bhagwat puran sanskrit hindi श्रीमद्भागवत सप्ताहिक कथा
एक बार पार्वतीजी ने भोलेनाथ से अनुरोध किया कि कृपया यह बतलायें कि आपकी गले में किसकी माला है तथा यह वर दें कि हे स्वामी मुझे आपसे वियोग नहीं हो और हमेशा आत्मज्ञान बना रहे, इसका कोई उपाय बतायें। आगे श्री शंकरजी ने कहा कि इस आत्मज्ञान को मैं समय से बतलाऊँगा।
परंतु श्रीनरद द्वारा जो भेद वचन है उन भेद वचनों के समाधान को करते हुये श्रीशंकरजी ने कहा कि हे पार्वती यह हमारे गले में जो मुण्डों की माला है वह मुण्डमाला तुम्हारे ही मुण्डों की है जिनको मैंने तुम्हारे बार-बार मरने पर तुम्हारी यादगारी में माला के रूप में धारण किया है क्योकि मैं तुमसे अति प्रेम करता ह। तब पार्वती जी ने कहा कि मैं बार-बार मर जाती हूँ और आपकी मृत्यु नही होती इसका कारण क्या है ?
तब श्री शंकर जी ने कहा कि हे पार्वती ! मैने अमर कथा सुना है जिससे मैं अमर हूँ। यह घटना सुनकर श्री पार्वती जी ने अमर कथा सुनने के लिये श्री शंकर जी से प्रार्थना की तब शंकर जी ने कहा कि हे पार्वती इस समय मैं तुझमे अमरकथा सुनने का पुर्ण लक्षण नहीं देख रहा हूँ फिर भी तुम्हारे आग्रह करने के कारण मैं अवश्य कथा सुनाउगाँ यानी आज आपको अति गोपनीय कथा सुना रहा हूँ जिसको सुनकर तुम भी अमर हो सकती हो। इसलिए आप जरा बाहर देख आइये कि कहीं कोई है तो नहीं।
श्री पार्वतीजी ने बाहर आकर चारों तरफ अच्छी तरह देखा तो वहाँ एक शुक शावक के विगलित अंडे के सिवा कुछ नहीं था। उन्होंने श्री शंकरजी से कहा कि बाहर कोई नहीं नहीं है। तब श्री शंकरजी ने ध्यानस्थ मुद्रा में ‘अमरकथा’ का अमृत प्रवाह शुरू किया।
बीच-बीच में पार्वती जी हुँकारी भरती थीं। दशम स्कन्ध की समाप्ति पर वे निद्राग्रस्त हो गई एवं बारहवें स्कन्ध की समाप्ति पर पार्वतीजी ने शंकर जी से कहा कि हे प्रभो क्षमा करेंगे, मुझे दशम स्कन्ध के बाद नींद आ गयी थी।
मैं आगे की कथा नहीं सुन सकी हूँ। अर्थात् श्री कृष्ण उद्धव संवाद जो ग्यारहवे स्कन्ध में है उसको मैंने नहीं सुना तथा बारहवें स्कन्ध की कथा भी नहीं सुनी। इधर यह जानने हेतु कि फिर कथा के बीच में हुंकारी कौन भर रहा था ?
यह जानने के लिए शिवजी बाहर निकले। उन्होंने एक सुन्दर शुक शावक को देखा। श्री शंकरजी ने पार्वती जी से पूछा- आखिर यह शुक शावक कहाँ से आ गया ? पार्वतीजी ने विनीत वाणी में कहा कि यह तो विगलित अंडे के रूप मे पडा था श्री भागवत कथा रूपी अमृत पान से जीवित हो गया।
इस प्रकार अमर कथा की गोपनीयता भंग होने से शंकर जी शुक- शावक को पकड़ने के लिए झपटे । शुक शावक उड़ गया और उड़ते-उड़ते भय से श्री बद्रिकाश्रम के निकट स्थित व्यास आश्रम पर श्रीव्यास जी की पत्नी पिंगला के मुख में प्रवेश कर गया। फिर शंकर जी ने श्रीव्यासजी द्वारा सन्तावना प्राप्त कर वापस अपने आश्रम पर लौट गये।
इधर श्री शुकदेवजी १६वर्षों तक पिंगला के गर्भ में रहे । अन्ततोगत्वा श्री व्यास जी के अनुरोध करने पर शुकदेवजी ने अपना भय बताया। उन्होंने गर्भ के भीतर से कहा कि उन्हें बाहर आनेपर माया से ग्रसित होने का भय है।
यदि भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा माया से ग्रसित नहीं होने का आश्वासन मिले तभी वे बाहर आयेंगे। व्यासजी के अनुरोध से भगवान् श्रीकृष्ण ने शुकदेवजी को माया से ग्रसित नहीं होने का आश्वासन दिया, तब शुकदेवजी गर्भ से बाहर आये ।
शौनक जी ! मैं आप सभी को सम्पूर्ण ज्ञान के सारभूत तथा जिससे माया मोह से मुक्ति प्राप्त होकर ज्ञान वैराग्य भक्ति की वृद्धि हो जाए ऐसी ही कथा को सुनाऊँगा । जो कथा अपात्रता के कारण देवताओं को भी दुर्लभ हो जाती है ।
एक बार जब राजा परीक्षित् शाप के कारण गंगातट पर वही भागवत की कथा सुनने के लिए बैठे थे तो श्री शुकदेवजी के सामने देवता लोग स्वर्ग से अमृत कलश लेकर कथा के बदले में राजा परीक्षित् को पिलाना चाहा तथा कथा को स्वयं देवताओं ने अपने कानरूपी प्याले से पीना या सुनना चाहा।
परन्तु उन देवताओं को उचित अधिकारी नहीं समझकर श्री शुकदेवजी ने डाँट कर हटा दिया तथा कथा रूपी अमृत नहीं पिलाया बल्कि पूर्ण अधिकारी राजा परीक्षित को ही श्री शुकदेवजी ने श्री मद्भागवत कथा रूपी अमृत पिलाया जिसके फलस्वरूप राजा परीक्षित् को सातवें दिन सद्यः मोक्ष प्राप्त हो गया।
“सुधाकुम्भं गृहीत्वैव देवास्तत्र समागमन्”
( अर्थात देवता लोग स्वर्ग से अमृत कलश लेकर कथा के बदले में राजा परीक्षित् को पिलाना चाहा तथा कथा को स्वयं देवताओं ने अपने कानरूपी प्याले से पीना या सुनना चाहा ) इधर राजा परीक्षित की मुक्ति के बाद स्वयं ब्रह्माजी को बड़ा आश्चर्य हुआ तथा वह ब्रह्मा जी ने तराजु के एक पलड़े पर समस्त साधन जैसे यज्ञ, दान, तप, जप, ध्यान आदि को रखा एवं दूसरे पलड़े पर श्रीमद्भागवत महापुराण को रखा तो तराजू के भागवत वाला पलड़ा सबसे भारी सिद्ध हुआ।
मेनिरे भगवद्रूपं शास्त्र भागवते कलौ । पठनाच्र्छवणात्सद्यो वैकुण्ठफलदायकम् ।।
उस समय समस्त ऋषियों ने माना इस भागवत को पढ़ने से श्रवण से वैकुंठ की प्राप्ति निश्चित होती है ।
श्रीमद्भागवत महापुराण की कथा को पहले ब्रह्माजी ने देवर्षि नारद जी को सुनाया परन्तु सप्ताह विधि से इस कथा को श्री नारदजी ने सनक – सनन्दन – सनातन सनत्कुमार अर्थात् सनकादि ऋषियों से सुना था।
वह सप्ताह कथा जो सनकादियों ने श्री नारदजी को सुनायी थी। वही कथा को एक बार मैं ( श्रीसुतजी) श्री शुकदेवजी से सुनी थी उसी कथा को हे शौनकजी मैं आपलोगों के बीच आज नैमिषारण्य में सुनाऊँगा।
इस प्राचीन कथा को कहने और सुनने की परम्परा को सुनकर श्री शौनकजी ने कहा कि हे सूतजी ! यह कथा कब और कहाँ पर श्री नारदजी ने सनकादियों से सुनी थी इसको विस्तार से बतलायें ?
तब श्री सूतजी ने कहा कि हे शौनकजी! एक समय श्री बद्रीनारायण की तपोभूमि विशालापुरी में एक बड़े ज्ञान यज्ञ का आयोजन हुआ था जिसमें बहुत से ऋषियों सहित सनकादि ऋषि भी पधारे थे। संयोग से उस समय उस स्थल पर श्री नारदजी ने सनकादियों को देखा तो प्रणाम किया एवं मन ही मन वे उदासी का अनुभव कर रहे थे।
कथं ब्रह्मन्दीनमुखं कुतश्चिन्तातुरो भवान् । त्वरितं गम्यते कुत्र कुतश्चागमनं तव ।।
यह देखकर सनकादियों ने नारदजी से उदासी का कारण पूछा तो श्री नारदजी ने कहा-
अहं तु प्रथवीं यातो ज्ञात्वा सर्वोत्तमामिति ।
हे मुनीश्वरों मैं अपनी कर्मभूमि तथा सर्वोत्तम लोक समझकर एवं वहाँ के पवित्र तीर्थों का दर्शन करने पृथ्वी लोक पर आया था । परन्तु इस पृथ्वी के तीर्थों को भ्रमण करते हुए मैंने अनुभव किया कि सम्पूर्ण तीर्थ जैसे काशी, प्रयाग, गोदावरी, पुष्कर में भी कलियुग का प्रभाव है जिससे इन तीर्थों में नास्तिकों, भ्राष्टचारियों का बोलबाला एवं अधिकांशतः वास हो गया है।
जिससे तीर्थ का सारतत्त्व प्रायः नष्ट हो गया है। अतः मुझे तीर्थों में जाने से भी शान्ति नहीं मिली। इस कलियुग के प्रभाव से सत्य, तप, दया, दान आदि सद्गुणों का लोप हो गया है। सबकोई अपना ही पेट भरने या अपना पोषण में लगा है।
पाखण्ड निरताः सन्तो विरक्ताः सपरिग्रहाः ।।
साधु-सन्त विलासी, पाखण्डी, दम्भी, कपटी आदी हो गये हैं।
तपसि धनवंत दरिद्र गृही । कलि कौतुक तात न जात कही ।।
इधर गृहस्थ भी अपने धर्म को भूल गये हैं तथा घर में बूढ़े बुजुर्गों का सेवा आदर नहीं है। पुरुषलोग स्त्री के वश में होकर धर्म-कर्म एवं माता-पिता. भाई-बन्धु आदि को त्याग कर केवल साले साहब से सलाह एवं रिश्ता जोड़े हुए हैं। प्रायः स्त्रियों का ही शासन घर परिवार एवं पति पर चल रहा है एवं तीर्थों-मन्दिरों में विद्यर्मियों ने अधिकार जमा लिया है।
इस प्रकार सर्वत्र कलियुग का कौतूहल चल रहा है-
“तरुणी प्रभूता गेहे श्यालको बुद्धिदायकः”।
यानि घर में स्त्रीयों का शासन चल रहा है एवं साले साहब सलाहहकार बने हुये है। आगे श्री नारद जी कहते हैं कि मैं यह सर्वत्र कौतूहल देखते हुए प्रभु भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाभूमि जब व्रज में यमुना के तट पर पहुँचा तो वहाँ मैंने एक आश्चर्य घटना देखा कि एक युवती के दो बूढ़े पुत्र अचेत पड़े हैं तथा वह युवती आर्त भाव से रो रही है और उस युवती को धैर्य धारण कराने के लिए बहुत सी स्त्रियाँ उपस्थित हैं।
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“घटते जरठा माता तरुणौ तनयाविति ।
जगत् में यह देखा जाता है कि माता बूढ़ी होती है और पुत्र युवा होते हैं। इस प्रकार श्री नारद जी को देखकर वह रोती हुई स्त्री ने आवाज लगाते हुये कहा कि हे महात्मा जी !
भो भो साधो क्षणं तिष्ठ मच्चिन्तामपि नाशय ।।
आप थोडा रूककर मेरी चिन्ता एवं दुख को दूर करे तब श्रीनारद जी वहाँ पहुँचकर कहा कि हे देवी तुम्हारा परिचय क्या है ? और यह घटना कैसे घटी ? आगे उस देवी ने कहा-
अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ । ज्ञान वैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ ।।
महात्मन् ! मेरा नाम भक्ति देवी है तथा ये दोनों वृद्ध मेरे पुत्र ज्ञान – वैराग्य हैं और ये सभी स्त्रियाँ अनेक पवित्र नदियाँ हैं।
उत्पन्ने द्रविणेसाहं वृध्दिं कर्णाटके गता । क्वचित्क्वचिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता ।।
हे महात्मन् ! मैं द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई एवं कर्णाटक देश में मेरी और मेरे वंश की वृद्धि हुई तथा महाराष्ट्र में कहीं-कहीं मेरा आदर हुआ एवं गुजरात देश में मेरे और मेरे पुत्रों को बुढ़ापे ने घेर लिया और मैं वृन्दावन में आकर स्वस्थ्य तथा युवती हो गयी लेकिन मेरे पुत्र यहाँ आने पर भी वे अस्वस्थ्य और बूढ़े ही रह गये ।
अतः मैं इसी चिन्ता में रो रही हूँ। उस भक्ति देवी के कष्ट को सुनकर श्री नारद जी ने कहा कि हे देवि ! भगवान् श्री कृष्ण के जाते ही जब कलियुग पृथ्वी पर आया तो राजा परीक्षित ने कलियुग के केवल एक गुण की महिमा के कारण (कलियुग में केवल प्रभु के नाम आदि का कीर्तन करने से अन्य तीनों युगों का फल और अनेक धर्म के साधन का फल प्राप्त हो जाता है) कलियुग को मारा नहीं या अपने राज्य से निकाला नहीं ।
यह सुनकर श्री भक्ति देवी ने श्री नारद जी को प्रणाम किया। इस प्रकार भक्ति देवी के प्रणाम करने पर श्री नारद जी ने कहा कि-
वृथा खेदयसे बाले अहो चिन्तातुराकथम्, श्रीकृष्णचराणाम्भोजं स्मर दुःखम् गमिष्यति ।। ( श्रीमद् भा० मा० २ / १ )
हे बाले ! तुम व्यर्थ ही खेद क्यों करती हो एवं चिन्ता से व्याकुल क्यों हो रही हो ? वह भगवान् आज भी हैं अतः उन प्रभु के श्रीचरणों का स्मरण करो उन्हीं श्रीकृष्ण की कृपा से तुम्हारा दुःख दूर हो जाएगा।
हे भक्ति देवी ! तुमको परमात्मा ने अपने से मिलाने के लिए प्रकट किया था तथा ज्ञान वैराग्य को तुम्हारा पुत्र बनाकर इस जगत् में भेजा एवम् मुक्ति देवी को भी तुम्हारी दासी बनाकर भेजा था।
परन्तु कलियुग के प्रभाव से मुक्ति देवी तो वैकुण्ठ में चली गई अब केवल तुम ही यहाँ दिखाई देती हो। अतः मैंने भक्तों के घर-घर में एवं हृदय में भक्ति का प्रचार नहीं कर दिया तो मेरा नाम नारद नहीं समझा जाएगा या मैं सही में भगवान् का भक्त अथवा दास नहीं कहलाऊँगा । इसके बाद श्रीनारद जी ने वेद आदि का पाठ कर उन ज्ञान वैराग्य को जगाया।
इसके बाद भी ज्ञान – वैराग्य को होश नहीं आया। उसी समय नारद जी को सत्कर्म करने की आकाशवाणी हुई। इस प्रकार सत्कर्म करने की आकाशवाणी को सुनकर नारदजी विस्मित हुए और वे तीर्थों में घूमते हुए महात्माओं से सत्कर्म के बारे में पूछने लगे, लेकिन उन महात्माओं से संतोषजनक उत्तर नहीं मिला तथा उनके प्रश्न को सुनकर ऋषि-मुनि कहते हैं।
कि जब नारदजी ही सत्कर्म के बारे में नहीं जानते तो इनसे बढ़कर और कौन ज्ञानी और भक्त होगा जो सत्कर्म के बारे में संतोषजनक उत्तर दे सकें। अन्त में थक-हारकर तपस्या द्वारा स्वयं सत्कर्म जानने की इच्छा से श्रीनारद जी बदरिकाश्रम के लिए चल पड़े। क्योंकि-
तपबल रचे प्रपंच विधाता तपबल विश्व सकल जग त्राता ।
तपबल रुद्र करे संघारा तपबल शेष धरे महि भारा ।।
वहाँ पहुँचकर अभी तप का विचार कर ही रहे थे कि-
“तावद्-ददर्श पुरतः सनकादीन् मुनीश्वरान”,
वहाँ सनकादि ऋषियों के दर्शन हुए। इस प्रकार श्रीनारदजी ने उन्हें प्रणाम निवेदन किया और सत्कर्म के बारे में आकाशवाणी की बात बतायी तथा सनकादि ऋषियों से उन्होंने सत्कर्म के बारे में बताने का अनुरोध किया।
श्री सनकादि ऋषियों ने कहा कि आप चिन्ता न करें। सत्कर्म का साधन अत्यन्त सरल एवं साध्य है। हालाकि सत्कर्म करने के बहुत से उपाय पूर्व में ऋषियों ने बताया हैं, लेकिन वे सब बड़े कठिन है एवं परिश्रम के बाद भी स्वल्प फल देनेवाले हैं।
श्रीवैकुण्ठ प्राप्त करानेवाला सत्कर्म तो गोपनीय है। कोई-कोई ज्ञाता बड़े भाग्य से मिलते हैं जो सत्कर्म को जानने के लिए इच्छुक या प्यासे हों। अतः आप सत्कर्म को सुने-
‘सत्कर्मसूचको नूनं ज्ञानयज्ञः स्मृतो बुधैः । श्रीमद्भागवतालापः स तु गीतः शुकादिभिः ।।
श्रीमद् भा० मा० २/ ६०
सत्कर्म का अर्थ विद्वानों ने ज्ञानयज्ञ कहा है। ज्ञानयज्ञ को ही भागवत कथा कहते हैं। भागवत कथा की ध्वनि से ही कलि के दोष एवं दैहिक दैविक, भौतिक कष्टों का निवारण हो जाता ।
भक्ति की प्राप्ति होती है और ज्ञान-वैराग्य का प्रचार एवं प्रसार होता है। नारदजी द्वारा जिज्ञासा करने पर कि वेद, उपनिषद्, वेदान्त एवं गीता में भी भागवत कथा ही वर्णित है, फिर अलग से भागवत कथा क्यों ? सनकादि ऋषियों ने बताया कि जिस तरह आम्रवृक्ष में आम का रस जड़ से पत्ते तक विद्यमान रहता है, लेकिन उसका फल ही आम का रस देता है।
वेदोपनिषदां साराज्जाता भागवती कथा ।।
उसी तरह वेद, वेदान्त, उपनिषद् में व्याप्त भक्ति रस आम के वृक्ष के सदृश हैं या दूध में घी की तरह सार रूप में है। परन्तु यह भागवत आम वृक्ष के फल के समान परम मधुर एवं लोकोपकारी तथा मुक्तिदायक है। वही भागवत कथा को आप श्रवण करके उन भक्ति देवी के पुत्रों को स्वस्थ्य कर सकते हैं।
हे ऋषिगण ! अब आपलोग कृपया बतायें कि आयोजन का स्थान कौन सा हो और यह कितने दिनों तक कथा चलेगी ? नारद जी की सहज उत्कंठा देखकर शनकादि ऋषियो ने हरिद्वार में गंगा नदी के तट पर आनन्दवन नामक स्थान में एक सप्ताह के लिए भागवत कथा आयोजित करने की बात कही। इसके बाद सनकादि मुनियों के साथ नारदजी हरिद्वार के आनन्द वन में गंगातट पर पहुँचे । इनके पहुँचते ही तीनों लोकों में चर्चा फैल गयी।
भगवान् के भक्त भृगु, वसिष्ठ, गौतम, च्यवन, विव्यास इत्यादि सभी ऋषि महर्षि अपनी सन्ततियों के साथ वहाँ आ गये। वेद वेदांत मंत्र यंत्र तंत्र 17 पुराण गंगा आदि नदियां और समस्त तीर्थ मूर्तिमान होकर कथा सुनने के लिए प्रकट हो गए क्योंकि—-
तत्रैव गगां यमुना त्रिवेणी गोदावरी सिन्धु सरस्वती च ।
वसन्ति सर्वाणि तीर्थानि तत्र यत्राच्युतो दार कथा प्रसंगः ।।
जहां भगवान श्री हरि की कथा होती है वहां गंगा आदि नदियां समस्त तीर्थ है मूर्तिमान होकर प्रकट हो जाते हैं, आनन्दवन में भागवत कथा पारायण का आयोजन किया गया, मंडप बनाया गया। चारों दिशाओं में भागवत कथा समारोह आयोजन की चर्चा होने लगी ।
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