शौचाचार का वर्णन shauchachar ka varnan
शौचे यत्नः सदा कार्य: शौचमूलो द्विजः स्मृतः ।
शौचाचारविहीनस्य समस्ता निष्फलाः क्रियाः ॥
(दक्षस्मृ० ५। २, बाधूलस्मृ० २०)
‘शौचाचारमें सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये, क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यका मूल शौचाचार ही है, शौचाचारका पालन न करने पर सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं । ‘
शौचाचार का वर्णन shauchachar ka varnan
शौच – विधि – यदि खुली जगह मिले तो गाँवसे नैर्ऋत्यकोण( दक्षिण और पश्चिमके बीच) की ओर कुछ दूर जाय । रातमें दूर न जाय । नगरवासी गृहके शौचालयमें सुविधानुसार मूत्र – पुरीषका उत्सर्ग करें। मिट्टी और जलपात्र लेते जायँ । इन्हें पवित्र जगहपर रखें । जलपात्रको हाथमें रखना निषिद्ध है। सिर और शरीरको ढका रखें । जनेऊको दायें कानपर चढ़ा लें। अच्छा तो यह है कि जनेऊको दायें हाथसे निकालकर (कण्ठमें करके) पहले दायें कानको लपेटे, फिर उसे सिरके ऊपर लाकर बायें कानको भी लपेट ले । शौचके लिये बैठते समय सुबह, शाम और दिनमें उत्तरकी ओर मुख करे तथा रातमें दक्षिणकी ओर । यज्ञमें काम न आनेवाले तिनकोंसे जमीनको ढक दे । इसके बाद मौन होकर शौच क्रिया करे । उस समय जोरसे साँस न ले और थूके भी नहीं ।
शौचके बाद पहले मिट्टी और जलसे लिंगको एक बार धोवे’ । बादमें मलस्थानको तीन बार मिट्टी-जलसे धोवे’ । प्रत्येक बार मिट्टीकी मात्रा हरे आँवलेके बराबर हो । बादमें बायें हाथको एक बार मिट्टीसे धोकर अलग रखे, इससे कुछ स्पर्श न करे । इसके पहले आवश्यकता पड़नेपर बायें हाथसे नाभिके नीचेके अंगोंको स्पर्श किया जा सकता था, किंतु अब नहीं । नाभिके ऊपरके स्थानोंको सदा दाहिने हाथसे छूना चाहिये । दाहिने हाथसे ही लोटा या वस्त्रका स्पर्श करे । लाँग लगाकर (पुछटा खोंसकर) पहलेसे ही रखी गयी, मिट्टीके तीन भागोंमेंसे हाथ धोने (मलने) और कुल्ला करनेके लिये नियत जगहपर आये । पश्चिमकी ओर बैठकर मिट्टीके पहले भागमेंसे बायें हाथको दस बार और दूसरे भागसे दोनों हाथोंको पहुँचेतक सात बार धोये । जलपात्रको तीन बार धोकर, तीसरे भागसे पहले दायें पैरको, फिर बायें पैरको तीन-तीन’ बार मिट्टी और जल लेकर धोये । इसके बाद बाँयी ओर बारह कुल्ले करे ।
बची हुई मिट्टीको अच्छी तरह बहा दे । जलपात्रको मिट्टी और जलसे धोकर विष्णुका स्मरण कर, शिखाको बाँधकर जनेऊको ‘उपवीत ” कर ले, अर्थात् बायें कंधेपर रखकर दायें हाथके नीचे कर ले । फिर दो बार आचमन करे ।
शौचाचार का वर्णन shauchachar ka varnan
( क ) मूत्र – शौच-विधि – केवल लघुशंका (पेशाब) करनेपर शौचकी (शुद्धि होनेकी) विधि कुछ भिन्न होती है । लघुशंकाके बाद यदि आगे निर्दिष्ट क्रिया न की जाय तो प्रायश्चित्त करना पड़ता है। अतः इसकी उपेक्षा न करे ।
विधि यह है – लघुशंकाके बाद एक बार लिंगमें, तीन बार बायें हाथमें और दो बार दोनों हाथोंमें मिट्टी लगाये और धोये । एक-एक बार पैरोंमें भी मिट्टी लगाये और धोये । फिर हाथ ठीकसे धोकर चार कुल्ले करे । आचमन करे, इसके बाद मिट्टीको अच्छी तरह बहा दे । स्थान साफ कर दे। शीघ्रतामें अथवा मार्गादिमें जलसे लिंग प्रक्षालन कर लेनेपर तथा हाथ-पैर धो लेनेपर और कुल्ला कर लेनेपर सामान्य शुद्धि हो जाती है, पर इतना अवश्य करना चाहिये ।
( ख ) परिस्थिति-भेदसे शौचमें भेद – शौच अथवा शुद्धिकी प्रक्रिया परिस्थितिके भेदसे बदल जाती है। स्त्री और शूद्रके लिये तथा रातमें अन्योंके लिये भी यह आधी हो जाती है । यात्रा (मार्ग) – में चौथाई बरती जाती है। रोगियोंके लिये यह प्रक्रिया उनकी शक्तिपर निर्भर हो जाती है। शौचका उपर्युक्त विधान स्वस्थ गृहस्थोंके लिये है । ब्रह्मचारीको इससे दुगुना, वानप्रस्थोंको तिगुना और संन्यासियोंको चौगुना करना विहित है’ ।
शौचाचार का वर्णन shauchachar ka varnan
(ग) आभ्यन्तर शौच – मिट्टी और जलसे होनेवाला यह शौच-कार्य बाहरी है । इसकी अबाधित आवश्यकता है, किंतु आभ्यन्तर शौचके बिना यह प्रतिष्ठित नहीं हो पाता । मनोभावको शुद्ध रखना आभ्यन्तर शौच माना जाता है। किसीके प्रति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा आदिके भावका न होना आभ्यन्तर शौच है। श्रीव्याघ्रपादका कथन है कि यदि पहाड़ – जितनी मिट्टी और गंगाके समस्त जलसे जीवनभर कोई बाह्य शुद्धि कार्य करता रहे, किंतु उसके पास आन्तरिक शौच’ न हो तो वह शुद्ध नहीं हो सकता । अतः आभ्यन्तर शौच अत्यावश्यक है। भगवान् सबमें विद्यमान हैं। इसलिये किसीसे द्वेष, क्रोधादि क्यों करे ? सबमें भगवान्का दर्शन करते हुए, सब परिस्थितियोंको भगवान्का वरदान समझते हुए, सबमें मैत्रीभाव रखे । साथ ही प्रतिक्षण भगवान्का स्मरण करते हुए उनकी आज्ञा समझकर शास्त्रविहित कार्य करता रहे ।