shrimad bhagwat puran in hindi pdf
भागवत पुराण कथा भाग-12
द्वापरे समनुपप्राप्ते तृतीये युग पर्यये । जातः पराशरद्योगी वासव्यां कलयाहरे ।।
सौनक जी तीसरे युग द्वापर में महर्षि पाराशर के द्वारा वसुकन्या सत्यवती के गर्भ से भगवान के कला अवतार श्री वेदव्यास जी भगवान का जन्म हुआ व्यास जी भूत भविष्य के जानकार थे उन्होंने भविष्य पर दृष्टि डाली तो देखा कलयुग के प्राणी कम बुद्धि वाले कम आयु वाले और भाग्यहीन होंगे आलसी होंगे उस समय उन्होंने प्राणियों की सरलता के लिए एक वेद के चार भाग किए ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद ऋग्वेद अपने शिष्य महर्षि पैल को प्रदान किया सामवेद जैमिनी को यजुर्वेद वैशम्पायन को और अथर्ववेद सुमन्तु ऋषि को प्रदान किया
स्त्रीशूद्र द्विज बन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचराः ।
श्री व्यास जी ने स्त्री एवं शूद्रों आदि के कल्याण के लिए एक लाख वेदों के मंत्रों के भवार्थ को संग्रह कर महाभारत की रचना कर दी। महाभारत में भी एक लाख श्लोक हैं, जिन पर सबका अधिकार है।
जो महाभारत में है उससे अलग दूसरी बात दूसरे शास्त्र में नहीं है। व्यासजी ने १७ पुराण लिख डाले। फिर भी उन्हें आत्मतोष नहीं हुआ। वे सोचने लगे कि मुझसे क्या भूल हुई है जिससे मन में अशान्ति है।
किसी कार्य में मन नहीं लगता ऐसी उद्विग्नता क्यों ? उसी समय उनके पास श्री नारदजी आ गये। श्री व्यासजी नारदजी को देखकर प्रसन्न होकर खड़े हो गये। फिर उनको आसन देकर उन्होंने उनकी अर्चना पूजा की एवं फिर अपनी अशान्ति का कारण पूछा तो नारदजी ने उपदेश देना शुरू किया और कहा-
यथा धर्मादयश्चार्था मुनिवर्यानुकीर्तिताः । न तथा वासुदेवस्य महिमाह्यनुवर्णितः ।।
कि आप भगवान् की भक्ति प्राप्ति के ग्रन्थ की रचना करें। तब आपको शान्ति मिलेगी।
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नारदजी का पूर्व जन्म –
नारदजी ने कहा कि आपने निर्मल ज्ञान और भक्ति से युक्त परमात्मा की प्राप्ति का गान नहीं किया और आपने महाभारत ग्रन्थ अपनी लेखनी से लिखकर कहीं-कहीं हिंसा इत्यादि का वर्णन कर दुष्ट व्यक्ति को हिंसा आदि करने का नेत्र खोल दिया । अर्थात् अब आपके ही ग्रंथों का प्रमाण देकर लोग हिंसा आदि करना प्रारम्भ करेंगे। महाभारत का मतलब तो होता है कि महा मानें सबसे उत्तम, यानी शुद्ध ज्ञान में रत रचना। अतः आपने भगवान् के चरित्र का गान पूर्ण रूप से नहीं किया है।
नैष्कर्म्य मप्यच्युत भाव वर्जितं न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।
जो प्रभु के चरित्रों को छोड़, अन्य जो कुछ भी वर्णन करता है, उससे उसकी बुद्धि स्थिर नहीं रहती। निष्काम कर्म और ज्ञान भी, भक्ति रहित होने पर स्थिरता एवं शान्ति नहीं देते। जिस प्रकार मनुष्य को दुःख बिना प्रयास के ही प्राप्त हो जाता है, उसी तरह विषय वासना, सुख भी बिना प्रयास के भी प्राप्त हो जाते हैं।
प्रवृति मार्ग अपनाकर कोई विरला ज्ञानी ही भगवत् सुख को प्राप्त करता है लेकिन भगवत भक्ति का सहारा लेकर मनुष्य भगवान् को पा सकता है या भवसागर पार कर जाता है। व्यासजी! चूँकि आप वसुदेवता की पुत्री सत्यवती के लाडले पुत्र हैं, अतः आप भगवान् के उत्कृष्ट (उत्तम) गुणों का गान करें एवं वर्णन करें।
इससे आपको संतोष होगा, खिन्नता मिटेगी । नारदजी व्यासजी को भगवान् की कला बताते हुए कहते हैं कि आप लोक कल्याण के लिए ही धराधाम पर आये हैं । वस्तुतः आप भगवान् की कला का अवतार हैं, इसलिए भगवान् के उत्तम चरित्रों का वर्णन करें। भगवान् का अर्थ होता है-
उत्पत्तिं प्रलयं चैव भूतानामगतिं गतिम्वेति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति
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जो पुरे जगत का उत्पति- प्रलय, भुतों के गति अगति, विद्या-अविद्या को जानता है वह भगवान कहा जाता है।
अहं पुरातीत भवे भवं मुने दास्यास्तु कस्याश्चन वेदवादिनाम् ।
निरूपितो बालक एव योगिनां शुश्रूषणे प्रावृषि निर्विविक्षताम् ।।
श्रीनारदजी ने कहा कि हे व्यास जी ! मैं दासीपुत्र नारद आज प्रभु के चरित्रों के गुणगान करने के कारण इस समय ब्रह्मा का पुत्र बना हुआ हूँ । अर्थात् मैं नारद पूर्वजन्म में दासी का पुत्र था। मेरा जन्म हुआ इधर मेरे पिता की मृत्यु हो गयी। इसप्रकार मेरे पिता के मृत्यु के बाद मेरी माँ मेरे को लेकर राजऋषि के यहा चली गयी।
वहाँ मेरी माँ राज ऋषि घराने में सेवा का कार्य कर जो कुछ प्राप्त करती, उसी से स्वयं तथा अपने पुत्र का पालन करती थी। मेरी दासी माता ने बहुत प्यार एवं स्नेह से मेरा पालन पोषण किया।
जहाँ पर मेरी दासी माँ काम करती थी, संयोग से वहीं पर एक संत चातुर्मास्यव्रत करने के लिए आ गये। राज ऋषि के आदेश से मेरी दासी माँ को संत की सेवा में लगा दिया गया। दासी पुत्र मुझ नारद की उम्र उस समय केवल पाँच वर्ष की थी। वे कम खेलते और कम ही बोलते थे। महात्मा के आदेश से यथासंभव सेवा करते थे तथा महात्मा का उच्छिष्ट प्रसाद पाकर आनन्द से जीवन बिताते थे। शास्त्र का कथन है कि :-
“उच्छिष्ट भोजिनः श्वानः”
जूठा भोजन करनेवाला भरकर कुत्ता होता है लेकिन यह भी मतलब होता है कि “उत्कृष्टशिष्टम् उच्छिष्टं” यानी पाक (पाकशाला ) का बचा प्रसाद भी उच्छिष्ट कहलाता है। महात्माजी के भोजन के बाद शुद्धपात्र में जो उच्छिष्ट यानी शेष अन्न बचता, वही खाकर मैं भी रहता । शुद्ध पात्र में उच्छिष्ट या शेष अन्न जूठा नहीं होता।
चातुर्मास्यव्रत में संत महाराज भगवान् का कथा सुनाते थे। नारदजी कथा को श्रवण करते थे। नारदजी सोचते कि माँ यदि आज्ञा दे देती तो वे व्रत समाप्ति पर संत महाराज के साथ चले जाते।
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कथा श्रवण करते-करते नारदजी का चित्त शुद्ध हो गया। भगवान् में अविचल भक्ति हो गयी । संत महाराज का चातुर्मास्यव्रत समाप्ति पर आया तो उन संतो ने नारदजी को भागवत धर्म का उपदेश दिया। नारदजी उसी समय समझ गये कि यह संसार माया हैं। यहाँ माँ, धन, धरती, बाग-बगीचा – किसी में भी अनुरक्ति नहीं रखनी चाहिए।
नारदजी को विरक्ति हो गयी। अनेकों शास्त्रों ने कहा है कि हमलोग दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से जलते रहते हैं। संसार के लोग इन्हीं तीन तापों से दुःख पाते हैं इन तीनों दोषों की दवा यह है कि जो कुछ धर्म, कर्म, दिनचर्या हम करें, उसे भगवान् के चरणों में समर्पित कर दें । यही शांति का उपाय है ।
अतः मनुष्य को दिन भर खेती, व्यापार, नौकरी, अध्ययन-अध्यापन, किये हुए सभी सुकृत कार्य दिनचर्या को भगवान् के चरणों में अर्पित कर दें। श्री नारद जी ने कहा कि हे व्यास जी! आप तो बहुश्रुत हैं । अतः भगवान् के चरित्रों का ऐसा गान करें या ऐसी रचना करें जैसा अबतक न किसी ने किया हो और न आगे कर सके ।
इधर फिर श्री नारद जी के शेष आगे के चरित्र को जानने की इच्छा से व्यास जी ने पूछा कि हे श्री नारद जी संतों के जाने के बाद आपने क्या किया एवं आपकी शेष आयु कैसे बीती ? जीवन का त्याग कैसे किया ? पूर्व जन्म की स्मृति कैसे रही ? –
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इस प्रकार नारदजी ने अपने पूर्व जन्म की कथा फिर शुरू की और कहा कि हे व्यास जी ! उन संतों के उपदेश के बाद मैं चाहता था कि माँ का स्नेह उनके प्रति कुछ कम हो और माता से छुट्टी मिल जाय ताकि भजन कर सकें लेकिन मेरी माता ने संतों के साथ नहीं जाने दिया । अतः मैं अपनी माता की सेवा करता रहा। मेरी माँ गाय दुहने का काम भी करती थी ।
संयोगवश एक दिन जब वह गाय दुहने गयी थी तो एक साँप ने उसे डंस लिया, माँ गुजर गयी। माँ की मृत्यु को मैंने भगवान् की कृपा मानी । दुःख तो हुआ, लेकिन माँ की ममता से मुक्ति मिल गयी।
अनुग्रहं मन्यमानः प्रातिष्ठं दिशमुत्तराम् ।
उसके बाद मैं उत्तर दिशा की ओर चल दिया। अनेक नगरों, वनों को पार करते मैं एक निर्जन वन में पहुँचा। मैं भूख प्यास से व्याकुल था । संयोग से उस निर्जन वन में एक नदी थी। वहीं पर उस नदी में मैंने स्नान किया, जल ग्रहण किया और एक पीपल के वृक्ष के नीचे विश्राम करने के बाद ध्यान करने लगा।
सहसा मेरे हृदय में भगवान् प्रकट हो गये। मेरे ध्यान में भगवान् का दिव्य रूप आ गया। मैं (नारदजी) भगवान् का दर्शन से आत्मविभोर हो गया तथा अपने पराये का ज्ञान भूल गया। कुछ देर के बाद भगवान् की मूर्ति लुप्त हो गयी। उस समय मेरी स्थिति पागल – सी हो गयी और मैं व्याकुल हो गया। मैंने फिर ध्यान लगाया, लेकिन दुबारे भगवान् के दर्शन नहीं हुए। प्यासे को जैसे एक घूँट जल पीने के बाद और जल पीने की ज्वाला जगती है, वेसी ही स्थिति मेरी हो गयी ।
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इसी व्याकुलता में आकाशवाणी हुइ कि इस जीवन में अब भगवान् की स्मृति केवल बराबर बनी रहेगी वह छवि का दर्शन अब नही होगा। इसप्रकार नारदजी ने आकाशवाणी के वचनो को स्वीकार किया तथा वे भगवान् के नाम का गान करते हुये पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे। वे हर जगह भ्रमण किये।
अतः हर मानव अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करे तो अत्याचार, दुराचार नहीं होगा। नारदजी सदा काल की प्रतीक्षा करते थे एक दिन काल विद्युत् की चमक के सदृश आया। नारदजी का भौतिक शरीर छूटकर पंचतत्व में विलीन हो गया। यानी नश्वर शरीर से वह आत्मा निकल गयी ।
नारदजी तत्क्षण भगवान् के पार्षद बन गये। फिर प्रलय के बाद विष्णु की नाभि से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई । ब्रह्मा से मैं (नारद ) उत्पन्न हुआ। नारदजी की गति अबाध है। अतः भगवान् की शरणागति करने से चित्त को शान्ति प्राप्त होती है। आगे नारदजी ने उपदेश दिया कि हे व्यास जी! आप भागवत का गायन करें, शान्ति मिलेगी। इतना उपदेश देकर फिर श्री नारदजी वीणा बजाते हुए प्रस्थान कर गये।