रुक्मिणी जी का श्रीकृष्ण को प्रेम पत्र rukmani ji ka patra
श्रुत्वा गुणान् भुवनसुन्दर शृण्वतां ते
निर्विश्य कर्णविवरैर्हरतोऽङ्गतापं।
रूपं दृशं दृशिमतां अखिलार्थलाभं
त्वय्यच्युताविशति चित्तमपत्रपं मे॥१
रुक्मिणीजीने कहा है— त्रिभुवनसुन्दर! आपके गुणोंको, जो सुननेवालोंके कानोंके रास्ते हृदयमें प्रवेश करके एक-एक अंगके ताप, जन्म-जन्मकी जलन बुझा देते हैं तथा अपने रूप-सौन्दर्यको जो नेत्रवाले जीवोंके नेत्रोंके लिये धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – चारों पुरुषार्थोंके फल एवं स्वार्थ- परमार्थ, सब कुछ श्रवण करके प्यारे अच्युत ! मेरा चित्त लज्जा, शर्म सब कुछ छोड़कर आपमें ही प्रवेश कर रहा है॥
śrutvā guṇān bhuvanasundara śṛṇvatāṁ te
nirviśya karṇavivarairharato’ṅgatāpaṁ|
rūpaṁ dṛśaṁ dṛśimatāṁ akhilārthalābhaṁ
tvayyacyutāviśati cittamapatrapaṁ me||1
का त्वा मुकुन्द महती कुलशीलरूप
विद्यावयोद्रविणदामभिरात्मतुल्यं।
धीरा पतिं कुलवती न वृणीत कन्या
काले नृसिंह नरलोकमनोऽभिरामं॥२
प्रेमस्वरूप श्यामसुन्दर ! चाहे जिस दृष्टिसे देखें; कुल, शील, स्वभाव, सौन्दर्य, विद्या, अवस्था, धन-धाम- सभीमें आप अद्वितीय हैं, अपने ही समान हैं। मनुष्यलोकमें जितने भी प्राणी हैं, सबका मन आपको देखकर शान्तिका अनुभव करता है, आनन्दित होता है। अब पुरुषभूषण ! आप ही बतलाइये – ऐसी कौन-सी कुलवती महागुणवती और धैर्यवती कन्या होगी, जो विवाह के योग्य समय आनेपर आपको ही पतिके रूपमें वरण न करेगी ? ॥
kā tvā mukunda mahatī kulaśīlarūpa
vidyāvayodraviṇadāmabhirātmatulyaṁ|
dhīrā patiṁ kulavatī na vṛṇīta kanyā
kāle nṛsiṁha naralokamano’bhirāmaṁ||2
तन्मे भवान् खलु वृतः पतिरङ्ग जाया-
मात्मार्पितश्च भवतोऽत्र विभो विधेहि।
मा वीरभागमभिमर्शतु चैद्य आरात्-
गोमायुवद् मृगपतेर्बलिमंबुजाक्ष॥३
इसीलिये प्रियतम ! मैंने आपको पतिरूपसे वरण किया है। मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ । आप अन्तर्यामी हैं। मेरे हृदयकी बात आपसे छिपी नहीं है । आप यहाँ पधारकर मुझे अपनी पत्नीके रूपमें स्वीकार कीजिये । कमलनयन ! प्राणवल्लभ ! मैं आप – सरीखे वीरको समर्पित हो चुकी हूँ, आपकी हूँ। अब जैसे सिंहका भाग सियार छू जाय, वैसे कहीं शिशुपाल निकटसे आकर मेरा स्पर्श न कर जाय ॥
tanme bhavān khalu vṛtaḥ patiraṅga jāyā-
mātmārpitaśca bhavato’tra vibho vidhehi|
mā vīrabhāgamabhimarśatu caidya ārat-
gomāyuvad mṛgapaterbalimaṁbujākṣa||3
पूर्तेष्टदत्तनियमव्रतदेवविप्र-
गुर्वर्च्चनादिभिरलं भगवान् परेशः।
आराधितो यदि गदाग्रज एत्य पाणिं
गृह्ण्णातु मे न दमघोषसुतादयोऽन्न्ये॥४
मैंने यदि जन्म- जन्ममें पूर्त (कुआँ, बावली आदि खुदवाना), इष्ट ( यज्ञादि करना), दान, नियम, व्रत तथा देवता, ब्राह्मण और गुरु आदिकी पूजाके द्वारा भगवान् परमेश्वरकी ही आराधना की हो और वे मुझपर प्रसन्न हों तो भगवान् श्रीकृष्ण आकर मेरा पाणिग्रहण करें; शिशुपाल अथवा दूसरा कोई भी पुरुष मेरा स्पर्श न कर सके॥ ४० ॥
pūrteṣṭadattaniyamavratadevavipra-
gurvarccanādibhiralaṁ bhagavān pareśaḥ|
ārādhito yadi gadāgraja etya pāṇiṁ
gṛhṇṇātu me na damaghoṣasutādayo’nnye||4
श्वोभाविनि त्वमजितोद्वहने विदर्भान्
गुप्तः समेत्य पृतनपतिभिः परीतः।
निर्म्मथ्य चैद्यमगधेन्द्रबलं प्रसह्य
मां राक्षसेन विधिनोद्वह वीर्यशुल्कां॥५
प्रभो! आप अजित हैं। जिस दिन मेरा विवाह होनेवाला हो उसके एक दिन पहले आप हमारी राजधानीमें गुप्तरूपसे आ जाइये और फिर बड़े-बड़े सेनापतियोंके साथ शिशुपाल तथा जरासन्धकी सेनाओं को मथ डालिये, तहस-नहस कर दीजिये और बलपूर्वक राक्षस- विधिसे वीरताका मूल्य देकर मेरा पाणिग्रहण कीजिये ॥ ४१ ॥
śvobhāvini tvamajitodvahane vidarbhān
guptaḥ sametya pṛtanapatibhiḥ parītaḥ|
nirmmathya caidyamagadhendrabalaṁ prasahya
māṁ rākṣasena vidhinodvaha vīryaśulkāṁ||5
अन्तःपुरान्तरचरीमनिहत्य बन्धुं
स्त्वामुद्वहे कथमिति प्रवदाम्युपायं।
पूर्वेद्युरस्ति महती कुलदेवियात्रा
यस्यां बहिर्न्नवावधूर्ग्गिरिजामुपेयात्॥६
यदि आप यह सोचते हों कि ‘तुम तो अन्त: पुरमें – भीतरके जनाने महलोंमें पहरेके अंदर रहती हो, तुम्हारे भाई-बन्धुओंको मारे बिना मैं तुम्हें कैसे ले जा सकता हूँ?’ तो इसका उपाय मैं आपको बतलाये देती हूँ। हमारे कुलका ऐसा नियम है कि विवाहके पहले दिन कुलदेवीका दर्शन करनेके लिये एक बहुत बड़ी यात्रा होती है, जुलूस निकलता है— जिसमें विवाही जानेवाली कन्याको, दुलहिनको नगरके बाहर गिरिजादेवीके मन्दिरमें जाना पड़ता है॥ ४२ ॥
antaḥpurāntaracarīmanihatya bandhuṁ
stvāmudvahe kathamiti pravadāmyupāyaṁ|
pūrvedyurasti mahatī kuladeviyātrā
yasyāṁ bahirnnavāvadhūrggirijāmupeyāt||6
यस्याङ्घ्रिपङ्कजरजस्नपनं महान्तो
वाञ्चन्त्युमापतिरिवात्मतमोपहत्यै
यह्यंबुजाक्ष न लभेय भवत्प्रादं
जह्यामसून् व्रतकृशान् शतजन्मभिः स्यात्॥७
कमलनयन ! उमापति भगवान् शंकरके समान बड़े-बड़े महापुरुष भी आत्मशुद्धिके लिये आपके चरणकमलोंकी धूलसे स्नान करना चाहते हैं। यदि मैं आपका वह प्रसाद, आपकी वह चरणधूल नहीं प्राप्त कर सकी तो व्रतद्वारा शरीरको सुखाकर प्राण छोड़ दूँगी । चाहे उसके लिये सैकड़ों जन्म क्यों न लेने पड़ें, कभी-न-कभी तो आपका वह प्रसाद अवश्य ही मिलेगा ॥ ४३ ॥
yasyāṅghripaṅkajarajasnapanaṁ mahānto
vāñcantyumāpatirivvatmatamopahatyai
yarhyambujākṣa na labheya bhavatprādaṁ
jahyāmasūn vratakṛśān śatajanmabhiḥ syāt||7
ब्राह्मणदेवताने कहा— यदुवंशशिरोमणे ! यही रुक्मिणी अत्यन्त गोपनीय सन्देश हैं, जिन्हें लेकर मैं आपके पास आया हूँ।
(Srimad Bhagavatamahapuranam Dashamaskanadm
Chapter
52–slokas 37 to 43)
( श्रीमद भागवतमहापुराणे दशमस्कन्दे अध्यायः 52 श्लोकाः 37–43)
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