shrimad bhagwat puran -9

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bhagwat katha dijiye
bhagwat katha dijiye

 shrimad bhagwat puran

  भागवत पुराण कथा भाग-9

अत्रैव बहवः सन्ति श्रोतारो मम निर्मलाः । आनीतानि विमानानि न तेषां युग यत्कुतः ।।

गोकर्णजी ने भगवान् के पार्षदों से पूछा कि अन्य श्रोताओं को धुंधुकारी जैसा फल क्यों नहीं प्राप्त हुआ, तो पार्षदों ने कहा कि हे महाराज  धुंधुकारी ने उपवास रखकर स्थिर चित्त से सप्ताह कथा को श्रवण किया है। ऐसा अन्य श्रोताओं ने नहीं किया है। इसीलिए फल में भेद हुआ है। भगवान् के पार्षद धुंधुकारी को विमान में बैठाकर गोलोक लेकर चले गये ।

वह गोकर्णजी ने श्रावण मास में पुरे नगरवासियों के कल्याण हेतु पुनः भागवत सप्ताह का प्रारम्भ की। इस बार सभी श्रोताओं ने उपवास व्रत एवं स्थिर चित्त से भागवत सप्ताह कथा का श्रवण किया।

भगवान् विष्णु स्वयं प्रकट हो गये। सैंकड़ों विमान उनके साथ आ गये । भगवान् ने गोकर्ण को हृदय से लगाकर उन्हें अपना स्वरूप दे दिया। चारों तरफ जय-जयकार एवं शंख ध्वनि होने लगी। सभी श्रोता दिव्य स्वरूप पाकर विमानों पर सवार होकर गोलोक चले गये । भगवान् विष्णु गोकर्ण को अपने साथ विमान में लेकर गोलोक चले गये। विमान का मतलब-

“विगतं मानं यस्य इति विमानः”

यानी मान का नष्ट होना विमान है। → यह सारा प्रकरण सुनाकर सनत्कुमार ने नारदजी से कहा कि हे नारदजी ! सप्ताह कथा के श्रवण के फल अनन्त हैं, उनका वर्णन संभव नहीं। जिन्होंने गोकर्ण द्वारा कही गयी सप्ताह कथा का श्रवण किया, उसे पुनः मातृ गर्भ की पीड़ा सहने का योग नहीं मिला ।

वायु – जल पीकर, पत्ते खाकर, कठोर तपस्या से, योग से जो गति नहीं मिलती, वह सब भागवत सप्ताह कथा श्रवण से प्राप्त हो जाती है। इस कथा से यह उपदेश मिलता है कि धुंधुकारी रूपी अहंकार को गोकर्णरूपी विवेक से भागवत कथा रूपी ज्ञान द्वारा शान्त या मुक्त किया जा सकता है।

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वह मुनीश्वर शाण्डिल्य चित्रकुट पर इस पुण्य इतिहास को पढ़ते हुए परमानन्द में मग्न रहते हैं। पार्वण श्राद्ध में इसके पाठ से पितरों को अनन्त तृप्ति होती है। प्रतिदिन इसका श्रद्धापूर्वक पाठ करने से मनुष्य पुनः जन्म नहीं लेता।

यह श्रीमद्भागवत कथा वेद-उपनिषद् का सार या रस ही है जैसे वृक्षों का सार या रस ही फल होता है । अतः ऐसी श्री भागवतकथा को सुनने से गंगास्नान, जीवनपर्यन्त तीर्थ यात्रा आदि करने का जो फल प्राप्त होता है वह फल केवल श्रीमद्भागवत सप्ताह सुनने से ही प्राप्त होता है।

भागवतकार श्रीव्यासजी ने भागवत पारायण को स्वान्तः सुखाय बताते हुए पारायण के कुछ नियम बताये हैं। भागवत की उसी विधि को एक बार श्रीसनत्कुमार ने भी श्री नारद जी को सप्ताह कथा की विधि का नियम बताया था ।

यदि किसी व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से भागवत की कथा को सप्ताह रूप में श्रवण की क्षमता नहीं हो तो आठ सहायकों के साथ सप्ताह कथा श्रवण का समारोह आयोजित करना चाहिए और यदि संभव हो तो भागवत कथा अकेले करायें।

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सबसे पहले तो किसी अच्छे ज्योतिषी से शुभ मुहुर्त्त पूछ लें। पद्मपुराण में भी सप्ताह कथा श्रवण का नियम बताया गया है। पौष एवं चैत्र मास में सप्ताह कथा श्रवण नहीं करना चाहिए। क्षय तिथि में सप्ताह कथा श्रवण का प्रारम्भ नहीं करना चाहिए। द्वादशी को कथा श्रवण वर्जित है। क्योकि सूतजी का देहावसान द्वादशी तिथि को ही हुआ था ।

इसलिए द्वादशी के दिन कथा प्रारम्भ का निषेध है- सूतक लगता है। परन्तु कथा में सप्ताह कथा के बीच में द्वादसी तिथी आने पर कथा श्रवण व नही है। निष्कामी या प्रपन्न श्रीवैष्णव पर यह उपर का नियम लागू नहीं होगा क्योंकि भगवान् की कथा में तिथि- काल – स्थान का दोष नहीं लगता है। भगवान् की कथा से ही समस्त दोष दूर होते हैं।

इस प्रकार पहले नान्दी श्राद्ध करके मंडप बनायें तथा श्रीफल सहित कलश स्थापन करें। श्री भागवत जी को तथा पौराणिक आचार्यों का प्रतिदिन पूजन करें। मंडप में शालिग्राम शिला अवश्य रखें तथा हो सके तो योग्यता के अनुसार स्वर्ण की विष्णुप्रतिमा बनवाकर उसे प्रधान कलश पर रखें या सवा वित्ते लम्बे-चौड़े ताम्रपत्र को विष्णु मानकर पूजा करे।

पाँच, सात या तीन या व्यवस्था के अनुसार अधिक ब्राह्मण कथा के आरम्भ से अन्त तक रखकर गायत्री तथा द्वादशाक्षरादि मंत्र का जाप करायें। एक शुद्ध श्रीवैष्णव ब्राह्मण से मूल भागवत का पाठ करावें ।

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इस सप्ताह यज्ञ में निमंत्रण पत्र भेजकर देशभर में जहाँ कहीं भी अपने कुटुम्ब के लोग हों, उन्हें इस समारोह में बुलावें। ज्ञानी, महात्मा, सन्तजनों को भी विशेष रूप से निमंत्रित कर बुलावें ।

दैवज्ञं तु समाहूय मुहूर्तं प्रच्छपयत्नतः । विवाहे यादृशं वित्तं तादृशं परिकल्पयेत ।।

विवाह के समारोह में जैसी व्यवस्था होती है, उसी तरह व्यवस्था करें। तीर्थ में भागवत कथा को श्रवण करना चाहिए या वन- उपवन में कथा श्रवण समारोह आयोजित करना चाहिए। यह संभव नहीं हो तो घर में भागवत कथा श्रवण की व्यवस्था करें।

च्यास गद्दी पर बैठे वक्ता से श्रोता का आसन नीचे होना चाहिए। किसी भी हालत में ऊँचा नहीं होना चाहिए। अन्यत्र ग्रन्थो में एक कथा आती है कि महाभारत युद्ध के आरम्भ में श्रीकृष्ण भगवान् ने कुरुक्षेत्र में रथ का सारथी बनकर अर्जुन को गीता का उपदेश दिया रथ की ध्वजा पर हनुमानजी विराजमान थे।

गीता के उपदेश की समाप्ती पर अर्जुन ने कहा कि मैं आपका शिष्य हूँ, अतः पूजन करूँगा और अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान् की पूजा की। हनुमानजी प्रकट होकर बोले कि मैंने भी गीता के उपदेश को श्रवण किया है। मैं भी शिष्य हूँ पूजन करूँगा । भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि आपने ध्वजा पर विराजमान होकर मुझसे उँचे स्थान से उपदेश श्रवण का अपराध किया है।

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इसलिए आपको पिशाच योनि मिलेगी। शाप के भय से भयभीत श्री हनुमानजी कृष्ण भगवान् की स्तुति करने लगे। भगवान् ने कहा कि आप गीता का भाष्य करेंगे तो शाप से मुक्त हो जायेंगे। हनुमानजी ने गीता पर पिशाच्य भाष्य लिखा और शाप से मुक्त हुए।

अतः श्रोता को व्यास से उँचे आसन पर कभी नहीं बैठना चाहिए। कथावाचक व्यास को सिर और दाढ़ी के बाल बना लेना चाहिए ।

व्यास गद्दी पर जो हो उसे साक्षात् व्यास रूप मानना चाहिए। सबके लिए वह पूजनीय होता है। व्यास गद्दी पर बैठनेवाला  यदि किसी को प्रणाम नहीं करे तो कोई बात नहीं । वैष्णव मानकर कथावाचक किसी को प्रणाम करता है । तो कोई हर्ज नहीं। अच्छी बात है।

व्यासगद्दी पर बैठा हुआ व्यक्ति, माता-पिता एवं गुरु से भी श्रेष्ठ माना गया है। किसी की मंगल कामना एवं आशीर्वचन भी उसे नहीं करना चाहिए । वास्तव में आचार्य ब्राह्मण को ही बनाना चाहिए। कलियुग में ब्राह्मणत्व जन्म से ही प्राप्त होता है तथा इसके अलावा तप आदि से ब्राह्मणत्व पूर्ण और शुद्ध हो जाता है।

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इस भागवत कथा को आषाढ़ में गोकर्णजी ने धुंधुकारी के निमित्त सुनाया तथा पुनः श्रावण में सभी ग्रामवासियों के लिए सुनाया। भादो में शुकदेवजी ने परीक्षित् को सुनाया, भगवान् ने ब्रह्मा को पढ़ाया, क्वार में मैत्रेय जी उद्धवजी को, कार्तिक में नारदजी ने व्यासजी को, एवं अगहन में व्यास जी ने शुकदेव जी को भागवत कथा पढ़ाया।

कथा की समाप्ति पर कीर्तन करें जैसे ही श्रोता ने यह  सुना की कथा की समाप्ति पर कीर्तन करना चाहिए प्रह्लाद जी ने करताल उठा ली उद्धव जी झांझ बजाने लगे देवर्षि नारद वीणा बजाने लगे अर्जुन राग अलापने लगे इन्द्र मृदंग बजाने लगे सनकादि कुमार जय जयकार करने लगे श्री सुखदेव जी अपने भावों के द्वारा कीर्तन के भाव प्रदर्शित करने लगे और भक्ति ज्ञान वैराग्य तीनों नृत्य करने लगे इतना दिव्य कीर्तन हुआ कि भगवान श्रीहरि प्रकट हो गए उन्होंने कहा सनकादि मुनियों मैं तुम्हारी कथा और कीर्तन से प्रसन्न हूं तुम्हारी जो इच्छा हो वह वरदान मांगो सनकादि मुनियों ने कहा प्रभु जहां कहीं भी भागवत की कथा हो वहां आप अपने भक्तों के साथ अवश्य पधारें भगवान ने तथास्तु कहकर अंतर्ध्यान हो गए ।

।। श्रीमद्भागवत महापुराण माहात्म्य कथा समाप्त ।।

भागवत पुराण कथा के सभी भागों कि लिस्ट देखें- 

shiv puran katha list

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