bhagwat pratham skandh katha भागवत कथा

bhagwat pratham skandh katha भागवत कथा

प्रथम् स्कन्ध प्रारम्भ

आगे सुतजी ने कहा कि हे ऋषियों ! अबतक अपलोग भागवत कथा का माहात्म्य श्रवण कर रहे थे। आज से भागवत की कथा को श्रवण करेंगे। इसमें भागवत यानी भक्तों की कथा कही गयी है। कथा कल्पवृक्ष के समान मनुष्य के सभी मनोरथों को पूर्ण करनेवाली है।

इस भागवत पुराण में १२ स्कन्ध ३३५ अध्याय एवं १८००० श्लोक हैं। इस भागवत के उपदेश को श्री देवर्षि नारदजी ने भगवान् के अंशावतार श्रीव्यास जी को दिया, जिसको श्रीव्यास जी ने श्री शुकदेवजी एवं राजा परीक्षित् के संवाद के रूप में प्रस्तुत किया एवं इसी कथा को पावन देवभूमी नैमिषारण्य में मैं (श्री सूतजी) अठासी हजार संतों सहित श्रीशौनक जी को सुनाउँगाा।
इस वह पावन श्रीमदभागवत कथा की रचना करते समय श्री व्यास जी ने ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति हेतु सर्वप्रथम मंगलाचरण के द्वारा कृष्ण भगवान् का ध्यान किया है और कहा है कि मैं इस ग्रन्थ में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के नायक को प्रणाम करता हूँ जो पूरे जगत् के जन्मादिक कारण भी हैं, जिन्हें नाम से भी पुकारा जाता है तथा जो सत्यस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण जगत् का कल्याण करते हैं, उसी सत्य स्वरूप परमात्मा को हम ध्यान तथा प्रणाम करते हैं।
इस प्रकार श्री व्यासजी ने श्रीमद्भागवत महापुराण के मंगलाचरण के प्रथम श्लोक में कहा है कि-
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयदितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् ।
तेने ब्रह्म हृदा या आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः ।।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयोयत्र विसर्गोऽमृष। 
धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि।।
श्रीमद् भा० १/१/१
यानी “जिन भगवान् से विश्व की उत्पत्ति, पालन, संहार एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है, एवं जो सभी पदार्थों में रहते हैं तथा असत् पदार्थों से अलग हैं और जो चेतन एवं स्वयं प्रकाशित हैं यानी, जिनका आकाश आदि कार्यों में अन्वय एवं अकार्य आदि से व्यतिरेक है।
जो सर्वज्ञ-सर्वशक्तिमान् एवम् प्रकाश स्वरूप हैं। जिन्होंने अपने संकल्प मात्र से ब्रह्माजी को वेद का उपदेश देकर ज्ञान कराया था। जिनके विषय में विवेकी विद्वानों को भी मोह (अज्ञान) हो जाता है। जैसे मरुमरीचिका के समान आगमापायी जगत् भी जिनके आधार से पुर्ण शाश्वत सत्य प्रतीत हो रहा है।
यानी सूर्य की किरणों में जल का भ्रम या थल में जल एवं जल में थल का भ्रम ही सत्यवत् प्रतीत होता है एवं जिन परमात्मा में जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति सृष्टि सत्य प्रतीत होती है, जो अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से प्रकाशित होते हुए माया से हमेशा मुक्त रहते हैं तथा जो अपने तेज से भक्तों का अज्ञान दूर करते हैं ऐसे प्रभु भगवान् श्रीकृष्ण जो सत्य स्वरूप हैं, उन सत्य का हम यानी वक्ता एवं श्रोता सभी ध्यान करें या ध्यान करते है।

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इस प्रकार श्रीवेदव्यासजी ने श्रीमद्भागवत की रचना करते समय भागवत् के प्रधान देवता परमेश्वर का ध्यान करते हुए सत्यस्वरुप परमात्मा के वंदना करके मंगलाचरण के प्रथम श्लोकों को पूर्ण किया। आगे मंगलाचरण के दूसरे श्लोक में कहा गया है कि वह सत्य स्वरूप परमात्मा को धर्म के द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं।

अतः ग्रन्थ के दूसरे श्लोक द्वारा धर्म के वास्तविक ज्ञान एवं भगवत् प्राप्ति की सम्भावना को व्यक्त की गयी है। :
धर्मः प्रेज्झितकैतवोऽत्र परमो, निर्मत्सराणां सतां,
वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् । 
श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वरः, 
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषूभिस्तक्षणात्।।
श्रीमद् भा० ०१/१/२
अर्थात् इस श्रीमद्भागवत में भगवान् श्रीमन्नारायण द्वारा संक्षेप में कहे गये तथा वेदव्यास महामुनि द्वारा रचित इस ग्रन्थ में परमधर्म का निरूपण किया गया है।
इसमें पवित्र अन्तः करण वाले सज्जनों के जानने योग्य परमात्मा का वर्णन है, जो दैहिक, दैविक एवं भौतिक इन तीनों तापों का नाशक और कल्याणकारक है, अन्य शास्त्रों या साधनों की क्या आवश्यकता है, क्योंकि इसकी इच्छा करने वाले पुण्यात्मा के हृदय में भगवान् स्वयं आकर बन्दी बन जाते हैं।
अतः भागवत का उपक्रम(प्रारम्भ) ही धर्म से किया गया है- जैसे मंगलाचरण के दूसरे श्लोक में ही वह धर्म से उस भागवत् का उपक्रम किया गया है वह है ‘धर्मः प्रेज्झितकैतवोऽत्र तत्क्षणात् ।। तथा इस भागवत का उपसंहार(समापन) भी धर्म शब्द से ही किया गया है। जैसे-
नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे । 
ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य धर्मान् वक्ष्ये सनातनम्।।
श्रीमद् भा० १२/१२/१
इस तरह भागवत में धर्म का विशेष रूप से प्रतिपादन किया गया है। अतः प्रश्न होता है कि- तब धर्म क्या है ? श्रीमद् भागवत् में इसका उत्तर है कि जिसका सहारा या आश्रय ले या जिसे ग्रहण कर या जिसका पालन कर मनुष्य संसार-सागर से पार हो जाता है, वह धर्म है।
नारद परिव्रजाकोपनिषद् के अनुसार :-
धृतिः क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रयनिग्रहः । 
धी विद्या सत्यमक्रोधो दशकम् धर्मलक्षणम्।।
या “घियतेधः पतनपुरुषोऽनेनेति धर्मः या धारणात् धर्मः”।।
नारद परिव्राजकोपनिषद् के अनुसार धैर्य, क्षमा, दम (इन्द्रिदमन), चोरी का त्याग, पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, धी (बुद्धी), विद्या, सत्य एवं क्रोध का त्याग ये दस धर्म के लक्षण हैं अथवा गिरते हुए को बचाने वाला धर्म है या जिसे धारण किया जाये वह धर्म है।
उस धर्म के आठ स्तम्भ है- यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, धृति क्षमा, सन्तोष, अलोभ । अतः धर्म का त्याग नहीं करना चाहिये क्योंकि इस धर्म से ही मनुष्य की पहचान होती है, जैसे कहा भी गया है कि-
आहारानेद्राभय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
बहुत अन्तर तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।। 
अर्थात् भोजन, शयन, भय, सन्तानोत्पत्ति इन कार्यों को करने में पशु और मनुष्य में नहीं है। अन्तर केवल धर्म का है, जिस धर्म से मनुष्य की पहचान होती है। अतः धर्म का तत्व बड़ा ही विचित्र है, अत्यन्त गूढ़ है- “धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम”।
पृथ्वी धर्म पर टिकी हुई है। कहा भी गया है कि- वेद, गौ, ब्राह्मण, सती नारी, सत्यवक्ता, निर्लोभी एवं दानवीर इन सातों पर यह पृथ्वी टिकी हुई है। अतः धर्माचरण सतत् करना चाहिये एवं परोपकार करना चाहिये। यथा-
धर्मो हि अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनम् द्वयम्।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ।। 
अर्थात अठारहों पुराण में श्रीव्यासजी ने दो वचनों को सभी पुराणों का सार कहा है वह दो वचन है कि परोपकार के समान पुण्य नही और दुसरे को कष्ट देने के समान पाप नही है।

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इस तरह मंगलाचरण के दूसरे श्लोक में धर्म को कह कर व्यासजी ने धर्ममय परमात्मा का अनुसंधान एवं वर्णन किया है।

आगे फिर श्रीव्यासजी ने मंगलाचरण के तीसरे श्लोक म भागवत को संसार का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ बताकर श्रद्धा एवं विश्वास के साथ भागवतरूपी फल के रस को पान करने को बताया है।

निगमकल्पतरोर्गलितं फलम् शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् । 
पिबत भागवतं रसमालयम् मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः।।
श्रीमद्भा० १/१/३
यह भागवत कथा रूपी फल सभी शास्त्रों का सार है, और शुकदेव रूपी शुक के स्पर्श से और मीठा हो गया। अतः हे रसिकों ! आप रोज-रोज और बार-बार इस कथा का पान करो या भगवत रसिको को रोज-रोज और बार-बार इस कथा का पान करना चाहिये।

इस प्रकार इस ग्रन्थ की रचना करते समय ग्रन्थ एवं जगत के मंगल हेतु प्रथम श्लोक के मंगलाचरण में मंगलकामना हेतु सत्यस्वरूप प्रभु को प्रणाम, ध्यान किया गया है एवं दूसरे श्लोक में ग्रन्थ के विषय (धर्म) का निर्देश किया गया है और तीसरे श्लोक में इस ग्रन्थ की महिमा एवं मधुरता को बतलाकर मुनिवर श्री व्यासजी ने आगे की कथा लिखना प्रारम्भ करते हैं। इसप्रकार आगे कि कथा को लिखते हुये महर्षि वेदव्यास ने कहा है कि :

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एक बार गोमती नदी के पावन तट पर पावन तीर्थ क्षेत्र नैमिषारण्य में अठासी हजार संत, ऋषियों सहित शौनकादि ऋषिगण उपस्थित हुए तथा श्रीभगवान् की केवल प्राप्ति के उद्देश्य से हजार वर्षों में पूर्ण होनेवाले यज्ञादि का अनुष्ठान किया। नित्य यज्ञादि करने के बाद समय मिलने पर कुछ न कुछ भगवत् चर्चा भी करते थे।

उस अनुष्ठान में ऐसे भी तपस्वी संत उपस्थित थे जिनकी तपस्या के काल में ही चारों युग कितने बार बदल चुके थे। उसी नैमिषारण्य के धर्मक्षेत्र में श्री व्यास जी के शिष्य एवं रोमहर्षण सूतजी के पुत्र उग्रश्रवा सूत जी भी पधारे थे।
एक दिन उसी महायज्ञ के अवसर पर प्रातःकालीन हवनादि करने के बाद सभी संत ज्ञानसत्र के सभामंडप में बैठे हुए थे तो उसीसमय अपने प्रवास आश्रम से निकलकर श्रीउग्रश्रवा सूत जी भी वहीं पर उपस्थित हो गये।
ज्ञानसत्र में उपस्थित सबलोगों ने खड़े होकर यथायोग्य श्रीसूत जी का सत्कार किया एवं व्यासगदी पर उन्हें बैठाकर श्रीसूत जी से श्रीशौनक जी ने कहा हे सूत जी! आप व्यासजी के शिष्य हैं।
शिष्य का मतलब होता है कि जो गुरु के उपदेश को अपने आचरण में लेता है और प्रचार भी करता हो तथा जिसपर गुरु का अनुशासन हो, वह गुरु की आज्ञा मानने वाला हो, गुरु के अनुशासन पर जो चलता हो, वही शिष्य है।
गुरु का भी मतलब होता है कि जो भगवान् की प्राप्ति की प्यास को बढ़ा दे या जगा दे तथा धर्म में लगाकर अधर्म से अलग करके, आसक्ति का त्याग करा दे, वह गुरु है। हे सूतजी ! आप एतादृश गुरु-शिष्य संबंध वाले हैं। –
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