Saturday, October 12, 2024
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gopi geet lyrics गोपिकागीत-जयति तेऽधिकं

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अथैकत्रिंशोऽध्यायः गोपिकागीत

॥ गोपीगीतम् ॥

गोप्य ऊचुः ।

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः, श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।

दयित दृश्यतां दिक्षु तावका- स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १॥

 

गोपियाँ विरहावेशमें गाने लगीं – ‘प्यारे ! तुम्हारे जन्मके कारण वैकुण्ठ आदि लोकोंसे भी व्रजकी महिमा बढ़ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलताकी देवी लक्ष्मीजी अपना निवासस्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य-निरन्तर निवास करने लगी हैं, इसकी सेवा करने लगी हैं। परन्तु प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणोंमें ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं, वन-वनमें भटककर तुम्हें ढूँढ़ रही हैं॥ १॥

शरदुदाशये साधुजातस- त्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।

सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥ २॥

 

हमारे प्रेमपूर्ण हृदयके स्वामी ! हम तुम्हारी बिना मोलकी दासी हैं। तुम शरत्कालीन जलाशयमें सुन्दर-से- सुन्दर सरसिजकी कर्णिकाके सौन्दर्यको चुरानेवाले नेत्रोंसे हमें घायल कर चुके हो। हमारे मनोरथ पूर्ण करनेवाले प्राणेश्वर ! क्या नेत्रोंसे मारना वध नहीं है ? अस्त्रोंसे हत्या करना ही वध है ?॥ २॥

विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसा- द्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् ।

वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया- दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३॥

पुरुषशिरोमणे ! यमुनाजीके विषैले जलसे होनेवाली मृत्यु, अजगरके रूपमें खानेवाले अघासुर, दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३ इन्द्रकी वर्षा, आँधी, बिजली, दावानल, वृषभासुर और न खलु गोपिकानन्दनो भवा- नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् विखनसार्थितो विश्वगुप्तये व्योमासुर आदिसे एवं भिन्न-भिन्न अवसरोंपर सब प्रकारके भयोंसे तुमने बार – बार हमलोगोंकी रक्षा की है ॥ ३ ॥

न खलु गोपिकानन्दनो भवा- नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।

विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥ ४॥

तुम केवल यशोदानन्दन ही नहीं हो; समस्त शरीरधारियोंके हृदयमें रहनेवाले उनके साक्षी हो, अन्तर्यामी हो। सखे! ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे विश्वकी रक्षा करनेके लिये तुम यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हो ॥ ४ ॥

विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।

करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥ ५॥

अपने प्रेमियोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेवालोंमें अग्रगण्य यदुवंशशिरोमणे ! जो लोग जन्म – मृत्युरूप संसारके चक्करसे डरकर तुम्हारे चरणोंकी शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे करकमल अपनी छत्र- छायामें लेकर अभय कर देते हैं। हमारे प्रियतम ! सबकी लालसा-अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मीजीका हाथ पकड़ा है, हमारे सिरपर रख दो ॥ ५ ॥

व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।

भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो जलरुहाननं चारु दर्शय ॥ ६॥

व्रजवासियोंके दुःख दूर करनेवाले वीरशिरोमणि श्यामसुन्दर! तुम्हारी मन्द मन्द मुसकानकी एक उज्ज्वल रेखा ही तुम्हारे प्रेमीजनोंके सारे मान-मदको चूर-चूर कर देनेके लिये पर्याप्त है। हमारे प्यारे सखा! हमसे रूठो मत, प्रेम करो। हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणोंपर निछावर हैं। हम अबलाओंको अपना वह परम सुन्दर साँवला – साँवला मुखकमल दिखलाओ ॥ ||

प्रणतदेहिनां पापकर्शनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् ।

फणिफणार्पितं ते पदांबुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥ ७॥

तुम्हारे चरणकमल शरणागत प्राणियोंके सारे पापोंको नष्ट कर देते हैं । वे समस्त सौन्दर्य, माधुर्यकी खान हैं और स्वयं लक्ष्मीजी उनकी सेवा करती रहती हैं। तुम उन्हीं चरणोंसे हमारे बछड़ोंके पीछे-पीछे चलते हो और हमारे लिये उन्हें साँपके फणोंतकपर रखनेमें भी तुमने संकोच नहीं किया । हमारा हृदय तुम्हारी विरहव्यथाकी आगसे जल रहा है तुम्हारी मिलनकी आकांक्षा हमें सता रही है। तुम अपने वे ही चरण हमारे वक्ष:स्थलपर रखकर हमारे हृदयकी ज्वालाको शान्त कर दो ॥७॥

मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।

विधिकरीरिमा वीर मुह्यती- रधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥ ८॥

कमलनयन ! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है! उसका एक-एक पद, एक-एक शब्द, एक-एक अक्षर मधुरातिमधुर है। बड़े- बड़े विद्वान् उसमें रम जाते हैं। उसपर अपना सर्वस्व निछावर कर देते हैं। तुम्हारी उसी वाणीका रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं। दानवीर ! अब तुम अपना दिव्य अमृतसे भी मधुर अधर-रस पिलाकर हमें जीवन-दान दो, छका दो ॥ ८ ॥

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।

श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥ ९॥

तुम्हारी लीलाकथा भी अमृतस्वरूप है। विरहसे सताये हुए लोगोंके लिये तो वह जीवन सर्वस्व ही है । बड़े-बड़े ज्ञानी महात्माओं – भक्त कवियोंने उसका गान किया है, वह सारे पाप ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवणमात्रसे परम मंगल – परम कल्याणका दान भी करती है । वह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है। जो तुम्हारी उस लीला – कथाका गान करते हैं, वास्तवमें भूलोकमें वे ही सबसे बड़े दाता हैं ॥ ९ ॥

प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् ।

रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥ १०॥

प्यारे ! एक दिन वह था, जब तुम्हारी प्रेमभरी हँसी और चितवन तथा तुम्हारी तरह- तरहकी क्रीडाओंका ध्यान करके हम आनन्दमें मग्न हो जाया करती थीं। उनका ध्यान भी परम मंगलदायक है उसके बाद तुम मिले। तुमने एकान्तमें हृदयस्पर्शी ठिठोलियाँ कीं, प्रेमकी बातें कहीं। हमारे कपटी मित्र ! अब वे सब बातें याद आकर हमारे मनको क्षुब्ध किये देती हैं॥१०॥

चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून्न लिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।

शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥ ११॥

हमारे प्यारे स्वामी! तुम्हारे चरण कमलसे भी सुकोमल और सुन्दर हैं। जब तुम गौओंको चरानेके लिये व्रजसे निकलते हो तब यह सोचकर कि तुम्हारे वे युगल चरण कंकड़, तिनके और कुश – काँटे गड़ जानेसे कष्ट पाते होंगे, हमारा मन बेचैन हो जाता है। हमें बड़ा दुःख होता है ॥ ११ ॥

दिनपरिक्षये नीलकुन्तलै- र्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् ।

घनरजस्वलं दर्शयन्मुहु- र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥ १२॥

दिन ढलनेपर जब तुम वनसे घर लौटते हो, तो हम देखती हैं कि तुम्हारे मुखकमलपर नीली- नीली अलकें लटक रही हैं और गौओंके खुरसे उड़-उड़कर घनी धूल पड़ी हुई है । हमारे वीर प्रियतम ! तुम अपना वह सौन्दर्य हमें दिखा-दिखाकर हमारे हृदयमें मिलनकी आकांक्षा- प्रेम उत्पन्न करते हो ॥ १२ ॥

प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्डनं ध्येयमापदि ।

चरणपङ्कजं शंतमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥ १३॥

प्रियतम ! एकमात्र तुम्हीं हमारे सारे दुःखोंको मिटानेवाले हो । तुम्हारे चरण- कमल शरणागत भक्तोंकी समस्त अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाले हैं। स्वयं लक्ष्मीजी उनकी सेवा करती हैं और पृथ्वीके तो वे भूषण ही हैं। आपत्तिके समय एकमात्र उन्हींका चिन्तन करना उचित है, जिससे सारी आपत्तियाँ कट जाती हैं। कुंजविहारी ! तुम अपने वे परम कल्याणस्वरूप चरणकमल हमारे वक्ष:- स्थलपर रखकर हृदयकी व्यथा शान्त कर दो ॥ १३ ॥

सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।

इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥ १४॥

वीरशिरोमणे! तुम्हारा अधरामृत मिलनके सुखको— आकांक्षाको बढ़ानेवाला है। वह विरहजन्य समस्त शोक-सन्तापको नष्ट कर देता है। यह गानेवाली नृणां बाँसुरी भलीभाँति उसे चूमती रहती है । जिन्होंने एक बार उसे पी लिया, उन लोगोंको फिर दूसरों और दूसरोंकी आसक्तियोंका स्मरण भी नहीं होता । हमारे वीर! अपना वही अधरामृत हमें वितरण करो, पिलाओ॥ १४॥

अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।

कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥ १५॥

 

प्यारे ! दिनके समय जब तुम वनमें विहार करनेके लिये चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिये एक-एक क्षण युगके समान हो जाता है और जब तुम सन्ध्याके समय लौटते हो तथा घुँघराली अलकोंसे युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविन्द हम  देखती हैं, उस समय पलकोंका गिरना हमारे लिये भार हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है कि इन नेत्रोंकी पलकोंको बनानेवाला विधाता मूर्ख है ॥ १५ ॥

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा- नतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।

गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥ १६॥

प्यारे श्यामसुन्दर ! हम अपने पति – पुत्र, भाई-बन्धु और कुल- परिवारका त्यागकर, उनकी इच्छा और आज्ञाओंका उल्लंघन करके तुम्हारे पास आयी हैं । हम तुम्हारी एक-एक चाल जानती हैं, संकेत समझती हैं और तुम्हारे मधुर गानकी गति समझकर, उसीसे मोहित होकर यहाँ आयी हैं। कपटी ! इस प्रकार रात्रिके समय आयी हुई युवतियोंको तुम्हारे सिवा और कौन छोड़ सकता है॥१६॥

रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् ।

बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥ १७॥

 

प्यारे ! एकान्तमें तुम मिलनकी आकांक्षा, प्रेम-भावको जगानेवाली बातें करते थे। ठिठोली करके हमें छेड़ते थे । तुम प्रेमभरी चितवनसे हमारी ओर देखकर मुसकरा देते थे और हम देखती थीं तुम्हारा वह विशाल वक्षःस्थल, जिसपर लक्ष्मीजी नित्य-निरन्तर निवास करती हैं । तबसे अबतक निरन्तर हमारी लालसा बढ़ती ही जा रही है और हमारा मन अधिकाधिक मुग्ध होता जा रहा है ॥ १७॥

व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।

त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥ १८॥

प्यारे! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति व्रज – वनवासियोंके सम्पूर्ण दुःख – तापको नष्ट करनेवाली और विश्वका पूर्ण मंगल करनेके लिये है । हमारा हृदय तुम्हारे प्रति लालसासे भर रहा है। कुछ थोड़ी-सी ऐसी ओषधि दो, जो तुम्हारे निजजनोंके हृदयरोगको सर्वथा निर्मूल कर दे ॥

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष  भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।

तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित्कू र्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥ १९॥

तुम्हारे चरण कमलसे भी सुकुमार हैं । उन्हें हम अपने कठोर स्तनोंपर भी डरते-डरते बहुत धीरेसे रखती हैं कि कहीं उन्हें चोट न लग जाय । उन्हीं चरणोंसे तुम रात्रिके समय घोर जंगलमें छिपे -छिपे भटक रहे हो! क्या कंकड़, पत्थर आदिकी चोट लगनेसे उनमें पीड़ा नहीं होती ? हमें तो इसकी सम्भावनामात्रसे ही चक्कर आ रहा है। हम अचेत होती जा रही हैं। श्रीकृष्ण ! श्यामसुन्दर ! प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिये है, हम तुम्हारे लिये जी रही हैं, हम तुम्हारी हैं ॥ १९ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडायां गोपीगीतं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१॥

 

श्रीशुक उवाच

इति गोप्यः प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यश्च चित्रधा ।

रुरुदुः सुस्वरं राजन् कृष्णदर्शनलालसाः ॥

तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः ।

पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः ॥ १ २

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! भगवान्‌की प्यारी गोपियाँ विरहके आवेशमें इस प्रकार भाँति- भाँतिसे गाने और प्रलाप करने लगीं। अपने कृष्ण- प्यारेके दर्शनकी लालसासे वे अपनेको रोक न सकीं, करुणाजनक सुमधुर स्वरसे फूट-फूटकर रोने लगीं ॥ १ ॥

ठीक उसी समय उनके बीचोबीच भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उनका मुखकमल मन्द मन्द मुसकानसे खिला हुआ था । गलेमें वनमाला थी, पीताम्बर धारण किये हुए थे । उनका यह रूप क्या था, सबके मनको मथ डालनेवाले कामदेवके मनको भी मथनेवाला था॥ २॥

कोटि-कोटि कामोंसे भी सुन्दर परम मनोहर प्राणवल्लभ श्यामसुन्दरको आया देख गोपियोंके नेत्र प्रेम और आनन्दसे खिल उठे। वे सब – की – सब एक ही साथ इस प्रकार उठ खड़ी हुईं, मानो प्राणहीन शरीरमें दिव्य प्राणोंका संचार हो गया हो, शरीरके एक-एक अंगमें नवीन चेतना – नूतन स्फूर्ति आ गयी हो ॥ ३ ॥

एक गोपीने बड़े प्रेम और आनन्दसे श्रीकृष्णके करकमलको अपने दोनों हाथोंमें ले लिया और वह धीरे-धीरे उसे सहलाने लगी। दूसरी गोपीने उनके चन्दनचर्चित भुजदण्डको अपने कंधेपर रख लिया ॥ ४ ॥

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