Monday, April 21, 2025
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bhagwat katha in hindi pdf श्रीमद्भागवत कथा

bhagwat katha in hindi pdf श्रीमद्भागवत कथा

इस भगवत् स्वरूप भागवत के प्रधान देव तो श्रीकृष्ण ही हैं। इसलिए पद्म पुराण के उत्तर खण्ड के प्रथम् से लेकर षष्ठम् अध्याय तक इस भागवत के महात्म्य में परम मंगलमय श्री बालकृष्ण की वाड्.मयी प्रतिमूर्ति स्वरुप इस भागवत के माहात्म्य को कहने से पहले प्रभु श्री कृष्ण को प्रणाम करके वन्दना करते हुये श्री महर्षी वेदव्यासजी ने जो प्राचीन समय में मंगलाचरण के श्लोक का गान किया है उसी श्लोक का गायन करते हुये नैमीशारण्य के पावन क्षेत्र में अठास्सी हजार संतो के बीच शौनकादी ऋषियों के सामने श्री व्यासजी के शिष्य श्रीसुतजी मंगलाचरण करते हुये महात्म के प्रथम श्लोक में कहते हैं कि :-
 
सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः ।। श्रीमद्भा० मा० १/१ 
 
इस प्रकार इस भागवतजी में भागवत माहात्म्य के प्रधान देवता श्रीकृष्ण की वन्दना की गयी है तथा “सच्चिदानन्दरूपाय अर्थात् सत्+चित्+आनन्द यानी सत् का मतलब त्रिकालावधि जिसका अस्तित्व सत्य हो। चित् माने प्रकाश होता है अर्थात् जो स्वयं प्रकाश वाला है और अपने प्रकाश से सबको प्रकाशित करता है।
 
आनन्द माने आनन्द होता है अर्थात् जो स्वयं आनन्द स्वरूप होकर समस्त जगत् को आनन्द प्राप्त कराता हो इस प्रकार ऐसे कार्यों को करने वाले को सच्चिदानन्द कहते हैं। “वे सच्चिदानन्द श्रीकृष्ण ही हैं।
 
अर्थात् सत् भी कृष्ण हैं, चित् भी कृष्ण हैं एवं आनन्द भी श्रीकृष्ण ही हैं, तथा जिनका आदि, मध्य और अन्त तीनों ही सत्य है तथा सत्य था एवं सत्य रहेगा। ऐसे शाश्वत सनातन श्रीकृष्ण को ही सच्चिदानन्द कहते हैं।
 
अतः “सत्” माने शाश्वत-सनातन-सत्य एवं चित् माने प्रकाश तथा आनन्द माने आनन्द । “रूपाय” माने ऐसे गुण या धर्म या रूप वाले। “विश्वोत्पत्यादिहेतवे” यानी जो विश्व की उत्पत्ति, पालन, संहार एवं मोक्ष के हेतु हैं, अथवा कारण हैं।
 
“तापत्रयविनाशाय” यानी जो तीनों तापों जैसे- दैहिक, दैविक, भौतिक या जीवों के शरीरादि में उत्पन्न रोग, दैवप्रकोप जैसे आधि-व्याधि-ग्रहादी का प्रकोप एवं भौतिकप्रकोप यानी जीवों द्वारा जो अनेक जीवों से प्राप्त दुःख या कष्ट होता है।
 

bhagwat katha in hindi pdf श्रीमद्भागवत कथा

अथवा “तापत्रय” का मतलब तीनों लोकों के कष्ट या उन तीनों प्रकार के कष्ट को विनाश करता है। ऐसे “श्रीकृष्णाय” यानी श्रीकृष्णको। वयं नुमः अर्थात् हम सभी प्रणाम करते हैं”। अतः इस श्लोक का शाब्दिक अर्थ है कि सत्य स्वरूप एवं प्रकाशस्वरूप तथा आनन्दस्वरूप होकर जो संसार के उत्पत्ति-पालन-संहार के अलावा मोक्ष को भी देने वाले हैं तथा संसार के प्राणियों के दैहिक-दैविक-भौतिक कष्ट को दूर करते हैं, ऐसे श्रीकृष्ण यानी राधा कृष्ण को हम सभी प्रकार एवं समी अंगों यानी आठों अंगों से प्रणाम करते हैं।
 
उपरोक्त श्लोक में सत्य स्वरूप श्रीकृष्णभगवान् के मंगलाचरण करने के बाद आगे श्री सूतजी पुनः दूसरे श्लोक म श्री शुकदेवजी के स्वरूप एवं गुण स्वभाव का वर्णन करते हुए कहे कि उन श्रीकृष्ण के ही परम आराध्य तथा श्रीकृष्ण के प्यारे एवं राजा परीक्षित् को मुक्ति दिलाने वाले श्रीव्यास जी के पुत्र श्रीशुकदेवजी को वन्दना की और कहा कि-

 

यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव। 

पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽमिनेदु स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि।। श्रीमद्भा० मा० १/२ 
 
अर्थात “यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं मुनिमानतोऽस्मि’ यानी जो प्रभु की कृपा से माता के गर्भ में सोलह वर्षों तक समाधिस्थ रहकर प्रमु का ध्यान करते रहे तथा प्रभु द्वारा माया विजय प्राप्ति का वरदान पाकर पिता की आज्ञा से अपनी माता पिंगला देवी या अरणी देवी से इस पृथ्वी पर प्रकट हुए तथा प्रकट होते या जन्म लेते ही व्यावहारिक जगत् के जनेउ संस्कार इत्यादि को बिना पूर्ण किये ही आध्यात्मिक ज्ञान स्वरूप परमात्मा को ध्यान-चिन्तन-धारणा करने का संकल्प रूपी जनेउ को धारण करते हुए सन्यासी ज्ञानियों के समान घर द्वार को त्याग कर जन्म लेते ही सोलह वर्ष के बालक जैसा प्रतीत होते हुए जंगल की यात्रा जिन्होंने तय कर दी और वह घटना देखकर श्री वेदव्यास जी ने पुत्र मोह से मोहित होकर ‘बेटा बेटा’ कहकर पुकारा तो उस समय मानो श्रीव्यास जी की ओर द्रवित होकर वृक्षों-पर्वतों जलाशयों इत्यादि ने भी उन व्यास लाडले को रुकने को कहा।

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अथवा उन प्रकृतियों ने श्री व्यास जी को समझाकर सबके हृदय स्वरूप भगवान के भक्त उन शुकदेव की महिमा बताया। अर्थात जिनका दर्शन करने के लिए जलाशय में स्नान करती हुई देवियों ने समीप से आकर प्रणाम किया तथा श्री व्यासजी को देखकर उन्हीं देवियों ने दूर से ही प्रणाम किया। उन देवियों की ऐसी घटना को देखकर श्री व्यासजी को क्षोभ हुआ, परन्तु उन देवियों ने कहा कि यह आपके पुत्र हम समस्त संसार के प्राणियों के हृदय हैं तब श्री व्यास जी को प्रसन्नता हुई।
 
 
ऐसे सभी प्राणियों के हृदय स्वरूप व्यासनन्दन भगवत् भक्त श्री शुकदेवजी को मैं प्रणाम करता हूँ। इस प्रकार उपरोक्त दुसरे श्लोक में श्रीशुकदेवजी के स्वभाव के मंगलाचरण करने के बाद आगे माहात्म्य के तीसरे श्लोक में श्रीशौनकजी और सूतजी सहित नैमिषारण्य का वर्णन है जैसे:-
 
नैमिषे सूतमासीनमभिवाद्यमहामतिम्। 
कथामृतरसास्वादकुशलः शौनकोऽब्रवीत्।। श्रीमद्भा० मा० १/३

 

– अर्थात एक बार पावन भूमि नैमिषारण्य में प्रातः काल के अनेक अनुष्ठानों को पूर्ण करके अवकाश मिलने पर श्रीशौनक जी ने ८८ हजार सन्तों का प्रतिनिधित्व करते हुए सभामण्डप में उपस्थित हुये। उस सभा में आये हुए श्रीसूतजी को व्यास गद्दी पर बैठाकर एवं प्रणाम करके उन सूत जी से श्रीशौनकजी ने कहा कि आप व्यास जी के शिष्य एवं पुराणों के वक्ता हैं।

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अतः हमारे प्रश्नों का समाधान करें तथा व्यास गद्दी को स्वीकार करें। श्री सूत जी ने कहा कि हे महानुभावों ! हमारे जैसे को भी आप सभी बड़े महानुभाव होने पर इतनी क्यों प्रतिष्ठा देते हैं। तब शौनक जी सहित सभी ऋषियों ने कहा कि- हे सूत जी उम्र में भले ही छोटे हैं लेकिन आप गुणों में बड़े(मोटे) हैं क्योंकि शास्त्र में कहा गया है कि-

 

“धनवृद्धा बलवृद्धा आयुवृद्धास्तथैव च।
ते सर्वेऽपि ज्ञानवृद्धाश्च किंकरा शिष्यकिंकराः ।।

यानी धन से बड़ा या बल से बड़ा या आयु से बड़ा भले ही कोई हो परन्तु भगवत् भक्ति संपन्न जो ज्ञान में बड़ा है वहीं वस्तुतः बड़ा है और सबके आदर का पात्र है। इसलिए हे सूत जी! आप वैसे ही ज्ञानियो में श्रेष्ठ हैं। अतः आप ऐसी कथा सुनावें जिससे मानवों की ममता-मोह-अज्ञान दूर हो जायें तथा भगवत् प्रेम पाकर भगवान् को प्राप्त करे या उन्हें श्रीगोविन्द की प्राप्ती हो जायें।

 
आगे आप यह भी बतलायें कि गोविन्द कैसे मिलते हैं ? क्योंकि इस संसार में प्रभु के अलावा सभी वस्तुएँ नश्वर हैं और अन्त में यह संसार भी परमात्मा में विलय या लय हो जाता है। इस प्रकार उस पावन क्षेत्र नैमिषारण्य में श्री शौनकादि ऋषियों द्वारा प्रार्थना करने पर श्री सूतजी प्रसन्न हो गये और उनके हृदय में भगवान् का गुण और स्वरूप एवं नाम उभर आये।

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