भागवत कथा हिंदी में-21 bhagwat puran ki katha

भागवत कथा हिंदी में bhagwat puran ki katha

भाग-21

दशम स्कंध का कथा

[ अथ दशमोध्यायः ]

यमलार्जुन उद्धार

श्रीशुकदेवजी बोले-परीक्षित् धीरे-धीरे भगवान उखल खेचते हुए बाहर वहां आ गए जहां यमलार्जुन के दो वृक्ष खड़े थे
दोनों वृक्षों के बीच में उखल को फंसाकर एक झटके में उन्हें उखाड़ दिया उनमें से दो दिव्य पुरुष निकले उन्होंने
भगवान को प्रणाम किया और उनकी परिक्रमा कर वे अपने लोक को चले गए।

माता ने दौड़कर भगवान को उठा लिया खोल कर ह्रदय से लगालिया लोग कहने लगे अरे देखो लाला बचगया
इस पर भगवान की बडी कृपा है। भगवान की अद्भुत लीलाएं देख वृज गोपियां धन्य हो रही हैं वे भगवान से प्रार्थना
करती है कभी हमारा माखन भी खाइये सखी के आह्वाहन पर भगवान उसके घर गए चारों ओर देखते हुए चोर की तरह उसके घर में घुस गए सखी बीच कमरे में माखन रख एक कोने मे छुप गई। भगवान माखन खाने लगे आनन्द से सखी दर्शन कर रही है और धन्य धन्य कह रही है सखी के मन मे एक विचार आया भगवान के दर्शन तो हो गए वे अभी चले जावेगें क्यों न उनका स्पर्श भी करलूं भगवान को।पकड लिया कहने लगी लाला अबतो तुम्हे यशोदाजी। केपास लेचलूगी और भगवान का स्पर्श सुख लेती हुई।

यशोदा के द्वार पर पहुँच गई और आवाज लगाई मैया देख आज तेरे लाला को माखन चुराते हुए पकड़ कर लाइ हूं मैया बोली अरी मेरो लाला तो सोय रयो हे ओर लाला को आवाज लगाई आंखें मसलते हुए भगवान आए गूजरी देख दंग रह गइ पल्ला हटाके देखा उसने अपने पति को पकड़ रखा है लज्जित होकर सखी आ गई।

आज दूसरी सखी ने विचार कियो आजमै भी भगवान को बुलाउ ओर दर्शन करूं भगवान ने देखाकि आज दूसरी सखी बुला रही है वे बेखटके उसके यहाँ भी पहुंच गए इसने माखन अंधेरे में रखा था भगवान ने अपने मणिमय कंगनों के प्रकाश से उसे ढूंढ लिया ओर खाने लगे पहली सखी के अनुसार इसने भी भगवान को पकड़ लिया और कहने लगी लाला आज तुझे बांध कर सब सखियों को दिखाउगी भगवान को एक खंभे से बांध दिया और सखियन । को बुलाने चली गई सब सखियों को लेकर आई देखाकि लाला की जगह उसकी सास बंधी हुई है।

इति दशमोऽध्यायः

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[ अथ एकादशोऽध्यायः ]

गोकुल से वृन्दावन जाना और वत्सासुर बकासुर का उद्धार-श्रीशुकदेवजी बोले-परीक्षित्! एक दिन नन्दादि बड़े गोपों ने विचार किया इस महाबन में तो रोज कोई न कोई उत्पात हो रहा है हम सब वृन्दावन में निवास करें और सब लोग अपने-अपने छकडों में सामान भरकर वृन्दावन के लिए प्रस्थान किया ओर वृन्दावन में जाकर निवास करने लगे वहां कृष्ण बलराम बछडे चराने लगे एक दिन वन में बछडे चराते समय एक दैत्य बछडे का रूप बना कर बछडों में आ घुसा भगवान उसे पहिचान गए और उसके पैर पकड़ उसे पछाड कर समाप्त कर दिया बछडों को पानी पिलाकर कुछ आगे बढे कि एक जीव पहाड जैसा शरीर वाला बैठा है सब ग्वालवाल उसे देख डर गए वह झट भगवान को निगल गया ग्वालबाल हाहाकार करने लगे इतने में भगवान उसके पेट में उसे जलाने लगे तब तो उसने भगवान को उगल दिया भगवान ने उसकी चोंच के निचले भाग पर पैर रख कर उपर के भाग को पकड़े कर चीर डाला यह बकासुर पूतना का भाई बगुले का रूप बना कर आया था सब ग्वालबाल हर्षित हो गए।

इति एकादशोऽध्यायः

[ अथ द्वादशोऽध्यायः ]

अघासुर का उद्धार-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित पूतना और बकासुर के छोटे भाई अघासुर को जब यह बात मालुम हुई कि मेरे बड़े भाई बहिन को कृष्ण बलराम ने मार दिया तो वह क्रोधित होकर बदला लेने चला और वन में जहां कृष्ण बलराम बछडे चरा रहे थे वहां आया और अजगर का रूप धारण कर उनके सामने बैठ गया विशाल काय होने से उसे कोई पहिचाना नही उस अजगर ने एक लम्बी सांस खेंची ओर बछडों सहित सब ग्वाल बाल उसके पेट में चले गए किंतु उसने मुँह बन्द नहीं किया वह भगवान को पकड़ने की प्रतिक्षा कर रहा था देवता हाहा कार करने लगे तब भगवान स्वयं ही उसके मुँह में चले गए अजगर ने मुँह बन्द कर लिया भगवान ने पेट में अपना शरीर इतना बढाया कि अजगर का पेट फट गया सब ग्वालबाल पेट से सुरक्षित निकल आए भगवान की यह पांचवें वर्षकी लीला छठे वर्ष में ग्वालबालों ने जाकर अपने घर सुनाई इस पर परीक्षित ने प्रश्न किया यह बात एक वर्ष बाद जाकर क्यों सुनाई।

इति द्वादशोऽध्यायः

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[ अथत्रयोदशोऽध्यायः ]

ब्रह्माजी का मोह और उसका नाश-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं कि परीक्षित आपने यह बहत ही सुन्दर प्रश्न किया है कि अधासुर की मृत्यु की बात एक वर्ष बाद क्यों कही जिस समय अधासुर मारागया उसकेबाद भगवान ने ग्वाल बालों से कहा।अब हमें भोजन कर लेना चाहिए ओर सब बछडों को घास मे छोड भोजन करने बैठ गए भोजन करते समय बछडे चरते हुए दूर निकल गए भगवान बोले आप सब भोजन करते रहें मैं अभी बछडों को लेकर आता हूँ।

भगवान एक हाथ में रोटी का कोर लेकर खाते जा रहे है और दौड लगाते जा रहे हैं जिसे देख ब्रह्माजी मोहित हो गए और बछडों को लेकर ब्रह्म लोक चले गए।भगवान समझ गए वापस लौट आए उधर ग्वालबालों को लेकर भी ब्रह्म लोक को चले गए भगवान ने जितने बछड़े ओर ग्वाल बाल थे वे स्वयं बन गए और घर आ गए आज गायें बड़ी प्रसन्न थी भगवान स्वयं बछडा बन उनका दूध पी रहे थे गोपियां भी प्रसन्न थी बालकों के रूप में स्वयं भगवान उनकी गोद में थे इस लीला को बलरामजी जान गए उधर ब्रह्माजी ने जब देखा कि वहां भी ग्वालबाल बछडे है वे चकित हो गए और आकर भगवान के चरणों में गिर गए और हाथ जोड़ भगवान की स्तुति करने लगे।

इति त्रयोदशोऽध्यायः

[ अथ चतुर्दशोऽध्यायः ]

ब्रह्माजी द्वारा भगवान की स्तुति–

नोमीड्य तेअभ्रवपुषे तडितम्बराय

गुन्जा वतन्स परिपिच्छल सन्मुखाय

वन्यस्रजे कवलवेत्र विषाणवेणु

लक्ष्मश्रिये मृदुपदे पशुपांगजाय

ब्रह्माजी बोले प्रभो! एक मात्र आप ही स्तुति करने योग्य है। मैं आपके चरणों मे नमस्कार करता हूँ। आपका यह शरीर वर्षा कालीन मेघ के समान श्यामल है जिसमें बिजली के समान झिलमिल करता हुआ पीताम्बर शोभा पाता है आपने घुघची की माला पहन रखी है कानों में मकराकृति कुण्डल सिर पर मोर पंखों का मुकुट है इन सबकी कान्ति से आपके मुख पर अनोखी छटा छिटक रही है।

वक्षस्थल पर लटकती हुइ बन माला और नन्ही सी हथेली पर दही भात का कोर बगल में वेत और सिंगी तथा कमर की फेंट में आपकी पहचान बताने वाली बांसुरी शोभा पा रही है। आपके कमल से सुकोमल परम सुकुमार चरण और यह गोपाल बालक का सुमधुर वेष मैं कुछ नही जानता बस मैं तो इन्ही चरणों पर न्योछावर हूँ।

ब्रह्माजी ने इस प्रकार भगवान की स्तुति की तथा उनकी परिक्रमा कर ग्वालबालों को जहां से उठाया था वहीं जमुना किनारे बैठा दिए और बछडों को भगवान के आगे कर दिए और अपने लोक को चले गए भगवान बछडो को लेकर वहां आए जहां ग्वाल बाल जमुना किनारे बैठे थे भगवान को बछडे लाते हुए देख ग्वालबाल बोले कन्हैया तुम्हारे बिना हमने एक ग्रास भी नहीं खाया तुम्हारी प्रतिक्षा में बैठे है एक वर्ष ब्रह्म लोक में बिताने वाले ग्वाल यह सब भूल गए उन्हें लगा कि अभी हमने अघासुर को मारा है यह बात घर जाकर एक वर्ष बाद सुनाई।

इति चतुर्दशोऽध्यायः

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[ अथ पंचदशोऽध्यायः ]

धेनुकासुर का उद्धार और ग्वालों को काली विष से बचानाश्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं परीक्षित् ! जब भगवानने पोण्ड्रक अवस्था छठे वर्ष में प्रवेश किया तो उन्हे गायें चराने की अनुमति मिल गई वे ग्वालबालों के साथ गाये चराने लगे एक दिन वे गायें चराते हुए ताल वन में पहुँच गए वहां बड़े-बड़े ताल के वृक्ष थे और भी अनेक फलों के वृक्ष थे जो फलों से लद हुए थे वहां एक धेनुकासुर नाम का दैत्य रहता था जिसके भय से वहां कोई नही जाता था उन्होंने फल खाने के लिए पेडों को हिलाया तो बहुत से फल नीचे गिर गए सब लोग खूब फल खाने लगे जब दैत्य को पता चला वह क्रोधित हो वहां आया वह गधे के रूप में रहता था अत: अपनी दुलत्ती चलाने लगा बल रामजी ने उसके पिछले दोनो पैर पकड़ एक पेड से दे मारा वह गिरते ही समाप्त हो गया उसके गिरने से बहुत से पेड गिर गए सब ने खूब फल खाए और उसके पश्चात् वे सब यमुना किनारे आ गए सबने यमुनाजी का जल पिया और वे सब जल पीते ही बेहोश होकर समाप्त हो गए यहां काली सर्प के रहने से जल विषैला हो गया था भगवान ने अपनी कपा दृष्टि से सबको जीवित कर लिया जिसका किसी को भान ही नही हुआ।

इति पंचदशोऽध्याय:

[ अथ षोडषोऽध्यायः ]

कालिय पर कृपा—

विलोक्य दूषितां कृष्णां कृष्णः कृष्णहिना विभुः

तस्या विशुद्धि मनविच्छन् सर्प तमुदवासयत्

श्रीशुकदेवजी कहते हैं परीक्षित्! जब भगवान ने देखाकि काली के निवास से यमुनाजी का जल विषैला हो गया है उसे वहां से हटा यमुना को शुद्ध करने का विचार किया और ग्वालबालों के सहित गाये चराते हए वहां गए जहां काली रहता था।

कालीदह पै खेलन आयो री मेरो बारो सो कन्हैया काहेकी पट गेंद बनाइ काहे को डण्डा लायोरी -मेरो फूलन की पट गेंद बनाइ चन्दन का डंडा लायोरीउछलत गेंद गइ जल माही वातो गेंद के संग सिधायो नाग नाथ कर बाहर आयो फनफन निरत करायोरी पुरुषोत्तम प्रभु की छवि निरखे चरण कमल चितलायो और वहाँ गेद का खेल खेलने लगे भगवान ने एक ही बार मे गेंद को कालीदह में चला दिया और ग्वालबालों से कहा आप चिन्ता न करें मैं अभी गेंद लेकर आ हूं और काली दह में कूद गए ग्वालों मे हाहा कार मच गया नन्द यशोदा तक सूचना पहुँच गई वे रोते विलखते काली दह पर पहुँचे बलरामजी ने सबको धैर्य बंधाया और समझाया कि कन्हैया को कुछ नही होगा वह अभी आ जायेगा वे कन्हैया की महिमा जानते थे उधर कन्हैया ने काली दह में जाकर काली को ललकारा काली सो रहा था नागिनो ने कहा बालक तुम चले जावो तुम्हे देख हमे दया आ रही है यह काली भयंकर है तुम्हे छोडेगा नही भगवान बोले नागिन तुम अपने काली को जगाओ इतने मे काली जग गया और मारे क्रोध के फुफकारने लगा भगवान उछल कर उसके फनों पर चढ गए और नृत्य करने लगे रक्त वमन करने लगा और अन्त मे वह भगवान की शरण हो गया भगवान बोले काली अब तुम्हे यहां नही रहना है।

तुम गरुड के भय से यहां रहते हो अब मेरे चरणों के चिह्न तुम्हारे मस्तक पर हैं तुम्हे गरुड़ कुछ नही कहेगा तुम अपने लोक को चले जावो भगवान को प्रणाम कर काली वहां से अपने लोक को चला गया।

इति षोडषोऽध्यायः

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[ अथ सप्तदशोऽध्यायः ]

काली की काली दह मे आने की कथा तथा बृजवासियों को दावानल से बचाना-श्रीशुकदेवजीबोले परीक्षित्! पूर्व काल मे गरुडजी को उपहार स्वरूप प्राप्त होने वाले सर्पो ने यह नियम कर लिया था कि प्रत्येक मास मे निर्दिष्ट वृक्ष के नीचे गरुड को एक सर्प की भेंट दी जाय इस नियम के अनुसार अब की बार काली का नम्बर था काली निर्दिष्ट स्थान पर न पहुँचकर यमुना में उस जगह जा छुपा जहां गरुड सौभरी ऋषि के शाप के कारण नही जा सकता था।

कली को यमुना से बाहर कर भगवान स्वयं बाहर आ गए जैसे सब के प्राण लौट आए हों यशोदा ने कन्हैया को छाती से लगा लिया उस दिन आधी रात हो जाने से वे सब घर न जाकर वहीं सो गए रात्री में वन में दावानल लग गइ सब ब्रजवासी घबरा गए और वे भगवान की शरण हो गए भगवान उस अग्नि को पी गए।

इति सप्तदशोऽध्यायः

[ अथ अष्टादशोऽध्यायः ]

प्रलमबासुर उद्धार-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि परीक्षित काली का उद्वार कर भगवान बृज में आ गए ओर अनेक लीला करने लगे। एक दिन वन में गाएं चराते समय एक प्रलम्बासुर नामक राक्षस ग्वाल वेष में ग्वालों में आकर मिल गया वह कृष्ण बलराम का हरण करना चाहता था सब ग्वालबाल दो दलों में विभक्त होकर एक दल दूसरे दल को पीठ पर ढोता था ऐसा खेल खेलने लगे प्रलम्बासुर ने बल राम जी को अपनी पीठ पर चढ़ा लिया और उसे लेकर दूर निकल गया बलरामजी समझ गए यह कोई दैत्य है उन्होंने अपना वजन इतना बढाया कि वह झेल नहीं सका उसने अपना असली रूप प्रकट कर दिया बलरामजी ने एक ही घूसे मे उसके प्राण हर लिए।

इति अष्टादशोऽध्यायः

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[ अथ एकोनविंशोऽध्यायः ]

गौओं और गोपों को दावानल से बचाना-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि परीक्षित्! एक दिन भगवान कृष्ण बलराम वन में गायें चराते हए खेल खेलने लगे तो उनकी गाऐ चरती हुई बहुत दूर निकल गई वे रास्ता भूल कर मन्जाटवी वन में चली गई गायें न देख भगवान बड़े चिन्तित हए और उन्हे खोजते हुए आगे बढ़े और देखाकि बहुत दूर गायों के रंभाने की आवाज आ रही है भगवान ने गायों को आवाज लगाई तोवे रंभाने लगी भगवान ग्वालबालों के साथ वहां पहुंच गए और गायों को लेकर लौट रहे थे तभी दावानल ने उन्हें चारों और से घेर लिया सब घबरा गए तब भगवान ने कहा डरो मत सब अपने नेत्र बन्द कर लो सबने नेत्र बन्द कर लिए और भगवान उस समस्त अग्नि को पी गए।

इति एकोनविंशोऽध्यायः

[ अथ विंशोऽध्यायः ]

वर्षा और शरदऋतु का वर्णन-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं परीक्षित्! इसके बाद वर्षा ऋतु आ गई सर्वत्र हरियाली छा गई किसानों ने प्रसन्न होकर कृषि कार्य प्रारंभ कर दिए। वर्षा के बाद शरद ऋतु आ गई किसानों की फसलें घर में आ गई सब प्रसन्न हो गए।

इति विंशोऽध्यायः

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[ अथ एकविंशोऽध्यायः ]

वेणुगीत-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं परीक्षित् वृन्दावन में बृजगोपियां भगवान की लीलाओं को देख-देख भाव विभोर हुई रहती हैं वे सब पागल सी होकर हमेशा भगवान के दर्शनों की अभिलाषा के गीत गाती रहती हैं।

अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः

सख्यं पशुननु विवेशयतोर्वयस्यैः

वक्त्रं ब्रजेशसुतयोरनु वेणु जुष्टं

यैर्वा निपीत मनुरक्त कटाक्ष मोक्ष

गोपियाँ आपस मे बात करती हैं-अरी सखी हमने तो आंखवालों के जीवन की और उनकी आंखों की बस यही इतनी ही सफलता समझी है और तो हमे कुछ मालुम ही नही है वह कौनसा लाभ है वह यही है कि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गोर सुन्दर बलराम ग्वालबालों के साथ गायों को हांक कर ले जा रहे हो अथवा लोटाकर बृज में ला रहे हों उन्होने अपने अधरों पर मुरली रखी हो और प्रेम भरी तिरछी चितवन से हमारी ओर देख रहे हों उस समय उनकी मुखमाधुरी का पान करती रहें।

इस प्रकार भगवान के प्रति अपनी अनेक भावनाओं को गोपियों ने जो व्यक्त किया है उसे ही वेणुगीत नाम दिया हैं।

इति एकविंशोऽध्याय:

[ अथ द्वाविंशोअध्यायः ]

चीरहरण–

हेमन्ते प्रथमे मसि नन्दब्रज कुमारिकाः।

चेहविष्यं भुन्जाना: कात्यायन्यर्चन व्रतम्।।

श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है परीक्षित् मार्गशीर्ष मास के प्रारंभ होते ही ब्रजकी कुमारियां कात्यायनी देवी का ब्रत और पूजा करने लगी वे उषाकाल में यमुना जाकर स्नान करती तटपर बालू की कात्यायनी की मूर्ति बनाती उसकी पूजा करती और कहती-

कात्यायनि महामाये महायोगिन्य धीश्वरि।

नन्दगोपसुतं देवि पति मे कुरुते नमः।।

हे कात्यायनी हे महा माये भगवान श्रीकृष्ण हमें पति रूप में प्राप्त हों प्रतिदिन की भांति एक दिन उन्होंने अपने वस्त्र उतार यमुना में प्रवेश किया उनकी अभिलाषा पूर्ण करने भगवान आए और उनके वस्त्र लेकर कदम पर जा बैठे स्नान के बाद जब उन्हें अपने वस्त्र नहीं मिले तो घबरा गई देखाकि वस्त्र लेकर तो कन्हैया कदम पर बैठा है उन्होने भगवान की प्रार्थना की”’

पद

नन्दजी के लाला चीर हमारो मोहन दीजिए

एक समय ब्रजगोप बालिका मन में कियो विचार

कात्यायनि पूजा की ठानी यमुना कियो विहार -नन्द

वस्त्र खोल तीर पर धर दिए आप गइ जल मांय

काना वस्त्र उठाले टांगे पेड कदम पर जाय – नन्द

पतोचल्यो जब डरी गोपिका विनय करे कर जोर

चीर हमारो देदो मोहन हम दासी हैं तोर – नन्द –

दासी होतो बात मान लो जल से बाहर आवो

हाथ जोड़ कर अपने अपने वस्त्र आप लेजावो-नन्द

जल से बाहर कैसे आवें आप पुरुष हम नारी

वस्त्र हीन जो बाहर आ जावे लाज हमारी-नन्द

हमकोही चाहो हमसे परदा कैसी बुद्धि तिहारी

भेद बुद्धि से तो तुम हमको कबहुन पावो प्यारी-नन्द

हाथ जोडकर बाहर आइ करी कृपा गिरधारी

वस्त्र दिए सब धारण कीने मन प्रसन्न अतिभारी-नन्द

शरद पूनम पर आना प्यारी रास रचेगे भारी

दास भागवत शरण आपकी महिमा जगसे न्यारी-नन्द

चीरहरण लीला बड़ी महत्त्वपूर्ण है यह जीवात्मा और परमात्मा के बीच के परदे को हटाने वाली है स्त्री-पुरुष का भेद शरीर से है आत्मा का कोई लिंग नहीं होता आत्मा नस्त्री लिंग है न पुल्लिंग अपने को शरीर मानना ही भगवान से मिलने में वाधक है।

श्री भागवत महापुराण की हिंदी सप्ताहिक कथा जोकि 335 अध्याय ओं का स्वरूप है अब पूर्ण रूप से तैयार हो चुका है और वह क्रमशः भागो के द्वारा आप पढ़ सकते हैं कुल 27 भागों में है सभी भागों का लिंक नीचे दिया गया है आप उस पर क्लिक करके क्रमशः संपूर्ण कथा को पढ़कर आनंद ले सकते हैं |

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