भक्तमालकी रचनाके लिये श्रीनाभाजीको आज्ञा प्राप्त होना bhaktamal katha

भक्तमालकी रचनाके लिये श्रीनाभाजीको आज्ञा प्राप्त होना bhaktamal katha

मानसी स्वरूप में लगे हैं अग्रदास जू वै करत बयार नाभा मधुर सँभार सों।

चढ्यो हो जहाज पै जु शिष्य एक आपदा में कस्यौ ध्यान खिच्यो मन छूट्यो रूप सार सों।

कहत समर्थ गयो बोहित बहुत दूरि आवो छबि पूरि फिर ढरो ताहि ढार सों।

लोचन उघारि कैं निहारि कह्यौ बोल्यौ कौन! वही जौन पाल्यो सीथ दै दै सुकुवार सों॥१०॥

एक बारकी बात है, स्वामी श्रीअग्रदेवजी महाराज मानसी सेवामें संलग्न थे और श्रीनाभाजी अतिकोमल एवं मधुर संरक्षणके साथ धीरे-धीरे प्रेमसे पंखा कर रहे थे। उसी समय श्रीअग्रदासजीका एक शिष्य जहाजपर चढ़ा हुआ समुद्रकी यात्रा कर रहा था। उसका जहाज संकट (भँवर)-में फँस गया। चालक निरुपाय हो गये, तब उस शिष्यने श्रीअग्रदासजीका स्मरण किया। उ

ससे श्रीअग्रदासजीका ध्यान अतिसुन्दरस्वरूप भगवान् श्रीसीतारामजीकी सेवासे हट गया। गुरुदेवकी मानसी सेवामें विघ्न समझकर श्रीनाभाजीने पंखेकी वायुसे जहाजको संकटसे पार कर दिया और श्रीगुरुदेवसे नम्र निवेदन किया कि प्रभो! जहाज तो बहुत दूर निकल गया, अब आप उसी शोभापूर्ण भगवान्की सेवामें लग जाइये। यह सुनकर श्रीअग्रदेवजीने आँखें खोली और नाभाजीकी ओर देखकर कहा कि अभी कौन बोला? श्रीनाभाजीने हाथ जोड़कर कहा-जिसे आपने बचपनसे सीथ-प्रसाद देकर पाला है, आपके उसी दासने प्रार्थना की है॥ १० ॥

अचरज दयो नयो यहाँ लौं प्रवेश भयो, मन सुख छयो, जान्यो सन्तन प्रभाव को।

आज्ञा तब दई, यह भई तोपै साधु कृपा उनहीं को रूप गुन कहो हिये भाव को’॥

बोल्यो कर जोरि, ‘याको पावत न ओर छोर, गाऊँ रामकृष्ण नहीं पाऊँ भक्ति दाव को।

कही समुझाइ, ‘वोई हृदय आइ कहैं सब, जिन लै दिखाय दई सागर में नाव को’॥११॥ 
(श्रीनाभाजीका उपर्युक्त कथन सुनकर श्रीअग्रदेवजीको) महान् तथा नवीन आश्चर्य हुआ। मनमें विचारने लगे कि इसका यहाँ मेरी मानसी-सेवातक प्रवेश कैसे हो गया और यहींसे जहाजकी रक्षा कैसे की? विचार करते ही उनके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई।

वे जान गये कि यह सब सन्तोंकी सेवा तथा उनके सीथ-प्रसाद-ग्रहणका ही प्रभाव है, जिससे ऐसी दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गयी है। तब श्रीअग्रदेवजीने आज्ञा दी कि ‘तुम्हारे ऊपर यह – साधुओंकी कृपा हुई है। अब तुम उन्हीं साधु-सन्तोंके गुण, स्वरूप और हृदयके भावोंका वर्णन करो।’

इस आज्ञाको सुनकर श्रीनाभाजीने हाथ जोड़कर कहा-‘भगवन् ! मैं श्रीराम-कृष्णके चरित्रोंको तो कुछ गा भी सकता हूँ, परंतु सन्तोंके चरित्रोंका ओर-छोर नहीं पा सकता हूँ; क्योंकि उनके रहस्य अतिगम्भीर हैं, मैं भक्तोंकी भक्तिके रहस्यको नहीं पा सकता।

‘ तब श्रीअग्रदेवजीने समझाकर कहा–’जिन्होंने तुम्हें मेरी मानसी सेवा और सागरमें नाव दिखा दी, वे ही भक्त भगवान् तुम्हारे हृदयमें आकर सब रहस्योंको कहेंगे और अपना स्वरूप दिखायेंगे’ ॥ ११ ॥

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