपने लोक को चले गए भगवान बछडो को लेकर वहां आए जहां ग्वाल बाल जमुना किनारे बैठे थे भगवान को बछडे लाते हुए देख ग्वालबाल बोले कन्हैया तुम्हारे बिना हमने एक ग्रास भी नहीं खाया तुम्हारी प्रतिक्षा में बैठे है एक वर्ष ब्रह्म लोक में बिताने वाले ग्वाल यह सब भूल गए उन्हें लगा कि अभी हमने अघासुर को मारा है यह बात घर जाकर एक वर्ष बाद सुनाई।

इति चतुर्दशोऽध्यायः

[ अथ पंचदशोऽध्यायः ]

धेनुकासुर का उद्धार और ग्वालों को काली विष से बचानाश्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं परीक्षित् ! जब भगवानने पोण्ड्रक अवस्था छठे वर्ष में प्रवेश किया तो उन्हे गायें चराने की अनुमति मिल गई वे ग्वालबालों के साथ गाये चराने लगे एक दिन वे गायें चराते हुए ताल वन में पहुँच गए वहां बड़े-बड़े ताल के वृक्ष थे और भी अनेक फलों के वृक्ष थे जो फलों से लद हुए थे वहां एक धेनुकासुर नाम का दैत्य रहता था जिसके भय से वहां कोई नही जाता था उन्होंने फल खाने के लिए पेडों को हिलाया तो बहुत से फल नीचे गिर गए सब लोग खूब फल खाने लगे जब दैत्य को पता चला वह क्रोधित हो वहां आया वह गधे के रूप में रहता था अत: अपनी दुलत्ती चलाने लगा बल रामजी ने उसके पिछले दोनो पैर पकड़ एक पेड से दे मारा वह गिरते ही समाप्त हो गया उसके गिरने से बहुत से पेड गिर गए सब ने खूब फल खाए और उसके पश्चात् वे सब यमुना किनारे आ गए सबने यमुनाजी का जल पिया और वे सब जल पीते ही बेहोश होकर समाप्त हो गए यहां काली सर्प के रहने से जल विषैला हो गया था भगवान ने अपनी कपा दृष्टि से सबको जीवित कर लिया जिसका किसी को भान ही नही हुआ।

इति पंचदशोऽध्याय:

[ अथ षोडषोऽध्यायः ]

कालिय पर कृपा—

विलोक्य दूषितां कृष्णां कृष्णः कृष्णहिना विभुः

तस्या विशुद्धि मनविच्छन् सर्प तमुदवासयत्

श्रीशुकदेवजी कहते हैं परीक्षित्! जब भगवान ने देखाकि काली के निवास से यमुनाजी का जल विषैला हो गया है उसे वहां से हटा यमुना को शुद्ध करने का विचार किया और ग्वालबालों के सहित गाये चराते हए वहां गए जहां काली रहता था। कालीदह पै खेलन आयो री मेरो बारो सो कन्हैया काहेकी पट गेंद बनाइ काहे को डण्डा लायोरी -मेरो फूलन की पट गेंद बनाइ चन्दन का डंडा लायोरीउछलत गेंद गइ जल माही वातो गेंद के संग सिधायो नाग नाथ कर बाहर आयो फनफन निरत करायोरी पुरुषोत्तम प्रभु की छवि निरखे चरण कमल चितलायो और वहाँ गेद का खेल खेलने लगे भगवान ने एक ही बार मे गेंद को कालीदह में चला दिया और ग्वालबालों से कहा आप चिन्ता न करें मैं अभी गेंद लेकर आ हूं और काली दह में कूद गए ग्वालों मे हाहा कार मच गया नन्द यशोदा तक सूचना पहुँच गई वे रोते विलखते काली दह पर पहुँचे बलरामजी ने सबको धैर्य बंधाया और समझाया कि कन्हैया को कुछ नही होगा वह अभी आ जायेगा वे कन्हैया की महिमा जानते थे उधर कन्हैया ने काली दह में जाकर काली को ललकारा काली सो रहा था नागिनो ने कहा बालक तुम चले जावो तुम्हे देख हमे दया आ रही है यह काली भयंकर है तुम्हे छोडेगा नही भगवान बोले नागिन तुम अपने काली को जगाओ इतने मे काली जग गया और मारे क्रोध के फुफकारने लगा भगवान उछल कर उसके फनों पर चढ गए और नृत्य करने लगे रक्त वमन करने लगा और अन्त मे वह भगवान की शरण हो गया भगवान बोले काली अब तुम्हे यहां नही रहना है। तुम गरुड के भय से यहां रहते हो अब मेरे चरणों के चिह्न तुम्हारे मस्तक पर हैं तुम्हे गरुड़ कुछ नही कहेगा तुम अपने लोक को चले जावो भगवान को प्रणाम कर काली वहां से अपने लोक को चला गया।

इति षोडषोऽध्यायः

[ अथ सप्तदशोऽध्यायः ]

काली की काली दह मे आने की कथा तथा बृजवासियों को दावानल से बचाना-श्रीशुकदेवजीबोले परीक्षित्! पूर्व काल मे गरुडजी को उपहार स्वरूप प्राप्त होने वाले सर्पो ने यह नियम कर लिया था कि प्रत्येक मास मे निर्दिष्ट वृक्ष के नीचे गरुड को एक सर्प की भेंट दी जाय इस नियम के अनुसार अब की बार काली का नम्बर था काली निर्दिष्ट स्थान पर न पहुँचकर यमुना में उस जगह जा छुपा जहां गरुड सौभरी ऋषि के शाप के कारण नही जा सकता था। कली को यमुना से बाहर कर भगवान स्वयं बाहर आ गए जैसे सब के प्राण लौट आए हों यशोदा ने कन्हैया को छाती से लगा लिया उस दिन आधी रात हो जाने से वे सब घर न जाकर वहीं सो गए रात्री में वन में दावानल लग गइ सब ब्रजवासी घबरा गए और वे भगवान की शरण हो गए भगवान उस अग्नि को पी गए।

इति सप्तदशोऽध्यायः

[ अथ अष्टादशोऽध्यायः ]

प्रलमबासुर उद्धार-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि परीक्षित काली का उद्वार कर भगवान बृज में आ गए ओर अनेक लीला करने लगे। एक दिन वन में गाएं चराते समय एक प्रलम्बासुर नामक राक्षस ग्वाल वेष में ग्वालों में आकर मिल गया वह कृष्ण बलराम का हरण करना चाहता था सब ग्वालबाल दो दलों में विभक्त होकर एक दल दूसरे दल को पीठ पर ढोता था ऐसा खेल खेलने लगे प्रलम्बासुर ने बल राम जी को अपनी पीठ पर चढ़ा लिया और उसे लेकर दूर निकल गया बलरामजी समझ गए यह कोई दैत्य है उन्होंने अपना वजन इतना बढाया कि वह झेल नहीं सका उसने अपना असली रूप प्रकट कर दिया बलरामजी ने एक ही घूसे मे उसके प्राण हर लिए।

इति अष्टादशोऽध्यायः

[ अथ एकोनविंशोऽध्यायः ]

गौओं और गोपों को दावानल से बचाना-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि परीक्षित्! एक दिन भगवान कृष्ण बलराम वन में गायें चराते हए खेल खेलने लगे तो उनकी गाऐ चरती हुई बहुत दूर निकल गई वे रास्ता भूल कर मन्जाटवी वन में चली गई गायें न देख भगवान बड़े चिन्तित हए और उन्हे खोजते हुए आगे बढ़े और देखाकि बहुत दूर गायों के रंभाने की आवाज आ रही है भगवान ने गायों को आवाज लगाई तोवे रंभाने लगी भगवान ग्वालबालों के साथ वहां पहुंच गए और गायों को लेकर लौट रहे थे तभी  दावानल ने उन्हें चारों और से घेर लिया सब घबरा गए तब भगवान ने कहा डरो मत सब अपने नेत्र बन्द कर लो सबने नेत्र बन्द कर लिए और भगवान उस समस्त अग्नि को पी गए।

इति एकोनविंशोऽध्यायः

[ अथ विंशोऽध्यायः ]

वर्षा और शरदऋतु का वर्णन-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं परीक्षित्! इसके बाद वर्षा ऋतु आ गई सर्वत्र हरियाली छा गई किसानों ने प्रसन्न होकर कृषि कार्य प्रारंभ कर दिए। वर्षा के बाद शरद ऋतु आ गई किसानों की फसलें घर में आ गई सब प्रसन्न हो गए।

इति विंशोऽध्यायः

[ अथ एकविंशोऽध्यायः ]

वेणुगीत-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं परीक्षित् वृन्दावन में बृजगोपियां भगवान की लीलाओं को देख-देख भाव विभोर हुई रहती हैं वे सब पागल सी होकर हमेशा भगवान के दर्शनों की अभिलाषा के गीत गाती रहती हैं।

अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः

सख्यं पशुननु विवेशयतोर्वयस्यैः

वक्त्रं ब्रजेशसुतयोरनु वेणु जुष्टं

यैर्वा निपीत मनुरक्त कटाक्ष मोक्ष

गोपियाँ आपस मे बात करती हैं-अरी सखी हमने तो आंखवालों के जीवन की और उनकी आंखों की बस यही इतनी ही सफलता समझी है और तो हमे कुछ मालुम ही नही है वह कौनसा लाभ है वह यही है कि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गोर सुन्दर बलराम ग्वालबालों के साथ गायों को हांक कर ले जा रहे हो अथवा लोटाकर बृज में ला रहे हों उन्होने अपने अधरों पर मुरली रखी हो और प्रेम भरी तिरछी चितवन से हमारी ओर देख रहे हों उस समय उनकी मुखमाधुरी का पान करती रहें। इस प्रकार भगवान के प्रति अपनी अनेक भावनाओं को गोपियों ने जो व्यक्त किया है उसे ही वेणुगीत नाम दिया हैं।

इति एकविंशोऽध्याय:

[ अथ द्वाविंशोअध्यायः ]

चीरहरण–

हेमन्ते प्रथमे मसि नन्दब्रज कुमारिकाः।

चेहविष्यं भुन्जाना: कात्यायन्यर्चन व्रतम्।।

श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है परीक्षित् मार्गशीर्ष मास के प्रारंभ होते ही ब्रजकी कुमारियां कात्यायनी देवी का ब्रत और पूजा करने लगी वे उषाकाल में यमुना जाकर स्नान करती तटपर बालू की कात्यायनी की मूर्ति बनाती उसकी पूजा करती और कहती

कात्यायनि महामाये महायोगिन्य धीश्वरि।

नन्दगोपसुतं देवि पति मे कुरुते नमः।।

हे कात्यायनी हे महा माये भगवान श्रीकृष्ण हमें पति रूप में प्राप्त हों प्रतिदिन की भांति एक दिन उन्होंने अपने वस्त्र उतार यमुना में प्रवेश किया उनकी अभिलाषा पूर्ण करने भगवान आए और उनके वस्त्र लेकर कदम पर जा बैठे स्नान के बाद जब उन्हें अपने वस्त्र नहीं मिले तो घबरा गई देखाकि वस्त्र लेकर तो कन्हैया कदम पर बैठा है उन्होने भगवान की प्रार्थना की”’

पद

नन्दजी के लाला चीर हमारो मोहन दीजिए

एक समय ब्रजगोप बालिका मन में कियो विचार

कात्यायनि पूजा की ठानी यमुना कियो विहार -नन्द

वस्त्र खोल तीर पर धर दिए आप गइ जल मांय

काना वस्त्र उठाले टांगे पेड कदम पर जाय – नन्द

पतोचल्यो जब डरी गोपिका विनय करे कर जोर

चीर हमारो देदो मोहन हम दासी हैं तोर – नन्द –

दासी होतो बात मान लो जल से बाहर आवो

हाथ जोड़ कर अपने अपने वस्त्र आप लेजावो-नन्द

जल से बाहर कैसे आवें आप पुरुष हम नारी

वस्त्र हीन जो बाहर आ जावे लाज हमारी-नन्द

हमकोही चाहो हमसे परदा कैसी बुद्धि तिहारी

भेद बुद्धि से तो तुम हमको कबहुन पावो प्यारी-नन्द

हाथ जोडकर बाहर आइ करी कृपा गिरधारी

वस्त्र दिए सब धारण कीने मन प्रसन्न अतिभारी-नन्द

शरद पूनम पर आना प्यारी रास रचेगे भारी

दास भागवत शरण आपकी महिमा जगसे न्यारी-नन्द

चीरहरण लीला बड़ी महत्त्वपूर्ण है यह जीवात्मा और परमात्मा के बीच के परदे को हटाने वाली है स्त्री-पुरुष का भेद शरीर से है आत्मा का कोई लिंग नहीं होता आत्मा नस्त्री लिंग है न पुल्लिंग अपने को शरीर मानना ही भगवान से मिलने में वाधक है।

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दशम स्कंध कि कथा

[ अथ त्रयोविंशोऽध्यायः ]

यज्ञपत्नियों पर कृपा-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है एक बार सभी ग्वाल बालों को बडी जोर से भूख लगी वे भगवान से बोले कन्हैया जोर की भूख लगी है तब भगवान उनसे बोले यहां से थोडी दूर पर वेदवादी ब्राहमण आंगि रस नामक यज्ञ कर रहे हैं आप उनके पास जाकर भोजन ले आवो ग्वाल बाल गए और उनसे भोजन की याचना की किंतु उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया फिर भगवान ने उन्हे ब्राह्मण पत्नियों के पास भेजा भगवान का नाम सुनते ही वे दौड़ पडी हाथों में भोजन के थाल ले लेकर भगवान के पास पहुँची बड़े प्रेम से भगवान को जिमाया और कृतकृत्य हो गई,,

इति त्रयोविंशोऽध्यायः

[ अथ चतुर्विंशोऽध्यायः ]

इन्द्र यज्ञ निवारण-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं एक दिन सब बृजवासी गोवर्धन पूजा की तैयारी कर रहे थे तभी भगवान ने नन्दादि गोपों से पूछा आप ये सब काहे की तैयारी कर रहे हैं जब वे लोग बोले कन्हैया हम प्रति वर्ष वर्षा करने वाले देवता इन्द्र की पूजा किया करते है इसकी तैयारी हम कर रहे हैं भगवान बोले बाबा गरमी में जल वाष्प बन कर उड़ता है वहीं वर्षा होती है फिर हम बृज वासियों का तो इन्द्र गोवर्धन है इसी की पूजा होनी चाहिए सब बृजवासी इससे सहमत हो । गए और जो सामग्री इन्द्र के लिए बनाई थी उससे गोवर्धन की पूजा की।

इति चतुर्विंशोऽध्यायः

[ अथ पञ्चविंशोऽध्यायः ]

गोवर्धन धारण-श्रीशुकदेवजी कहते हैं जब इन्द्र की पूजा मेट कर गोवर्धन की पूजा की गई है ऐसा ज्ञान जब इन्द्र को हुआ तो वह बड़ा क्रोधित हुआ ओर बज पर भयंकर वर्षा प्रारंभ कर दी बृज डूबने लगा तब घबरा कर बृजवासी भगवान की शरण आये भगवान ने गोवर्धन पर्वत को उठाकर सब बृज को उसके नीचे ले लिया चारों ओर शेषजी घेरा डाल कर बैठ गए न बाहर का पानी आया न ऊपर का सात दिन तक मूसला धार वर्षा होती रही फिर भी बृज को सुरक्षित देख इन्द्र घबराया वह भगवान की शरण आ गया उनकी पूजा कर उनसे क्षमा याचना की।

इति पञ्चविंशोऽध्यायः

[ अथ षड्विंशोऽध्यायः ]

नन्दबाबा से गोपों की कृष्ण के प्रभाव के विषय में बातश्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं भगवान श्री कृष्ण के ऐसे अद्भुत चरित्र देख बजवासी नन्दबाबा से कहने लगे बाबा आपका यह बालक साधारण नहीं है देखो इसने पूतना को मारा शकटासुर तृणावर्त को पछाडा उखल से दोनो वृक्षों को उखाड़ दिया बकासुर, अघासुर को समाप्त किया और अभी विशाल गोवर्धन उठा लिया इस पर नन्दबाबा बोले तुम्हे एक बात बताउं गर्गाचार्य ने कहा था कि यह साक्षात् परमात्मा का अवतार है।

इति षड्विंशोऽध्यायः

[ अथ सप्तविंशोऽध्यायः ]

श्रीकृष्ण का अभिषेक-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं इन्द्र भगवान के ऐश्वर्य को समझ स्वर्ग से काम धेनु को लेकर आया और काम धेनु ने भगवान का अभिषेक किया इन्द्र भगवान की प्रार्थना करने लगा प्रभो हम जैसे तुच्छ लोग आप को पहिचान नहीं सकते आप की महिमा अपार है मैं अहन्कार में चूर था आपने मुझे शिक्षा दी मैं धन्य हो गया। भगवान बोले इन्द्र तुम मुझे भूल गए थे अब मुझे कभी नहीं भूलना।

इति सप्तविंशोऽध्यायः

[ अथ अष्टाविंशोऽध्यायः ]

वरुण लोकसे नन्दजी को छुडाकर लाना-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है एक दिन नन्दबाबा ने निराहार एकादशी व्रत किया द्वादशी को प्रात: पूर्व ही यमुना स्नान को चलेगए तो वरुण के दूत उन्हे पकड़ कर ले गए यह वात जब भगवान को मालूम हई वे वरुण लोक पहँच गए वहां वरुणजी ने भगवान की पूजा की और बोले मुझे आपके दर्शनों की अभिलाषा थी इस लिए मेरे दूत बाबा को लेकर यहां आ गए जिसके लिए आप क्षमा करें वरुण का भाव देख भगवान वरुण जी कृतार्थ कर बाबा को लेकर बृज मे आ गए।

इति अष्टाविंशतिऽध्यायः

[ अथ एकोनत्रिंशोऽध्यायः ]

रासलीला का प्रारम्भ—

भगवानपि तारात्री: शरदोत्फुल्ल मल्लिकाः

वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमाया मुपाश्रितः

ततोडुराजः ककुभ: करैमुखं

प्राच्या विलिम्पन्नरुणेन शन्तमै

स चर्षणीना मुदगाच्छुचो मृजन

प्रिय: प्रियाया इवदीर्घ दर्शन:

श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि भगवान ने उस रात्रि में चारों ओर पुष्प खिला दिए वृन्दावन महक उठा अब उन्होंने रास का मन बनाया और अपनी प्रिय गोपियों को बुलाने के लिए बंशी बजाई। भगवान का वंशी वादन सुन कर बृज गोपी जल्दी में लहगा ओढ लिया ओढनी को पहन ली कान में नथ पहन ली नाक में झुमकी डालली उल्टे सीधे भंगार कर भगवान के पास पहुच गई। भगवान बोले गोपियों आपका स्वागत कहिए आपका क्या प्रिय करु कैसे आपका पधारना हआ। तम्हे अपने पतियों को छोड़कर पर पुरुष के पास नहीं आना चाहिए यह सन गोपियां हत प्रभ रह गई देखो भगवान ने एक-एक को वंशी में नाम लेकर बलाया और अब पूछ रहे हैं कैसे आई वे बोली संसार के विषय सुखों को छोड़ हम आपके चरणों की शरण आई है।

उन्होंने कहा हमें अपने पतियों को छोड़ कर नही आना चहिए प्रभो हम आपको एक कहानी सुनाती हैं एक पतिव्रता स्त्री थी वह नित्य अपने पति की पूजा कर उसे भोजन कराकर फिर स्वयं भोजन करती थी एक दिन पति को कहीं बाहर जाना था वह अपने पति से बोली आप कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहे हैं ऐसे में मैं आपकी पूजा किए बिना भोजन कैसे करूँगी पति ने कहा हम भगवान की पूजा मूर्ति में कर लेते हैं तुम भी मेरी एक मूर्ति बना लो उसकी पूजा कर भोजन कर लेना स्त्री ने ऐसा ही किया मिट्टी की पति की मूर्ति बना वह पूजा करने लगी एक दिन जब वह पूजा कर रही थी उसका पति आ गया और उसने दरवाजा खट खटाया अब वह पूजा छोड़ दरवाजा खोलने जाती है तो पति पूजा खण्डित होती हैं और नहीं जाती है तो पति आज्ञा भंग होती है।

गोविन्द आप बताएं उसे क्या करना चहिए भगवान बोले जब उसका साक्षात् पति आ गया तो उसे पहले दरवाजा खोलना चहिए। गोपियां बोली ठीक है हम भी आप से यही सुनना चाहती थी हम जिन पतियों को छोड कर आई हैं वे सब मिट्टी के पति हैं आप साक्षात् पति हैं उनका संबंध जब तक शरीर है तब तक है लेकिन आत्मा परमात्मा का संबंध जन्म जन्मान्तर का है। भगवान बोले गोपियों मैं तो तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। अब तुम्हारे साथ रास करूंगा सब गोपियां गोलाकार खड़ी हो गई बीच में राधागोविन्द नृत्य करने लगे अनेक हाव-भाव दिखाने लगे करते-करते गोपियों के मन में अहंकार आ गया हम कितनी भाग्यशाली हैं परमात्मा हमारे इशारे पर नाच रहा है इतने में भगवान अन्तर ध्यान हो गए गोपियां बिलख उठी रोने लगी।

इति एकोनत्रिशोऽध्यायः

[ अथ त्रिंशोऽध्यायः ]

श्रीकृष्ण के विरह मे गोपियों की दशा-लता वृक्षों से पूछती हुई ढूढ़ने लगी चरण चिह्नों से पता चला कि राधा महारानी उनके साथ है गोपियां कृष्ण लीला करने लगी एक गोपी पूतना बन गई दूसरी कृष्ण ने पूतना को मार दिया ऐसे लीला करने लगी उधर भगवान राधा महारानी के साथ विहार करते करते राधाजी मानवती हो गई कहने लगी प्रभो अब मुझसे नहीं चला जाता मुझे कंधे पर चढा लें। भगवान बोले ठीक है कहकर वहां से भी अन्तरध्यान हो गए वह सखी भी मूर्च्छित होकर गिर गई जब अन्य गोपियां भगवान को ढूंढती हुई वहां पहुंची तो वहां राधा महारानी भी बेसुध पड़ी है वे समझ गई कि इनके साथ भी वही हुआ है जो हमारे साथ हुआ है।

इति त्रिंशोऽध्यायः

[ अथ एकत्रिंशोऽध्यायः ]

गोपिका गीत—-

दर्शन देवो रास बिहारी प्रभु ढूढ़ रही गोपी सारी

महिमा अधिक बनी बृज की बैकुण्ठ हु ते बनवारी

सुन्दरता मृदुता की देवी लक्ष्मी रमत विहारी-दर्शन

तजि बैकुण्ठ वास बृज कीनो लक्ष्मी दासी तिहारी

नाथ गोपियां ढूढ़ रही है चरणाश्रित प्रभु थारी-दर्शन

प्रेम पूर्ण हिरदा के स्वामी बिनामोल की दासीतिहारी

कमल नयन सों घायल करना क्या वध नही मुरारी-दर्शन

काली दह जल अरु दावानल बृषभासुर व्योमासुर भारी

इन्द्रकोप से रक्षाकीनी बृज की आप असुरारी-दर्शन

यशोदा नन्दन मात्र नही हो जनजन के हितकारी

ब्रह्माजी की विनती सुनकर बृज प्रकटे गिरधारी-दर्शन

शरणागत भवबन्धन मेटत पूरण काम विहारी

हस्त कमल सिर उपर रखदो लक्ष्मीपति वनवारी-दर्शन

बीरशिरोमणि बृज जनरक्षक प्रेमीजन मदहारी

रूठोमत दर्शन दो स्वामी सुन्दरश्याम बिहारी-दर्शन

उरकी ज्वाला शान्त करो प्रभु रख दो चरण मुरारी

कालीफण पर नृत्य कियो जिन नाशक पाप विहारी-दर्शन

मधुर वाणी से मोहित करते ऋषिमुनि तनुधारी

अधरामृत कापान करादो जीवन देवो खरारी। दर्शन

पापताप की मेटनहारी लीला कथा तुम्हारी

ऋषिमुनि जन गान करत हैं लीलामंगलकारी। दर्शन

दर्शन परसन का सुखदीना इकदिन हे गिरधारी।

सुनलो कपटी मित्र आजवे दुखी विरह की मारी। दर्शन

कोमलचरण विचरणबन करते दुखीकरत मनभारी

धूषरधूरिमुख दर्शनदेदो विनती यहीहमारी। दर्शन

तप्त ह्रदय को शान्तकरो उररखदो चरणमुरारी

शरणागत के पूर्णकाम प्रभु जन के कष्टनिवारी। दर्शन

अधरामृत का पान करादो विरह मिटावन हारी

जिनकोनित पीवतबांसुरिया आसक्तिमिटावनहारी। दर्शन

पतिसुतभ्रात कुटुम्ब तजे हम तेरे हित बनवारी

निषाकाल में छोड़ गए विरहवन्त दुखी बृजनारी। दर्शन

हंसीठिठोली करते मोहन प्रेमभरी मुस्कान तिहारी

श्रीनिवास वक्षस्थल उपर सब गोपीजन वारी। दर्शन

दुख संताप मिटाने वाली प्रभु अभिव्यक्ति तुम्हारी

ह्रदयरोग को दूर करो दे दो औषधि बनवारी। दर्शन

स्तन कठोर है चरण कमल सम कोमल कुंजविहारी

कंकडपत्थर कैसे सहेगें मन अधीर गिरधारी। दर्शन

गाती रोती और विलखती गोपी करत पुकारी

दास भागवत दर्शन दीने गोपी भई सुखारी। दर्शन

इति एकत्रिंशोऽध्याय

[ अथ द्वात्रिंशोऽध्यायः ]

भगवान का प्रकट होकर गोपियों को सान्त्वना देना-

इति गोप्य: प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यश्च चित्रधा

ससदुः सुस्वरं राजन् कृष्ण दर्शन लालसा

तासामाविरभूच्छौरिः स्वयमान मुखाम्बुजः

पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथ मन्मथ:

इस प्रकार गोपी भगवान के दर्शन की लालसा से उंचे स्वर से जोरजोर से रोने लगी तो साक्षात् कामदेव के समान भगवान प्रकट हो गए गोपियों के शरीर में प्राण आ गए सभी गोपियों को ह्रदय से लगा लिया भगवान बोले गोपियों अब महा रास होगा।

इति द्वात्रिंशोऽध्यायः

[ अथ त्रयत्रिंशोऽध्यायः ]

महारास निरतत रास मे गोपाल।

वंशीवट जमुना पुलिन पर शरद शशि उजियार

मोर मुकुट सु शीश सोहे तिलक राजे भाल

श्रवण कुण्डल वक्ष धारे वैजयन्ति च माल

मन्द मन्द सुख सुगन्धित पवन शीतल चाल

सरस सारंगी पखावज बाजत बीन रसाल

ताताथेइ ताताथेइ चरण धरत दयाल

देव सब छाये विमानन दरश हित नन्दलाल

गति विसारी इन्दु निरखत बजत मधुरे ताल

इति त्रयत्रिंशोऽध्यायः

[ अथ चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ]

सुदर्शन और शंख चूड का उद्धार-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है एकबार सब बृजवासी नन्द बाबा के साथ अम्बिका वन में शिवजी के दर्शनों हेतु गए ओर वहीं रात्री निवास किया वहाँ एक अजगर रहता था उसने रात में नन्द बाबा को आकर पकड़ लिया बाबा के चिल्लाने पर सब जग गए भगवान भी आ गए उस अजगर को अपना चरण छुआकर उद्धार कर दिया वह एक विद्याधर था शाप वश सर्प बना था। भगवान को प्रणाम कर अपने लोक को चला गया। एक दिन कृष्ण बलराम वन में गाये चरा रहे थे कि एक शंख चूड नाम का दैत्य गोपियों को हरण कर ले गया गोपियों के रोने की आवाज सुन भगवान ने उस दैत्य के मस्तक की मणि निकाल ली ओर उसे मार दिया और गोपियों को छुडा लिया।

इति चतुस्त्रिंशोऽध्यायः

[ अथ पंचत्रिंशोऽध्यायः ]

युगल गीत—–

जोरस बरसरह्यो बृजमाहि सोरस तिहलोकन मे नाही

सकरीगली बनीपरवतकी दधि लेचली कुवरि कीरतकी

आगे गाय चरत गिरधर की देगें सखा सिखाय। जोरस

देजादान कुवरि मोहन को तब छोडूं तेरे गोहन को

राज महाबनमे गिरधर को दान लेयगें धाय। जोरस

इनके संग सखी मदमाती उनके संग सखा उत्पाती

घेरलइ ग्वालिन मदमाती मनमे अति हर्षाय। जोरस

सुरतेतीसनकी मतिभोरी भजके चले सब बृजकी ओरी

देख देख या बृज की खोरी ब्रह्मादिक ललचाय। जोरस

इति पंचत्रिंशोऽध्यायः

[ अथ षट् त्रिंशोऽध्यायः ]

अरिष्टासुर का उद्धार और कंस का अक्रूरजी को बृज भेजना-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है एक दिन अरिष्टासुर नाम का राक्षस बैल का रूप धारण कर अपने सीगों से बृज वासियों को मारता हुआ उपद्रव मचाने लगा खुरों से भूमि को खोदता हुआ लोगों को डराने लगा भगवान ने उसके दोनो सीगं पकड कर घुमाकर पछाड दिया। एक दिन नारदजी कंस के पास आ गए और समाचार पूछे कंस ने बताया कि प्रभो जितने भी राक्षसों को बृज में भेजा एक भी वापस नहीं आया नारदजी बोले यही तो गलती हुई अपनी गली में कुत्ता भी शेर होता है। उन्हे यहाँ बुलावो और अपना कार्य सिद्ध करो कह कर नारदजी चले गए कंस ने कृष्ण बलराम को मथुरा लाने के लिए अक्रूरजी को बृज में भेजने का निश्चय किया।

इति षट्त्रिंशोऽध्यायः

[ अथ सप्तत्रिंशोऽध्यायः ]

केशी और व्योमासुर का उद्धार-नारदजी द्वारा भगवान की स्तुति-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है परीक्षित्! कंस का भेजा हुआ केशी नाम का दैत्य घोड़े का रूप बनाकर आया वह दुलत्ती फेंकता हुआ लोगों को काटता हआ उपद्रव मचाने लगा वह भगवान की और मुँह फैलाकर दौड़ा भगवान ने अपना हाथ उसके मुँह में दे दिया और मुँह में ही उसे इतना फैलाया कि उसका स्वांस रुक गया और वह समाप्त हो गया।

एक दिन एक व्योमा सुर नाम का राक्षस भी ग्वाल बनकर भगवान के साथ ग्वाल मण्डली में जाकर मिल गया और सब भेड़ चोर खेल खेलने लगे इस खेल में कुछ ग्वाल भेड़ बन गए कुछ रक्षक कुछ चोर बन गए चोर भेडों को उठाकर ले जाते और दूर बैठा आते वह राक्षस भेड़ बने ग्वालों को उठाकर एक गुफा में बन्द कर आता ऐसे कई ग्वालों को ले गया अन्त में बलरामजी को जब उठाकर ले जा रहा था वे समझ गए और एक मुष्टिका में उसके प्राणान्त कर दिए।नारदजी कंस को समझाकर कि कृष्ण बलराम को मथुरा बुलावो वे सीधे भगवान के पास पहुचे और कहा प्रभो अब समय आ गया है मथुरा पधार कर मुष्टिक चाणूर ओर कंस को समाप्त करें।

इति सप्तत्रिंशोऽध्यायः

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[ अथ अष्टात्रिंशोऽध्यायः ]

अक्रूरजी की बृजयात्रा-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि कंस का आदेश सुन अक्रूरजी वृन्दावन जाने की तैयारी करने लगे और प्रात: होने की प्रतिक्षा करने लगे कल मैं भगवान के दर्शन करूंगा इस अभिलाषा में रात को नींद नही आई। प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में रथ में बैठकर प्रस्थान किया मार्ग में भगवान के दर्शनों की विभिन्न कल्पनाएँ करते हए संध्या को बृज में पहुंचे तब कृष्ण बलराम गायें चराकर लोटे ही थे भगवान ने अक्रूरजी को प्रणाम किया अक्रूरजी ने दोनों भाइयों को गले से लगा लिया।

इति अष्टात्रिंशोऽध्याय

[ अथ एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ]

श्रीकृष्णबलराम का मथुरा गमन-रात में अक्रूरजी का खूब सम्मान किया भोजन कराया दोनों भाई उनके चरण दबाने लगे नन्द यशोदा अक्रूरजी से कर कंस के राज्य में कैसे रहते है पूछा अक्रूरजी बोले जैसे दांतों में जीभ रहती है उसी तरह अक्रूरजी ने जब यह बताया कि कंस ने कृष्ण बलरामजी को मथुरा बुलाया है यह बात नन्द यशोदा को अच्छी नही लगी किंतु तत्काल ही कृष्ण बलराम बोले मैया हम अवश्य जावेगें और प्रात: होते ही रथ में सवार हो गए जब गोपियों को पता चला वे भी रथ के मार्ग में आकर सो गई अक्रूरजी ने रथ को दूसरे मार्ग से लेकर प्रस्थान किया और यमुना किनारे पहुँच गए जहां कृष्ण बलराम रथ में बैठकर कलेउ करने लगे ओर अक्रूरजी ने यमुना में डुबकी लगाई तो देखा कृष्ण बलराम जल में है जब रथ में देखा तो वहां भी है वे भगवान की महिमा को याद करने लगे।

इति एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः

[ अथ चत्वारिंशोऽध्यायः ]

अक्रूरजी द्वारा भगवान की स्तुति-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि परीक्षित् ! जब अक्रूरजी ने भगवान को रथ में और जल में दोनों जगह देखा तो उन्हें भगवान की महिमा मालुम हुई वे गदगद वाणी से भगवान की स्तुति करने लगे प्रभो आप कितने दयालु हैं हम जैसे तुच्छों पर भी आपकी कृपा है मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

इति चत्वारिंशोऽध्याय:

bhagwat katha in hindi

[ अथ एकचत्वारिंशोऽध्यायः ]

श्रीकृष्ण का मथुरा प्रवेश-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं राजन् भगवान की स्तुति कर अक्रूरजी रथ पर चढ़े और मथुरा की ओर प्रस्थान किया जब वे मथुरा की सीमा में प्रवेश किए रथ से उतर गए और अक्रूरजी से कहा अक्रूरजी अब आप रथ लेकर अपने घर को जावें अब हम पैदल ही ग्वालबालों के साथ मथुराजी के दर्शन करते हुए आवेगें अक्रूरजी को विदा किया तब तक ग्वालबाल भी वहां आ गए और सबने मिलकर मथुरा जी में प्रवेश किया सर्व प्रथम उन्हें एक धोबी मिला भगवान बोले धोबी क्या तुम हमें राजसी वस्त्र दे सकते हो इस पर धोबी बोला गांव के गंवारो तुमने कभी वस्त्र देखे हैं यह वही रामावतार वाला धोबी जिसने सीता के चरित्र के प्रति ऐसे शंका की थी भगवान ने एक तमाचे में उसका सिर धड़ से अलग कर दिया और उसके वस्त्र ले लिए पास ही एक दर्जी भगवान का भक्त था उसने प्रार्थना की और उन वस्त्रों को ग्वालों के नाप के बना दिए सुन्दर वस्त्र पहन कर आगे बढे एक सुदामा नाम का माली भगवान के दर्शनों की अभिलाषा कर रहा था उसको दर्शन देकर उससे माला पहनी सुदामा को भक्ति का वरदान दिया।

इति एकोचत्वारिंशोऽध्यायः

[ अथ द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ]

कुब्जा पर कृपा और धनुष भंग-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित्! सुदामा माली को वरदान देकर भगवान आगे बढ़े जहां कंस की दासी कुब्जा जिसकी कमर टेडी थी जो सोने के कटोरे में चन्दन लेकर नित्य कंस को देती थी के पास पहुँचे कुबजा प्रतिक्षा कर रही थी कि यदि आज मेरे उपर भगवान कृपा करेगें तो यह चन्दन आज मैं उनको लगाउगी भगवान के पहुंचने पर कुब्जा ने उन्हें चन्दन चर्चित किया भगवान ने उसे सीधी और सुन्दर बना दिया और आगे बढे जहां धनुष यज्ञ का मैदान था भगवान ने बलरामजी से पूछा दादा यहां क्या है? बलराम जी बोले कृष्ण यह वही धनुष है जिसे कल तोड़ा जावेगा भगवान बोले दादा यदि आप कहें तो कल का काम आज ही करआउं और अनेक पहरे दारों के बीच में एक छलांग लगाकर कूद गए ओर धनुष के तीन टुकडे कर दिए चारों ओर हाहा कार हो गया कंस घबरा गया और पहरे दारों को डांटने लगा। कृष्ण बलराम अपने डेरे में जहां नन्दादि अन्य बृजवासी ठहरे थे आ गए और विश्राम किया।

इति द्विचत्वरिंशोऽध्यायः

[ अथ त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ]

कुवललिया पीड का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश-प्रात: काल होते ही सब लोग अखाडों पर जमा होने लगे कृष्ण बलराम भी अखाडे की ओर चल दिए मथुरावासी सब भगवान की प्रशंसा कर रहे थे और भगवान के दर्शन कर धन्य हो रहे थे जब भगवान अखाडे के मुख्य द्वार पर पहुंचे तो देखा एक विशाल काय हाथी द्वार पर खडा है भगवान ने महावत से कहा हाथी को हटावो ताकि हम भीतर जावें महावत बोला हमने तो सुना है तम कई हाथियों का बल रखते हो इस हाथी को नहीं हटा सकते भगवान ने हाथी की पूछ पकड़ कर पहले तो कुछ समय खेल किया फिर सूंड पकड़कर घुमाकर भूमि पर पछाड़ दिया और अखाडे में प्रवेश किया तो चाणूर और मुष्टिक ने उनसे कहा आवो तुम हमारे साथ मल्लयुद्ध करो भगवान बोले हम तो किशोर बालक हैं आप महान योद्धा युद्ध तो बराबर वालों के साथ होता है चाणूर बोले जानते है आप मल्लोके मल्ल हैं अभी-अभी आपने दस हजार हाथियों का बल रखने वाले कुवलिया पीड हाथी को मारा है।

इति त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः

bhagwat katha in hindi

[ अथ चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ]

चाणूर मुष्टिक और कंस का उद्धार-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि चाणूर और मुष्टिक की बात सुन कर पहले मुष्टिक के साथ बलरामजी भिड़ गए दर्शकों को प्रसन्न करने के लिए पहले कई दावोंपेच दिखाए और अन्त में मुष्टिक को उठाकर ऐसा पटका कि उसके प्राणान्त हो गए। अब तो चार के साथ भगवान का द्वन्द युद्ध प्रारम्भ हआ उसी प्रकार दर्शकों को लुभाने के लिए अनेक खेल खेलने लगे कभी वे गिर जाते तो कभी उसे गिरा देते दर्शक वाह वाह कर रहे थे अन्त में चार को उठाकर भूमिपर दे मारा वह समाप्त हो गया कंस बड़बड़ाने लगा दोनों भाइयों को पकड लो बज वासियों को बन्दी बना लो तब तक भगवान कंस के उंचे मंच पर जा चढे और कंस के केश पकड़कर मंच से नीचे कूद गए और उसकी छाती पर बैठ और बोले तूने मेरी माँ के केश खेंचकर रथ से नीचे गिराया था न कंस की छाती में एक घूसा जमाया कि उसके प्राणान्त हो गए सारे राक्षस भाग गए भगवान ने पहले उग्रसेनजी को जेल से रिहा किया फिर अपने माता पिता को बन्दी से छुड़ाया नानाजी को राज्य दे कंस का अन्तिम संस्कार किया।

इति चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः

[ अथ पञ्चचत्वारिंशोअध्यायः ]

श्रीकृष्णबलराम का यज्ञोपवीत संस्कार और गुरुकुल प्रवेश-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि इस समय भगवान बारहवें वर्ष में चल रहे थे क्षत्रियों का यज्ञोपवीत संस्कार बारह वर्ष तक हो जाना चाहिए अत: उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराकर उन्हें उज्जैन मे सांदीपन गुरु के यहां भेज दिए गए वहां उन्होंने अल्प काल में सब विद्या पढ़ ली और गुरु के मरे हुए पुत्र को लाकर गुरु दक्षिणा दी।

इति पंचचत्वारिंशोअध्यायः

[ अथ षट्चत्वारिंशोअध्यायः ]

उद्धव की ब्रजयात्रा-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं राजन् एक दिन भगवान को ब्रज की याद आइ इतने में उद्धवजी आ गए भगवान को चिन्तन मग्न देख वे बोले प्रभो आपका मन कहीं अन्यत्र है खोये खोये क्यों हैं तब भगवान बोले

उधो ब्रज बिसरत मोहि नाहीं

हस सुता की सुन्दरकलरव अरु तरुवन की छायीं

वे सुर भी वे बच्छ दोहनी खिरक दुहावन जाहीं

ग्वालबाल सब करत कोलाहल नाचत गहगह बाही

यह मथुरा कंचन की नगरी मणिमुक्ता जिन माही

जबहि सुरतआवतवा सुख की जिय उमगत सुखनाही

अगणित भांति करीबहु लीला यशोदानन्द निवाई

सूरदास प्रभुरहे मौन हवे यहकह कह पछिताई

भगवान बोले उद्धव ब्रज वसियों को समझाने ब्रज जावो उद्धवजी ब्रज में संध्या को पहुंचे नन्द बाबा ने उनका स्वागत किया और कुशल पूछी उन्हें भोजन कराया और विश्राम किया।

इति षट्चत्वारिंशोऽध्याय

[ अथ सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ]

उद्धव गोपी संवाद-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है प्रात: होते ही जब गोपियों ने देखाकि नन्द बाबा के यहां एक रथ खड़ा है भगवान आए हैं ऐसा सोच सब गोपियां वहां आ गई जब देखा कि भगवान नही उनके सखा आए हैं सबने उनको घेर लिया और उनसे भगवान के समाचार पूछे,

उद्धवजी बोलेसुनो गोपी हरिको संदेश

करिसमाधि अन्तरगति ध्यावहु यह उनको उपदेश

वहअविगत अविनाशी पूरण सब घट रह्यो समाई

निर्गुण ज्ञान बिन मुक्ति नहोवे वेद पुरणन गाई

सगुण रूप तजि निर्गुण ध्यावो इक चित इकमन लाई

यह उपाय करि विरह तजो तुम मिले ब्रह्म तव आई

दुसह सुनत संदेश माधव को गोपीजन बिलखानी

सूर विरह की कौन चलावे डूबत हैं बिनु पानी

उद्धवजी का एसे संदेश सुन गोपियां बोली

उधो मन न भए दसबीस

एक हुतो सो गयो श्याम संग को अवराधे इश

इन्द्रिय शिथिल भाइ केशव बिन ज्यों देही बिन शीश

आशा लगी रहत तन खासा जीवो कोटि बरीश

तुमतो सखा श्यामसुन्दर के सकल जोग के इश

सूरदास वा सुख की महिमा जा पूछो जगदीश

ब्रज गोपियों के ऐसे प्रेम भरे वचन सुन उद्धव गद गद हो गए और बोले इन ब्रज गोपियों के चरण धूलि को प्रणाम करता हूं गोपियां और नन्द बाबा से आज्ञा ले वे मथुरा आ गए।

इति सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः

bhagwat katha in hindi

[ अथ अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ]

भगवान का कुब्जा और अक्रूरजी के घर जाना-श्रीशुकदेवजी बोले भगवान ने अक्रूरजी से जब वे ब्रज से मथुरा लाए थे वायदा किया था कि वे अक्रूरजी के घर आयेगें तो भगवान अक्रूरजी के घर पहुंचे अक्रूरजी ने उनका बड़ा सत्कार किया और कहा प्रभु मैं आपको भूलूं नहीं ऐसी कृपा करें। भगवान वहां से कुब्जा के घर भी पहुंचे और उसका मनोरथ सिद्ध किया।

इति अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः

[ अथ एकोनपंचाशत्तमोऽध्यायः ]

अक्रूरजी का हस्तिनापुर जाना-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि एक बार भगवान ने अक्रूरजी को यह जानने के लिए कि पाण्डु की मृत्यु के बाद धृतराष्ट्र पाण्डु पुत्रों के साथ कैसा व्यवहार करता है हस्तिनापुर भेजा था जब अक्रूरजी ने वहां देखाकि पाण्डवों के साथ धृतराष्ट्र का व्यवहार ठीक नही है यह जानकारी आकर भगवान को दें दी।

इति एकोनपंचाशत्तमोऽध्यायः

इति दशम स्कन्ध पूर्वार्ध समाप्त

अथ दशम स्कन्ध उत्तरार्ध

[ अथ पन्चाशत्तमोऽध्यायः ]

जरासन्ध से युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि परीक्षित्! कंस की दो रानियाँ थी अस्ति और प्राप्ति ये कंस के मरजाने के बाद अपने पिता जरासंध के पास गई और बोली पिताजी हमें कृष्ण ने विधवा बना दिया यह सुन जरासंध ने तेबीस अक्षोहिणि सेना लेकर मथुरा को चारों ओर से घेर लिया भगवान ने भी इस बहाने दुष्टों का संहार करने का मानस बनाया और बलरामजी के साथ मथुरा से बाहर निकल जरासंध से युद्ध करने लगे बलरामजी ने हल मुसल से जरासंध की सारी सेना का संहार कर दिया और जरासंध को पकड़ लिया उसे मारने ही वाले थे कि भगवान ने उन्हें रोक दिया और कहा दादा अभी यह और दुष्टों को लेकर आयेगा अत: सब दुष्टों को मारने के बाद ही इसे मारेगें बलरामजी ने उसे छोड़ दिया वह फिर सत्रह बार तेबीस-तेबीस अक्षोहिणि सेना लेकर आया और कृष्ण-बलराम ने सेना का सफाया कर जरासंध को छोड़ दिया अठारहवीं बार जरासंध ने कालयवन के साथ मथुरा पर चढाई की अब की बार भगवान ने विश्वकर्मा के सहयोग से समुद्र के बीच द्वारकापुरी का निर्माण कर वहाँ समस्त मथुरा वासियों को भेज दिया।

इति पञ्चाशतमोऽध्यायः

[ अथ एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ]

कालयवन का भस्म होना मुचुकुन्द की कथा-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है परीक्षित! मथुरा वासियों को द्वारका भेज दोनों भाई कृष्णबलराम मथुरा से बाहर आए कालयवन भगवान को देखते ही पहिचान गए कि यही कृष्ण है मैं इसी के साथ युद्ध करूगाँ और वह भगवान की ओर दौडा किन्तु भगवान उसका मुकाबला न कर पीछे मुड़कर भागने लगे कालयवन भी उनके पीछे भागने लगा भगवान एक गुफा में घुस गए वहां त्रेतायुग के राजा मुचुकुन्द सो रहे थे उस पर अपना डुपटा डाल भगवान आगे बढ़ गए जब कालयवन वहाँ पहुँचा तो दुपटा देख कृष्ण समझ कर बुरा भला कहने लगा मुचुकुन्द जग गए उनके देखते ही कालयवन जलकर भस्म हो गया मुचुकुन्द त्रेता में देवासुर संग्राम मे देवताओं की विजय करा कर सोये थे उन्हें यह वरदान था कि जो उन्हें जगाएगा जलकर भस्म हो जायेगा कालयवन के भस्म होते ही भगवान ने मुचुकुन्द को दर्शन दिया और उसे मुक्त कर भगवान ने उसे अगले जन्म में ब्राह्मण बनकर मुझे प्राप्त करोगें ऐसा वरदान

एकपन्चाशतमोऽध्याय

[ अथ द्विपन्चाशत्तमोऽध्यायः ]

द्वारका गमन बलरामजी का विवाह रुक्मणीजी का सन्देश लेकर ब्राह्मण का आना-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित! भगवान ने जब बाहर आकर देखाकि जरासंध भी आ गया है और वह बलरामजी की तरफ दौड़ रहा है भगवान ने बलरामजी को संकेत किया और वे भी युद्ध छोड़ भाग खड़े हुए और दोनों भाई दौड़कर प्रवर्षण पर्वत पर चढ़ गए जरासंध ने पर्वत के चारों ओर आग लगा दी और समझ लिया कि वे दोनों भाई जल कर भस्म हो गए। भगवान ने वहाँ से छलांग लगाकर दोनों भाई द्वारका आ गए और आनंद से रहने लगे अब कृष्ण बलराम पूरे पच्चीस वर्ष के हो गए अतः भगवान ने विवाह का मानस बनाया पहले बलरामजी के विवाह के लिए रेवत राजा अपनी रेवती कन्या को ब्रह्माजी की आज्ञा से लेकर आया और उसका विवाह बलरामजी के साथ कर दिया।

राजाअअसीद भीष्मको नाम विदर्भाधिपतिर्महान्

तस्य पन्चाभवन् पुत्राः कन्यका च वरानना।

रुक्म्यग्रजो रुक्मरथो रुक्मबाहुरनन्तरः

रुक्मकेशो रुक्ममाली रुक्मण्येषां स्वसा सती।।

शुकदेवजी वर्णन करते हैं कि विदर्भ देश के राजा भीष्म के पांच पुत्र और एक कन्या रुक्मणी थी रुक्मणी ने श्रीकृष्ण के गुणों को सुन रखा था अत: उसने मन ही मन उन्हें अपने पति रूप में स्वीकार कर लिया लेकिन उसका बड़ा भाई रुक्मी उसे शिशुपाल को देना चाहता था यह जान रुक्मणी ने एक ब्राह्मण को पत्रिका लिखकर श्रीकृष्ण के पास द्वारका भेजा।  ब्राह्मण पत्रिका लेकर द्वारकापुरी पहुंचा और भगवान को रुक्मणी जी की पत्रिका ले जाकर दी और कहा प्रभो रुक्मणी को उसका भाई रुक्मी शिशुपाल को देना चाहता है जबकि रुक्मणी आपको चाहती है अत: चलकर रुक्मणी की रक्षा करें और आपका आदेश मुझे बताए।

इति द्विपन्चाशतमोऽध्यायः

bhagwat katha in hindi

[ अथ त्रिपन्चाशतमोऽध्यायः ]

रुक्मणी हरण-भगवान बोले मैं रुक्मणी की रक्षा करूंगा और अभी आपके साथ चलूगां भगवान ने अपना रथ मगवाकर ब्राह्मण को उसमें बैठाया और आप भी उसमें बैठकर प्रस्थान किया। उधर रुक्मी ने शिशुपाल को लगन भेज दिया और शिशुपाल बहुत बड़ी सेना के साथ कुन्दनपुर को चारों ओर से घेर लिया रुक्मणी के विवाह के उपचार होने लगे किन्तु रुक्मणी न कोई शृंगार कर रही न मेंहदी लगा रही बल्कि भगवान की प्रतिक्षा कर रही हैं। भगवान का रथ जब कुन्दनपुर पहुंचा तो देखाकि कुंदनपुर को शिशुपाल ने चारों ओर से घेर रखा है वे बाहर ही रुक गए और ब्राह्मण को रुक्मणी के पास भेज दिया ब्राह्मण से समाचार सुन रुक्मणी बहुत प्रसन्न हुई और बोली—

आवो सखी आवो मुझे मेंहदी लगादो

मुझे श्याम सुन्दर की दुलहिन बनादो

सत्संग मे मेरी भइ सगाई।

सतगुरु ने मेरी बात चलाई

उनको बुलाके हथलेवा जुडा दो। मुझे।

ऐसी पहनूं चूडी जो कबहुं न टूटे

ऐसा वरुं दुल्हा जो कबहुंन छूटे

अटल सुहाग की बिन्दिया लगादो।मुझे।

ऐसी ओढूं चुनरी जो रंग ना छूटे

प्रीति का धागा कबहु न टूटे

आज मेरी मोतियो से मांग भरादो। मुझे।

भक्ति का सुरमा मैं आंखों मे लगाउगीं

दुनिया से नाता तोड उसकी हो जाउंगी

सतगुरु को बुलाके मेरे फेरे पडवादो। मुझे।

और समस्त शृंगार कर गौरी पूजन के लिए प्रस्थान किया चारों ओर रक्षक चल रहे थे मन्दिर पहुंच कर भगवान का ध्यान करने लगी इतने में भगवान आए और सबके देखते-देखते रुक्मणी को रथ में बैठा कर ले गए जरा संध और शिशुपाल के सैनिक देखते ही रह गए।

इति त्रिपन्चाशतमोऽध्यायः

[ अथ चतुःपन्चाशत्तमोऽध्यायः ]

शिशुपाल के साथी राजाओं की और रुक्मी की हार-श्रीकृष्ण रुक्मणी विवाह श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं परीक्षित! शिशुपाल ने भगवान का पीछा किया किन्तु यादव सेना ने सबको परास्त कर दिया रुक्मी यह प्रतिज्ञा कर कि मैं रुक्मणी को नहीं लाया तो कुन्दनपुर में प्रवेश नही करुंगा भगवान के पास आए और युद्ध करने लगे भगवान ने उसे पकड कर रथ से बांध लिया दया कर बलरामजी ने उसे छुड़ा दिया वह कुन्दनपुर नहीं गया और वहीं भोजकट गांव बसाकर रहने लगा इस प्रकार भगवान ने रुक्मणी के साथ पाणिग्रहण संस्कार किया।

इति चतुःपन्चाशतमोऽध्यायः

bhagwat katha in hindi

[ अथ पन्चपन्चाशत्तमोऽध्यायः ]

प्रद्युम्न का जन्म और शम्बासुर का वध-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित! जब शिवजी ने कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया तब रति ने शिवजी से प्रार्थना की तो शिवजी ने बताया कि द्वापर में कृष्ण के पुत्र के रुप मैं तुम्हारा पति जन्म लेगा और शम्बासुर की रसोई में तुम्हें मिलेगा तभी से रति शम्बासुर की रसोई में काम करने लगी उधर रुक्मणी के गर्भ से प्रथम पुत्र के रूप में प्रद्युम्नजी का जन्म हुआ जिसे जन्म ते ही शम्बासुर ले गया ओर समद में फेंक दिया जिसे एक मत्स्य निगल गया मछुवारों ने उसे पकड़कर शम्बासुर की रसोई में दे दिया रसोई में कार्यरत रति ने उसका पेट चीर प्रद्युम्न जी को निकाल लिया बड़े होने पर प्रद्युम्नजी ने शम्बासुर को मार रति से विवाह कर द्वारका आ गए।

इति पन्चपन्चाशत्तमोऽध्यायः

[ अथ षट्पन्चाशत्तमोऽध्यायः ]

स्यमन्तक मणि की कथा जाम्बवन्ती और सत्यभामा के साथ श्रीकृष्ण का विवाह-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित्! सत्राजित नाम का एक यादव सूर्य का भक्त था उसने सूर्य से एक मणि प्राप्त की थी जिसे गले में पहिन एक दिन वह भगवान कृष्ण के पास गया वहाँ अन्य यादव भी बैठे थे मणि देख वे सब बोले यह मणि भगवान के गले में कितनी सुन्दर लगेगी सत्राजित को लगा कि ये सब उसकी मणि को लेने में है वहां से वह उठकर चला गया वहाँ से उसका भाई प्रसेन मणि को पहन शिकार के लिए वन में चला गया जिसे एक शेर ने मार दिया जब प्रसेन नहीं लौटा तो सत्राजित को संदेह हो गया कि उसके भाई को कृष्ण ने मरवाकर मणि ले ली यह बात चारों ओर फैल गई तब तो भगवान कुछ मुख्य यादवों को साथ लेकर मणि को खोजने निकले जंगल में प्रसेन और उसका घोड़ा मरा हुआ मिला इसे एक शेर ने मार दिया शेर के पद चिह्नों को लेकर चले तो वह शेर भी कुछ दूरी पर मरा हुआ मिला लेकिन मणि वहाँ भी नही मिली उसे मारने वाला कोई रीछ था उसके पद चिह्नों को लेकर चले तो वह रीछ एक गुफा में घुस गया भगवान ने देखाकि गुफा में कोई खतरा हो सकता है अत: सब यादवों को गुफा के बाहर छोड़ अकेले गुफा में प्रवेश किया वहाँ देखा कि मणि से एक बालिका खेल रही है पास ही रिक्षराज जाम्बवन्त खड़ा है भगवान बोले रिक्षराज यह मणि हमारी है जाम्बवन्त बोले इसे मैं युद्ध में जीत कर लाया हूं यदि यह आपकी  है तो युद्ध में जीत कर ले जावे भगवान जाम्बवन्त के साथ युद्ध करने लगे और अन्त में उसे परास्त कर दिया जाम्बवन्त भगवान को पहिचान गए और उनके चरणों में गिर गए और अपनी जाम्बवन्ती कन्या उन्हें समर्पित कर दी साथ में मणि उसके गले में डालदी भगवान गुफा से बाहर आए जहाँ यादव लोग उनकी प्रतिक्षा कर रहे थे भगवान ने सबको मणि दिखादी और जाम्बवंती के विवाह की बात भी बता दी सबने जाकर मणि सत्राजित को दें दी। सत्राजित बहुत लज्जित हुआ अत: उसने अपनी सत्यभामा नामकी कन्या भगवान को ब्याह दी और वह मणि भगवान को दहेज में देना चाहा किन्तु भगवान ने नहीं ली।

इति षट्पन्चाशत्तमोऽध्यायः

[ अथ सप्तपन्चाशत्तमोअध्यायः ]

स्यमन्तक हरण शतधन्वा उद्धार अक्रूरजी को फिरसे द्वारका बुलाना-श्रीशुकदेवजी बोले जब मणि सत्राजित को मिल गई तब कृतवर्मा और अक्रूरजी शतधन्वा से जाकर बोले देखो सत्राजित ने तुम्हारे साथ कितना बड़ा धोखा किया है सत्यभामा जो तुम्हे देने जा रहे थे उसे उसने कृष्ण को दे दी तुम उसे मार कर मणि प्राप्त करलो शतधन्वा ने उनके कहने में आकर सोते हुए सत्राजित को मारकर मणि लेली किन्तु कृष्ण के भय से मणि अक्रूरजी की तरफ फेंक कर धोड़े पर सवार हो वहाँ से भग गया जब भगवान को इस बात का पता चला तो सत्यभामाजी को ढाढ़स बंधा वे शतधन्वा के पीछे भगे और मिथिलापुरी के नजदीक शतधन्वा को मार गिराया पर उसके पास मणि नहीं मिली भगवान द्वारकापुरी लौट आये शतधन्वा के मारे जाने की खबर सुन भय से अक्रूरजी और कृतवर्मा भी द्वारका छोड़ भग गए भगवान ने अक्रूरजी को ढुढ़वाया और मणि के बारे में पूछा अक्रूरजी ने सब के सामने मणि मेरे पास है सबको बता दिया इस प्रकार भगवान ने अपना कलंक दूर किया।

इति सप्तपन्चाशत्तमोऽध्यायः

bhagwat katha in hindi

[ अथ अष्टपन्चाशत्तमोऽध्यायः ]

श्रीकृष्ण के अन्यान्य विवाहों की कथा-श्रीशुकदेवजी कहते हैं परीक्षित! एक समय भगवान कृष्ण हस्तिना पुर गए वहां वे अर्जुन के साथ यमुना किनारे भ्रमण कर रहे थे वहां एक सुन्दर कन्या तपस्या कर रही थी अर्जुन ने उससे पूछा कि आप कौन हैं उसने बताया कि मैं कालिन्दी हूं भगवान को पति रूप में प्राप्त करना चाहती हूं भगवान ने उसे अपने रथ में बैठा लिया और द्वारका आकर उसके साथ विवाह किया इसके पश्चात् उज्जैन देश के राजा विन्द की कन्या मित्रविन्दा भगवान को पति रूप में चाहती थी। भगवान ने उसका हरण कर उसके साथ विवाह किया। कौशल देश के राजा नग्नजित् की कन्या नाग्नजिती का विवाह भगवान ने सात बैलों को एक साथ नाथ पहनाकर कर लिया। कैकय देश के राजा की कन्या भद्रा का विवाह उसके भाईयों ने भगवान के साथ कर दिया। मद्रदेश के राजा की कन्या लक्ष्मणा का भी भगवान ने स्वयम्बर से हरण कर उसके साथ विवाह किया इस प्रकार ये भगवान की आठ पटरानियों के विवाह हुए।

इति अष्टपन्चाशत्तमोऽध्यायः

[ अथ एकोनषष्टितमोऽध्यायः ]

भोमासुर का उद्धार, सोलह हजार एक सौ कन्याओं के साथ भगवान का विवाह-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित्! भोमासुर नाम के राक्षस ने वरुण का छत्र इन्द्र की माता अदिति के कुण्डल हरण कर लिए तथा सोलह हजार एक सौ कन्याओं को बन्दी बना रखा था। अत: इन्द्र भगवान के पास गया और कहा प्रभु यह राक्षस देवताओं को बहुत सता रहा है तब भगवान ने गरुड़ पर सवार होकर सत्यभामाजी के साथ उसे मारने के लिए प्रस्थान किया उसका किला बड़ा मजबूत था जिसे तोड़कर भगवान ने उस राक्षस को मार सोलह हजार एक सों कन्याओं को मुक्त किया वे सबकी सब भगवान को पति रूप में चाहती थी उनका अभिप्राय जान भगवान ने सब को द्वारका भेज दिया और आप सीधे अमरावती गए इन्द्र की माता अदिति के कुण्डल देकर इन्द्र को परास्त कर एक कल्प वृक्ष लेकर द्वारका आगए और वहां आकर सोलह हजार एक सौ कन्याओं के साथ विवाह किया।

इति एकोनषष्ठितमोऽध्यायः

[ अथ षष्टित्तमोऽध्यायः ]

श्रीकृष्ण रुक्मणि संवाद-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित् एक बार भगवान श्रीकृष्ण रुक्मणि जी के महलों में पधारे और उनसे कुछ मनोरंजन करने लगे कहने लगे देवी शिशुपाल सरीखे योद्धाओं को छोड़ तुमने मेरे साथ विवाह कर बहुत बड़ी गलती की शायद तुम उसके लिए पश्चाताप भी कर रही होंगी तो मैं कहता हूँ अभी भी समय है तुम उन्हें प्राप्त करने में स्वतन्त्र हो भगवान के मुख से ऐसी वाणी सुन रुक्मणि बेहोश होकर गिर गई भगवान उन्हे पंखा झलने लगे होश आने पर कहा अरे रुक्मणि मैं तो तुमसे मनोरंजन कर रहा था।

इति षष्टितमोऽध्यायः

[ अथ एकषष्टित्तमोअध्यायः ]

श्रीशुकदेवजी कहते हैं परीक्षित्! भगवान की सोलह हजार एक सौ आठ महारानियों के प्रत्येक के गर्भ से दस-दस पुत्र उत्पन्न हुए रुक्मणीजी के भाई रुक्मी की पुत्री रुक्मवती ने स्वयम्बर में प्रद्युम्नजी के गले में वरमाला डाल दी उपस्थित राजाओं ने इसका विरोध किया तब सबको जीत कर रुक्मवती का हरण कर लाए।रुक्मी ने अपनी बहिन को प्रसन्न कर पुराने बैर को मिटाने के लिए प्रद्युम्नजी को अपनी बेटी ब्याह दी तथा अपनी पोत्री अनिरुद्धजी को ब्याह दी अनिरुद्धजी के विवाह में बलरामजी व रुक्मी में विवाद हो गया रुक्मी चासर के खेल में बईमानी करने लगा तो बलरामजी ने रुक्मी का वध कर दिया।

इति एकषष्टित्तमोऽध्यायः

bhagwat katha in hindi

[ अथ द्विषष्टितमोऽध्यायः ]

उषा अनिरुद्ध मिलन-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि बलि का पुत्र बाणासुर ने शिवजी की भक्ति कर उनसे वरदान में एक हजार भुजाएं प्राप्त की थी बल प्राप्त कर वह शिवजी से ही युद्ध करने को उद्यत हो गया इस पर शिवजी ने कहा तेरे महल की ध्वजा जिस दिन गिर जावे उस दिन तुमसे युद्ध करने वाला आ जावेगा। बाणासुर के एक कन्या थी उषा उसने स्वप्न में अनिरुद्ध को देख लिया और उन्हें अपना ह्रदय दे दिया जगने पर वह अपनी सहेली चित्रलेखा से बोली सखी स्वप्न में एक पुरुष मेरे मन को चुरा ले गया चित्रलेखा ने बडे-बडे नरपतियों के चित्र बनाए उनमें वह अनिरुद्धजी को पहिचान गई चित्रलेखा ने अपनी माया से सोते हुए अनिरुद्धजी को पलंग सहित उषा के महलों में पहुँचा दिया उषा उनके साथ बिहार करती रही प्रात: होते ही पुन: उन्हें द्वारका पहुँचा दिया इस प्रकार कई दिनों यह क्रम चलता रहा एक दिन बाणासुर को इसका पता चल गया उसने अनिरुद्धजी को बंदी बना लिया।

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[ अथ त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ]

बन्दी राजाओं की मुक्ति-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित्! जरासंध के मर जाने के बाद भगवान ने उसके पुत्र सहदेव को राजा बना दिया और सहदेव से कहकर बन्दी राजाओं को मुक्त करा दिया सहदेव भगवान का भक्त था राजा ओं ने भगवान को प्रणाम किया और उनकी स्तुति की ये सब करके भगवान इन्द्रप्रस्थ लौट आए।

इति त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ।

[ अथ चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ]

भगवान की अग्रपूजा और शिशुपाल का उद्धार-श्रीशुकदेवजी बोले राजन्! भगवान की आज्ञा पाकर राजा युधिष्ठिर ने यज्ञ के लिए विद्वान ब्राह्मणों का वरण किया अब प्रश्न यह आया कि सदस्यों मे अग्र पूजा किसकी की जाय इस पर जरासंध पुत्र सहदेव ने कहा भगवान श्रीकृष्ण की ही अग्रपूजा होनी चाहिए। यह बात सुन शिशुपाल क्रोध कर बोला जहां बड़े-बड़े विद्वान महर्षि बैठे हों वहाँ इस ग्वाले गंवार की अग्रपूजा होगी और भी अनेक तरह की गालियाँ भगवान को देने लगा भगवान ने निन्यानवे गालियाँ क्षमा करते हुए सौवीं गाली में सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का सिर धड़ से अलग कर दिया उसके शरीर से एक ज्योति निकल कर भगवान मे समाहित हो गई।

इति चतुःसप्ततितमोऽध्यायः

[ अथ पन्चसप्ततितमोऽध्यायः ]

राजसूय यज्ञ की पूर्ति और दुर्योधन का अपमान-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित्! युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में बड़े-बड़े महर्षि बड़े-बड़े राजा पधारे थे सबने अपने योग्य सेवा देकर यज्ञ को सम्पन्न किया जिसे देख दुर्योधन मन ही मन जल उठा युधिष्ठिरजी के लिए मय दानव ने एक सुन्दर महल बनाकर दिया जिसमें जल में थल तथा थल में जल दीखता था एक दिन दुर्योधन महल देखने आया उसे थल में जल नजर आया अत: उसने उसे पार करने के लिए अपने वस्त्र उंचेकर लिए यह देख द्रोपदी हंस गई और बोली अंधों के अंधे ही होते हैं जिससे दुर्योधन का बडा अपमान हुआ।

इति पन्चसप्ततितमोऽध्यायः

[ अथ षट्सप्ततितमोऽध्यायः ]

शाल्व के साथ यादवों का युद्ध-श्रीशुकदेवजी कहते है कि राजन्! शिशुपाल का एक मित्र था शाल्व मित्र के मारे जाने के बाद वह अत्यन्त क्रोध में भर गया उसने शिवजी की घोर तपस्या कर एक विमान प्राप्त किया था वह मन की गति से चलता था और कभी अदृश्य हो जाता तो कभी प्रकट शाल्व ने विमान में बैठकर यादवों से युद्ध के लिए आ गया और यादवों को भयभीत करने लगा।

इति षट्सप्ततितमोऽध्यायः

[ अथ सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ]

शाल्व का उद्धार-श्रीशुकदेवजी बोले भगवान ने जब देखा कि यादव शाल्व से भयभीत हो रहे है भगवान ने उस दुष्ट का भी उद्धार किया।

इति सप्तसप्ततितमोऽध्यायः

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[ अथ अष्टसप्ततितमोऽध्यायः ]

दन्तवक्त्र और विदूरथ का उद्धार तथा तीर्थयात्रा में बलरामजी के हाथ से सूजजी का वध-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं परीक्षित! शिशुपाल शाल्व के मारे जाने के पश्चात् दन्तवक्त्र अकेला ही पैदल रणभूमि में आ धमका वह बड़ा भयंकर था भगवान भी गदा लेकर उसके सामने आ गए और युद्ध करने लगे भगवान ने शीघ्र ही उसे एक गदा के प्रहार से समाप्त कर दिया दन्तवक्त्र का भाई था विदूरथ भाई को मरा जान वह भी युद्ध में आ गया एक ही बाण से भगवान ने उसे समाप्त कर दिया ओर द्वारकापुरी आ गए। ____ एकबार बलरामजी ने देखा कि कौरव पाण्डवों में युद्ध की संभावना है वे किसी का भी पक्ष न लेकर तीर्थ यात्रा को चल दिए। जब वे नैमिषारण्य पहुंचे तो देखा कि सूतपुत्र रोमहर्षण ऊँचे आसन पर बैठ ऋषियों को कथा सुना रहे हैं वे न तो किसी को उठकर प्रणाम करते हैं न स्वागत बलराम जी को क्रोध आ गया और उन्होने कुश की नोक से प्रहार कर उनका सिर धड़ से अलग कर दिया सभा में हाहा कार मच गया। ऋषि बोले बलरामजी इन्हें हमने ब्रह्मत्व प्रदान कर रखा था उन्होने व्यासजी से समस्त पुराणों को पढ़ा है अब आप इसका कोई उपाय करें बलरामजी बोले आज से इनका पुत्र उग्रश्रवा आपको कथा सुनावेगें। ऋषिबोले बलरामजी इल्वल का पुत्र वल्वल हमें बड़ा कष्ट पहुंचाता है उससे आप हमें मुक्ति दिलावें।

इति अष्टसप्ततितमोऽध्यायः

[ अथ एकोनाशीतितमोऽध्यायः ]

वल्वल का उद्धार ओर बलरामजी की तीर्थयात्रा-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि राजन् पर्व का दिन था जोर से अंधड चलने लगा यज्ञ में मलमूत्र की वर्षा होने लगी फिर हाथ में त्रिशूल लेकर वल्वल सामने आ गया बलरामजी ने उसे हल की नोक से खेंच कर सिर में एक मूसल मारा की उसका सिर फट गया ओर समाप्त हो गया। बलरामजी ने तीर्थ यात्रा के लिए प्रस्थान किया।

इति एकोनाशीतितमोऽध्यायः

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[अथ अशीतितमोऽध्यायः ]

सुदामा चरित्र—–

कृष्णस्यासीत् सखा कश्चिद् ब्राह्मणो ब्रह्म वित्तमः।

विरक्त इन्द्रियार्थेषु प्रशान्तात्मा जितेन्द्रियः।।

श्रीशुकदेवजी कहते है कि भगवान श्रीकृष्ण के गुरुकुल में एक साथ पटे हुए एक मित्र थे सुदामा ब्राह्मण वे बड़े परमात्मा के भक्त विरक्त जितेन्द्रिय थे वे गृहस्थी थे उनके सुशीला नामकी पतिव्रता पत्नि थी उनका जीवन भिक्षावृत्ति पर आधारित था एकया दो घरों से जो मिल जावे उससे निर्वाह करते थे सुदामाजी ने सुशीला जी को बता रखा था कि उनके मित्र अब द्वारका के राजा हैं

विप्रसुदामा बसत हैं सदा आपने धाम

भिक्षा करि भोजन करे जपे हरी कोनाम

ताकि घरनी पतिब्रता गहे वेद की रीति

सुबुधि सुशील सुलज्ज अति पति सेवा मे प्रीति

एक दिन सुशीलाजी सुदामाजी से बोली..

कहत सुशीला संदीपनी गुरुके पास

तुम हितो कहे हम पढे एक साथ है

द्वारिका को गए दुख दारिद हरेगें पिय

द्वारका के नाथ वे अनाथों के नाथ हैं

उधो सवां जुरतो भर पेट तो

चाहत हों नही दूध मिठोती

नीति वितीत भयो केहि कामके

हों हठ के तुम्हे यों न पठोती

जानती जोन हितु हरि सों

द्वारका तुमको न पेल पठोती

इस घरते कबहु नगयो पिया

टूटो तयो और फुटी कठोती

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सुदामाजी बोले सुशीला अब वे द्वारका के राजा है वे मुझे कैस पहिचानेगें तो सुशीला बोली–

विप्रन के भगत जगत विदित बन्धु

लेत सुधि सबहि की ऐसे महा दानी हैं

पढे इक चटसार कही तुम कइबार

लोचन अपार वे तुम्हे न पहिचानी हैं

एकदीन बन्धु कृपा सिन्धु फेरि गुरुबन्धु

तुमसों दीन जाहि निज जिय जानी है

नाम लेत चौगुनो गएते द्वार सौगुनो

देखत सहस्र गुनो ऐसे प्रीति प्रभु नामी है

सुशीला का हठ देख सुदामाजी ने सोचा चलो इस बहाने भगवान के दर्शन हो जायगें एक पोटली में थोडे तंदुल लेकर द्वारका के लिए प्रस्थान किया और द्वारका पहुँच गए।

द्रष्टि चकाचौंध भइ देखत स्वर्ण मही

एक से सरस एक द्वारका के भोन हैं

पूछे बिना कोउ कहुं काहुसोंन करे बात

देवता से बैठे सब साधिसाधि मोन है

देखत सुदामा धाय परिजन गहे पाय

कृपाकर कहो विप्र कहां कीनो गोन है

धीरज अधीर के हरन पर पीर के

बतावो बलवीर के महल यहां कौन है

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सुदामाजी ने द्वारपाल को बताया कि भगवान श्रीकृष्ण मेरे मित्र है मैं उनसे मिलना चाहता हूं द्वारपाल बोला। मैं भगवान के पास आपका संदेश पहुंचाता हूँ और द्वारपाल भगवान से जाकर बोले—

शीश पगा न झगा तन पै प्रभु

जानेको आहि बसे केहि ग्रामा

धोती फटी सी लटी दुपटी अरु

पाय उपानह की नही सामा

द्वार खडो द्विज दुर्बल एक

रह्यो चकि सों वसुधा अभिरामा

पूछत दीन दयाल को धाम

बतावत आपनो नाम सुदामा

बोल्यो द्वारपाल सुदामा नाम पाण्डे सुनि

छांडे राज काज एसे जी की गति जाने को

द्वारका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाय

भेटे भर अंक लिपटाय दुःख साने को

नैन दोउ जल भरि पूछत कुशल हरि

विप्र बोल्यो विपदा मे मोहि पहिचाने को

जैसी तुम करी तैसी करे को कृपा के सिन्धु

ऐसी प्रीति दीनगन्धु दीनन सों माने को

भगवान सुदामाजी का हाथ पकड़ महलों में ले गए और ऊँचे राज सिंहासन पर विराजमान कर दिए और उनके चरण धोने लगे।

ऐसे वेहाल विवाइन सों पग कंटक जाल लगे पुनि जोए

हाय महादुख पायो सखातुम आए इतेन किते दिन खोए

देख सुदामाकी दीनदशा करुणाकरके करुणानिधिरोये

पानीपरातको हाथ छुयो नही नैननकेजलसों पग धोए

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कृष्ण सुदामा संवाद

कृष्ण–

बडीरे निठुरता तुमने धारी सुदामा भैया

बहुत दिनन मे दर्शनदीना कैसीदशा तुम्हारी

काहे दुख पायो पास मेरे क्यों न आयो

दिन बृथा ही गमायो मोहि याहि को विलग

वस्त्र फटे से पुराने अंग सकल सुखाने

नहीं जात पहिचाने हैपनैया नहीं पग

फटी विवाइ दोउ पांवन मे क्यों बनरहे भिखारी।। सुदामा।।

सुदामा–

काहे एतो दुःख पावे नीर नपनन बहावे

शाप देके पछितावे तेरी लीला है अपार

समय समय की है बात जब पढ़े एक साथ

अब भीख मांग खात या में काहे को विचार

मैं हूँ अतिहि दीन बन्धुतू दीनन को हितकारी ।।सुदामा।।

कृष्ण–

एक जग प्रतिपाल दूजो बन्योहै कंगाल

यह विधिना की चाल कछु लागे विपरीत

दीनबन्धु और दीन को है अमिट संबंध

कोटि करेह प्रबन्ध यह टूटे नही प्रीति

लइ दरिद्रता बांध गांठ से प्रीति न मेरी भुलाई।।सुदामा।।

सुदामा–

धन्य धन्य यदुराई मेरी करत बड़ाई

निज प्रभुता भुलाई नही भावे राजपाट

यासों कहत मिताइ जैसी कृष्ण ने निभाई

मैंने भीख माँग खाई कहाँ याके ठाट बाट

धोवे चरन भिखारी के यह भगतन को हितकारी।।सुदामा।।

कृष्ण–

छोड बृथा की यह बात पंडिताइ क्यों दिखात

कछुलायो है सोगात भाभी भेजी सो दिखाय

वहमोको अति प्यारी याद करे जो हमारी

कैसे रहे वो विचारी कछुमो कूहूं बताय

भेज्यो कहा संदेश सुनाय दे लगी चटपटी भारी।।सुदामा।।

सुदामा–

तू है द्वारका नरेश मेरो साधुकोसो भेष

तेरी भाभी को संदेश कहने मे आवे लाज

वापै धरी कहा भेंट जाको भरे नही पेट

है दरिद्र की चपेट ताहि संग लायो आज

आया हूं कछु कामइ ते पर कह न सकू गिरधारी।।सुदामा।।

कृष्ण–

कहबे में सकुचाय बृथा दीनता दिखाय

रहे मित्र से छिपाय दउं मांगे सोइ तोय

काम विपदा मे आवे सांचो मित्र वो कहावे

नहीं मित्र को भुलावे मन कपटी नहोय

तीन लोक की संपति तेरे चरन पर बलिहारी ।।सुदामा।।

इति अशीतितमोऽध्याय:

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[ अथ एकाशीतितमोऽध्यायः ]

सुदामाजी को ऐश्वर्य प्राप्ति-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित! काँख में दबाई हुई चावल की पोटली सुदामा से भगवान ने छीन ली और उसमें से एक मुट्ठी चावल चबा गए और उसके स्वाद का बखान करते हुए दूसरी मुट्ठी भी चबा गए और जब तीसरी मुट्ठी चबाने लगे तो रुक्मणी ने हाथ पकड़ लिया।

हाथ गयो प्रभुको कमला यहनाथ कहा तुमने चितधारी

तंदुलखाय मुठी दोउ दीनसंपदा दौउ लोकन की बिहारी

तीसरी मुट्ठी चबाय हरि कहां तुम रहने की आस बिचारी

रंकहि आप समान कियो तुम चाहत आपन होन बिखारी

रुक्मणि–

ब्राहमण की परतीत में सुख नहीं पायो कोय

बलिराजा हरिश्चन्द्र ने दिया राजपट खोय

दिया राजपट खोय हरीजिन जनक दुलारी

तीन लोक के नाथ लात तिनहुँ को मारी

कृष्ण–

भूल गई कमला तुम तो ब्राह्मण सब दुख टारन हारो

लेपतियां हमको जुदई वह ब्राह्मण हमको मिलावनवारो

गुरु ब्राह्मण है सबरेजगकोजगकी त्रयताप मिटावनवारो

ब्राह्मण मेरोहे पूज्यसदा या ब्राह्मण से परमेश्चर हारो

विप्र प्रसादात् धरणी धरोहं विप्रप्रसादात गिरवर धरोहं

विप्रप्रसादात कमलावरोहं विप्रप्रसादात ममनाम रामम

भगवान के मुख से ब्राह्मणों की प्रशंसा सुन शान्त हो गई फिर स्नान कराकर सुदामाजी को भोजन कराया सुन्दर पलंग पर शयन कराया तथा भगवान उनके चरण दबाने लगे बहुत दिनों आद भोजन मिलने के कारण उन्हें तुरन्त नींद आ गई भगवान ने ब्रह्मा को बुलाया और पूछा ब्रह्माजी आपने हमारे मित्र के भाग्य में क्या लिखा है ब्रहमा बोले प्रभु सुदामा के भाग्य में लिखा है-श्रीक्षय-भगवान बोले इसे उलट दो ब्रह्मा ने उसे उलटा लिख दिया-यक्षश्री-यानी कुवेर की संपत्ति यद्यपि सामान्य शास्त्र कहते है।

जे विधिना ने लिख दिया छठी रातके अंक

राइ घटे न तिल बढे रहरे जीव निशंक

किन्तु विशिष्ट शास्त्र कहते हैं–

राम नाम मणि विषम व्याल के

मेटत कठिन कुअंक भालके

भगवान भाल के अंक भी बदल देते हैं

प्रात:काल उठते ही सुदामाजी ने घर जाने को कहा भगवान ने उन्हे विदा किया पर कुछ दिया नही अत: वे सोचते जा रहे है–

वह पुलकिन वह उठ मिलन वह आदर की बात

यों पठवनि गोपाल की कछु नही जानी जात

घर-घर में मागत फिरो तनिक छाछ के काज

कहा भयो जो अब भयो हरि को साज समाज

हों तो आवत ना ह तो वाहि पठायो ठेलि

अब कहंगो समझाय के बह घन घरो सकेलि

चलते-चलते आगे देखा कि सुदामापुरी की जगह कोई नगर बसा है उनकी कुटिया का भी पता नहीं इतने में महलों से सोने से लडझड सुशीला उतरी सुदामाजी को प्रणाम कर बोली हमें यह सब भगवान ने दिया है। सुदामाजी बोले सुशीला यह सोना चाँदी मुझे नहीं चाहिए मैं तो बाहर कुटिया बनाकर रहंगा और भजन करूँगा।

इति एकाशीतितमोऽध्यायः

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[ अथ द्वयशीतितमोऽध्यायः ]

भगवान कृष्ण बलराम से गोप गोपियों की भेंट-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित! एक समय सर्व ग्रास सूर्य ग्रहण हुआ जिसमें भगवान के साथ समस्त यादव कुरु क्षेत्र गए तथा समस्त बृजवासी भी वहाँ आए उधर पाण्डव भी वहाँ आए बहुत दिनों पश्चात सब मिल कर बड़े प्रसन्न हुए सबकी पुरानी यादें ताजा हो गई।

इति द्वयशीतितमोऽध्याय:

[ अथ त्रयशीतितमोऽध्यायः ]

द्रोपदी की पटरानियों के साथ बातचीत-श्रीशुकदेवजी बोले राजन! द्रोपदी भगवान की पटरानियों से मिली तथा उनसे भगवान के साथ विवाह होने की बात पूछने लगी सभी पटरानियों ने अपने-अपने विवाह की कथा द्रोपदी को सुनाई।

इति त्रयशीतितमोऽध्याय:

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[ अथ चतुरशीतितमोऽध्यायः ]

वसुदेवजी का यज्ञोत्सव-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं कि कुरुक्षेत्र में बड़े-बड़े ऋषि भी पधारे थे उनसे प्रार्थना कर वसुदेवजी ने एक बड़ा यज्ञ किया और खूब दान पुण्य किया।

इति चतुरशीतितमोऽध्यायः

[ अथ पन्चाशीतितमोऽध्यायः ]

भगवान द्वारा वसुदेवजी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश तथा देवकी के छः पुत्रों को लोटा लाना-श्रीशुकदेवजीवर्णन करते है कि कुरुक्षेत्र में भगवान ने अपने पिता वसुदेवजी को ब्रह्म ज्ञान का उपदेश दिया तथा देवकी की प्रार्थना पर उनके मरे हुए छ: पुत्रों को लाकर भगवान ने उनकी इच्छापूर्ण की वे आए और देवकी का स्तनपान कर चले गए।

इति पन्चाशीतितमोऽध्यायः

[ अथ षडशीतितमोऽध्यायः ]

सुभद्रा हरण-श्रीशुकदेवजी कहते है कि कृष्ण बलराम की एक बहन थी उसका नाम सुभद्रा था बलरामजी उसका विवाह अपने शिष्य दुर्योधन के साथ करना चाहते थे किन्तु सुभद्रा अर्जुन को चाहती थी और भगवान भी अर्जुन को ही चाहते थे अत: वसुदेवजी और भगवान की सहमति से अर्जुन ने सुभद्रा का हरण कर लिया इस पर बलराम जी बहुत बिगड़े अन्त में भगवान ने उन्हे समझा बुझा कर शान्त कर दिया।

इति षडशीतितमोऽध्याय:

[ अथ सप्तशीतितमोऽध्यायः ]

वेद स्तुति-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि जब प्रलय काल में भगवान योग निद्रा में शयन करते है तब प्रलय की समप्ति पर वेद उन्हे जगाते है।

जयजय जयजा मजित दोष गृभीत गुणां

त्वमसि यदात्मना समवरुद्ध समस्त भगः

अगजग दोकसा मखिल शक्त्य ववोधकते

क्वचिदजयात्मना चचरतोऽनुचरेनिगम:

वेद कहते है हे अजित आप ही सर्वश्रेष्ठ है आप पर कोई विजय प्राप्त नही कर सकता आपकी जय हो जय हो आप समस्त ऐश्वर्य पूर्ण है।

इति सप्तशीतितमोऽध्यायः

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[ अथ अष्टाशीतितमोऽध्यायः ]

शिवजी का संकट मोचन-श्रीशुकदेवजी बोले एक समय बृकासुर नाम का एक राक्षस शिवजी की घोर तपस्या करने लगा उस पर प्रसन्न होकर उसे वरदान माँगने को कहा उसने वरदान मे माँगा कि मैं जिस के मस्तक पर हाथ रख दूँ वही भस्म हो जावे शिवजी ने एव मस्तु कह दिया वह शिवजी पर ही हाथ रखने को तैयार हो गया शिवजी वहाँ से भागे पीछे-पीछे वह राक्षस भी भागने लगा शिवजी को भागते देख भगवान को दया आ गई वे रास्ते में ही राक्षस को मिल गए और बोले राक्षसराज कहाँ जा रहे हो उसने अपना अभिप्राय बताया तुमने शिवजी की बात पर विश्वास कैसे कर लिया वे तो दक्ष शाप से वरदान देने की क्षमता खो चुके है यदि विश्वास नहीं तो अपने सिर पर हाथ रखकर देख लो वह भगवान की बातों से ऐसा मोहित हआ कि अपने ही सिर पर हाथ रखकर भस्म हो गया।

इति अष्टाशीतितमोऽध्यायः

[ अथ एकोननवतितमोऽध्यायः ]

भृगुजीके द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा-श्रीशुकदेवजी बोले एक समय ऋषियों की सभा में यह बात आई की त्रिदेवों में बड़े कौन है भृगुजी ने परीक्षा का जिम्मा लिया वे प्रथम शिवजी के पास गए और उनको प्रणाम नहीं किया शिवजी क्रोधित हो मारने को दौड़े भृगुजी वहाँ से आ गए और ब्रह्माजी के पास गए वहाँ भी उन्हे प्रणाम नहीं किया बल्कि उनके बराबर जाकर बैठ गए ब्रह्माजी भी क्रोधित होकर उन्हे मारने दौड़े वे वहाँ से भगवान विष्णु के पास गए और जाकर उनकी छाती में लात मारी भगवान ने ऋषि के चरण पकड़ लिए और सहलाने लगे मेरी छाती बडी कठोर है। आपके चरण कोमल है लगी होगी बस त्रिदेवों की परीक्षा हो गई भगवान विष्णु ही सर्वश्रेष्ठ है।

इति एकोननवतितमोऽध्यायः

[ अथ नवतितमोऽध्यायः ]

भगवान कृष्णके लीला विहार का वर्णन-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि द्वारका में भगवान अनेक लीला विहार कर रहे हैं भगवान ने बारह वर्ष की लीला बृज में तेरह वर्ष लीला मथुरा में तथा एक सौ वर्ष की लीला द्वारका में की।

इति नवतितमोऽध्यायः

इति दशम स्कन्ध

अथ एकादशः स्कन्धः प्रारम्भ

[ अथ प्रथमोऽध्यायः ]

यदुवंशियों को ऋषियों का शाप–

कृत्वा दैत्य वधं कृष्ण: सरामो यदुभिर्वृतः

भुवोअवतारयद् भारं जविष्ठं जनयन कलिम्

श्रीशुकदेवजी कहते है-परीक्षित् भगवान श्रीकृष्ण बलराम ने बहुत से दैत्यों का वध किया तथा कौरव और पाण्डवों में भी आपसी कलह पैदाकर पृथ्वी का भार उतार दिया फिर भी अजेय यदुवंश अभी मौजूद जान भगवान ने उसे भी समाप्त करने का मानस बनाया। एक दिन यदवंश के उदण्ड बालक वहाँ पहुच गए जहाँ दुर्वासादि ऋषि प्रभास क्षेत्र में तपस्या कर रहे थे उन्होंने साम्ब को स्त्री के वस्त्र पहनाकर उसका बड़ा पेट बनाकर उनके सामने प्रस्तुत कर बोले यह स्त्री गर्भवती है इसके बालक होगा या बालिका बतावें इस पर दुर्वासा बोले इसके तुम्हारे कुल का नाशक मूसल पैदा होगा जब पेट खोल कर देखा तो उसमें से एक मूसल निकला वे सब डर गए और डरते-डरते उग्रसेनजी के पास गए और उन्हें सारा बृतान्त सुनाया उग्रसेनजी की आज्ञा से उस लोहे के मूसल को घिस-घिस कर चूर्ण कर समुद्र में फेंक दिया चूर्ण समुद्र की लहरों से किनारे आकर एक घास बन गया।

इति प्रथमोऽध्यायः

[ अथ द्वितीयोऽध्यायः ]

वसुदेवजी के पास नारदजी का आना तथा उन्हे राजा जनक तथा नौ योगेश्वरों का संवाद सुनाना-श्रीशुकदेवजी कहते है कुरुनन्दन! एक समय नारदजी द्वारका में वसुदेवजी के यहाँ पधारे वसुदेवजी ने उनका स्वागत किया और पूछा प्रभो मैंने तपस्या कर भगवान को पुत्र रूप में चाहा था सो पुत्र रूप में मिल गए किन्तु मैंने उन्हें पुत्र ही समझा तत्व से नही समझा कपया उन्हे तत्व से समझाने की कृपा करें। नारदजी बोले कि हे वसुदेव जी इसके लिए मैं तुम्हे राजा जनक तथा नो योगेश्वरों की कथा सुनाता हूँ ध्यान से सनिए एक समय राजा निमि के यहाँ वे नो योगेश्वर आए निमि ने उनकी पूजा की और उनसे अपने कल्याण का मार्ग पूछा उनमें से प्रथम योगेश्वर कवि ने कहा राजन् भक्तजनों के हृदय से कभी दूर न होने वाले अच्युत भगवान के चरणों की नित्य निरन्तर उपासना ही इस संसार में परम कल्याणकारी है राजा निमि बोले प्रभो भगवान के भक्तों के लक्षण बतावें। __इस पर दूसरे योगी हरि बोले-जो समस्त संसार में जड़ चेतन में प्राणी मात्र में भगवान को देखता है वह परमात्मा का सच्चा भक्त है।

इति द्वितीयोऽध्यायः

[ अथ तृतीयोऽध्यायः ]

माया से पार पाने का उपाय-राजा निमि बोले प्रभो सुना है भगवान की माया बड़ी दुस्तर है मैं उसका स्वरुप जानना चाहता हूँ। अब तीसरे योगेश्वर अन्तरिक्ष बोले-समस्त जड़ जगत तथा श्रृष्टि रचना में भगवान की सहयोगी शक्ति ही माया है। अब राजा निमि ने पूछा प्रभो भगवान की माया से कैसे पार पाया जाता है बतावें। अब चौथे योगेश्वर प्रबुद्धजी बोले–

गुरु बिनु भवनिधि तरइन कोई।

जो विरंची शंकर सम होई।।

भगवान की माया से पार पाने के लिए गुरु की कृपा से भगवत शरणागति मंत्र ही माया से पार कर सकता है। राजा निमि बोले कृपा कर बतादें कि नारायण का स्वरूप क्या है इस पर पांचवे योगीश्वर पिप्पलायन बोले-समस्त जड जगत एवं चैतन्य स्वरुप प्राणी मात्र के कारण रूप श्रृष्टि के रचयिता पालन कर्ता तथा संहर्ता भगवान नारायण का ही रूप है। राजा निमि बोले अब आप कर्मयोग बताइये इस पर छठे योगीश्वर आविर्होत्रजी बोलेवेद विहित कर्म ही कर्म है विपरीत अकर्म है इसमें वेद ही प्रमाण है।

इति तृतीयोऽध्यायः

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[ अथ चतुर्थोऽध्यायः ]

भगवान के अवतारों का वर्णन-राजा निमि ने पूछा कि भगवान के अवतारों का वर्णन करें इस पर सातवें योगीश्वर मिल जी बोले-भगवान ने पंच महाभूतों की रचना कर विराट शरीर ब्रह्माण्ड की रचना कर उसमें सूक्ष्मरूप से प्रवेश कर गए यह भगवान का पुरुष रूप अवतार है वही परमात्मा श्रृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा पालन करने के लिए विष्णु व संहार के लिए रुद्र अवतार है इनके द्वारा श्रृष्टि का क्रम चलता रहता है।

इति चतुर्थोऽध्यायः

[ अथ पंचमोऽध्यायः ]

भक्तिहीन पुरुषों की गति तथा भगवान की पूजा विधि-राजा निमि ने पूछा जो लोग संसार की कामनाओं में लिप्त है भगवान की भक्ति नही करते उनकी क्या गति होती है बतावे तो आठवें चमसजी बोले-विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण भुजाओं से क्षत्रिय उदर से वैश्य व चरणोंसे शूद्रों की उत्पत्ति हुई है। उसी तरह उनकी जंघा से गृहस्थाश्रम ह्रदय से ब्रह्मचर्य व वक्षस्थल से वानप्रस्थ और मस्तक से सन्यास आश्रम प्रकट हुए है जो इनका पालन नही करता उनका अध:पतन हो जाता है। __राजा निमि बोले प्रभो किस युग में भगवान का कौनसा वर्ण होता है और उनकी कब-कब कैसे कैसे पूजा की जाती है इस पर नवे कर भाजन योमीश्वर बोले भगवान सतयुग में श्वेत त्रेता में लाल द्वापर में सांवला तथा कलियुग में काला रंग भगवान का होता है सतयुग में भगवान की ध्यान के द्वारा उपासना की जाती है त्रेता में वेदों के द्वारा आराधना की जाती है। द्वापर में वैदिक व तान्त्रिक विधि से भगवान की पूजा की जाती है और कलियुग में नाम संकीर्तन से पूजा की जाती है।  नारदजी बोले वसुदेवजी मैंने आपको नौ योगेश्वरों की कथा से भगवान की महिमा समझाई जिससे आप उनकी महिमा को समझ गए होगें यह सुन वसुदेव-देवकी बहुत प्रसन्न हुए।

इति पञ्चमोऽध्यायः

[ अथ षष्ठोऽध्यायः ]

देवताओं की भगवान से स्वधाम पधारने की प्रार्थना यादवोंको प्रभास क्षेत्र जाते देख उद्ववजी का भगवान के पास जाना। श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है परी क्षित्! एक दिन ब्रह्मा सहित देवता द्वारका आए और भगवान से स्वधाम पधारने की प्रार्थना की भगवान ने उन्हे शेष कार्य पूरा कर शीघ्र धाम आने को कहा उधर द्वारका में अपशकुन होने लगे अत: भगवान ने समस्त यादवो को बताया कि आज से सातवें दिन यह द्वारका समुद्र में डूब जावेगी अत:आप सब प्रभास क्षेत्र में चले जावें सभी यादव प्रभास क्षेत्र की तैयारी करने लगे यह देख उद्ववजी भगवान के पास आए और भगवान से प्रार्थना की कि प्रभो मैं समझ गया कि अब आप सब यवंशियों को समेट कर स्वधाम पधारेगें किन्तु प्रभो मैं एक क्षण भी आप से दूर नही रह सकता मुझे भी साथ ले चलने की कृपा करें तो भगवान बोले।

इति षष्ठोऽध्यायः

[ अथ सप्तमोऽध्यायः ]

अवधूतोपाख्यान-श्रीभगवान बोले उद्धव तुम सही कहते हो देवताओं ने इस सबध मे प्रार्थना की है उसके अनुसार यदुवश को समेट में स्वधाम जाउगाँ तुमने कहा कि मैं आपके बिना नही रह सकता मैं अपने स्वरूप को भागवत में रख कर जा रहा हूं अत: तुम्हे अकेला पन लगे तभी तुम भागवत को देख लेना यह अवलम्बन आपको देता हं अब मैं तुम्हे महाराजा यदु और दत्तात्रेयजी का आख्यान सुनाता हूँ। एक समय महाराजा यदु को जंगल में भगवान दत्तात्रेय मिले एक पेड़ के नीचे एक लम्बा चौड़ा हस्ट-पुस्ट शरीर जिसका तन पर कोपीन के अलावा कोई वस्त्र नहीं बिना बिछौने हाथ का सिराना लगाए एक अवधूत सो रहे है यदुजी ने उनसे प्रणाम कर पूछा तो बताया कि पेड़ की छाया ही उनका घर है धरती ही बिछोना है आकाश ही ओढना है उनकी इस मस्ती का कारण है उनके चोबीस गुरु मैंने पृथ्वी से धैर्य ओर क्षमा शीलता वायु से समरसता आकाश से अखण्डता अग्नि से पवित्रता चन्द्रमा से दुख-सुख में समान रहना सूर्य से परोपकार की शिक्षा ली है कबूतर से आसक्ति के त्याग की शिक्षा ली है।

इति सप्तमोऽध्याय:

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[ अथ अष्टमोऽध्यायः ]

अवधूतोपाख्यान-दत्तात्रेयजी बोले-अजगर से मैंने यथा लाभ सन्तोष की समुद्र से गंभीरता की पतंगे से मोहित न होने की शिक्षा ली है। मैंने भोरे से सार ग्रहण करने की मधुमक्खी से संग्रह न करने की तथा शहद निकाल ने वाले से संग्रह की वस्तु का भोग दूसरे ही करते है यह शिक्षा ली है हिरन से विषय संबंधी गीत न सुनने की शिक्षा ली है मछली से मैंने जीभ को वश में रखने की। मैंने वैश्या से यह शिक्षा ली कि आशा ही दुख का कारण है इस प्रकार मैंने शिक्षा ग्रहण की है।

इति अष्टमोऽध्यायः

[ अथ नवमोऽध्यायः ]

अवधूतोपाख्यान- दत्तात्रेयजी बोले-कुररी पक्षी से संग्रह न करने की मान अपमान की परवाह न करना यह शिक्षा मैंने बालक से ली है कुमारी कन्या से बहत लोग एक साथ रहना कलह का कारण है शिक्षा ली अभ्यास से मन को वश में करने की शिक्षा मैंने बाण बनाने वाले से ली है। सांप हमेशा अकेला रहता है सन्यासी को उसी तरह रहना चाहिए मकडी अपनी लार से पहले जाला बुनती है फिर उसे निगल जाती है संसार की रचना भी उसी तरह है यह मकडी से सीखा है। भृन्गी कीडे से मैंने सतत प्रयास करने की शिक्षा ली है मैंने अपने शरीर से ज्ञान और वैराग्य की शिक्षा ली है। भगवान श्रीकृष्ण बोले उद्धव भगवान दत्तात्रेयजी ने इस प्रकार यदुजी को अपने गुरुओं की कथा सुनाई यदु बड़े प्रसन्न हुए उनकी पूजा कर अपने घर को आ गए।

इति नवमोऽध्यायः

[ अथ दशमोऽध्यायः ]

लोकिक तथा पार लोकिक भोगों की असारता का निरुपण- श्रीकृष्ण भगवान बोले-उद्धव संसार के विषयादि भोग असार है तथा पुण्यों से कमाए हुए स्वर्गादिक के भोग भी असार ही हैं क्योंकि पुण्य समाप्त होने पर वे स्वत: समाप्त हो जाते है।

इति दशमोऽध्यायः

[ अथ एकादशोऽध्यायः ]

बद्ध मुक्त और भक्तों के लक्षण-भगवान बोले! उद्धव संसार में तीन प्रकार के जीव है बद्ध मुक्त मुमुक्षु बद्व वे है जो संसार मे अपने उदर पोषण के लिए दिन भर भटकते रहने के अलावा अन्य कुछ नहीं जानते दूसरे मुक्त जीव भगवान की भक्ति के द्वारा संसार से मुक्त हो बैकुण्ठ में निवास करते हैं।- तीसरे संसार में रहते हुए गृहस्थादिक समस्त धर्मों का पालन करते हुए भगवान की भक्ति में लीन रहते है दुख-सुख में समरूप मान अपमान में समान भाव ही भक्तो के लक्षण है।

इति एकादशोऽध्यायः

[ अथ द्वादशोऽध्यायः ]

सत्संग की महिमा कर्म तथा कर्म त्याग की विधि-श्रीकृष्ण बोले उद्धव! संसार में सत्संग के समान कोई दूसरी वस्तु नहीं है ध्रुव प्रहलाद आदि सत्संग के द्वारा ही मुझे प्राप्त हुए है। मनुष्य भगवान की दी हुई क्रिया शक्ति से समस्त कर्म करता है और उसे अपनी शक्ति से किया हुआ मान लेता है यही बन्धन का कारण है शास्त्र विहित कर्म भगवान के लिए करें तथा उसे भगवान को ही समर्पित कर दें पुण्य कार्यों में अपने कर्ता पन के अभिमान का त्याग कर दें निष्काम भाव से भगवान के मुखोल्लास के लिए करें।

इति द्वादशोऽध्यायः

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[ अथ त्रयोदशोऽध्यायः ]

हंस रूप से सनकादिकों को दिए हए उपदेश का वर्णन-भगवान बोले उद्धव! प्रकृति के तीन गुण है सत, रज, तम ये आत्मा के गुण नही है अत: सत के द्वारा रज और तम पर विजय कर लेनी चाहिए क्योंकि उसके बिना मेरी भक्ति करना संभव नही है एक समय सनकादिक ऋषियों ने ब्रह्माजी से पूछा कि चित्त में विषय घुसे रहते हैं उनको कैसे दूर किया जावे इस पर ब्रह्माजी ने मेरा ध्यान किया तब मैने हंस रूप से उन्हें जो ज्ञान दिया उसे उद्धव तुम सुनो संसार मे परमात्मा के अलावा कोई वस्तु नहीं है इसलिए मन से वाणी से दृष्टि से व अन्य इन्द्रिय से जो कुछ ग्रहण किया जाता है वह सब मैं ही हूँ।

इति त्रयोदशोऽध्यायः

[ अथ चतुर्दशोऽध्यायः ]

भक्ति योग की महिमा ध्यान विधि का वर्णन-उद्धवजी ने पूछा भगवन् ब्रह्मवादी महात्मा आत्म कल्याण के अनेको साधन बताते है उनमें अपनी-अपनी दृष्टि से सभी सही है अथवा किसी एक की प्रधानता है। भगवान बोले प्रिय उद्धव यह वेद वाणी प्रलय के अवसर पर लुप्त हो गई थी फिर स्रष्टि के समय पुनः इसे ब्रह्मा को दी ब्रह्मा ने उसे अपने पुत्र स्वायम्भव मन को दी उनसे भृगु अंगिरा आदिसात प्रजापतियों को दी उनसे उनकी सन्तान देवता दानव गुह्यक मनुष्य सिद्ध गंधर्व विद्याधर आदि ने प्राप्त किया सबके स्वभाव सत रज तम आदि गुणों से प्रभावित होने के कारण उस वेद वाणी का भिन्न-भिन्न अर्थ करते है। उनमे केवल जो सब प्रकार से मुझे ही समर्पित रहता है वही मेरा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है। प्रिय उद्धव मेरे भक्त आसन पर बैठ कर प्राणायाम करके मेरे स्वरूपों का ध्यान करें और अपने मन को मुझ मेही लगा दें।

इति चतुर्दशोऽध्यायः

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[ अथ पञ्चदशोऽध्यायः ]

भिन्न-भिन्न सिद्धियों के नाम और लक्षण-भगवान बोले उद्धव जब भक्त मेरा ध्यान करता है तब उसके सामने अनेक सिद्धियां आती हैं इनमें तीन सिद्धियां तो शरीर की है अणिमा महिमा लघिमा इन्द्रियों की सिद्धि है प्राप्ति लोकिक व पारलोकिक पदार्थों का इच्छानुसार अनुभव कराने वली है प्राकाम्य माया और उसके कायों को इच्छानुसार संचालित करना है इशिता विषयों में रहकर भी उसमे आसक्त न होना है वशिता जिसकी भी कामना करें उसे प्राप्त करना है कामावसायिता ये आठ सिद्धियां स्वभाव से मुझ में रहती हैं और जिसे मैं देता हूं उसे अंशत: प्राप्त होती है मैं इन्हे अपने भक्तों को देता हूँ किंतु मेरा परम भक्त इन्हे भक्ति में वाधक समझ स्वीकार नही करता है।

इति पञ्चदशोऽध्याय:

[ अथ षोड्षोऽध्यायः ]

भगवान की विभूतियों का वर्णन-उद्धव बोले-प्रभो कृपा कर आप अपनी विभूतियाँ बतावें भगवान बोले उद्धव महाभारत के युद्ध काल में यही प्रश्न अर्जुन ने किया था वही ज्ञान में तुम्हे देता हूँ मैं समस्त प्राणियों की आत्मा हूं श्रृष्टि की उत्पत्ति पालन संहारकर्ता मैं हं मैं ही काल हूं मैं ही ब्रह्म ऋषियों में भृगु देवताओं मे इन्द्र अष्टवसुओं में अग्नि द्वादश अदित्यों में विष्णु राजर्षियों में मनु देवर्षियों में नारद गायों में कामधेनु सिद्धों मे कपिल पक्षियों में गरुड़ रुद्रों में शिव वर्गों में ब्राह्मण हूँ।

इति षोड्षोऽध्यायः

[ अथ सप्तदशोऽध्यायः ]

वर्णाश्रम धर्म निरुपण-भगवान बोले उद्धव अब तुम्हे वर्णाश्रम धर्म बताता हूँ। जिस समय इस कल्प का प्रारम्भ हुआ था पहला सतयुग चल रहा था उस समय हंस नामक एक ही वर्ण था उस समय केवल प्रणव ही वेद था धर्म चारो तपस्या शौच दया सत्य चरणों से युक्त था त्रेता के प्रारंभ होते ही मेरे हृदय से ऋगु यजु साम तीनो वेद प्रकट हुए विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण भुजाओं से क्षत्रिय जंघा से वैश्य तथा चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। उरुस्थल से गृहस्थाश्रम ह्रदय से ब्रह्मचर्य आश्रम वक्षःस्थल से वानप्रस्थ आश्रम मस्तक से सन्यास आश्रम की उत्पत्ति हई।

इति सप्तदशोऽध्यायः

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[ अथ अष्टादशोऽध्यायः ]

वानप्रस्थ और सन्यासी के धर्म-भगवान बोले प्रिय उद्धव मानव की आयु सौ वर्ष मानकर उसके पच्चीस-पच्चीस वर्ष के चार हिस्से किए गए है प्रथम पच्चीस वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम, पच्चीस से पचास गृहस्थाश्रम, पचास से पिचेतर, वानप्रस्थ आश्रम पचेतर के बाद संन्यास आश्रम वानप्रस्थ आश्रम में पत्नि को यातो पुत्र के पास छोड़ दें अन्यथा ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए साथ रख ले वन में रहकर फलफूल खाकर रहे व भजन करे यह वान प्रस्थ आश्रम है सन्यास आश्रम में पत्नि का भी परित्याग कर वन में भजन करें।

इति अष्टादशोऽध्यायः

[ अथ एकोनविंशोऽध्यायः ]

भक्ति ज्ञान और यम नियमादि साधनों का वर्णन-भगवान बोले उद्धवजी पन्च महाभूत पन्च तन्मात्रााऐं दसइन्द्रिय मन बुद्धि चित्त और अहंकार इन समस्त तत्वों को ब्रह्मा से त्रण पर्यन्त देखा जाता है इन सबमे भी एक मात्र परमात्मा कोही देखे यही ज्ञान है भक्ति के विषय मे मै पहिलेही तुम्हे बता चुकाहूं अब तुम्हे यम नियमादि बताता हूं यम बारह है अहिंसा सत्य अस्तेय असंगता लज्जा असन्चय आस्तिकता ब्रह्मचर्य मोन स्थिरता क्षमा अभय नियम भी बारह ही है शौच जप तप हवन श्रद्वा अतिथिसेवा भगवान की पूजा तीर्थयात्रा परोपकारी चेष्टा सन्तोष और गुरु सेवा इस प्रकार भक्ति ज्ञान यम नियम मैने तुम्हे बता दिए।

इति एकोनविंशोऽध्यायः

[ अथ विंशोऽध्यायः ]

कर्मयोग ज्ञानयोग भक्तियोग-भगवान बोले उद्धव! संसार की वस्तुओं की कामना स्वर्गादिक लोकों की कामना रखने वाले लोग कर्मयोग के अधिकारी हैं शास्त्र विहित कर्म पुण्य कर्मो से संसार के भोग्य पदार्थो की प्राप्ति करता है। संसार की वस्तुओं की कामना एवं स्वर्गादिक लोको की कामना ओं से जब व्यक्ति उब कर उनका त्याग करना चाहता है वह ज्ञानयोग का अधिकारी है भगवान को तत्व से समझना ही ज्ञानयोग है किन्तु कर्मयोग ज्ञानयोग दोनोही व्यक्ति को करना होता है जिनमे अनेक कठिनाइयां है अत: सब कुछ परमात्मा पर छोड जो उन्ही के विश्वास पर रहता है यहि भक्तियोग है भक्त परमात्मा के अलावा किसी भी अन्य की कामना नही करता वही सच्चा भक्त है।

इति विंशोऽध्यायः

[ अथ एकविंशोऽध्यायः ]

गुण दोषव्यवस्था का स्वरूप और रहस्य-भगवान बोले उद्धव । मुझे प्राप्त करने के तीन मार्ग मैंने बताए है धर्म मे दृढ निश्चयही गण के अविश्वास ही दोष है अत: दोषो का त्याग कर दृढ विश्वास के साथ भक्ति करना चाहिए।

इति एकोविंशोऽध्यायः

संपूर्ण भागवत कथा इन हिंदी bhagwat katha in hindi

[ अथ द्वाविंशोऽध्यायः ]

तत्वों की संख्या और पुरुष प्रकृति विवेक-भगवान बोले उद्धव यह प्रकृति चोबीस तत्वों से बनी है येतत्व हैं आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी येपांच तत्व शब्द स्पर्श रूप रस बन्ध ये पांच तन्मात्राऐं दस इन्द्रिय इस प्रकार कुल बीस मन बुद्धि चित्त अहंकार इस प्रकार कुल चोबीस तत्व है इन्हीसे यह समस्त ब्रह्माण्ड बना है इसी से प्राणी मात्र के शरीर बने है। इसके भीतर आत्मा रूप से स्वयं भगवान ही इसके अन्दर बैठे है यह आत्मा ही पुरुष रूप से जानी जाती हैआत्मा का संबंध जब देह से होजाता है वही वन्धन का कारण बन जाती है और आत्मा का संबंध जब परमात्मा से हो जाता है वही मुक्ति का कारण है।

इति द्वाविंशोऽध्यायः

[ अथ त्रयोविंशोऽध्यायः ]

एक तितिक्षु ब्राह्मण का इतिहास-भगवान बोले उद्धवजी उज्जैन नगरी मे एक ब्राह्मण रहता था वह बड़ा कामी क्रोधी और कृपण था वह दिन भर धन कमाने के चक्कर में लगा रहता था एक कोडी भी खर्च नहीं करता था न खाता न पहनता नकोइ धर्म कर्म करता था धन का उसने न दान किया न भोग किया अन्त मे उसके देखते देखते ही उसके धन को चोर ले गए 39 भाइ बन्धुओ ने छीन लिया वह दीन हीन होगया वह दर दर घूमने लगा उसे ज्ञान हो गया वह शान्त हो गया मोन रहने लगा भिक्षा से जीवन यापन करने लगा किसी को भी अपने दुख के लिए बुरा नही कहता बल्कि स्वयं को ही इसका जिम्मेदार मानता था उसकी आंखे खुल गई उसने गीत गाया मैं धन संपत्ति के मोह में परमात्मा को भूल गया।

इति त्रयोविंशोऽध्यायः

[ अथ चतुर्विंशोअध्यायः ]

सांख्य योग-भगवान बोले उद्धव प्रकृति और पुरुष के ज्ञान को ही सांख्य के नाम से कहा जाता है संसार में दो ही तत्व है एक जड़ दूसरा चैतन्य समस्त जड़ जगत जो दृश्य है वही प्रकृति तत्व है आत्मा रूप से शरीर के भीतर जो बैठा है वही पुरुष है जो पुरुष देह में आसक्त हो जाता है वही बद्ध पुरुष कहलाता है जो पुरुष देह के स्वरूप को समझ लेता है वह मुक्त हो जाता है यही सांख्य योग है।

इति चतुर्विंशोऽध्यायः

संपूर्ण भागवत कथा इन हिंदी bhagwat katha in hindi

[ अथ पञ्चविंशोऽध्यायः ]

तीनों गुणों की वृत्तियों का निरूपण-भगवान बोले उद्धव प्रकृति के तीन गुण है सतोगुण रजोगुण और तमोगुण जब पुरुष का संबंध प्रकृति से होजाता है वे प्रकृति के गुण पुरुष में आ जाते है या यह कहें कि आत्मा का संबंध देह से हो जाने पर उपरोक्त गुण मनुष्य में आ जाते है उनके संयोग से उसका स्वभाव बन जाता है जब हम सतोगुण के प्रभाव में होते है तो मन सहित इन्द्रियाँ वश में रहती हैं सत्य दया सन्तोष श्रद्धा लज्जा आदि गुण प्रकट होते हैं। रजोगुण की वृत्तियाँ हैं इच्छा प्रयत्न घमंड तृष्णा देवताओं से धन की इच्छा विषय भोग आदि तमोगुण की वृत्तियाँ है काम क्रोध लोभ मोह शोक विवाद आदि प्रत्येक व्यक्ति मे न्यूनाधिक मात्राा मे ये बृत्तियां होती है गुणो के मिश्रण से वत्तियाँ भी मिश्रित हो जाती हैं तमोगुण को रजोगुण से जीते रजोगुण को सतोगुण से जीतें सतोगुण से भगवान का भजन कर सतोगुण को भी छोड जीव परमात्मा का बन जाता है।

इति पञ्चविंशोऽध्यायः

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[ अथ षडविंशोऽध्यायः ]

पुरुरवा की वैराग्योक्ति-भगवान बोले उद्धव इलानन्दन पुरुरवा उर्वशी के मोहजाल मे ऐसा फसा कि वह जब उसे छोड कर चली गई तो वह नग्न उसके पीछे हाय उर्वशी हाय उर्वशी करता फिरा अन्त में होश आया तो कहने लगा हाय हाय मेरी मूढता तो देखो काम वासना ने मेरे मन को कितना कलुषित कर दिया हायहाय उसने मुझे लूट लिया कइ वर्ष बीत गए मुझे मालुम ही नही हुआ। इस प्रकार पुरुरवा के हृदय मे ज्ञान हो गया उसे मेरी याद आइ और उसने मेरे मे मन लगा कर मुझे प्राप्त कर लिया।

इति षडविंशोऽध्यायः

संपूर्ण भागवत कथा इन हिंदी bhagwat katha in hindi

[ अथ सप्तविंशोऽध्यायः ]

क्रिया योग का वर्णन-भगवान बोले उद्धव मेरी पूजा की तीन विधियां हैं वैदिक तान्त्रिक और मिश्रित इनमें जो भी भक्त को अनुकूल लगे उससे मेरी पूजा करे मूर्ति में वेदी में अग्नि मे सूर्य में जल में ब्राह्मण में मेरी पूजा करे पहले स्नान करे संध्यादि कर्म कर मेरी पूजा करे मेरीमूर्ति पाषाण धातु लकडी मिट्टी मणिमयी होती है इनकी षोडषोपचार आह्वाहन आसन अर्घ्य पाद्य आचमन स्नान वस्त्र गंध पुष्प धूप दीप नैवेद्य आदिसे पूजा करे अन्त में भगवान के चरण पकड़कर प्रार्थना करे प्रभो आप प्रसन्न होकर मेरा उद्धार करें।

इति सप्तविंशोऽध्यायः

[ अथ अष्टाविंशोऽध्यायः ]

परमार्थ निरुपण-भगवान बोले उद्धव यह दृश्य जगत मिथ्या है कहीं भी कोई वस्तु परमात्मा से अलग नही है जो दिख रहा है वह भी परमात्मा ही है जो भाषित हो रहा किन्तु दिखता नही वह भी परमात्मा ही है अत: दृश्य अदृश्य सब परमात्मा का ही रूप है।

इति अष्टाविंशोऽध्यायः

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[ अथ एकोनत्रिंशोऽध्यायः ]

भागवत धर्मो का निरूपण और उद्धवजी का बदरिकाश्रम गमन-भगवान बोले उद्धव अब मै तुम्हे भागवत धर्म कहता हूँ। मेरे भक्तों को चाहिए कि वे जो कुछ करे मेरे लिए ही करे और अन्त में उसे मुझे ही समर्पित कर दे तीर्थों में निवास करे मेरे भक्तों का अनुसरण करे सर्वत्र मेरे ही दर्शन करे मेरे चरणों की दृढ नोका बनाकर संसार सागर से पार हो जावे। श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि परीक्षित! अब उद्ववजी योग मार्ग का पूरा-पूरा उपदेश प्राप्त कर चुके थे भगवान से बोले प्रभो आपने मेरे सारे संशय नष्ट कर दिए मैं कृत कृत्य हो गया अब मुझे क्या आज्ञा है। भगवान बोले उद्धव अब तुम बदरिकाश्रम चले जावो और वहां रह कर मेरा भजन करो भगवान की आज्ञा पाकर उद्धवजी बदरिकाश्रम चले गए।

इति एकोनत्रिशोऽध्यायः

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[ अथ त्रिंशोऽध्यायः ]

यदुकुल का संहार-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण ने जब देखा कि आकाश और पृथ्वी पर बड़े उत्पात होने लगे है तब सब यदुवंशियों से कहा अहो अब हमें यहां एक क्षण भी नही ठहरना चाहिए तुरन्त शंखो द्धार क्षेत्र में चले जाना चाहिए सब यदुवंशी भगवान की आज्ञा से प्रभास क्षेत्र पहँच गए काल ने उनकी बुद्धि का हरण कर लिया वे वारुणी मदिरा का पान कर आपस में ही भिड़ गए लोहे के मूसल का वह चूर्ण घास बन गया था। उखाड-उखाड कर लडने लगे घास हाथ में आते ही तलवार बन जाती ऐसे सभी यदुवंशियों को समाप्त कर स्वयं एक पीपल के वृक्षतले जा बैठे बलरामजी भगवान का ध्यान कर अपने लोक को चले गए भगवान के चरण में एक हीरा चमक रहा था जराव्याध ने अपना बाण भगवान पर चला दिया नजदीक आने पर पता चला तो वह भगवान के चरणों मे गिर गया भगवान बोले यह तो मेरी इच्छा से हुआ हैं जा तू मेरे धामजा दारूक सारथी ने भगवान को रथ मे बैठाया ओर भगवान ने अर्जन के साथ शेष लोगो को इन्द्र प्रस्थ भेज दिया।

इति त्रिंशोऽध्यायः

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[ अथ एकत्रिंशोऽध्यायः ]

भगवान का स्वधाम गमन-भगवान का स्वधाम गमन देखने के लिए ब्रह्मादिक देवता आएथे पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे भगवान रथ सहित अपने धामको पधार गए।

इति एकत्रिंशोऽध्यायः

इति एकादश स्कन्ध समाप्त

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अथ द्वादश स्कन्धः प्रारम्भ

[ अथ प्रथमोऽध्यायः ]

कलियुग के राजाओं का वर्णन-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि जरासंध के पिता बृहद्रथ के वंश में अन्तिम राजा होगा परन्जय उसके मंत्री होगें शुनक वह राजा को मार अपने पुत्र प्रद्योत को राजा बनायेगा उसके वंश मे पांच राजा होगें। शिशुनाग वंश में दस राजा होगें मौर्य वंश के राजा भी राज्य करेगें कण्व वंशी राजा भी होगें दस गर्दभी आभीर कन्क आदि राजा होगें इसके बाद आठ यवन चौदह तुर्कराज्य करेगें दस गुरण्ड ग्यारह मौन तीन सौ वर्ष राज्य करेगें वर्तमान मे मौनो का राज्य चल रहा है।

इति प्रथमोऽध्याय:

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[ अथ द्वितीयोऽध्यायः ]

कलियुग के धर्म-कलियुग में जिसके पास धन होगा वही कुलीन धर्मात्मा समझा जावेगा जिसके हाथ में शक्ति होगी वही सब कुछ कर सकेगा वर्णाश्रम धर्म नष्ट हो जावेगा चालाक ही पण्डित होगा साधु पाखण्डी होंगे बाल रखनाही सौन्दर्य मानेगें रोग ग्रस्त लोग होगें कलियुग के अन्त में भगवान कल्कि अवतार लेगें और दुष्टों का संहार करेगें।

इति द्वितीयोऽध्यायः

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[ अथ तृतीयोऽध्यायः ]

राज्ययुग धर्म और कलियुगके दोषों से बचने का उपाय- नाम संकीर्तन-श्रीशुकदेवजी बोले राजा लोग अपने को पृथ्वी पति कहते है और पृथ्वी को जीतने का प्रयास करते है किन्तु इस पृथ्वी पर अनेक बीर राजा इसी में समा गए जैसे पृथु पुरुरवा ययाति शर्याति नहुष दैत्यो में हिरणाक्ष्य आदि का आज नामो निशान नही है अब कलियुग आ गया है उसमें अनेक दोष है यदि उनसे बचना है तो भगवान का नाम संकीर्तन ही एक मात्र उपाय है।

कलियुगकेवलनाम अधारा

सुमिरिसुमिरिनरउतरहिपारा

यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिनाम्

तत्फलं लभ्यते सम्यक कलौ केशव कीर्तनात्

इति तृतीयोऽध्यायः

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[ अथ चतुर्थोऽध्यायः ]

चार प्रकार के प्रलय-श्रीशुकदेवजी बोले राजन् प्रलय चार प्रकार की होती है नित्य प्रलय नैमित्यिक प्रलय ब्राह्मी प्रलय प्राकृतिक प्रलय यानी महाप्रलय आज का बीता हुआ समय दुबारा नही आएगा समय जा रहा है यहि नित्य प्रलय है संसारकी हर वस्तु पहाड़ समुद्र तिलतिल क्षीण हो रहे है यह नैमित्यिक प्रलय है ब्रह्माके एक दिन को एक कल्प कहते है वह पूरा होते ही ब्रह्मा की रात्री में प्रलय होती है जिसे ब्राह्मी प्रलय कहते है।जब ब्रह्मा के भी सौवर्ष पूर्ण हो जाते है ब्रह्मा सहित प्रकृति परमात्मा में लीन हो जाती है यही महाप्रलय है।

इति चतुर्थोऽध्यायः

[ अथ पंचमोऽध्यायः ]

शुकदेवजी का अन्तिम उपदेश-शुकदेवजी बोले परीक्षित् इस श्रीमद् भागवत महापुराण में बार-बार और सर्वत्र विश्वात्मा श्रीहरि का ही संकीर्तन हुआ है अब तुम पशुओं की सी अविवेकमूलक धारणा छोड़ दो कि मैं मरुंगा तुम पहले भी थे अब भी हो आगे भी रहोगे शरीर बदलता रहता है तुम शरीर नही आत्मा हो |

इति पंचमोऽध्यायः

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[ अथ षष्ठोऽध्यायः ]

परीक्षित की परम गति जन्मेजय का सर्पसत्र-सूतजी बोले ऋषियो! श्रीशुकदेवजी का अन्तिम उपदेश सुन परीक्षित ने शुकदेवजी की पूजा की और उन्हे विदा किया और आप स्वयं एक आसन पर बैठ आत्मा को परमात्मा में लीन कर दिया शरीर बैठा था तक्षक ने आकर शरीर को डस लिया विषज्वाला से शरीर जलकर भस्म हो गया जब इसका पता जन्मेजय को लगा कि मेरे पिता को तक्षक ने डस लिया उसने एक सर्प यज्ञ किया जिसमें आकर सर्प भस्म होने लगे किन्तु तक्षक नही आया वह इन्द्र की शरण में था जब इन्द्र सहित उसका आह्वाहन किया तो इन्द्र सहित तक्षक गिरने लगा तो ब्रह्माजी ने आकर यज्ञ बन्द करवा दिया।

इति षष्ठोऽध्यायः

[ अथ सप्तमोऽध्यायः ]

अथर्व वेद की शाखाएं पुराणों के लक्षण-सूतजी बोले व्यासजी ने वेट के चार भाग कर उन्हे अपने शिष्योको देदिए शिष्यों ने भी उनके कड भाग कर अपने शिष्यों को दे दिया अनेक भाग उनके हो गए। अब आपको पुराणों के लक्षण बताते है सर्ग विसर्ग वृत्ति रक्षा मनवन्तर वंशानुचरित संस्था-प्रलय हेतु-उति अपाश्रय प्रकृति से उनके तीन गुण महत्त्व तीन प्रकार के अहंकार ये सर्ग कहलाते है जीवों की उत्पत्ति विसर्ग है अचर पदार्थ वृत्ति है।

इति सप्तमोऽध्यायः

संपूर्ण भागवत कथा इन हिंदी bhagwat katha in hindi

[ अथ अष्टमोऽध्यायः ]

मारकण्डेयजी की तपस्या और वर प्राप्ति-सूतजी बोले सोनकजी! मृकण्ड ऋषि के पुत्र मारकण्डेय बृह्मचर्य व्रत लेकर तपस्या करने लगे इससे इन्द्र ने घबरा कर कामदेव के सहित अप्सराओं को भेजा किन्तु वे सब परास्त हो गए अन्त मे भगवान नारायण प्रकट हो गए मारकण्डेयजी ने भगवान की स्तुति की।

इति अष्टमोऽध्यायः

संपूर्ण भागवत कथा इन हिंदी bhagwat katha in hindi

[ अथ नवमोऽध्यायः ]

मारकण्डेयजी का माया दर्शन-सूतजी बोले जब मारकण्डेयजी ने भगवान की स्तुति की तो भगवान ने मार्कण्डेयजी से वर मांगने को कहा मार्कण्डेय बोले प्रभो मैने आपके दर्शन कर लिए अब आपकी माया के दर्शन ओर करना चाहता हूँ भगवान एवमस्तु कह कर चले गए। एक दिन मारकण्डेयजी अपने आश्रम मे बैठे थे तभी मूसलाधार वर्षा होने लगी कुछ ही देर मे चारों ओर जल ही जल हो गया मारकण्डेयजी के अलावा कोई नही था मारकण्डेयजी जल में तैरते हए घूमने लगे कुछ देर बाद उन्हे एक बड़ का पेड दिखाई दिया औरउसके एक पत्ते पर एक छोटा सा बालक अपने पैर के अगूंठों को दोनो हाथों से पकड कर मुह मे चूस रहाथा मार कण्डेय सोचने लगे कैसी आश्चर्य की बात है कि इस प्रलय काल में भी यह बालक कैसे बच गया। इतने में बालक ने मुँह खोल कर सांस खेंचा मारकण्डेय उसके मुँह से उदर में पहुँच गए और वहाँ समस्त श्रृष्टि को देखा श्वास के वापिस आते ही वे पुन: समुद्र में आ गए वे समझ गए यह बालक कोई साधारण नही है स्वयं भगवान ही है मारकण्डेयजी ने उनका आलिंगन करना चाहा तभी भगवान अन्तर ध्यान हो गए वह जल भी समाप्त हो गया और मारकण्डेयजी अपने आश्रम में बैठे थे।

इति नवमोऽध्यायः

[ अथ दशमोऽध्यायः ]

मारकण्डेयजी को भगवान शंकर का वरदान-सूतजी बोले सोनकजी! भगवान की माया के दर्शन कर लेने के बाद ऋषि भगवान का ध्यान करने लगे तो शिव पार्वती आए मारकण्डेयजी को ध्यानस्थ देख उनके ध्यान मे प्रवेश कर गए जब उनका ध्यान खुला तो सामने शिवजी खड़े है मारकण्डेयजी ने उनकी स्तुति की शिवजी भगवान के चरणों में तुम्हारी भक्ति हो ऐसा वरदान देकर चले गए।

इति दशमोऽध्यायः

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[ अथ एकादशोऽध्यायः ]

भगवान के अंग उपांग और आयुधों का रहस्य-सूतजी बोले सोनकजी! भगवान कौस्तुभमणि के रूप में समस्त जीवों को अपने वक्षस्थल में धारण करते है समस्त श्रृष्टि का तेज सुदर्शन के रूप में तथा समस्त ज्ञानतत्व शंख के रूप में धारण करते हैं अन्य अस्त्र शस्त्रादि सभी तत्व रूप हैं।

इति एकादशोऽध्यायः

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[ अथ द्वादशोऽध्यायः ]

भागवत की संक्षिप्त विषय सूचिः-सूतजी बोले सोनकजी! इस भागवत के प्रथम स्कन्ध में भक्ति ज्ञान और वैराग्य का वर्णन हुआ है व्यास नारद संवाद से भागवत जी की रचना हुई है। द्वितीय स्कन्ध में योग धारणा ब्रह्मा नारद संवाद है। तीसरे स्कन्ध में उद्धव विदुर संवाद तथा विदुर मैत्रेय संवाद श्रृष्टि की रचना का वर्णन है और कर्दम जी के विवाह की कथा है। चोथे स्कन्ध में ध्रुव चरित्र पृथु चरित्र है। पांचवें स्कन्ध मे प्रियब्रत ऋषभ देव भरत चरित्र है। द्वीप वर्ष भूगोल खगोल का वर्णन है छठे स्कन्ध मे प्रचेताओं का दक्ष का बृत्रासुर का वर्णन है। सातवें स्कन्ध में हिरण्यकशिप प्रहलादजी का चरित्र है। आठवें स्कन्ध में गजग्राह उद्धार समुद्र मंथन बलि की कथा है नवम स्कन्ध में राज्य वंशो का वर्णन है। सूर्य वंशी चन्द्रवंशी इक्ष्वाकु निमि आदि राजाओं का वर्णन है रामजी के चरित्रों का वर्णन है राजा ययाति से यदुवंश का वर्णन है। दशम स्कन्ध में भगवान कृष्ण का प्राकट्य उनकी बाललीला शकटासुर तुणावर्त बकासुर वत्सासुर अधासुर का वध कंस का वध अनेक लीलाएं हैं। एकादश स्कनध में वसुदेव नारद संवाद भगवान उद्धव संवाद दत्तात्रेय जी के चौबीस गुरु आदि संवाद है द्वादश स्कन्ध में कलियुग के राजाओं का वर्णन है।

इति द्वादशोऽध्यायः

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[ अथ त्रयोदशोऽध्यायः ]

विभिन्न पुराणों की श्लोक संख्या-ब्रह्म पुराण मे दस हजार श्लोक पद्म पुराण में पचपन हजार विष्णु पुराण में तेइस हजार शिवपुराण में चौबीस हजार श्रीमदभागवत में अठारह हजार नारद पुराण में पच्चीस हजार मार्कण्डेय पुराण में नौ हजार अग्नि पुराण में पन्द्रह हजार चार सौ भविष्य पुराण की चौदह हजार पांच सौ ब्रह्म वैवर्त पुराण की अठारह हजार लिंग पुराण में ग्यारह हजार वराह पुराण में चौबीस हजार स्कन्ध पुराण में इक्यासी हजार एक सौ वामन पुराण मे दस हजार कुर्मपुराण सत्रह हजार मत्स्य पुराण में चौदह हजार गरुड़ पुराण में उन्नीस हजार ब्रह्माण्ड पुराण में बारह हजार कुल पुराणों में मिलकर चार लाख श्लोक है।

नाम संकीर्तनं तस्य सर्वपाप प्रणाशनम्।

प्रणामो दुःख शमनस्तं नमामि हरिं परम्।।

जिस भगवान के नाम का संकीर्तन सारे पापों को सर्वथा नष्ट कर देता है जिन भगवान के चरणों में आत्म समर्पण उनके चरणों में प्रणति सर्वदा के लिए सब प्रकार के दुःखो को शान्त कर देती है उन्ही परमात्मा स्वरूप श्रीहरि को मैं नमस्कार करता हूँ

इति त्रयोदशोऽध्यायः

इति द्वादश स्कन्ध: समाप्त

त्वदीय वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये।

तेन त्वदन्ध्रि कमले रति मे यच्छ शाश्वतीम।।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

संपूर्णोऽयंग्रन्थः

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