Saturday, October 5, 2024
Homebhagwat katha 335भागवत कथा-13 sampurna bhagwat katha in hindi

भागवत कथा-13 sampurna bhagwat katha in hindi

भागवत कथा sampurna bhagwat katha in hindi

भाग-13

[ चतुर्थ स्कंध ]

( अथ पंचविंशति अध्यायः)

पुरंजन उपाख्यान का प्रारंभ- शिवजी से नारायण स्तोत्र प्राप्त कर प्रचेता समुद्र में उसका जप करने लगे ! उन्हीं दिनों राजा प्राचीनबर्हि कर्मकांड में रम गए थे नारद जी ने उन्हें उपदेश दिया, नारदजी बोले राजा इन यज्ञो में जो निर्दयता पूर्वक जिन पशुओं की कि तुमने बलि दी है उन्हें आकाश में देखो यह सब तुम्हें खाने को तैयार हैं |

अब तुम एक उपाख्यान सुनो प्राचीन काल में एक पुरंजन नाम का एक राजा था उसके अभिज्ञात नाम का एक मित्र था, हिमालय के दक्षिण भारत वर्ष में नव द्वार का नगर देखा उसने उस में प्रवेश किया वहां उसने एक सुंदरी को आते हुए देखा उसके साथ दस सेवक हैं, जो सौ सौ नायिकाओं के पति थे , एक पांच फन वाला सांप उनका द्वारपाल था, पुरंजन ने उस सुंदरी से पूछा देवी आप कौन हैं ?

उसने बताया कि मेरा नाम पुरंजनी  है तब तो पुरंजन बड़ा प्रसन्न हुआ और बोला देवी मेरा नाम भी पुरंजन है आप भी अविवाहिता हैं और मैं भी , क्यों ना हम एक हो लें विवाह करके दोनों विवाह सूत्र बंंध गए और सौ वर्ष तक रहकर उस पूरी में उन्होंने भोग भोगा नव द्वार कि उस पूरी से राजा पुरंजन अलग-अलग द्वारों से अलग-अलग देशों के लिए भ्रमण करता था और पुरंजनी के कहने के अनुसार चलता था | वह कहती थी बैठ जाओ तो बैठ जाता था, कहती थी उठ जाओ तो उठ जाता था इस प्रकार पुरंजन पुरंजनी के द्वारा ठगा गया |

इति पंचविंशोअध्यायः

( अथ षड्विंशो अध्यायः )

राजा पुरंजन का शिकार खेलने वन में जाना और रानी का कुपित होना- एक दिन राजा पुरंजन के मन में शिकार खेलने की इच्छा हुई, यद्यपि वह अपनी पत्नी को एक पल भी नहीं छोड़ता था पर आज वह बिना पत्नी को पूंछे शिकार के लिए चला गया | वहां वन में निर्दयता पूर्वक जंगली जीवो का शिकार किया अंत में जब थक कर भूख प्यास लगी तो वह घर को लौट आया वहां उसने स्नान भोजन कर विश्राम करना चाहा उसे अपने पत्नी की याद आई वह उसे ढूंढने लगा नहीं मिलने पर उसने दासियों से पूछा , दासियों बताओ तुम्हारी स्वामिनी कहां हैं, दासिया बोली स्वामी आज ना जाने क्यों वह बिना बिछौने कोप भवन पर धरती पर पड़ी है |

पुरंजन समझ गया कि आज मैं बिना पूछे शिकार को चला गया यही कारण है , वह उसके पास गया क्षमा याचना की खुशामद की हाथ जोड़े पैर छुए और अंत में अपनी प्रिया को मना लिया |

इति षड्विंशो अध्यायः

( अथ सप्तविंशों अध्यायः )

पुरंजन पुरी पर चंडवेग की चढ़ाई तथा काल कन्या का चरित्र- अपनी प्रिया को इस तरह मना कर वह उसके मोंह फांस में ऐसा बंध गया कि उसे समय का कुछ भान ही नहीं रहा उसके ग्यारह सौ पुत्र एक सौ दस कन्याएं हुई | इन सब का विवाह कर दिया और उनके भी प्रत्येक के सौ सौ पुत्र हुए उसका वंश खूब फैल गया , अंत में वृद्ध हो गया चण्डवेग नाम के गंधर्व राज ने तीन सौ साठ गंधर्व और इतनी ही गंधर्वियां के साथ पुरंजन पुर पर चढ़ाई कर दी वह पांच फन का सर्प अकेले ही उन शत्रुओं का सामना करते रहा | अंत में उसे बल हीन देख पुरंजन को बड़ी चिंता हुई | नारद जी बोले हे प्राचीनबर्हि राजा, एक समय काल की कन्या जरा घूमते घूमते हुए मुझे मिली वह मुझसे विवाह करना चाहती थी कि मेरे मना करने पर मेरी प्रेरणा से वह यवनराज भय के पास गई, यवन राज भय ने उससे एक बात कही मेरी सेना को साथ लेकर तुम बल पूर्वक लोगों को भोगो |

इति सप्तविंशो अध्यायः

भागवत कथा sampurna bhagwat katha in hindi

( अथ अष्टाविंशो अध्यायः )

पुरंजन को स्त्री योनि की प्राप्ति और अविज्ञात के उपदेश से उसका मुक्त होना- काल कन्या जरा ने यमराज की सेना के साथ पुरंजन पूरी को घेर लिया, चंडवेग पहले से ही उसे लूट रहा था अंत में पुरंजन घबराया और अपनी पत्नी से लिपट कर रोने लगा और अंत में स्त्री के वियोग में अपना शरीर छोड़ दिया उसे दूसरे जन्म में स्त्री योनि में जन्म लेना पड़ा, वहां उसका एक राजा के साथ विवाह हो गया काल बस कुछ समय पश्चात उसका पति शांत हो गया वे नितांत अकेली रह गई , शरीर कृष हो गया वह पति के लिए रोती रहती थी कि एक बार एक ब्राह्मण उसे समझाने लगे देवी तुम कौन हो किसके लिए रो रही हो मुझे पहचानती हो मैं वही पुराना तुम्हारा अभिज्ञात सखा हूं , नारद जी बोले हे प्राचीनबर्हि इस उपाख्यान से पता चलता है, एक मात्र परमात्मा का भजन ही सार है |

इति अष्टाविंशो अध्यायः

( अथ एकोनत्रिंशो अध्यायः )

पुरंजनोपाख्यान का तात्पर्य- नारद जी बोले हे प्राचीनबर्हि अब इस पुरंजन उपाख्यान का तात्पर्य सुनो यह जीव ही पुरंजन है, नौ द्वार वाला यह शरीर ही पुरंजन की पूरी है, बुद्धि ही पुरंजनी है,  दस इंद्रियां ही दस सेवक हैं, एक एक के सौ सौ सेविकाएं इंद्रियों की वृत्तियां है, पंञ्च प्राण हि पांच फन का सांप है , ईश्वर ही अभिज्ञात सखा है | इस शरीर पूरी को तीन सौ साठ दिन उतनी ही रात्रियां लूट रहे हैं , काल कन्या जरा बुढ़ापा है जो बलपूर्वक आता है | अंत में पुरी नष्ट होना ही मर जाना है | जिसकी याद में मरता है वहीं योनि दूसरे जन्म मे मिलती है, ईश्वर ही अंत में मुक्ति देता है |

इति एकोनत्रिंशो अध्यायः

( अथ त्रिंशो अध्यायः )

प्रचेताओं को भगवान विष्णु का वरदान- अपने पिता की आज्ञा से प्रचेताओं ने समुद्र में दस हजार वर्ष तक शिवजी के दिए हुए स्तोत्र से भगवान नारायण की उपासना की, भगवान नारायण ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए और कहा राजपुत्रो तुम्हारा कल्याण हो, तुमने पिता की आज्ञा से सृष्टि रचना करने के लिए तपस्या की है | अतः तुम कण्व ऋषि  के तप को नष्ट करने के लिए भेजी  प्रम्लोचा अप्सरा से उत्पन्न कन्या, जिसे छोड़कर स्वर्ग चली गई और जिसका पालन पोषण वृक्षों ने किया तुम उससे विवाह करो, तुम्हारे एक बड़ा विख्यात पुत्र होगा जिसकी संतान से सारा विश्व भर जाएगा, अब तुम अपनी इच्छा का वरदान मांग लो |
प्रचेताओं नें भगवान की स्तुति की और कहा प्रभु जब हम एक संसार में रहें आपको नहीं भूले यही वरदान आप दीजिए, भगवान एवमस्तु कहकर अपने धाम को चले गए और प्रचेताओं ने वृक्षों की कन्या मारीषा से विवाह किया जिससे उनके दक्ष नामक एक तेजस्वी पुत्र हुआ जिन्हें ब्रह्मा जी ने प्रजापतियों का अधिपति नियुक्त किया |

इति त्रिशों अध्यायः

( अथ एकत्रिंशो अध्यायः )

प्रचेताओं को नारद जी का उपदेश और उनका परम पद लाभ- एक लाख वर्ष बीत जाने पर प्रचेताओं को भगवान के भजन का ध्यान आया और वह ग्रहस्थी छोड़ वन में भगवान के भजन को चल दिए वहां उन्हें नारद जी मिले जिन्होंने प्रचेताओं को परमात्म तत्व का उपदेश दिया जिसका भजन कर प्रचेता परमधाम को चले गए और मैत्रेय जी ने भी विदुर जी को विदा कर दिया |

इति एकत्रिशों अध्यायः
इति चतुर्थ स्कन्ध समाप्त

भागवत कथा sampurna bhagwat katha in hindi

अथ पंचमः स्कन्ध प्रारम्भ

( अथ प्रथमो अध्यायः )

प्रियव्रत चरित्र- स्वायंभू मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत परमात्मा के परम भक्त थे, मनु जी ने जब उन्हें राज्य देना चाहा तो उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया , इस पर उन्हें समझाने के लिए स्वयं ब्रह्मा नारद आदि आए और उन्हें समझाया कि सीधे-सीधे सन्यास लेने की अपेक्षा ग्रहस्थ धर्म के बाद जो सन्यास लिया जाता है वह अधिक उत्तम है |

इसलिए पहले राज्य कर लें, फिर सन्यास लें पितामह ब्रह्माजी की बात प्रियव्रत ने शिरोधार्य की और उन्होंने प्रजापति विश्वकर्मा की पुत्री बर्हिष्मति से विवाह किया उनके दस पुत्र हुए जो उन्हीं के समान प्रतापी थे |

उनके एक छोटी कन्या भी हुई जिनका नाम उर्जस्वती था पुत्रों में सबसे बड़े आग्नीध्र थे | एक बार उन्होंने देखा कि सूर्य का प्रकाश आधे पृथ्वी पर ही रहता है आधे में अंधेरा रहता है तो उन्होंने संकल्प पूर्वक एक प्रकाशमान रथ बनाया जिसमें बैठकर सूर्य के पीछे पीछे सात परिक्रमा लगा दी, उनके रथ के पहिओं से जो गढ्ढे हुए वे सात समुद्र बन गए जो भाग बीच में रहा वहाँ सात द्वीप बन गए ब्रह्मा जी के कहने से प्रियव्रत की यह रथ यात्रा सात दिन बाद पूर्ण हो गई |

इस प्रकार कई वर्षों तक राज्य किया अन्त में उसका मन भगवान की ओर गया और अपने पुत्र को राज्य दे और वे वन गए भगवान का भजन करने के लिए वहां भगवान को प्राप्त कर लिया |

इति प्रथमो अध्यायः

( अथ द्वितीयो अध्यायः )

आग्नीध्र चरित्र- अपने पिता प्रियव्रत के वन चले जाने के बाद उनके पुत्र आग्नीध्र ने अपने पिता के सतांन नही हुई तो पित्रेश्वरों की उपासना की, ब्रह्मा जी ने उनके आशय को समझ अपनी पूर्वचित्ती अप्सरा को भेजा वह वहां पहुंची जहां अग्नीन्ध्र उपासना कर रहे थे , अप्सरा ने उनके चित्त को मोहित कर लिया, उससे उनके नौ पुत्र हुए | पूर्वचित्ति उन्हें वहीं छोड़कर ब्रह्मलोक चली गई , आग्नीध्र ने समस्त पृथ्वी के नौ भाग कर उन्हें अपने पुत्रों को सौंपा आप भी अपने पिता की तरह बन में भजन करने चले गए |

इति द्वितीयो अध्यायः

( अथ तृतीयो अध्यायः )

राजा नाभि का चरित्र- अपने पिता के वन गमन के बाद उनके पुत्र नाभि ने राज्य संभाला उनके भी कोई संतान न होने पर भगवान नारायण का यजन किया , यज्ञ में भगवान नारायण प्रकट हुए और राजा को वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने भगवान के सामान पुत्र मांगा, भगवान बोले मेरे समान कोई दूसरा नहीं है, मैं स्वयं तुम्हारे यहां आऊंगा ऐसा कर भगवान अंतर्धान हो गए | समय पाकर राजा नाभि के यहां अवतरित हुए |जिनका नाम ऋषभदेव रखा गया |

इति तृतीयो अध्यायः

भागवत कथा sampurna bhagwat katha in hindi

( अथ चतुर्थो अध्यायः )

ऋषभदेव जी का राज्य शासन- साक्षात भगवान को पुत्र रूप में पाकर नाभि बड़े प्रसन्न हुए कुछ समय के लिए ऋषभदेव जी ने गुरुकुल में निवास किया जहां अल्पकाल में सभी विद्याओं का अध्ययन कर लिया ! उनके गुणों की चारों ओर चर्चा होने लगी तो इंद्र ने परीक्षा के लिए उनके राज्य में वर्षा नहीं की तो ऋषभदेव जी ने अपने योग बल से वर्षा करा ली , इससे इंद्र बड़ा लज्जित हुआ और उसने अपनी जयंती नाम की पुत्री उन्हें ब्याह दी | राजा नाभि ने अपने पुत्र को सब तरह योग्य समझ उन्हें राजा बना , आप वन में चले गए भजन करने के लिए |

ऋषभदेव ने जयंती से सौ पुत्र उत्पन्न किए जिनमें सबसे बड़े भरत हुए जिनके नाम पर अजनाभखंड का नाम भारतवर्ष हुआ, इनसे छोटे नौ भी भरत के समान ही महान हुए, उनसे छोटे नो योगी जन हुए जिनका वर्णन एकादश स्कंध में होगा , शेष इक्यासी कर्मकांडी हुए जो अंत में ब्राम्हण बन गए उन्होंने कयी यज्ञ किए |

इति चतुर्थो अध्यायः

( अथ पंचमो अध्यायः )

 ऋषभ जी का अपने पुत्रों को उपदेश तथा स्वयं अवधूत वृत्ति धारण करना- ऋषभदेव जी ने अपने पुत्रों को उपदेश दिया कि मनुष्य का कर्तव्य केवल विषय वासनाओं की पूर्ति नहीं है, बल्कि उनसे दूर रहकर भगवान का भजन करने में उनकी सार्थकता है | विषय भोग तो कूकर सूकर भी भोंगते हैं, वहां बैठे हुए ब्राह्मणों को संबोधित करते हुए बोले- मुझे ब्राह्मणों से बढ़कर कोई प्रिय नहीं है, जो उनके मुख में अन्न डालता है उससे मेरी तृप्ती होती है | इस प्रकार उपदेश देकर भरत को राज्य दे स्वयं वन में चले गए , वहां उन्होंने अवधूत वृत्ति धारण कर ली, पागलों की तरह रहते, वस्त्र नहीं पहनते, अपने ही मल में लोट जाते पर उसमें दुर्गंध नहीं सुगंध आती थी | उनके पास कई रिद्धि-सिद्धि आई उन्होंने स्वीकार नहीं किया |

इति पंचमो अध्यायः

( अथ षष्ठो अध्यायः )

ऋषभदेव जी का देह त्याग- अवधूत वृत्ति में घूमते घूमते ऋषभदेव जी ने अपनी आत्मा को परमात्मा में लीन कर देह को दावाग्नि में जलाकर भस्म कर दिया | जिस समय कलयुग में अधर्म की बुद्धि होगी उस समय कोंक वेंक और कुटक देश का मंदमति राजा अर्हत वहां के लोगों से ऋषभदेव जी के आश्रमातीत आचरण का वृत्तांत सुनकर तथा स्वयं उसे ग्रहण कर लोगों के पूर्व संचित पाप फल रूप होनहार के वशीभूत होकर भय रहित स्वधर्म पथ का परित्याग करके अपनी बुद्धि से अनुचित और पाखंड पूर्ण कुमार्ग का प्रचार करेगा | उसे कलयुग में देवमाया से मोहित अनेकों अधम मनुष्य अपने शास्त्र विहित शौच आचार को छोड़ बैठेंगे | अधर्म बाहुल्य कलयुग के प्रभाव से बुद्धि हीन हो जाने के कारण वे स्नान न करना, आचमन न करना, अशुद्ध रहना, केश नुचवाना आदि ईश्वर का तिरस्कार करने वाले पाखंड धर्मों को मनमाने ढंग से स्वीकार करेंगे और प्रायः वेद, ब्राम्हण और भगवान यज्ञ पुरुष की निंदा करने लगेंगे |

इति षष्ठो अध्यायः

( अथ सप्तमो अध्यायः )

भरत चरित्र- अपने पिता के चले जाने के बाद भरत जी राज्य सिंहासन पर बैठे, विश्वरूप भ
की कन्या पंचजनी से विवाह किया, जिससे पांच पुत्र हुए, वे उन्हीं के समान थे | धर्म पूर्वक राज्य करने के बाद वे वन में भजन करने को गण्डकी के तीर पर पुलह आश्रम पर चले गए और भगवान का भजन करने लगे |

इति सप्तमो अध्यायः

भागवत कथा sampurna bhagwat katha in hindi 

( अथ अष्टमो अध्यायः )

भरत जी का मृग मोह में फंसकर मृग योनि में जन्म लेना- एक दिन भरत जी गंडकी नदी के किनारे भजन कर रहे थे, सहसा एक सिंह की दहाड़ हुई उससे घबराकर एक हिरनी ने नदी को पार करने के लिए छलांग लगाई , जिससे उसका गर्भ का बच्चा नदी में गिर गया और हिरणी दूसरी तरफ जाकर मर गई , भरत जी ने देखा कि हरनी का बालक पानी में बह रहा है, दया बस दौड़कर उसे उठा लिया और उसका पालन-पोषण करने लगे | धीरे-धीरे उनका भजन छूटता गया और मृग में मोह बढ़ता गया, एक दिन मृग समाप्त हो गया और उसके बिरह में भरत जी ने भी शरीर त्याग मृग योनि में जन्म लिया, किंतु उन्हें पूर्व जन्म की स्मृति थी वे पुनः आसक्ती ना हो जाए मृगों से भी दूर ही रहने लगे और अंत में गंडकी में अपने शरीर को छोड़ दिया |

इति अष्टमो अध्यायः

( अथ नवमो अध्यायः )

भरत जी का ब्राह्मण कुल में जन्म- आंगीरस गोत्र के एक ब्राम्हण परिवार में आपका दूसरा जन्म हुआ , वहां भी आप की पूर्व जन्म की स्मृति बनी रही, उनकी बड़ी माता से उनके पांच भाई थे और कहीं पुनः आसक्ती ना हो जाए इस भय से वे पागलों की तरह रहते थे , पिता ने उनका यगोपवित संस्कार कर दिया बचपन में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो गया | विमाता कुछ दे देती उसे ही खाकर वे संतुष्ट रहते , चारों ओर भ्रमण करते रहते थे |

एक बार डाकू ने ने पकड़ लिया और भद्रकाली की भेंट चढ़ाने को इन्हें ले गए अपनी पद्धति के अनुसार उन्हें पहले स्नान करवाया फिर मधुर भोजन करवाया और फिर भद्रकाली के सामने बलि देने के लिए ले गए वे हर परिस्थिति में प्रसन्न थे, तलवार निकालकर जब उन्हें मारने को उद्यत हुए फिर भी वह प्रसन्न थे, किंतु परमात्मा के भक्तों का अपने सामने वध देवी को स्वीकार नहीं हुआ, देवी ने चोरों के हाथ से तलवार छीन ली और उन्हें मौत के घाट उतार कर भगवान के भक्तों की रक्षा की |

इति नवमो अध्यायः

( अथ दशमो अध्यायः )

जड़ भरत और राजा रहूगण की भेंट- एक समय सिंधुसौवीर्य देश का राजा रहूगण अपनी पालकी में बैठकर कहीं जा रहा था, रास्ते में उसकी पालकी का एक कहार बीमार हो गया तो उसे उसने पास ही खड़े भरत जी को पालकी में जोत लिया | उसका भी उन्होंने कोई विरोध नहीं किया किंतु वे रास्ते के जीवो को बचाते हुए टेढ़ी-मेढ़ी चाल चलने लगे तो पालकी डोलने लगी रहूगण ने कहारों को डांटते हुए कहा यह कौन मूर्ख है जो पालकी को ठीक से नहीं ढोता | कहार बोले यह नया कहार ठीक से नहीं चलता, राजा ने भरत जी को डांटते हुए कहा अरे तू मेरे राज्य का अन्न खाकर मोटा हो रहा है और काम नहीं करता, डंडे से तेरी इतनी मार लगाऊंगा कि ठीक हो जाएगा | भरत जी ने मौन तोड़ा और बोले मोटा ताजा शरीर है आत्मा सबकी समान है फिर मार भी यह शरीर खाएगा , मैं तो सुख दुख से परे हूँ, यह सुन कर रहूगण ने देखाकि अरे यह तो कोई संत है , पालकी से नीचे उतर भरत जी के चरणों में गिर गया |

इति दशमो अध्यायः

( अथ एकादशो अध्यायः )

राजा रहूगण को भरत जी का उपदेश- भरत जी बोले राजा आत्मा और शरीर दोनों अलग-अलग हैं जिन्होंने इस शरीर को ही आत्मा समझा है वह ठीक नहीं है शरीर तो जड़ है जो मरता रहता है किंतु आत्मा कभी नहीं मरती , आत्मा परमात्मा का ही अंश अविनाशी तत्व है |

इति एकादशो अध्यायः
श्री भागवत महापुराण की हिंदी सप्ताहिक कथा जोकि 335 अध्याय ओं का स्वरूप है अब पूर्ण रूप से तैयार हो चुका है और वह क्रमशः भागो के द्वारा आप पढ़ सकते हैं कुल 27 भागों में है सभी भागों का लिंक नीचे दिया गया है आप उस पर क्लिक करके क्रमशः संपूर्ण कथा को पढ़कर आनंद ले सकते हैं |

www.bhagwatkathanak.in // www.kathahindi.com

भागवत सप्ताहिक कथा की सभी भागों का लिस्ट देखने के लिए नीचे लिंक पर क्लिक करें

भक्ति भाव के सर्वश्रेष्ठ भजनों का संग्रह

bhagwat katha all part 335 adhyay

भागवत कथा-14 sampurna bhagwat katha in hindi

यह जानकारी अच्छी लगे तो अपने मित्रों के साथ भी साझा करें |
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments

BRAHAM DEV SINGH on Bhagwat katha PDF book
Bolbam Jha on Bhagwat katha PDF book
Ganesh manikrao sadawarte on bhagwat katha drishtant
Ganesh manikrao sadawarte on shikshaprad acchi kahaniyan