Shrimad Bhagwat Katha In Hindi -17

Shrimad Bhagwat Katha In Hindi

  भागवत पुराण कथा भाग-17

अभिमन्यु की पत्नी उतरा के गर्भ से प्रकट हुए परीक्षित् ने जन्म समय भगवान् को अंगूठे के बराबर स्वरूप में कुंडल पहने देखा था। भगवान् उस स्वरूप में रक्षा कर रहे थे। चक्र के समान तेज गति से गदा को घुमाते हुए परीक्षित् की रक्षा कर रहे थे परन्तु परीक्षित् को चक्र ही मालूम पड़ा ।

फिर ब्रह्मास्त्र की शक्ति समाप्त होने पर भगवान् वहाँ से हटे थे। परीक्षित् ने माँ के गर्भ से शुभ मुहूर्त में बाहर आये तो धौम्य ऋषि तथा कृपाचार्य के द्वारा मांगलिक कार्य किये गये एवम् जातकर्म संस्कार किया गया। इधर जब राजा परीक्षित की जन्म के सामाचार सुने तो पुनः हस्तीनापुर में भगवान श्रीकृष्ण पधारे और राजा परीक्षित को लाड-प्यार दिये।

युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों को सुवर्ण, गौ, पृथ्वी तथा अन्न का दान किया। श्री परीक्षित् परमात्मा द्वारा रक्षित जीव थे। इसलिए बालक का नामकरण परीक्षित किया गया । ऋषि मुनियों ने बताया कि यह बालक इक्ष्वाकु के समान प्रजापालक राम के समान सत्यपालक, शिवि के समान असह्य तेज वाला, सिंह के समान महापराक्रमी, पृथ्वी के समान क्षमावान्, रन्तिदेव के समान उदार, ययाति के समान धार्मिक, बलि के समान धैर्यवान और प्रह्लाद के समान भगवद् भक्त होगा। यह पृथ्वीरूपी गौ और धर्मरूपी वृष के रक्षार्थ कलि का निग्रह करेगा।

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शमीक- पुत्र शृंगी द्वारा प्रेरित तक्षक से अपनी मृत्यु सुनकर राजपाट का परित्याग कर गंगातट का आश्रय लेगा और वहाँ परम भागवत शुकदेव जी से ज्ञान लाभ कर परम पद को प्राप्त होगा। ब्राह्मणों महाराज युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों को दान दक्षिणा से प्रसन्न किया।

इसके बाद धर्मराज ने अपनी जातियों तथा अन्य लोगों के वध के मार्जन के लिए अश्वमेघ यज्ञ करने का विचार किया परन्तु कर और प्रजादंड के सिवा अन्य मार्ग से धन मिलना संभव न देखकर धर्मराज को कुछ चिन्ता हुई।

भीम आदि ने आश्वस्त किया कि वे लोग धन, स्वर्णपात्र एवं सम्पत्ति लाएँगे। राजा मरु ने यज्ञ में ब्राह्मणों को बहुत सा दान दिया था। अतः वे ब्राह्मण इच्छानुसार दान लेकर शेष छोड़कर चले आये थे। वह धन लावारिश पड़ा था। उस लावारिश धन को शुद्ध धन के रूप में लाकर धर्मराज को दिया गया। धर्मराज ने तीन अश्वमेघ यज्ञ किये । मृतक बन्धुओं के प्रायश्चित करने से तथा यज्ञ करने से धर्मराज के मन में शान्ति हो गयी और वे प्रसन्न हो गये ।

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विदुरजी महाराज जो महाभारत संग्राम के समय तीर्थयात्रा में चले गये थे वे विदुरजी महाभारत संग्राम समापन के बाद हस्तिनापुर लौट आये । तीर्थयात्रा में विदुरजी ने मैत्रेय ऋषि से आत्मज्ञान भी प्राप्त किया था।

लेकिन द्वारका में यदुकुल के क्षय की कथा नहीं कही। वह विदुरजी शापवश धराधाम पर आये थे। महाभारत में एक कथा है कि मांडव्य ऋषि तपस्या कर रहे थे। वे तपस्या में लीन थे। कुछ चोरों ने मांडव्य ऋषि को तपस्या में ध्यानमग्न पाकर चोरी का सामान उनकी कुटिया में छिपा दिया। सिपाहियों ने मांडव्य ऋषि के आश्रम में उक्त चोरी का सामान बरामद कर लिया और चोरों को भी पकड़ लिया। चोरों के साथ मांडव्य ऋषि को भी पकड़कर लाया गया।

राजा ने चोरों के साथ मांडव्य ऋषि को भी फाँसी की सजा दे दी। मांडव्य ऋषि को भी शूली पर चढ़ाया गया । चोर तो शूली पर चढ़ने पर मौत को प्राप्त हुए। लेकिन मांडव्य ऋषि को फाँसी पर चढ़ाने में तीन बार रस्सा टूट गया । तब राजा ने उन्हें फाँसी के तख्ते से अलग हटाकर उनसे पूछा कि ऐसा क्यों हो रहा हे ?

मांडव्य ऋषि ने कहा ‘मैं तो ध्यानमग्न था । मैं नहीं जानता कि मेरे आश्रम में बरामद सामान किसने रखा ? राजा तूने जो कुछ मेरे साथ किया है वह अनजान में किया है अतः उसके लिए मैं तुम्हें क्षमा कर दूँगा । लेकिन अंतिम कागज लिखनेवाले यमराज से पूछूंगा कि राजा के माध्यम से मुझे शूली पर क्यों चढ़ाया गया ?

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मांडव्य ऋषि राजा को छोड़कर यमराज के पास पहुँचे । कुशल समाचार होने पर यमराज ने मांडव्य ऋषि के आने का कारण पूछा। माण्डव्य ऋषि ने यमराज से पूछा किस अपराध के कारण मुझे शूली पर चढ़ाया गया ? यमराज ने चित्रगुप्त को बुलाया। चूँकि उन्हीं के लेखन के कारण ऐसा हुआ था ।

चित्रगुप्त ने कहा कि ऋषि द्वारा ५-६ वर्ष की उम्र में एक तितली को तीन बार कांटा चुभाया गया था, इसी अपराध के कारण इन्हें शूली पर लटकाया गया। मांडव्य ऋषि क्रोधित हो गये और बोले कि १० वर्ष की उम्र तक के बच्चों को उनके अपराध के लिए शारीरिक दण्ड नहीं दिया जाता है।

उन्हें स्वप्न में दण्ड दर्शाया जाता हैं तुमलोगों ने मेरे साथ कूप कर्म किया है। मांडव्य ऋषि ने यमराज को शूद रूप में जन्म लेने का शाप दिया। वही श्री व्यास जी के तेज से दासी पुत्र के रूप में यमराज विदुर बनकर घराधाम पर आये। मांडव्य ऋषि के संशोधित विधान के अनुसार १४ वर्ष तक की उम्र के बालकों का अपराध दंडनीय नहीं माना जाता।

ऐसे बालक को शरीर से दण्ड नहीं देकर बल्कि स्वप्न में दण्ड को दर्शाया जाएगा जो चौदह वर्ष तक के होंगे (जितने दिनों तक चिदुरजी राधाम पर रहे उतने समय तक अर्यमा नामक सूर्यपुत्र यमराज के कार्य प्रभार में थे ।)

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विदुरजी जानते थे कि थोड़ा अपराध करने से उन्हें दासीपुत्र के रूप में जन्म लेना पड़ा है। वे कौरवों के अनाचार में किसी तरह शामिल होना नहीं चाहते थे तथा उन्हें नेक सलाह देते थे, जो दुर्योधन तथा कौरवों को अच्छा नहीं लगता था। कौरव पांडवों के उपर आनाचार एवं अत्याचार कर रहे थे। अतः महाभारत युद्ध से पहले ही विदुरजी तीर्थयात्रा में चले गये थे तथा युद्ध समापन के बाद तीर्थ यात्रा से लौटकर आये।

एक दिन एकान्त में विदुरजी ने धृतराष्ट्र से कहा कि- हे भाई धृतराष्ट्र आपकी मृत्यु होने वाली है। मृत्यु को कोई रोकनेवाला नहीं। जिन पांडवों को आपने अग्नि में जलाकर मारने का षड्यंत्र किया, उन्हीं की सेवा स्वीकार कर रहे हैं। आपलोगों ने भीम को विष दिलवाया, द्रौपदी को भरी सभा में वस्त्रहीन करने का प्रयास किया तथा उसे अपमानित किया। आज उन्हीं पांडवों के अन्न पर जी रहे हैं। इस जीवन से क्या लाभ ?

अतः आप वानप्रस्थ को स्वीकार करें क्योंकि “जो मनुष्य स्वयं अपने से या दूसरों के उपदेश से यदि वैराग्य को नहीं प्राप्त करता या वैरागी बनकर अपने हृदय में भगवान् को नहीं बैठाता, उससे निकृष्ट दूसरा नहीं। ऐसी परिस्थित में जो व्यक्ति वैरागी बनकर वनगमन करता है, वह श्रेष्ठ है।” अतः आप वन में जायें और भगवान् का भजन करें। वे धृतराष्ट्र रात में ही गान्धारी को साथ लेकर हिमालय की तरफ चल पड़े।

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सुबह होने पर धर्मराज अपने चाचा-चाची को प्रणाम करने गये। वहाँ धृतराष्ट्र एवं गान्धारी को नहीं पाकर बहुत दुःखी हुए। धर्मराज ने संजय से पूछा कि मेरे नेत्रहीन माता-पिता नहीं हैं। मेरे माता पिता के मरने के बाद वे ही दोनों मुझे स्नेह देनेवाले थे और प्यार करनेवाले बचे थे। कहीं हमें अपराधी जानकर गंगा नदी में तो नहीं डूब गये ?

धर्मराज अपना ही दोष देखते हैं और रोने लगते हैं। संजय को भी पता नहीं था कि वे लोग अचानक कहाँ चले गये हैं। उसी समय नारदजी तुम्बरु नामक गन्धर्व के साथ धर्मराज के पास पहुँच जाते हैं। शास्त्र में कहा गया है कि ज्ञान-अज्ञान, उत्पत्ति- संहार, विद्या-अविद्या को जाननेवाले को भगवान् कहा जाता है।

नारदजी भी भगवान् के भक्त होने के कारण ही भगवान के समान आदरणीय हैं। अतः नारदजी को भी भगवान शब्दों से सम्बोधित किया गया है। वह धर्मराज ने दुःखी मन से धृतराष्ट्र एवं गांधारी के बारे में पूछते हुए नारदजी का सत्कार किया। “नारदजी ने कहा कि आप शोक न करें ।

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वे धृतराष्ट्र गांधारी के साथ हिमालय में ऋषियों के आश्रम पर तपस्या कर रहे हैं। वे केवल जल पीकर रात दिन भगवत् भजन कर रहे हैं। उन लोगों ने इन्द्रियों को जीत लिया है। आज से ५वें दिन वे ध्यान करते हुए शरीर त्यागकर भगवत धाम में जानेवाले हैं। गांधारी भी धृतराष्ट्र के साथ सती हो जायेंगी।

विदुरजी भी वहीं हैं। उनके महाप्रयाण के बाद विदुरजी तीर्थयात्रा में चले जायेंगे । आप राजकाज संभालें। नारदजी धर्मराज को ऐसी सांत्वना देकर देवलोक चले गये।

धर्मराज शान्तचित्त होकर राजकाज करने लगते हैं।

सम्प्रस्थिते द्वारकायां जिष्णौ बन्धुदिदृक्षया ।

अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण क्या करना चाहते हैं यह जानने के लिए तथा द्वारिका वासियों की कुशल-क्षेम जानने के लिए द्वारिकापुरी गए हुए थे जब कई महीने व्यतीत हो गए और अर्जुन नहीं आए ।

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और महाराज युधिष्ठिर को अनिष्ट सूचक अपशकुन दिखाई देने लगे तो उन्हें बड़ी चिंता हुई उन्होंने भीम से कहा 7 महीने बीत गए अर्जुन नहीं आए इस समय मुझे अनेकों प्रकार के अपशगुन दिखाई दे रहे हैं जिससे मेरा हृदय बड़ा घबरा रहा है– इस प्रकार शास्त्र में मृत्यु सूचक कुछ लक्षण बताये गये हैं।

अतः म्रियमाण पुरुष को ध्यान देना चाहिए एवं सचेत हो जाना चाहिए । मृत्यु के सूचक लक्षण अनेक हैं “जैसे- बिना रोग को यदि अरुंधती तारा या ध्रुव तारा नहीं दिखाई पड़ता तो उसे एक वर्ष में मर जाना है या वैसा व्यक्ति केवल एक वर्ष जीता है। अकारण स्वभाव का परिवर्तन होना मृत्यु कारक है।

जो स्वप्न में मल-मूत्र वमन के अन्दर सोना चाँदी देखता है वह दस महीने तक जीवित रहता है। जो सोने के रंग का वृक्ष देखता है वह नौ माह तक जीवित रहता है। जो वानर या भालू या गदहा पर बैठकर गाते दक्षिण दिशा में जाता है वह जल्द मरने वाला है। जो अग्नि या जल में प्रवेश करे परन्तु निकलता नहीं ऐसा देखने वाला जल्द मरता है ।

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जो अपने को सिर से पैर तक कीचड़ या पाँकी में डूबा हुआ देखे वह जल्द मरता है। भोजन या जल पीने पर भी बार-बार भूख का अनुभव हो वह जल्द मरता है। जो बार – बार दाँत पीसे वह जल्द मरता है।

जिसकी दृष्टि उपर उठे परन्तु वहाँ ठहरे नहीं एवं मुख लाल तथा नाभि शीतल हो जाए वह जल्द मरने वाला है। जल स्पर्श होते ही जिसके शरीर में रोमांच नहीं हो वह जल्द मरता है।

जल पीने पर जिसका कण्ठ सुखा रहे वह जल्द मरता है। जिसके शरीर से बकरे या मुर्दे की गंध आवे वह पन्द्रह दिनों में मरता है। जिसके मस्तक पर गीध, ऊल्लू, कबूतर या नीले रंग का पक्षी बैठ जाए वह छः महीने में मर जाता है।

भागवत पुराण कथा के सभी भागों कि लिस्ट देखें- 

shiv puran katha list

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