भक्तमाल माहात्म्यवर्णन bhaktamal mahatmya katha

भक्तमाल माहात्म्यवर्णन bhaktamal mahatmya katha

बड़े भक्तिमान, निशिदिन गुणगान करैं हरै जगपाप, जाप हियो परिपूर है।

जानि सुख मानि हरिसंत सनमान सचे बचेऊ जगतरीति, प्रीति जानी मूर है

तऊ दुराराध्य, कोऊ कैसे कै अराधि सकै, समझो न जात, मन कंप भयो चूर है। ।

शोभित तिलक भाल माल उर राजै, ऐ पै बिना भक्तमाल भक्तिरूप अति दूर है।।८।।

कोई बड़े साधक कैसे ही अच्छे भक्तिमान् हों, रात-दिन भगवान्के गुणोंका गान करते हों, संसारके पापोंको हरते हों, जप-ध्यान आदिसे उनका हृदय परिपूर्ण हो, श्रीहरि और सन्तोंके स्वरूपको जानकर सचाईसे उनकी सेवा और उनका आदर भी करते हों तथा उसमें सुख भी मानते हों-जगत्के मायिक प्रपंचोंसे बचे भी हों और प्रेमको ही मूलतत्त्व मानते हों-इतनेपर भी भक्तिकी आराधना कठिन है, उसकी आराधना कोई कैसे कर सकता है  विशुद्ध भक्तिका स्वरूप समझमें नहीं आता है, मन कम्पित होकर शिथिल हो जाता है। चाहे मस्तकपर सुन्दर तिलक और गलेमें कण्ठी माला सुशोभित हो, परंतु बिना भक्तमाल-पठन, श्रवण, है बहुत दूर है, उसका जानना असम्भव है ॥

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भक्तमाल bhaktamal katha all part

भक्तमाल माहात्म्यवर्णन bhaktamal mahatmya katha

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