भागवत कथा 7 दिन की
ऐसे शरणागत कलि के अनुरोध पर राजा परीक्षित ने कलि को रहने के लिए चार स्थान निश्चित कर दिया –
द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः । पुनश्च याचमानाय जातरूपमदात्प्रभुः ।
ततोनृतं मदं कामं रजो वैरं च पञ्चमम् ।।
१. जुआ खेलने का स्थान, २ मदिरा, धूम्रपान, व्यसन करने का स्थान, ३. वेश्यालय तथा ४. कसाईखाना । जहाँ इन चार में से कोई कार्य होता है, वहीं कलि का निवास राजा परीक्षित ने निश्चित किया ।
कलि ने पुनः राजा परीक्षित से अनुरोध किया कि आपने मेरे निवास के लिए चारो ही निकृष्ट स्थान निश्चित किया है। इन स्थानों पर अच्छे लोग नहीं होते। मेरे निवास के लिए कम से कम एक सुन्दर स्थान भी दें।
राजा परीक्षित् ने पुनः कलि को सुवर्ण में निवास करने को कहा क्योकि सुवर्ण को सर्वसाधारण तथा बड़े लोग प्रायः सभी स्वीकार करते हैं। –
अनीति से प्राप्त धन या वैभव या सोना आदि में कलि रहता है । इस प्रकार इस निर्धारण के पश्चात् पुनः धर्म के द्वारा तप, दया, शौच, सत्य का आचरण होने लगा। यानी धर्म के चारों पैर पुनः ठीक हो गये ।
धार्मिक लोग पुनः तप, दया, शौच, सत्य इन चारों आचारण को पालन करने लगे। इधर पृथ्वी को भी राजा परीक्षित् ने निर्भय कर दिया। परन्तु इधर एक दिन कलि ने राजा परीक्षित के स्वर्णमय मुकुट में प्रविष्ट हो गया ।
कथा से यह उपदेश प्राप्त होता है कि प्रायः गलत व्यक्ति को आश्रय देने पर एक दिन वह निश्चित ही अपने आश्रयदाता पर ही कुठाराघात करता है ।
अन्यत्र शास्त्रों में प्रसंग आता है कि :- जरासंध के मरने के बाद उसके पुत्र सहदेव ने अपने पिता का मुकुट लेना चाहा था परन्तु भीम ने जरासंध का मुकुट ले लिया था। उस मुकुट को जरासंध के पुत्र सहदेव को नहीं दिया गया।
भीम ने उस अनृतकर्ता जरासंध के प्राप्त मुकुट को अपनी तिजोरी में लाकर रख दिया। तिजोरी तभी से बंद पड़ी थी। एक दिन राजा परीक्षित् ने उस तिजोरी को खोला।
उसमें उस अपूर्व मुकुट को देखा तो राजा परीक्षित् ने अपना मुकुट रख दिया और तिजोरी में रखे जरासंध के मुकुट को धारण कर लिया। अब कलि ने परीक्षित के सिर पर रखे स्वर्ण मुकुट को भी अपना आश्रय बना लिया। वह अनृतकर्ता जरासंघ के मुकुट को पहनने के कारण एक दिन राजा परीक्षित् को शिकार करने कि इच्छा हुई।
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वह परीक्षित वही मुकुट पहनकर शिकार करने निकले। मार्ग में शिकार नहीं मिला। उन्हें प्यास लग गयी। वहाँ आसपास जलाशय नहीं था। वहीं पास में शमीक ऋषि के आश्रम में पहुँचे। वे ऋषि तपस्या कर रहे थे और समाधि की अवस्था में थे अतः उनको बाहर का कुछ भी ज्ञान नहीं था। उनसे राजा ने जल माँगा परन्तु ऋषि ध्यान में बैठे थे।
अतः राजा को ऋषि ने जल नहीं दिया। धर्म के ऊपर अधर्म का वर्चस्व ही कलि का प्रभाव है। प्यास से व्याकुल राजा परीक्षित् ने दो-चार बार शमीक ऋषि को पुकारा लेकिन शमीक ऋषि की समाधि नहीं टूटी ।
कलि के प्रभाव से राजा क्रोधित हो गये। क्रोध में उन्होंने पास ही पड़े एक मरे हुए साँप को उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया। इधर शमीक ऋषि के पुत्र शृंगी ऋषि बालको के साथ कौशिकी नदी के तट पर खेल रहे थे।
खेलते समय उन्हें मालूम हुआ कि राजा परीक्षित् ने उनके समाधि में लीन पिता के गले में मरा हुआ साँप डाल दिया है। यह जानकर बाल ऋषि के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। उन्होंने नदी के जल का आचमन कर राजा परीक्षित् को शाप दे डाला।
“इत्युक्त्वा रोषताम्राक्षो वयस्यानृषि बालकः ।
कौशिक्याप उपस्पृश्य वाग्वजं विससर्ज ह।।
श्रीमदभा० १.१८.३६
इति लघितमर्यादं तक्षकः सप्तेऽहनि ।
दङ्क्ष्यतिस्म कुलांगारं चोदितो मे ततद्रुहम् ।।
श्रीमद्भा० १.१८.३७
ऋषिपुत्र ने शाप दिया कि मर्यादा का हनन करनेवाले इस दुष्ट राजा को सातवें दिन मुझसे प्रेरित होकर तक्षक सर्प डंसेगा। तक्षक सर्प का मतलब काल रूपी नाग होता है जो जीव को डँसता है।
ऐसा शाप देकर श्रृंगी ऋषि अपने पिता के आश्रम में आये। पिता के गले में मरा हुआ साँप लटकता देख वह जोर-जोर से रोने लगे। पुत्र को रोने की आवाज से शमीक ऋषि की समाधि टूट गयी।
उन्होंने आँखे खोलीं। अपने गर्दन में मरा हुआ साँप लटकते देख उसे फेंका। फिर पुत्र से पूछा- क्यों रो रहे हो ? किसने तुम्हारा अपकार किया है ? ऋषि पुत्र शृंगि ने अपने पिता से सारा वृतान्त कहा। शमीक मुनि अपने पुत्र द्वारा राजा परीक्षित् को शाप दिये जाने की बात जानकर बहुत दुःखी हुए।
अपने पुत्र की नादानी पर उन्हें बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने कहा कि इस छोटे से अपराध के लिए तुने राजा को इतना बड़ा दण्ड दे दिया । राजा साधारण मनुष्य जैसा दण्ड का अधिकारी नहीं होता। वह विष्णु का अंश होता है। भगवत्स्वरूप राजा से रक्षित प्रजा अपने धर्म कर्म में सुरक्षित रूप से लगी रहती है।
यशस्वी राजा के न रहने पर अराजकता फैल जाती है और अपराध कर्म बढ़ जाते हैं तथा अपराधियों का साम्राज्य हो जाता है। लूटपाट भी बढ़ जाती है। इस प्रकार राजा के अभाव में स्त्रियों का अपहरण होने लगता है, वर्णसंकर संतान पैदा होने लगती है। इन सबका पाप नृपहन्ता को लगता है।
अतः हे पुत्र ! शाप देकर तूने बहुत अनुचित कार्य किया । प्यास से व्याकुल राजा मेरे आश्रम में आया था अतः वह शाप के योग्य कदापि नहीं था । इस तरह दुःखी होकर शमीक ऋषि भगवान् से प्रार्थना करने लगे
‘अपापेषु स्वमृत्येष बालेनापक्वबुद्धिना । पापं कृतं तद्भगवान् सर्वात्मा क्षन्तुमर्हति ।
श्रीमद्भा० ०१/१८/४७
हे भगवन्! अपरिपक्व बुद्धि के मेरे पुत्र ने आपके भक्त राजा को शाप दे डाला। बालक होने के कारण उसके अपराध को क्षमा करें। इधर राजा परीक्षित् जब वन से लौटकर राजभवन आये और सिर से मुकुट को उतार कर रखा तो उन्हें शमीक ऋषि के गले में मरे साँप डालने की घटना का स्मरण हुआ। वे पाश्चात्ताप में डूब गये। उन्हें चिन्ता हुई कि दुर्जन की भाँति उन्होंने मुनि के गले में मृतक साँप डालकर बड़ा ही नीच कर्म किया।
अब न जाने मेरी क्या गति होगी ? वे उद्विग्न मन से सोचने लगे । ईश्वर मुझे ऐसा दण्ड दे, जिससे फिर कभी मेरी मति गौ, ब्राह्मण, ऋषि-मुनियों को सताने एवं अपमानित करने की न हो। उस तेजस्वी ब्राह्मण के शाप से मेरी समृद्धि, राज्य तथा सेना का नाश हो जाय । इससे मेरे पाप का कुछ प्रायश्चित हो जायेगा।
परीक्षित् ऐसा सोच ही रहे थे कि शमीक मुनि के शिष्य गौरवमुख आये और उन्हें ऋषि पुत्र श्रृंगी द्वारा दिये गये शाप के बारे में बताया तथा परिमार्जन का अनुरोध किया।
मानस में कहा गया है कि कलि में-
“मानस पुण्य हों हि नहि पापा‘
मनुष्य के मन से की गयी पूजा, अराधना भी देवता प्राप्त कर लेते हैं एवं मनुष्य उस सत्कर्म के फल को प्राप्त करता है।
राजा परीक्षित् ने कलि में मानसिक पुण्य का फल होने का गुण देखकर ही कलि को आश्रय दिया था। इधर शमीक मुनि द्वारा शाप निवारण हेतु की गयी प्रार्थना से वह शाप ही राजा परीक्षित् की मुक्ति का कारण बन गया।
परीक्षित् जीवित रहते तो भोग-लिप्सा में लगे रहते और उन्हें शुकदेवजी से भागवत कथा सुनने का सौभाग्य नहीं मिलता तथा इस देह से मुक्ति को नहीं पाते ।
राजा परीक्षित् ने शाप की बात सुनकर राजमुकुट एवं राज्य सिंहासन छोड़ दिया एवं राजपाट त्यागकर गंगा नदी के तट पर चल आये और वहाँ अन्न जल को त्याग कर श्रीभगवान् के श्रीचरणों में ध्यान करने लगे। इधर इस घटना की सूचना मिलते ही अनेक सन्त ऋषि जैसे अत्रि, वसिष्ठ, व्यास, नारद, गौतम इत्यादि सभी ऋषि मुनि वहाँ पर पधारे ।
राजा परीक्षित् को ७ दिनों में ही मरना था। वे अन्न जल छोड़कर कुशासन पर बैठ गये और भगवान् का स्मरण करने लगे। वहाँ कुछ लोग उपाय बताने लगे। कुछ लोग कहते हैं कि हे परीक्षित तुम सभी तीर्थस्थलों का यात्रा करो ।
कोई कहता है कि हे परीक्षित तुम यज्ञ करो । इसप्रकार राजा परीक्षित के पापों के प्रायश्चित का कोई भी एक सुनिश्चित उपाय ऋषियों द्वारा तय नही हो पाया।
राजा परीक्षित् ने महात्माओं से कहा कि हे ऋषियों ! म्रियमाण मनुष्य को क्या करना चाहिए ? या जो सात दिनो में मर जाने वाला हो जो मरने की तैयारी नहीं किया हो तथा उसे मरना निश्चित हो ऐसे मरणशील मनुष्य को क्या करना चाहिये । इसका सामाधान कृपया आपलोग करें।
मरणशील मनुष्य का धर्म
म्रियमाण मनुष्य का कर्तव्य क्या है ? इस प्रश्न पर मुनियों में भी विवाद हो गया। यानि ज्ञानी को, जप करने वाला जप को, दान देनेवाले दान को ही म्रियमाण मनुष्य का कर्तव्य बताने लगे। मतान्तर से कोई निर्णायक बात तय नहीं हुई उसी समय अपने पिता श्रीव्यास जी से श्रीभागवत कथा को पढ़कर और उस भागवत को गुनगुनाते हुए एवं घूमते हुए श्री शुकदेव जी महाराज वहाँ पधारे।
उस समय उन श्री शुकदेव जी की उम्र सोलह वर्ष की प्रतीत होती थी। वहाँ पर उपस्थित सभी लोगों ने भी शुकदेवजी महाराज को प्रणाम किया एवं सभी ने व्यास गदी के रूप में स्थित आसन पर वृक्ष के नीचे श्री शुकदेवजी को बैठाया।
वास्तव में भागवत कथा तो उसी समय प्रारम्भ होती है जब राजा परीक्षित और शुकदेव का संवाद होता है। उसी समय श्री नारदजी के इशारे पर श्री राजा परीक्षित ने श्री शुकदेव जी से अपने उद्धार की प्रार्थना की।
उन्होंने कहा हे महाराज ! हमारे जैसे अपराधी के उद्धार का क्या उपाय है ? अर्थात ऋषि शाप से शापित होकर केवल सात दिन तक शेष जीवन जो मेरा है उन सात दिनों में ही मेरी मुक्ति -यानि भगवान की प्राप्ति का क्या उपाय है ?
वह शुकदेवजी के कोमल- सुन्दर शरीर, मधुर मुस्कान, तपस्या से नीला वर्ण, मधुर वाणी, सहज चितवन तथा मुखमंडल पर तेज देखकर स्त्रिायाँ एवं बालक उनके पीछे-पीछे चलने लगते। ऐसे उन श्रीशुकदेव जी के आने पर लगा कि साक्षात् भगवान् ही व्यास पुत्र बनकर श्री शुकदेव जी के रूप में आये हैं।
तत्रा भवद भगवान व्यास पुत्रो
इधर राजा परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी को प्रणाम किया और आदर के साथ उन्हें वृक्ष के नीचे बैठाया तथा फिर राजा परीक्षित ने कहा कि हे भगवन् ! आप जैसे परमहंस ज्ञानी ही आज यहाँ पधारे हैं।
ऋषि बालक शृंगी का शाप ही आज वरदान गया अन्यथा आप जैसे सन्तों का दर्शन नहीं हो सकता। श्रीकृष्ण भगवान् की कृपा से ही आज सभी मुनिगण एवं आप इस म्रियमाण पुरुष के पास आ गये हैं।
ऐसी स्थिति में भी दुर्लभ सन्तों के दर्शन हो गये । ग्रियमाण मनुष्य के पास आप जैसे संत जाकर स्वयं दर्शन दें, यह तो दुर्लभ हैं और यह प्रभु की अहेतुकी कृपा है। आज मैं धन्य हो गया, मेरा कुल पवित्र हो गया।
अतः पृच्छामि संसिद्धिं योगिनां परमं गुरुम् । पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा ।।
यच्छृोतव्यमथो जप्यं यत्कर्तव्यं नृभिः प्रभो । स्मर्तव्यं भजनीयं वा ब्रूहि यद्वा विपर्ययम् ।।
राजा परीक्षित ने श्री शुकदेवजी से विनम्रतापूर्वक ग्रियमाण मनुष्य का धर्म पूछा। म्रियमाण मनुष्य के लिए करणीय कार्य क्या है ? उसे क्या श्रवण करना चाहिए, किसे स्मरण करना चाहिए ? इसप्रकार राजा परीक्षित् के इन प्रश्नों को सुनकर श्री शुकेदवजी प्रसन्न हो गये और उन्होंने सोचा कि,
“जन्म-मृत्यु जरा-व्याधि दुःख–दोषानुदर्शनम” ।
बार बार जन्म-मृत्यु, वृद्धावस्था – रोग, दुःख आदि में दोष को देखें तो उस जीव का कल्याण हो जाता है। इस प्रकार परीक्षित् द्वारा अन्त समय में भगवान् की प्राप्ति के उपाय पूछे जाने पर श्री शुकदेवजी आह्लादित हो जाते हैं। शास्त्र में कहा गया है कि प्रभु का भक्त अनेक कष्ट आने पर भी अन्त समय में भी प्रभु को ही याद करता है।
वह ज्ञानी व्यक्ति को सुत, वित्त, नारी की ऐषणा की समाप्ति हो जाती है तथा केवल श्रीनारायण ही याद आते हैं। परन्तु साधारण मानव अन्त में वात, पित, कफ से ग्रसित होने पर प्रभु को भूल जाता है।
गीता के १३वें अध्याय में भी ज्ञान के बारे में कहा गया है कि-
‘इन्द्रियार्थेषु वैराग्यं अनहंकार एव च जन्म-मृत्यु जरा-व्याधि-दुःखदोषानुदर्शनम् ।
श्रीमद्भ०गी० १३/८
जगत् और जगत् के वस्तु एवं जगत के व्यहार से आसक्ति – मोह को त्याग कर वैराग्य आ जाने से पाप कर्मों का लोप हो जाता है और मनुष्य मुक्त हो जाता है परन्तु जगत् और जगत् के वस्तु एवं जगत के व्यहार से आसक्ति – मोह के होने पर मनुष्य का बन्धन हो जाता है। पाप लोहे की हथकड़ी है तो पुण्य सोने की।
पाप कर्म करने से निकृष्ट योनि में जन्म होता है एवं नरक होता है। पुण्य करने से स्वर्ग होता हैं। वह मनुष्य जो पुण्य करता है जिसके कारण उसको स्वर्ग प्राप्त होता है तथा कुछ काल तक स्वर्ग का उपभोग कर फिर उसे इस पृथ्वी के बन्धन में आना पड़ता है। इसलिए पुण्यकर्म को भगवान् को समर्पित कर दें यही योग है।
अर्थात् परमात्मा से संयोग या मिलने का नाम योग है। अतः खेती, व्यापार, नौकरी करते हुए भगवान् के निमित्त कार्य करें एवं आसक्ति या मोह को त्याग कर अपने जीवन को बितावें ।
अस्पताल में लोगों को मरते हम देखते हैं या कष्ट में देखते हैं, हम दुःखी नहीं होते। वहीं पर कोई स्वजन बीमार हो जाय या मर जाय तो हम दुःखी हो जाते हैं। यही मोह है या यही मोह-जनित शोक या दुःख है। अतः प्रत्येक कर्म को एवं कर्म के फल को तथा कर्म की भावना को यदि भगवान् को समर्पण किया जाए तो उस कर्म का प्रभाव मनुष्य पर नहीं पड़ता है। यही संन्यास या योग या त्याग या तपस्या
॥ प्रथम् स्कन्ध की कथा समाप्त ।।
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